कांग्रेस ही नहीं, क्षेत्रीय दलों के लिए भी ‘करो या मरो’ का है 2024 का चुनाव
2024 में फेल हुए तो कांग्रेस जैसा हश्र हो सकता है… यूं ही नहीं क्षेत्रीय दलों के निशाने पर आई भाजपा
नरेंद्र नाथ
राजनैतिक हालात को देखते हुए हाल के दिनों में कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों में राजनीतिक दूरियां घटती दिख रही हैं। पिछले कुछ दिनों से पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी लगातार विपक्षी एकता की बात कर रहे हैं। कम से कम तीन मौकों पर उन्होंने स्पष्ट रूप से विपक्षी एकता की बात की। कांग्रेस के इस स्टैंड में पिछले दो महीने में बड़ा बदलाव दिखा।
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने 2014 में कांग्रेस मुक्त भारत का सियासी नारा दिया था। उसमें आंशिक रूप से सफलता भी मिली। न सिर्फ 2014 और 2019 आम चुनाव में कांग्रेस ने अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन किया बल्कि कई राज्यों से उसकी सरकार भी चली गई। लेकिन इस बीच कई क्षेत्रीय दलों ने अपनी सियासी जमीन बचाए रखी। बीजेपी ने भी रणनीति में उन पर उतना प्रहार नहीं किया जितना कांग्रेस पर किया। लेकिन पिछले कुछ सालों में बीजेपी ने पूरे देश में विस्तार करने और विभिन्न राज्यों में अपने दम पर सरकार बनाने के उद्देश्य से क्षेत्रीय दलों को भी उनके गढ़ में चुनौती देना शुरू कर दिया है। इसमें भी बीजेपी को आंशिक सफलता मिली। लिहाजा अब क्षेत्रीय दल भी आक्रामक रूप से बीजेपी के सामने उतर रहे हैं। जो क्षेत्रीय दल पिछले दो आम चुनावों में बीजेपी के प्रति अपेक्षाकृत नरम रहे, अब वही सबसे अधिक आक्रामक नजर आ रहे हैं। इन दलों को लगता है कि अगर 2024 में बीजेपी को रोकने में वे विफल रहे तो कांग्रेस की तरह ही उन्हें अपने ही गढ़ में जूझना पड़ सकता है।
बड़ी लड़ाई पर फोकस रखने का फैसला
उदयपुर में कांग्रेस के नव संकल्प शिविर में राहुल गांधी ने क्षेत्रीय दलों की सीमाएं गिनाते हुए कहा था कि देश में अकेली कांग्रेस ही है जो बीजेपी और संघ से लड़ सकती है। राहुल का कहना था कि क्षेत्रीय दलों की अपनी जगह तो है, लेकिन उनकी कोई विचारधारा नहीं होती। बीजेपी भी जानती है कि क्षेत्रीय दलों के हित क्षेत्रीय होते हैं, इसलिए वे उसे नहीं हरा सकते। राहुल के इस बयान पर एसपी, आरजेडी, जेएमएम से लेकर नैशनल कॉन्फ्रेंस और सीपीएम तक तमाम क्षेत्रीय दलों की ओर से तीखी टिप्पणियां आई थीं। लेकिन बाद में नीतीश कुमार से लेकर शरद पवार तक कई नेताओं की कांग्रेस नेतृत्व से मुलाकात हुई। सभी दलों ने माना कि पहले उन्हें प्राथमिकता तय करनी होगी। उसके बाद सभी सहमत हुए कि अभी उन्हें आपसी अंतर्विरोध को दरकिनार कर बड़ी लड़ाई पर फोकस रखना होगा।
क्षेत्रीय दल और कांग्रेस के बीच कई मौकों पर न सिर्फ विरोध रहा है बल्कि क्षेत्रीय दल भी कांग्रेस से दूरी बनाए रखने में ही अपना फायदा समझते थे। इसके पीछे उनका अपना कारण भी है। अधिकतर क्षेत्रीय दल चाहे तेलंगाना में हों या आंध्र प्रदेश में, पश्चिम बंगाल में हों या महाराष्ट्र में, कांग्रेस के पतन की कीमत पर ही उभरे हैं। जिन-जिन राज्यों में कांग्रेस कमजोर होती गई वहां-वहां क्षेत्रीय दलों का प्रभाव बढ़ता गया। यह ट्रेंड पिछले तीन दशकों से है। सबसे नया उदाहरण आम आदमी पार्टी है। बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और झारखंड जैसे राज्य में कांग्रेस से जो वोट बैंक निकला, उस पर ही अपनी पकड़ बनाकर क्षेत्रीय दल स्थापित हुए। अधिकतर क्षेत्रीय दलों का वोट आधार कांग्रेस से ही मिलता-जुलता रहा है। स्वाभाविक ही क्षेत्रीय दलों को लगा कि अगर कांग्रेस उभरेगी तो इसका नुकसान उन्हें होगा।
क्षेत्रीय दल और कांग्रेस के बीच एक ही वोट बैंक पर हक जताने की जंग चुनाव दर चुनाव दिखती भी रही है। लेकिन जानकारों के अनुसार पिछले दो-तीन सालों में हालात बदले हैं। अब इन सब के लिए बीजेपी से लड़ना प्राथमिक सियासी चुनौती बन गई है। लगभग एक दशक से देश की राजनीति के केंद्र में आ चुकी बीजेपी इन क्षेत्रीय दलों के लिए बड़ा खतरा बन गई। इसके अलावा बीजेपी की तरह कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों का भी अपना वोट बैंक बन गया। ऐसे में अब बहुकोणीय चुनाव का असर किसके वोट बैंक पर पड़ेगा इसका आकलन गलत भी साबित हो सकता है।
बदले हालात तो रिश्ते भी बदल गए
तेलंगाना में केसीआर कांग्रेस को अपना सबसे निकटतम विरोधी मानते रहे। और इसी बीच पिछले कुछ सालों में बीजेपी वहां सबसे मजबूत दावेदार बनकर उभर आई। आज की तारीख में केसीआर अपने ही राज्य में कांग्रेस से अधिक बीजेपी को अपना खतरा मानते हैं। इसी तरह ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में कई सालों तक लेफ्ट-कांग्रेस को अपना मुख्स विरोधी माना। कांग्रेस की ओर से यहां तक आरोप लगा कि ममता ने इन दलों को कमजोर करने के लिए बीजेपी को स्पेस दिया। लेकिन आज की तारीख में पश्चिम बंगाल में न सिर्फ बीजेपी मुख्य विपक्ष बन गई है बल्कि राज्य में करीब 38 फीसदी तक वोट पा चुकी है। इसी तरह अब बीजेपी पंजाब, तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में भी पूरी तरह ताकत लगा चुकी है जहां क्षेत्रीय दलों का प्रभाव रहा है।
पार्टी पहले ही उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य से लेकर उत्तर-पूर्व के छोटे-छोटे राज्यों में अपने दम पर बड़ी ताकत बन चुकी है जहां सालों तक क्षेत्रीय दलों का प्रभुत्व रहा था। उत्तर प्रदेश में एसपी या बीएसपी जैसी बड़ी क्षेत्रीय पार्टियां संघर्ष कर रही हैं जिनके पास सत्ता की चाबी होती थी। बिहार में भी जेडीयू से अलग होने के बाद बीजेपी पहली बार जेडीयू-आरजेडी को अकेले चुनौती दे रही है। महाराष्ट्र में भाजपा शिवसेना को दो भागों में बांटने में सफल हो चुकी है। क्षेत्रीय दलों के बीच भाजपा की अचानक बढ़ी सेंध ने अब इन क्षत्रपों की चिंता बढ़ा दी। इसका असर यह हुआ है कि इन दलों की ओर से क्षेत्रीय अस्मिता या 2024 में विपक्षी एकता की बात होने लगी है। वैसे इनकी राह भी आसान नहीं है। लेकिन इनके पास न अधिक राजनैतिक विकल्प है न अधिक वक्त।
Political GossipHow Rapid Expansion Of Bjp Is Making Regional Parties More Aggressive