मत: भ्रष्ट शिक्षक भर्ती निरस्त करना जरूरी था, पीड़ित दिखना है ममता की राजनीतिक कला
West Bengal Teacher Recruitment Scam Supreme Courts Strict Action Thousands Of Jobs Cancelled
पश्चिम बंगाल पर जरूरी थी यह सख्ती
पश्चिम बंगाल में हाल ही में हुए शिक्षक भर्ती घोटाले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने कानून के शासन को मजबूत किया है, जहां अदालत ने व्यापक भ्रष्टाचार के कारण 25,000 नियुक्तियां रद्द कर दीं।
यह जाना-पहचाना नजारा था। मंच पर दो राष्ट्रीय ध्वज लहरा रहे थे और उनके बीच ममता बनर्जी खड़ी थीं। वह वही कर रही थीं, जिसे पिछले पांच दशकों में बंगाल के राजनेताओं ने एक आर्ट का रूप दे दिया है। वह आर्ट है- खुद को पीड़ित दिखाना
कानून का शासन: सुप्रीम कोर्ट ने पिछले हफ्ते पश्चिम बंगाल में करीब 25 हजार शिक्षकों और कर्मचारियों की भर्ती रद्द कर दी। कोर्ट ने पाया था कि भर्ती प्रक्रिया में जानबूझकर गड़बड़ी की गई थी। इस पर ममता की प्रतिक्रिया थी, ‘क्या पश्चिम बंगाल में जन्म लेना कोई अपराध है? मध्य प्रदेश के व्यापम घोटाले में कितने लोगों की नौकरी गई थी? जब कम्युनिस्ट सरकार थी, तब रिश्तेदारों की नियुक्तियां क्यों नहीं रद्द हुईं?’ इन सब बातों के जरिये ममता असल में अपनी सरकार को बचाने की कोशिश कर रही थीं, लेकिन एक ज्यादा बड़ी समस्या सामने आ गई और वह थी, बंगाल में लंबे समय से कानून के शासन का ध्वस्त होते जाना।
असामान्य केस: ममता बनर्जी की प्रेस कॉन्फ्रेंस और सुप्रीम कोर्ट में राज्य सरकार ने जो दलील दी, दोनों में एक ही बात दोहराई गई कि जिन उम्मीदवारों की नियुक्तियों में गड़बड़ी हुई है, उन्हें बाकियों से अलग किया जाए। उन्हें नौकरी करते रहने दिया जाए, जिनकी भर्ती सही तरह से हुई है। कानून के हिसाब से बात उचित थी। सरकार ने उन उम्मीदवारों की विस्तृत जानकारी भी दी, जिनके नंबर बदले गए थे। सामान्य मामलों में जज प्रयास कर सकते थे कि कुछ की गलती की सजा सभी को न मिले। लेकिन, यह कोई सामान्य मामला नहीं था।
गड़बड़ियों की लिस्ट: उम्मीदवारों की उत्तर पुस्तिकाएं इस केस में गड़बड़ी का सबसे अहम सबूत थीं। जब मामला कोर्ट में चल रहा था, उसी दौरान आंसरशीट नष्ट कर दी गईं। क्लास 9 और 10 में ऐसे 185 उम्मीदवारों को असिस्टेंट टीचर बना दिया गया, जिनके नंबर कम आए थे। इनसे ज्यादा नंबर लाने वाले पीछे छूट गए। 1,498 ऐसे लोग नियुक्त हो गए, जो लिस्ट में ही नहीं थे। गड़बड़ियों की यह फेहरिस्त बहुत लंबी है।
सिस्टम का सवाल: फिर भी, सुप्रीम कोर्ट को कोशिश करनी चाहिए थी कि जिन शिक्षकों की नियुक्ति पूरी तरह मेरिट के आधार पर हुई थी, उन्हें दोबारा पूरी प्रक्रिया से न गुजरना पड़े। लेकिन, इस बार अदालत ने व्यवस्था की साख को व्यक्तिगत परेशानी से ऊपर रखा। कोर्ट ने माना कि भ्रष्टाचार इतना गहरा है, जिसमें निर्दोषों को अलग छांटने की कोशिश करना भी संभव नहीं।
सही फैसला: राज्य सरकार का रवैया सरपरस्त जैसा था, जो अपने चुनिंदा वफादारों को गैरकानूनी तरीके से इनाम बांट रही थी। अब उसे इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। कानूनी रूप से इस फैसले पर बहस हो सकती है, लेकिन नैतिक रूप से यह बिल्कुल सही है। ऐसा इसलिए क्योंकि असली टकराव यह नहीं था कि निर्दोष शिक्षकों को बचाया जाए या गड़बड़ी करने वालों को सजा दी जाए, असली सवाल यह था कि कानून के शासन और सरपरस्ती के राज में से कौन जीतेगा। लोकतंत्र के लिए यह संघर्ष उतना ही जरूरी था, जितना उम्मीदवारों के लिए नौकरी।
अन्यायपूर्ण कानून : इस फैसले से एक हफ्ते पहले ही बंगाल विधानसभा में एक अजीब कानून पास हुआ। इसके तहत पिछले कुछ दशकों में उद्योगों को जो सरकारी प्रोत्साहन मिले थे, उन्हें सरकार ने वापस ले लिया। अब उद्योगों को इंसेंटिव्स के तहत जो भी सरकारी फायदा मिला है, उसे लौटाना होगा। उदाहरण के लिए, अगर किसी कंपनी को पोर्ट बनाने के लिए सरकार से सब्सिडी मिली, क्योंकि इससे रोजगार पैदा होगा, तो अब वह सब्सिडी लौटानी होगी, जबकि व्यापार पहले की तरह ही चलेगा। अपनी बात से पलटना, पीछे दिए गए फायदे वापस लेना बहुत ही अन्यायपूर्ण है।
कानून के राज पर हमला: अगर कोई इंडस्ट्री किसी अदालत या arbitral tribunal में बंगाल सरकार के खिलाफ केस जीत जाती है, तो भी वह फैसला नए कानून के सामने नहीं मान्य होगा। यह प्रावधान मध्यकालीन दौर की याद दिलाता है, जब राजा फरमान जारी करके कुछ भी पलट सकते थे। लेकिन, यह लोकतंत्र है और इसमें किसी कानून के जरिये अदालतों के फैसले नहीं पलट सकते। साथ ही, अगर पहले कोई लाभ दिया जा चुका है, तो उसे कुछ खास परिस्थितियों में ही वापस लिया जा सकता है।
क्रूर मजाक: सरकार यह कहकर कानून का बचाव कर रही कि उद्योगों को दी जाने वाली इंसेंटिव्स की बचत जनहित के दूसरे क्षेत्रों जैसे शिक्षा में इस्तेमाल की जा सकती है। सामान्य दिनों में इस विडंबना पर हंसी आती, लेकिन आज जब हजारों युवा शिक्षक बेरोजगार हो गए हैं और सरकार खुद को चुनिंदा लोगों का सरपरस्त मान रही है, तब यह काफी क्रूर लगता है। अगर बंगाल सीएम का खुद को पीड़ित दिखाना आम है, तो यह भी बेहद आम है, जहां बंगाल सरकार पार्टी को जनता के ऊपर रखती है। इसका लंबा इतिहास है और दुखद रूप से भविष्य भी ऐसा ही दिख रहा।
(लेखक अर्घ्य सेनगुप्ता विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी में रिसर्च डायरेक्टर हैं, ये उनके निजी विचार हैं)