मत:गुड़ की शुद्धता में भी हो रही है हेराफेरी

अधिकतर लोग असल गुड का “ग” भी नहीं जानते।

गुड को लेकर बहुत भ्रांतियाँ है व गुड की कोई FSSAI स्टैण्डर्ड या न्यूट्रीशन वैल्यू चार्ट की एब्सेंस में कोई भी ऐरा-ग़ैरा कुछ भी बनाकर बेचने लगता है। मुझे याद है हमारे यहाँ खण्डसारी वाले खाँड़ बनाने पर जो बेकार शीरा निकलता है (उसे पशुओं तक को लिमिटेड मात्रा में खिलाते थे) व्यापारिक कोल्हू वाले उस शीरे से “बड्ढा गुड” बनाकर हरियाणा-राजस्थान सप्लाई करते थे। वैसा बड्ढा गुड मानव स्वास्थ्य के लिए नुक़सानदायक होता था। यहाँ फ़ेसबुक पर एक आर्गेनिक गुड बेचने वाले की सिफ़ारिश करते कई पढ़े लिखे लोग देखे। उस भाई का फ़ार्म एक ऐसी नदी की तराई में है जहां ज़मीन में कैंसरकारक भारी धातु पायी जाती है। वहाँ के निवासियों तक को सरकार वहाँ का पानी पीने से मना करती है। मगर प्राकृतिक/आर्गेनिक के नाम पर लोग FB पर कैपिटल C बनते/बनाते है। इसका बड़ा कारण है कि ‘गुड में क्या होगा’ या ‘क्या नहीं होगा’ का प्रामाणिक फार्मूला सरकारी संस्थान द्वारा प्रदत्त नहीं है इसलिये सब लोग खुला खेल फर्रुखाबादी खेलने को फ्री है। आजकल चीनी गुड से सस्ती है तो शामली वाले विकाश श्योराण बताते है एक-दो कोल्हू पूरे बारहों महीने शीरे व चीनी मिलाकर उसका उल्टा सीधा गुड ग़ैर-तजुर्बेकार शहरियों को बेचकर चाँदी कूटते है।

ऐसे ही कुछ लोग बिना मैल उतारा “काला गुड” नेचुरल/अच्छा समझते है जो भ्रम से ज़्यादा कुछ नहीं। कुछ लोग रंग डाला हुआ “लाल पेड़ी” का गुड अच्छा समझते है, ये लोग भी भ्रांति-लाल के बाप है। वैसे ही काफ़ी लोग कम पकाया पीला/दांत को चिपकने वाला चिहडा/नरम गुड खाते है जबकि असल गुड दांत को चिपकना ही नहीं चाहिये। ना ही गुड बेहिसाब पका होना चाहिए कि उसके न्यूट्रीशनल गुण ही ख़त्म हो जाये व उसे तोड़ने के लिये ईंट मारनी पड़े।

गुड साफ़ करने के लिये ‘जंगली भिण्डी की सुकलाई’ या कच्चे दूध जैसे नेचुरल तत्व प्रयोग होते थे। मगर वो मेहनत वाला व महँगा काम है तो आजकल गुड की शक्ल सुधारने, शेल्फ लाइफ बढ़ाने व उसमें जीवाणु के विकास को बाधित करने के लिए हाईड्रॉसो (E222) नामक फ़ूड एडिटिव मिलाया जाता है। इसे अत्यंत कम मात्रा में तब यूज़ किया जाना चाहिए जब बारिशों में गुड को संरक्षित करना हो मगर अनपढ़ गुड बनाने वाले इसे सारे सीजन में ओवर डोज़ में यूज़ करके गुड खाने वालों के भविष्य से खिलवाड़ करते है।

ऐसे ही उत्तर भारत में जलेबी बनाते हुए सफ़ोलाइट नामक केमिकल बहुत मिलाया जाता है। उसका भी गुड उद्योग में प्रयोग होता है। गुड का दाना बढ़ाने, गुड को रंगहीन/सुंदर बनाने में होता है। ये कपडा उद्योग का ब्लीचिंग एजेंट है जो खाने के लिए नहीं है। ऐसे ही वाशिंग-पाउडर, चुना, खाने वाला सोडा, फिटकरी, अलग से डाला गया रंग ऐसे केमिकल है जो गुर्दे ख़राब करने से लेकर स्वास की बीमारी, एलर्जी, दमा, पेट में अल्सर इत्यादि करते है। सेफ़ोलाइट तो डिकंपोज़ होकर फ़ॉर्माल्डीहाईड बनाता है जो कैंसर कारक है।

बाक़ी सभी खाद्य पदार्थों की तरह गुड में भी कच्चे माल (गन्ने) की क्वालिटी का बराबर महत्व है। उत्तर भारत में सबसे बेहतर गन्ना मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले में बनता रहा है। इस ज़िले के पूर्वी बॉर्डर पर गंगा, पश्चिमी बॉर्डर कर यमुना व इन दोनों नदियों के बीच तीन अन्य नदियाँ (पंजाब जैसी कुल 5 नदियाँ) व दो विशाल नहरें उत्तर दिशा से दक्षिण को बहती है। ये सारा ज़िला इन ‘7 जलधाराओं’ से आच्छादित अनोखा उपजाऊपन लिये है। शायद ही पूरे देश में ऐसा उपजाऊ क्षेत्र कोई हो जहां एक एक इंच भूमि पर हरियाली है, तमाम तरह के फल-पौधे-फसलें इस दोआब इलाक़े में होती है। मीठे पानी व दोमट+सेमी बलुआ मिट्टियों के कारण यहाँ गन्ने का देश में सर्वाधिक उत्पादन होता है। यहाँ पारंपरिक तौर पर बनने वाला गुड बिल्कुल हल्के लाल रंग का, दानेदार, हल्के शीरे की सुगंध लिये, 75-85% सूक्रोज़, 15-20% ग्लूकोज़ व आयरन, मेग्नीशियम, फ़ॉस्फ़ोरस, पोटाश, ऑक्सलेट, सेलेनियम, मेगनीज, विटामिन्स (B-6, B-12, E), फ़ॉलेट इत्यादि से बना होता है। इसलिए ये चीनी (तक़रीबन 99.9% कार्बोज) से गुणकारी है।
साभार: भाई कर्म ढुल

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