मत: मोदी और शाह के किस डर ने जोड़े एडीए में 38’दोस्त’?
मत : दिल्ली में ’38 दोस्तों’ के साथ बैठक, जानिए क्या है वह डर जो मोदी और शाह दोनों को डरा रहा
NDA vs INDIA Alliance in 2024 : भाजपा छोटी-छोटी पार्टियों को एनडीए में इसलिए शामिल कर रही है क्योंकि उन्हें संभालना आसान है
लोकसभा चुनाव से पहले सत्ता पक्ष और विपक्ष कुनबा मजबूत करने में जुटे
गठबंधन की होड़ बता रही कि दोनों ही पक्ष जीत को लेकर नहीं हैं आश्वस्त
भाजपा को अकेले अपने दम पर बहुमत का भरोसा नहीं, इसलिए छोटी पार्टियों को ले रही साथ
आर. जगन्नाथन
लोकसभा चुनाव (Loksabha Election 2024) से पहले अपना-अपना कुनबा बढ़ाने की कोशिशों, भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए और एकजुट विपक्ष की बैठकों से एक बात तो साफ है- कोई भी पक्ष जीत को लेकर आश्वस्त नहीं है, इसलिए गठबंधन साझीदारों का संख्या बढ़ाने में जुटे हैं। मंगलवार को जिस दिन बेंगलुरु में विपक्ष की दो दिवसीय महाबैठक (Opposition Unity Meeting) खत्म हुई, उसी दिन दिल्ली में एनडीए (NDA Meeting Delhi) के 39 दलों का जुटान हुआ।
दोनों गठबंधनों में जो सबसे महत्वपूर्ण अंतर है वो ये है कि विपक्ष का उद्देश्य सिर्फ एक लक्ष्य ‘मोदी और बीजेपी को केंद्र की सत्ता से हटाने तक सीमित है। अब तो विपक्ष ने अपने नए गठबंधन को INDIA यानी इंडियन नैशनल डिवेलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस नाम देकर राष्ट्रवाद का तड़का भी लगा दिया है। करीब एक दशक से केंद्र की सत्ता से बाहर रहे ज्यादातर दल अल्पकालिक राजनीतिक लाभ को साथ आ रहे हैं। यही विपक्ष की मजबूती भी है और कमजोरी भी।
ताकत इसलिए कि इसी की दम एक दूसरे की धुरविरोधी पार्टियां भी सीमित उद्देश्य को साथ आ रही हैं और कमजोरी इसलिए कि इनमें से किसी के पास भी मोदी जैसा लोकप्रिय चेहरा नहीं है। विपक्ष यही आशा कर रहा है कि 2004 की तरह वोटर विचारधारा या चेहरे के बजाय बदलाव को वोट दें।
भाजपा के लिए गठबंधन का कुनबा बढ़ाना सिर्फ सत्ता बचाने तक सीमित नहीं है। मोदी निश्चित तौर पर पार्टी और गठबंधन दोनों का चेहरा हैं, उनके नेतृत्व में पार्टी और गठबंधन दोनों साथ मिलकर काम कर सकते हैं क्योंकि दोनों को पता है कि मोदी ही उनकी ताकत हैं। उनके बिना उनका भविष्य अनिश्चित होगा। भाजपा के लिए 2024 में सत्ता बनाए रखना काफी महत्वपूर्ण है। ये सिर्फ इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि पिछले एक दशक में आर्थिक और राजनीतिक बढ़त मिली है, उसे और मजबूती मिलेगी, बल्कि उससे भी ज्यादा इसलिए महत्वपूर्ण है कि 2004 की तरह अप्रत्याशित ढंग से सत्ता से बाहर होने पर भाजपा का हिंदुत्व अजेंडा भी बेपटरी हो जाएगा।
भाजपा का कोर बेस इस अजेंडे पर तेजी से आगे बढ़ने के लिए अधीर है लेकिन सत्ता को बनाये रखने की चुनौती से पार्टी ऐसी आवाजें अभी नियंत्रित कर रही है। संक्षेप में कहें तो सत्ता बनाये रखना न सिर्फ भाजपा की राजनीतिक जरूरत है बल्कि भविष्य में खुद को टूट से बचाने का हथियार भी है। भाजपा को ये भी चिंता सता रही होगी कि ऐसे समय जब आर्थिक मोर्चे पर देश तेजी से मजबूत हो रहा है, 2024 में हार से उसे विपक्ष मजबूत अर्थव्यवस्था के श्रेय से वंचित कर देगा। कड़ी मेहनत से उसकी उगाई फसल कोई और काट लेगा। ठीक वैसे ही जैसे 2004 से 14 के बीच आर्थिक मोर्चे पर मजबूती के लिए भाजपा को कोई श्रेय नहीं मिला।
हालांकि, दोनों ही गठबंधन अल्पकालिक हैं। कोई ये भविष्यवाणी नहीं कर सकता कि मई 2024 बाद भी इन गठबंधनों का स्वरूप ऐसा ही होगा। एक तरफ एनडीए में 30 से ज्यादा छोटी-बड़ी पार्टियां हैं तो दूसरी तरफ यूपीए 2.0 यानी ‘INDIA’ (इंडियन नैशनल डिवेलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस) में भी बीस से ज्यादा छोटे बड़े दल हैं। मई 2024 के बाद खासकर तब जब नतीजे घोषित हो चुके होंगे, उस वक्त भी ये दल इन गठबंधनों के साथ बने रहेंगे, ऐसा नहीं कहा जा सकता।
इस दृष्टि से भाजपा को थोड़ी बढ़त हासिल है। अगर हम मानकर चलें कि मोदी के करिश्मे के बावजूद भाजपा 230-250 सीटों पर सिमट जाती है तो इन छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों के पास भाजपा से फायदे का सौदा करने का मौका होगा। इसी से छोटी पार्टियों के लिए भाजपा का पार्टनर बनना ज्यादा अनुकूल है क्योंकि इससे उन्हें सत्ता के साथ के बल पर अपने-अपने राज्यों में राजनीतिक लाभ मिलने की एक तरह की गारंटी होगी।
भाजपा को गए गुजरे हालात में भी सवा दो सौ से ढाई सौ सीटें मिल सकती हैं। भाजपा की न्यूनतम सीटों का लॉजिक बहुत सिंपल है। 2019 में पार्टी ने हिंदी बेल्ट की 218 सीटों में से 196 सीटों पर कब्जा किया था। बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में उसे कुछ सीटों का नुकसान हो सकता है क्योंकि इन राज्यों में पिछली बार वह सीटों की दृष्टि से चरमोत्कर्ष पर थी। लेकिन इसके बावजूद वह इनमें से 150 सीटें बनाये रख सकती है।
बड़े गैर-हिंदीभाषी राज्यों (महाराष्ट्र, गुजरात, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, पंजाब) की करीब 150 लोकसभा सीटों में से भाजपा ने पिछली बार 80 सीटें प्राप्त की थी। महाराष्ट्र और बंगाल में अगर भाजपा को नुकसान भी हो तब भी पार्टी इस बार इन राज्यों में अपने सहयोगियों के साथ 60 सीटों से कम पर तो जाती नहीं ही दिखती।
बात दक्षिण की करें तो वहां की 130 सीटों में से भाजपा सिर्फ 31 ही जीत सकी थी। कर्नाटक में उसका शानदार प्रदर्शन रहा। इस बार भी यही संभावना है कि साउथ में भाजपा अपनी सीट संख्या यथावत रखने में कामयाब होगी। अगर कर्नाटक में कुछ नुकसान होता है तो बाकी 4 बड़े राज्यों में उसकी भरपाई कर सकती है। बची हुईं 43 सीटों (दिल्ली, जम्मू-कश्मीर, पूर्वोत्तर के राज्य और बाकी बचे केंद्रशासित प्रदेश) में से भाजपा 29 पर जीती थी। इस बार ऐसा कोई कारण नहीं दिखता कि भाजपा इन्हें बनाए रखे ।
इस तरह देखें तो भाजपा 272 के जादुई आंकड़े के पास जा सकती है, या तो अकेले अपने दम पर या फिर छोटे-छोटे सहयोगियों के साथ। इसी से वह छोटी-छोटी पार्टियों को साधकर एनडीए का कुनबा बढ़ा रही है क्योंकि टीएमसी या डीएमके जैसी बड़ी क्षेत्रीय पहचान वाली पार्टियों के मुकाबले इन छोटी पार्टियों को संभालना ज्यादा आसान है। इसके अलावा जरूरत पड़ने पर भाजपा बीजू जनता दल और वाईएसआर से रणनीतिक समर्थन की उम्मीद कर ही सकती है। अगर भाजपा अकेले 272 का आंकड़ा छू लेती है तो उसे एनडीए सहयोगियों को संभालने में कोई मेहनत ही नहीं करनी पड़ेगी और अगर वह सहयोगियों के साथ जादूई आंकड़े तक पहुंचती है तब भी उसे उन्हें संभालने में कोई खास दिक्कत नहीं आने वाली क्योंकि ये सभी छोटी-छोटी पार्टियां हैं।
दूसरी तरफ अगर कांग्रेस 100+ सीट भी हासिल कर ले तो भी वह गठबंधन के सहयोगियों पर पूरा नियंत्रण रख पाएगी, इसमें संदेह है।
भाजपा को एक और लाभ हासिल है। उसके बड़े क्षेत्रीय सहयोगी (उदाहरण को अजीत पवार की एनसीपी या तुलगुदेशम या एआईएडीएमके) भी उसे ज्यादा लोकसभा सीट देने को आसानी से तैयार हो जाएंगे क्योंकि वे विधानसभा में ज्यादा ताकत चाहते हैं। अजीत पवार ने साफ कर दिया है कि वह हमेशा को नंबर-2 नहीं बने रह सकते। महाराष्ट्र में सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद भाजपा ने राज्य स्तर पर एकनाथ शिंदे की शिवसेना और अजीत पावर की एनसीपी दोनों को महत्वपूर्ण जगह दी है। 2024 में ज्यादा से ज्यादा लोकसभा सीट हासिल करने को वह इन दोनों को राज्य की सत्ता में बड़ी हिस्सेदारी देती रहेगी।
इसके उलट, छोटे राष्ट्रीय दल या बड़ी राष्ट्रीय पार्टियां- चाहें वो टीएमसी हो AAP हो या समाजवादी पार्टी, ये कांग्रेस को वही जगह नहीं दे सकते क्योंकि उनका भविष्य इस पर निर्भर है।
2024 में भाजपा अपनी ताकत और मजबूत करने को छोटी पार्टियों का इस्तेमाल कर सकती हैं, लेकिन बड़ी क्षेत्रीय पार्टियां भविष्य के गठबंधन में कांग्रेस को बिग डैडी के तौर पर स्वीकार करना नहीं चाहतीं। लोकसभा चुनाव में अब 9 महीने बचे हैं लेकिन 2004 जैसे चौंकाने वाले नतीजे की गुंजाइश कम है। हालांकि, भाजपा अकेले अपने दम पर 272 का आंकड़ा पार कर पाएगी, ये अनिश्चित है।
(लेखक स्वराज्य मैगजीन के एडिटोरियल डायरेक्टर हैं)
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