मत: उत्तर भारत भाजपा और दक्षिण में कांग्रेस क्यों प्रभावी?
Why Is North India Crazy About Bjp, Why Are The Southern States Choosing Congress? Know This Secret
मत: भाजपा पर क्यों लट्टू है उत्तर भारत, कांग्रेस को क्यों चुनने लगे दक्षिण के राज्य? ये राज जान लीजिए
देश के उत्तरी और दक्षिणी हिस्से में मतदाताओं के पसंद अलग-अलग हैं, यह तो स्पष्ट हो गया। सवाल है कि ऐसा क्यों है कि उत्तर भारत में भाजपा की लहर रहती है तो कांग्रेस का सफाया हो जाता है। इसके उलट दक्षिण भारत में कांग्रेस पार्टी को कुछ महीनों के अंतराल में ही दो प्रदेशों की सत्ता मिल गई
मुख्य बिंदु
उत्तर और दक्षिण भारत के राजनीतिक व्यवहार में स्पष्ट अंतर है
चार राज्यों के चुनाव परिणामों से यह अंतर और भी पुष्ट हो गया
उत्तर भारत के तीन राज्यों में भाजपा जीती, जबकि तेलंगाना में कांग्रेस
लेखक: नरेंद्र पाणि
रविवार को घोषित चार राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणाम भारत के उत्तर और दक्षिण के बीच राजनीतिक व्यवहार में खाई का एक और ठोस सबूत हैं। चूंकि लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं,इसलिए भाजपा को इस पैटर्न से होने वाले भारी लाभ पर बहुत ध्यान दिया जाएगा। लेकिन भारतीय राजनीति के अर्थशास्त्र में गहराई से जाने पर पता चलता है कि ये पैटर्न असमानता के पॉलिटिकल डायनैमिक्स के ही द्योतक हैं।
मौसमी प्रवासियों का विषय
1991 के बाद से उदारीकरण प्रक्रिया की असमानताओं को राजनीतिक चर्चा से हटा दिया गया है,हालांकि उनका प्रभाव चुनाव दर चुनाव में देखा जा सकता है। भारत के उदारीकरण के साथ उद्योग ऐसे इलाकों में चले गए जो पहले से ही अच्छा कर रहे थे,जो काफी हद तक दक्षिण और पश्चिम में केंद्रित थे। दक्षिण और पश्चिम के महंगे शहरों को गरीब उत्तरी और पूर्वी इलाके से श्रमिकों की आवश्यकता थी,लेकिन उन्हें स्थायी रूप से प्रवास को पर्याप्त पैसे नहीं दिए गए। इसका परिणाम हुआ कि प्रवासी मजदूरों के परिवार बंट गए। प्रवासियों का एक बड़ा वर्ग अपने परिवार अपने गांवों में ही छोड़ देते हैं। ये श्रमिक दक्षिण और पश्चिम की संस्कृतियों में कार्य करते हैं और अपनी कमाई का उपयोग उत्तर और पूर्व भारत स्थित अपने गांवों में अपने परिवार की स्थिति सुधारने को करते हैं।
Migration and Election
उत्तर भारतीय संस्कृति का बोलबाला
ये लाखों श्रमिक और उनके परिजन,सभी एक ऐसी पार्टी चाहते हैं जो उनके गृह जिलों की संस्कृति को देश के उन हिस्सों में ले जाए जहां वे काम करते हैं। इस दृष्टि से, पूरे देश में उत्तर भारतीय संस्कृति के प्रसार की दिशा में भाजपा का आक्रामक प्रयास उन्हें अपील करता है। अगर हम देश के मानचित्र पर प्रवासी मजदूरों के गृह जिलों और 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को बढ़त देने वाले निर्वाचन क्षेत्रों पर ध्यान दें तो अल्पकालिक प्रवासी श्रमिकों की स्थिति और भाजपा के बीच संबंध स्पष्ट हो जाता है। वहां बहुत ओवरलैप था। 2021 की जनगणना के अभाव के बावजूद यह मानने का कोई कारण नहीं है कि पैटर्न बदल गया है।
कांग्रेस की कमजोरी
प्रवासी मजदूरों और उनके आसपास के समाज की संस्कृति को आकर्षित करने में कांग्रेस काफी पीछे रह गई है। इसके नेता,विशेष रूप से मध्य प्रदेश और राजस्थान में,उदारीकरण से पहले के युग में ही ख्याति पाए थे। वे चाहकर भी खुद को दक्षिण में उत्तर भारतीय श्रमिकों के हितों को आगे बढ़ाने वाली पार्टी की छवि नहीं बना सके। कांग्रेस पार्टी इस कमी की भरपाई को आदिवासी समाजों को आकर्षित करने में भी विफल रही। आदिवासी चिंताओं के प्रति राज्य के नेतृत्व में आज भी बहुत कम गंभीरता दिखती है। रोजमर्रा के काम में कल्याण योजनाओं से यह असंतोष दूर करने की कांग्रेस की कोशिशें काफी नहीं थीं।
जहां भाजपा का होता है विरोध
उत्तर भारत में भाजपा को जिस सांस्कृतिक आग्रह से लाभ होता है,वहीं दक्षिण में उसे नुकसान पहुंचाता है। पार्टी अभी भी दक्षिणी राज्यों में पैठ बनाने को संघर्ष कर रही है। अकेला अपवाद कर्नाटक है,जहां स्थानीय नेतृत्व स्थानीय संस्कृति से अधिक जुड़ा हुआ है। उत्तर भारतीय संस्कृति थोपने के इस विरोध को स्थानीय पार्टियां बेहतर तरीके से भुनाती हैं। क्षेत्रीय पार्टियों से हारने के बाद कांग्रेस ने राज्यों में स्थानीय नेताओं को प्रमुख स्थान देने की रणनीति तैयार की है।कांग्रेस की तेलंगाना इकाई का अध्यक्ष रेवंत रेड्डी को बनाया गया। जब उन्होंने पार्टी की राष्ट्रीय छवि पेश की,तो उन्होंने कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया सहित पड़ोसी राज्यों के स्थानीय नेताओं के लिए जगह बनाई।
विकास के असमान वितरण का कुपरिणाम
इसे सिर्फ स्थानीय बनाम राष्ट्रीय नेताओं का मामला मानना गलत होगा क्योंकि यहां एक और असमानता काम कर रही थी। तेलंगाना की अर्थव्यवस्था एक ही शहर हैदराबाद के आसपास केंद्रित है,ठीक वैसे ही जैसे कर्नाटक में बेंगलुरु में आर्थिक संसाधनों का जमाव है। तेज विकास दर बनाए रखने को राज्य सरकारें अक्सर इन शहरों में संसाधनों का बहुत बड़ा हिस्सा लगा देती हैं। इससे प्रदेश के दूसरे हिस्से नाराज होते है। विपक्षी पार्टी के रूप में कांग्रेस ने इस नाराजगी का लाभ उठाया,हालांकि उसे शहरी निर्वाचन क्षेत्रों में अपना वोटर बेस खोना पड़ा। कर्नाटक चुनावों में कांग्रेस ने बेंगलुरु में बहुत खराब प्रदर्शन किया,भले ही उसने राज्य के दूसरे क्षेत्रों में शानदार प्रदर्शन किया। तेलंगाना में भी यही पैटर्न रहा। कांग्रेस ने तेलंगाना के अन्य क्षेत्र जीते,लेकिन उसे हैदराबाद में मुंह की खानी पड़ी।
रेवड़ी वितरण की सीमाएं
राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार के कल्याणकारी उपायों के बावजूद भाजपा जीत गई। ऐसे में यह दावा दमदार लगता है कि हिंदुत्व और मोदी की छवि सब पर हावी है। लेकिन इन चुनावों का सबक यह नहीं है कि अर्थव्यवस्था का महत्व नहीं है,बल्कि यह है कि कुछ कल्याणकारी योजनाएं क्षेत्रीय असमानता का दिया दर्द दूर नहीं कर सकतीं, असमानता चाहे राज्यों के बीच हो या राज्यों के भीतर। कांग्रेस ने किसी भी कीमत पर विकास की रणनीति का बीड़ा उठाया,उसके बाद सुधारात्मक कल्याणकारी उपाय अपनाये।
इन चुनाव परिणामों ने स्पष्ट कर दिया कि अगर कांग्रेस मतदाताओं के सामने आर्थिक मुद्दे परोसना चाहती है,तो वह अकेले कल्याणकारी योजनाओं पर भरोसा नहीं कर सकती। वह 70 घंटे के कार्य सप्ताह की मांगों का समर्थन करके यह उम्मीद नहीं कर सकती है कि श्रमिक उसकी एक या दो कल्याणकारी योजनाओं से आकर्षित होंगे।
लेखक राजनीतिक अर्थव्यवस्था के विश्लेषक हैं।