नेहरू के खिलाफ शायरी में दो साल जेल रहे मजरुह सुलतानपुरी
फुटबॉल खेलने पर फतवा भी लगा, नेहरू के खिलाफ लिखने पर जेल भी गए, ऐसे थे मजरूह सुल्तानपुरी
मजरूह सुल्तानपुरी वो व्यक्ति थे जिन्होंने भारत की शायरी और बॉलीवुड के गीतों को एक अलग अंदाज दिया.
देहरादून 11म ई।असरार-उल हसन ख़ान यानी मजरूह सुल्तानपुरी, भारत में शायरी के इतिहास का वो प्रगतिशील विचारक जिसे न जेल का ख़ौफ लिखने से रोक सका और न ही जिसने कभी अपनी लेखनी में किसी की मुदाख़लत (इंटरफेयर) को पसंद किया. वो व्यक्ति जिसने भारत की शायरी और बॉलीवुड के गीतों को एक अलग अंदाज दिया.
मगर, कहानी सिर्फ इतनी भर नहीं है. शब्दों का प्रस्तुतीकरण और उनकी समझ मजरूह साहब में पैदाइश के बाद ही शुरू हो गई थी. देश जब महात्मा गांधी और पंडित जवाहर लाल नेहरू जैसे बड़े कांग्रेस नेताओं के नेतृत्व में आज़ादी की जंग लड़ रहा था, तब 1919 में 1 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में एक सिपाही के घर मजरूह पैदा हुए. मजरूह एक राजपूत परिवार में पैदा हुए थे, लिहाजा खानदानी परंपरा में उन्हें भी स्कूली शिक्षा से दूर रखा गया और दीनी तालीम के लिए मदरसे भेजा गया. एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि राजपूत पढ़ने के लिए नहीं, लड़ने के लिए पैदा होते थे.
एक अक्टूबर, 1919 को सुल्तानपुर के पड़ोसी जिले आजमगढ़ के निजामाबाद गांव में जन्मे मजरूह साहब के पिता सब-इंस्पेक्टर थे। सुल्तानपुर शहर से 15 किलोमीटर दूर गांव गंजेहडी निवासी मतांतरित राजपूत परिवार में पैदा मजरूह का परिवार भले इस्लाम अपना चुका था, लेकिन हिंदू परंपराएं छोड़ी नहीं थीं।
खून में थी आक्रामकता
ऐसा नहीं कि केवल मजरूह का ही परिवार ऐसा था। उस समय खानजादे मुस्लिमों के यहां विवाह आदि उत्सव हिंदू परंपराओं से ही मनाए जाते थे। अवध में खानजादा वे मुस्लिम हैं, जो इस्लाम अपनाने के पहले राजपूत थे। मुस्लिम बनने पर वे नाम के आगे खान लिखने लगे। मजरूह के पूर्वज बजगोती (वत्सगोत्री) ठाकुर थे। बजगोती मुस्लिम या हिंदूओं का कहना है कि वे पृथ्वीराज चौहान के भाई बरियार के वंशज हैं। पृथ्वीराज की तराइन के युद्ध में हुई हार के बाद वे परिवार के साथ प्रतापगढ़ जिले में आ गए और उनके वंशज सुल्तानपुर सहित अगल-बगल के इलाकों में रहने लगे। इनमें से बहुत से शेरशाह सूरी के समय मतांतरित हो गए। राजपूत मजरूह के स्वभाव में आक्रामकता स्वाभाविक थी। इसीलिए उन्होंने जवाहर लाल नेहरू को भी चुनौती दे दी थी और उन्हें जेल जाना पड़ा था। खैर, जेल जाने और वहां दो वर्ष रहने के बाद भी मजरूह की आक्रामकता पर कोई फर्क नहीं पड़ा।
दिल से शायर, पेशे से हकीम
अवध के साथ एक विशेष बात यह थी कि यहां के शासकों ने दिल्ली के शासकों को कभी चुनौती नहीं दी। इसलिए यह क्षेत्र शांत रहा और स्वयं को सांस्कृतिक एवं साहित्यिक रूप से समृद्ध करता रहा। यही कारण रहा कि अवध से निकले लोग हिंदी फिल्म जगत पर छा गए। परदे पर दिखने वाला गांव अवध का ही होता था। मजरूह सुल्तानपुरी के साथ ही फिल्मकार मुजफ्फर अली, संगीतकार नौशाद, जोश मलिहाबादी, जां निसार अख्तर, जावेद अख्तर… बहुत लंबी धारा है। अवध की समृद्ध संस्कृति में पले-बढ़े मजरूह के गीतों में अवध की छाप होना स्वाभाविक था। शेरो -शायरी का शौक उन्हें बचपन से ही था।
मुशायरे ने बदला मुकाम
सब्बो सिद्दीकी इंस्टीट्यूट द्वारा संचालित एक संस्था की तरफ से 1945 में मुंबई में एक मुशायरा हुआ और उसमें मजरूह सुल्तानपुरी भी आमंत्रित किए गए। उस कार्यक्रम में फिल्म निर्माता ए.आर. कारदार उनकी शायरी से प्रभावित हो गए। उन्होंने अपनी फिल्मों के लिए गीत लिखने का प्रस्ताव दिया तो मजरूह ने जिगर मुरादाबादी से पूछा। उन्होंने उन्हें फिल्मों के लिए गीत लिखने के लिए प्रेरित किया।
नौशाद का सुनहरा साथ
उस दौरान नौशाद फिल्मी दुनिया में स्थान बना चुके थे। नौशाद भी अवध (लखनऊ) के रहने वाले थे। नौशाद ने मजरूह को एक धुन पर एक गीत लिखने को कहा। मजरूह ने उस धुन पर ‘गेसू बिखराए, बादल आए झूम के’ गीत लिखा। नौशाद ने उन्हें अपनी नई फिल्म के लिए गीत लिखने का प्रस्ताव दिया तो मजरूह ने वर्ष 1946 में आई फिल्म ‘शाहजहां’ के लिए गीत ‘जब दिल ही टूट गया’ लिखा, जिसने धूम मचा दी। उसके बाद तो अवधी उच्चारणों से लबरेज मजरूह के गीत लोगों की जुबान पर छा गए। मजरूह सुल्तानपुरी और संगीतकार नौशाद की जोड़ी सुपरहिट साबित हुई। उसके बाद तो बहुत से संगीतकारों ने उनके गीतों को संगीतबद्ध किया और सभी लोकप्रिय हुए। निमोनिया के कारण 80 वर्ष की आयु में 24 मई, 2000 को मजरूह का निधन हो गया।
जितने सुने गए उतने ही पढ़े गए
सुल्तानपुर के मशहूर कवि डाक्टर डी.एम. मिश्र कहते हैं कि मजरूह उस दौर के शायर हैं जब फिल्मों में कवि प्रदीप लिख रहे थे, ‘साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’, हिंदी के राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी लिख रहे थे- ‘चल पड़े जिधर दो डग मग में चल पड़े कोटि पग उसी ओर’ तो वह लिख रहे थे- ‘मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर, लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया’। याद कीजिए गांधी जी की दांडी यात्रा! बड़ा कवि और बड़ा शायर वही होता है जो भाषा के कैमरे में अपने समय और समाज की तस्वीरें खींच लेता है। इसीलिए मजरूह की ये पंक्तियां मुहावरा बन गईं। यही कारण है कि मजरूह जितने सुने जाते हैं, उतने ही पढ़े भी जाते हैं।
मजरूह के अलावा शायद ही कोई फिल्मी गीतकार हो जिसका अदब में इतना ऊंचा मुकाम हो या अदब में शायद ही ऐसा कोई शायर या कवि हो जिसे फिल्म की दुनिया में इतना नाम मिला हो। उनकी अदबी शायरी के लिए मध्य प्रदेश सरकार ने इकबाल सम्मान, गालिब सम्मान, महाराष्ट्र सरकार ने संत ज्ञानेश्वर सम्मान, उत्तर प्रदेश सरकार ने हिंदी-उर्दू साहित्य अवार्ड दिया। वहीं फिल्म जगत में अनेक सम्मानों के साथ-साथ मजरूह को फिल्मफेयर पुरस्कार मिला और अंतत: वे नवाजे गए भारत सरकार के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के से।
फुटबॉल खेलने पर लगा फतवा
मदरसे में इल्म हासिल करने के साथ ही मजरूह को फुटबॉल खेलने का शौक लग गया. लेकिन ये खेल इल्म देने वालों को पसंद नहीं आया और उन पर फतवा लगा दिया और उन्हें बाहर कर दिया गया. मदरसे से मजरूह ने अरबी और फारसी की तालीम पाई. इसके बाद लखनऊ कूच कर गए और हिकमत (यूनानी मेडिसिन) की पढ़ाई शुरू की.
तहसीलदार की बेटी से मोहब्बत हुई
हकीम बनकर वापस आए और फैजाबाद के टांडा में हकीमी करने लगे. यहां शायरी का शौक लग गया और यह नौजवान शायर वहां के तहसीलदार की बेटी के इश्क़ में पड़ गया, जिसकी उन्हें बिल्कुल इजाजत नहीं थी. लिहाजा, नतीजा ये हुआ कि जैसी-तैसी हकीमी चल रही थी, वो भी तहसीलदार के डर से छोड़कर मजरूह साहब को अपने सुल्तानपुर लौटना पड़ा. धीरे-धीरे उनकी शायरी हिकमत पर भारी पड़ने लगी और वो मशहूर होने लगे. इस दौरान उन्होंने उस वक्त के मशहूर शायर जिग़र मुरादाबादी को उस्ताद बना लिया.
मजरूह का पहला गीत
फिल्म शाहजहां 1946 में रिलीज हुआ और इसमें मजरूह साहब का पहला गाना ‘जब दिल ही टूट गया…हम जी के क्या करेंगे…’ लिया गया.
इस गीत में मानो मजरूह ने तहसीलदार की बेटी से अपने उस अधूरे इश्क़ का अक्स दिखाने की कोशिश की, जिसे उन्हें फैजाबाद के टांडा में छोड़ना पड़ा था. नौशाद साहब ने इस गीत को संगीत दिया और के.एस सहगल ने बड़े ही दिलकश अंदाज में उसे गाया.इस गीत से सहगल साबह इतना मुतास्सिर हुए थे कि उन्होंने अपने अंतिम संस्कार के वक्त इस गीत को बजाने की वसीयत की थी और उनकी मौत के वक्त ऐसा ही किया गया.
नहीं मांगी नेहरू से माफी
मजरूह के बोल फिल्मी गीत के जरिए जितना लोगों के मन को छू रहे थे, उनके क्रांतिकारी अल्फाज भी उतनी ही सुर्खियां बटोर रहे थे. आजादी से पहले से लेकर दुनिया से रुख्सत होने तक मजरूह साहब ने हर वक्त में अपने फ़न की मिसाल पेश की. उनके दिल में सिर्फ मोहब्बत भरी शायरी के लिए अल्फाज नहीं थे, बल्कि देश के मौजूदा हालात पर भी वो अपना कलम चलाते थे. जिसके लिए उन्हें न पारिवारिक मुसीबतें झेलनी पड़ीं, बल्कि जेल तक जाना पड़ा.
दरअसल, देश आजाद होने के बाद पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू बने. अपनी एक कविता में उन्होंने नेहरू के खिलाफ टिप्पणी की. ये टिप्पणी नेहरू और उनके वफादारों को बड़ी नागवार गुजरी. लिहाजा, मजरूह को बोला गया कि वो नेहरू से माफी मांगे. लेकिन मजरूह जिद के पक्के. सत्ता की धमकियों का उन पर कोई असर नहीं हुआ और उन्होंने साफ कह दिया कि जो लिख दिया, सो लिख दिया और इसके बाद मजरूह को करीब 2 साल के लिए मुंबई की जेल में डाल दिया गया.
इन पंक्तियों के लिए जाना पड़ा जेल
मन में जहर डॉलर के बसा के
फिरती है भारत की अहिंसा
खादी के केंचुल को पहनकर
ये केंचुल लहराने न पाए
अमन का झंडा इस धरती पर
किसने कहा लहराने न पाए
ये भी कोई हिटलर का है चेला
मार लो साथ जाने न पाए
कॉमनवेल्थ का दास है नेहरू
मार ले साथी जाने न पाए
दादा साहब फाल्के अवॉर्ड
मजरूह सुल्तानपुरी के काम को न सिर्फ पसंद किया गया, बल्कि उसे सम्मानित भी किया गया. मजरूह पहले ऐसे गीतकार थे, जिन्हें दादासाहब फाल्के सम्मान दिया गया. यह सम्मान उन्हें फिल्म दोस्ती के गीत ‘चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे, फिर भी कभी अब नाम को तेरे..आवाज मैं न दूंगा..’ के लिए दिया गया. ‘मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर, लोग साथ आते गए
और कारवां बनता गया…’ जैसे शेर लिखने वाले मजरूह सुल्तानपुरी ‘रहें न रहें हम….महका करेंगे…बनके कली, बनके सबा…बाग़-ए वका में…’ जैसे गीत लिखकर इस दुनिया से 24 मई, 2000 को 80 साल की उम्र में रुख्सत हुए।