भूल गए हो तुम शायद उस रचनाकार महान को:हर्ष की नई रचना

एक गीत रचनाकार और गायक के मध्य के अन्तर का–

गायक बन कर भोग रहे जिसके कारण सम्मान को ।
भूल गए हो तुम शायद उस, रचनाकार महान को ।।

तुम्हें मिला उन्नति का क्रम है, साँसों में दौलत का दम है
जिनका लिखा गुनगुनाते हो, उनकी सोच बहुत सक्षम है
जिस सरगम का तुम्हें ज्ञान है, वह रचना का ही विधान है
हर गायक की उन्नति में रचनाकारों का योगदान है

उनकी सरल भावना, तुमने, पाला है अभिमान को।
भूल गए हो तुम शायद उस, रचनाकार महान को ।।

तुमने जिन गीतों को गाया,सृजनकार को ही बिसराया
है आवाज तुम्हारी पूँजी, रचना है उसका सरमाया
वह दिन-रात ज़माने भर का, जीवन लिख-लिख कर मरता है
अपने अन्तस में भावों की, उपजाऊ खेती करता है

क्या मिलता खेती के बदले, उस श्रमशील किसान को ।
भूल गए हो तुम शायद उस, रचनाकार महान को ।।

उसने जब जब लिखे नज़ारे, तुम जैसे बन गए सितारे
वह अभाव में जीता आया, वैभव है बस पास तुम्हारे
सोचो जब पतझर आता है, वृक्ष स्वयं पर शरमाता है
साथ छोड़ जाता हर पल्लव, खाली ठूँठ नज़र आता है

याद तभी करता तरु जड़ से, मिलने वाली जान को ।
भूल गए हो तुम शायद उस, रचनाकार महान को।।

शब्दों पर निर्भर सरगम है, शब्द आत्मा का मरहम है
इन दोनों के संगम से ही, गायक चलता चार क़दम है
बेशक मन का तार है सरगम, रचना का शृंगार है सरगम
गाए गए सभी गीतों को,भावों का उपहार है सरगम

लेकिन बोलों के बिन सरगम, छू कब सकी रुझान को ।
भूल गए हो तुम शायद उस, रचनाकार महान को ।।

बाँध न पाया उत्कर्षों को, अपने अनघट संघर्षों को
बेचा नहीं किसी क़ीमत पर, उसने अपने आदर्शों को
जीवन के सब सुर आधे हैं, पर छन्दों से स्वर साधे हैं
तुमने अपने गायन में जब-तब स्वर तोड़े सुर बाँधे हैं

तुमने जब चाहा तब तोडा, छन्दोबद्ध विधान को ।
भूल गए हो तुम शायद उस, रचनाकार महान को ।।

गायक बस सुर की मय पीता, सृजनकार शब्दों की गीता
तुम केवल युग में जीते हो, उसमें सारा युग ही जीता
बिन रचनाकारों के कैसे, जग के दर्द सुना पाओगे
बिना शब्द संयोजन के तुम, कितने दिन तक गा पाओगे

नहीं बिसार सकोगे तुम, रचना के अनुसंधान को ।
भूल गए हो तुम शायद उस, रचनाकार महान को ।।

सृजनकार हित में
स्वरचित
;बृजेन्द्र “हर्ष”
हरिद्वार। उत्तराखण्ड।

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