चकराते हैं आंकड़े:जैसे-जैसे संख्या बढ़ी जजों की,वैसे-वैसे ढेर बढ़े केस

India29 Case Pending Before Supreme Court Constitution Benches This Pendency Data Is Very Worrying
31 साल से संविधान बेंच के पास पड़ा है केस! सुप्रीम कोर्ट के ये आंकड़े देख माथा पकड़ लेंगे

सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामलों की संख्या काफी बढ़ गई है। हैरत की बात है कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के सामने भी एक मामला तीन दशकों से लटका पड़ा है। पांच से नौ जजों वाली अलग-अलग संविधान पीठों के सामने लंबित मामलों की बात करें तो कुल 29 मामले लंबे वक्त से फैसले की राह ताक रहे हैं।
मुख्य बिंदु
सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टों को संवैधानिक न्यायालय कहा जाता है
ये उच्च स्तरीय अदालतें संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या करती हैं
लेकिन सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ में ही मामले लंबित रहते हैं
नई दिल्ली31 जुलाई। आखिरी बार हुई गिनती के वक्त सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के लिए 69,766 मामले लंबित थे। लेकिन जो बात ध्यान खींचती है, वो है इसकी संविधान पीठों के सामने लंबित मामले। पांच जजों की संविधान पीठ के सामने सबसे पुराना मामला 31 वर्षों से लंबित है, और सात जजों की पीठ की सुनवाई के लिए एक मामला 29 वर्षों से लटका पड़ा है। इसी तरह, नौ जजों की संविधान पीठों के सामने पांच मामले लंबित हैं। ये वर्ष 1999 के बाद से सबसे पुराने मामले हैं। दो अन्य मामले 21 वर्षों से लंबित हैं। कुल मिलाकर 29 मामले संविधान पीठों में सामने सुनवाई की राह देख रहे हैं।
देश में संवैधानिक अदालतों का ही ये हाल!
सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट को संवैधानिक न्यायालय कहा जाता है क्योंकि उनके निर्णय संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या करते हैं और वो व्याख्या अधीनस्थ अदालतों के लिए मामलों की सुनवाई के वक्त नजीर की तरह काम करते हैं। हालांकि, उच्च न्यायपालिका के दोनों स्थल- हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट, नियमित मामलों से अंटे पड़े हुए हैं, जैसे कि सेवा, जमानत आदि से संबंधित विषय।

हर स्ट्रेंथ वाली संवैधानिक बेंच के पास लंबित हैं मामले

कानून मंत्रालय के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के सामने लंबित 29 मामलों में से 18 पांच न्यायाधीशों की पीठ के पास हैं, जिनमें अनुच्छेद 370 को निरस्त करने की चुनौती भी शामिल है। छह मामले सात न्यायाधीशों की पीठों के सामने लंबित हैं जबकि पांच नौ न्यायाधीशों की पीठों के समक्ष लंबित हैं। इनमें सबसे पुराना केस 24 साल, दो अन्य 21 साल और चौथा 16 साल से लंबित है।
घट रही है संविधान पीठ की निपटान क्षमता?
संविधान पीठों ने 1950 से 1959 के दौरान 440 और 1960 से 1969 के दौरान 956 मामलों का निपटारा किया था। हाल के वर्षों में, निपटान दर में भारी गिरावट आई है। इन पीठों ने 2010 से 2019 के दौरान केवल 71 मामलों और 2020 से 2023 के दौरान 19 मामलों पर फैसला दिया है। ऐसा इसलिए भी हो सकता है क्योंकि अब बहुत कम मामले संविधान पीठों को भेजे ही जा रहे हैं।
लगातार बढ़ रही है जजों की संख्या, फिर भी…
26 जनवरी, 1950 को जब सुप्रीम कोर्ट का गठन किया गया था, तब भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) सहित आठ न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या थी। 1956 में इसकी ताकत बढ़कर 11 और 1960 में 14 हो गई। 1977 में न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या को बढ़ाकर 18 और 1986 में 26 कर दिया गया। अगली वृद्धि 23 वर्षों के बाद हुई, जब जजों की संख्या बढ़ाकर 31 कर दी गई। लंबित मामलों की बढ़ती संख्या से निपटने के लिए 2019 में सुप्रीम कोर्ट की स्ट्रेंथ बढ़ाकर 34 जजों की कर दी गई।

देश में लंबे समय से ‘रुके हुए फैसलों’ की दास्तान… 5 करोड़ केस हैं पेंडिंग, आखिर क्या है इसका कारण?

अक्टूबर 2021 में लखीमपुर खीरी में हुई हिंसा के मामले की सुनवाई सेशन कोर्ट में पूरी होने में कम से कम पांच साल का समय लग सकता है. इस बात की जानकारी सेशन कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट में दी है. एक स्टडी बताती है कि देश में हाई कोर्ट में किसी मुकदमे की सुनवाई पूरी होने में तीन साल से ज्यादा समय लगता है।
उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में हुई हिंसा का ट्रायल पूरा होने में कम से कम पांच साल का वक्त लग सकता है. वो भी सेशन कोर्ट में. उसके बाद मामला हाईकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट में भी जा सकता है.

सेशन कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट को सौंपी अपनी रिपोर्ट में बताया है कि इस मामले में 200 गवाह, 171 दस्तावेज और 27 फोरेंसिक रिपोर्ट्स हैं. इसलिए मामले की सुनवाई पूरी करने में पांच साल का वक्त लग सकता है.

लखीमपुर खीरी हिंसा के मामले में आशीष मिश्रा मुख्य आरोपित हैं.आशीष मिश्रा केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा टेनी के बेटे हैं.उत्तर प्रदेश पुलिस की एफआईआर के मुताबिक,एक एसयूवी ने चार किसानों को कुचल दिया था,जिसमें आशीष मिश्रा बैठे थे.तिकुनिया गांव में हुई इस हिंसा में आठ लोगों की मौत हुई थी,जिनमें चार किसान थे.मामले में आशीष मिश्रा के अलावा 12 और लोगों को भी आरोपित बनाया गया है.

कुल मिलाकर इस मामले का निपटारा होने में सालों लग सकते हैं. क्योंकि सेशन कोर्ट ही पांच साल का वक्त लगने की बात कह रही है. इसके बाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा भी खुला है. इसी से समझ सकते है कि ये मामला सुलझने में पांच साल नहीं, बल्कि इससे भी ज्यादा वक्त लग सकता है.

आंकड़े बताते हैं भारत में अदालतों में मुकदमों का बोझ बढ़ता जा रहा है. नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड (NJAD) के मुताबिक, देशभर की अदालतों में पांच करोड़ से ज्यादा केस पेंडिंग हैं. इनमें से लगभग साढ़े चार करोड़ से ज्यादा मामले तो जिला और तालुका अदालतों में ही हैं. वहीं, 25 हाई कोर्ट में 59 लाख से ज्यादा मामले लंबित हैं. जबकि, सुप्रीम कोर्ट में लगभग 70 हजार केसे पेंडिंग हैं.

कब से पेंडिंग हैं मामले?

नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड के मुताबिक, कलकत्ता हाईकोर्ट में एक मामला 1951 से पेंडिंग है. यानी, कि 72 साल बाद भी उस मामले का निपटारा नहीं हो सका है.

13 जनवरी तक देशभर की 25 हाई कोर्ट में कुल 59.78 लाख से ज्यादा मामले पेंडिंग हैं. इनमें से 42.92 लाख सिविल मामले हैं, जबकि 16.86 लाख क्रिमिनल मामले हैं.

आंकड़ों के मुताबिक,10 लाख से ज्यादा मामले ऐसे हैं जो एक साल में आए हैं। साढ़े 9 लाख मामले एक से तीन साल पुराने हैं.जबकि,11.24 लाख मामले तीन से पांच साल से अदालतों में पेंडिंग हैं.73 हजार से ज्यादा मामले तो ऐसे हैं जो 30 साल से भी लंबे समय से हाईकोर्ट में अटके पड़े हैं।

मामलों के लंबा खिंचने की वजह?

2016 में अदालतों में पेंडिंग मामलों में लगने वाले समय को लेकर एक स्टडी हुई थी. ये स्टडी कानून पर काम करने वाली संस्था दक्ष ने की थी. इस संस्था ने अलग-अलग अदालतों में लंबित 40 लाख से ज्यादा मामलों के आधार पर रिपोर्ट जारी की थी.

इस आधार पर संस्था ने अनुमान लगाया था कि अगर आपका कोई केस किसी हाई कोर्ट में जाता है तो उसका निपटारा होने में करीब 3 साल और 1 महीने का वक्त लगता है. अगर मामला जिला या तालुका अदालत में जाता है तो उसे निपटने में 6 साल लग सकते हैं.और अगर मामला सुप्रीम कोर्ट में जाता है तो 13 साल का समय लग सकता है.

पेंडिंग मामलों पर स्टडी करने वाली संस्था दक्ष का आकलन था कि हाई कोर्ट के जज हर दिन 20 से 150 मामलों की सुनवाई करते हैं. अगर इसका औसत निकाला जाए तो हर दिन 70 मामले. यानी, एक जज हर दिन औसतन साढ़े पांच घंटे का समय सुनवाई को देते हैं.

वहीं, दक्ष के अनुसार हाई कोर्ट के जज हर दिन एक मामले की सुनवाई पर 15 से 16 मिनट देते हैं.

हालांकि, इसमें जजों के काम पर सवाल नहीं उठाया जा रहा है. अदालतों में हर दिन मुकदमों का बोझ बढ़ता जा रहा है. देश में अभी अदालतों में जितने जजों की जरूरत है, उतने ही नहीं.

जजों की संख्या पर क्या कहते हैं आंकड़े?

लॉ कमीशन ने 120वीं रिपोर्ट में सिफारिश की थी कि हर 10 लाख लोगों पर 50 जज होने चाहिए. लॉ कमीशन की ये रिपोर्ट जुलाई 1987 में आई थी. उस समय हर 10 लाख आबादी 11 से भी कम जज थे.

पिछले साल फरवरी में केंद्रीय कानून मंत्री किरन रिजिजू ने राज्यसभा में बताया था कि भारत में हर 10 लाख लोगों पर 21 जज हैं. इसका मतलब कि लॉ कमिशन की रिपोर्ट के 35 साल बाद भी हर 10 लाख लोगों पर सिर्फ 11 जज ही बढ़े. हालांकि, इस दौरान आबादी कई गुना बढ़ी.

पिछले साल जुलाई में किरन रिजिजू ने कहा था कि जब वो कानून मंत्री बने थे तब अदालतों में चार करोड़ से भी कम मामले पेंडिंग थे, लेकिन अब उनकी संथ्या पांच करोड़ तक पहुंच गई है.

रिजिजू ने कहा था, ब्रिटेन में हर जज हर दिन चार से पांच मामलों में फैसला सुनाते हैं, लेकिन भारतीय अदालतों में हर जज हर दिन औसतन 40 से 50 मामलों की सुनवाई करते हैं. उन्होंने कहा था कि जो लोग न्याय में देरी के लिए जजों पर टिप्पणी करते हैं, वो सोच भी नहीं सकते कि एक जज को कितना काम करना पड़ता है.

सरकार के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट में जजों के 34, हाई कोर्ट्स में 1,104 और जिला-तालुका अदालतों में 24,521 पद हैं. लेकिन इनमें से कई सारे पद खाली पड़े हैं. सुप्रीम कोर्ट में जजों के दो पद खाली हैं. वहीं, हाई कोर्ट्स में 387 और जिला-तालुका अदालतों में पांच हजार से ज्यादा पद खाली हैं.

न्याय की कितनी कीमत?

दक्ष सर्वे में सामने आया था कि भारत में मुकदमा लड़ने वाला हर व्यक्ति हर दिन अदालत में पेश होने के लिए औसतन 519 रुपये खर्च करता है. कुल मिलाकर अदालतों में पेश होने के लिए मुकदमा लड़ने वाले लोग सालाना औसतन 30 हजार करोड़ रुपये खर्च करते हैं.

इस सर्वे में ये भी सामने आया था कि सालाना एक लाख रुपये से भी कम कमाने वाले परिवार का एक वादी व्यक्ति अपनी कमाई का 10 प्रतिशत तक अदालत में पेश होने पर खर्च कर देता है.

इतना ही नहीं, इस सर्वे में ये भी अनुमान लगाया गया था कि अदालतों में पेश होने की वजह से प्रोडक्टिविटी लॉस भी हो रहा है. एक व्यक्ति के भी अदालत में पेश होने से सालाना न्यूनतम 873 रुपये का नुकसान होता है. कुल मिलाकर इससे देश को हर साल 50,387 करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है, जो भारत की जीडीपी का 0.48 प्रतिशत है.

इस सर्वे में क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम को लेकर भी आंकड़े जुटाए गए थे. इसमें सामने आया कि लंबी कानूनी लड़ाई के कारण 28 प्रतिशत आरोपितों ने तय सजा से ज्यादा वक्त जेल में काटा था. 34 प्रतिशत आरोपितों ने कहा था कि उन्हें जमानती अपराध में जेल में रखा गया है, लेकिन उनके पास जमानत को पैसे नहीं है.

दो मामले, जो बताते हैं न्याय मिलना कितना मुश्किल!

केस-1: अप्रैल 1993 में दिल्ली पुलिस के पास एक केस आया. मामला था कि एक महिला आग में बुरी तरह झुलस गई थी. महिला के पति ने आरोप लगाया था कि उसके ही एक रिश्तेदार ने पहले रेप किया और फिर उसे जला दिया. मार्च 2002 में निचली अदालत ने आरोपित को दोषी पाया और उम्रकैद की सजा सुना दी. मामला हाईकोर्ट पहुंचा. सुनवाई चल ही रही थी कि अप्रैल 2016 में आरोपित की मौत हो गई. मौत के दो साल बाद हाईकोर्ट ने अपने अंतिम फैसले में मर चुके आरोपित को निर्दोष करार दिया.

केस-2: सितंबर 2000 में उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले के सिलवान गांव में पुलिस ने एक व्यक्ति के खिलाफ रेप और एससी-एसटी एक्ट में केस हुआ. व्यक्ति पर महिला के साथ रेप का आरोप था. फरवरी 2003 में निचली अदालत ने आरोपित को दोषी पाते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई. मामला हाईकोर्ट पहुंचा. मार्च 2021 में अदालत ने आरोपित को सभी आरोपों से मुक्त कर दिया. अदालत ने पाया कि महिला से रेप नहीं हुआ था. इस तरह से वो आरोपित बिना जुर्म के 21 साल तक जेल में रहा.

 

 

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