तुलनात्मक आय निरस्त करती है भारत में मुसलमानों से भेदभाव की राजनीतिक थ्योरी

भेदभाव होता है? भारतीय मुस्लिमों के बारे में सबसे बड़ा झूठ, हिंदुओं से ज्‍यादा मिलती रही है पगार

भारत में अल्‍पसंख्‍यकों खासतौर से मुस्लिमों की स्थिति पर हाल में चर्चा बढ़ी है। ‘खतरनाक,सनकी’ उद्योगपति जॉर्ज सोरोस, पूर्व अमेरिकी राष्‍ट्रपति बराक ओबामा से लेकर रघुराम राजन ने इन्‍हें लेकर अपनी-अपनी राय प्रकट की है। अपनी बातों में इन्‍होंने भारत में मुसलमानों के साथ भेदभाव की ओर इशारा किया है। इसके उलट अब एक और तस्‍वीर एक अर्थशास्त्री ने रखी है जो इसके ठीक उलट है।

नई दिल्‍ली 07 जुलाई: इंडोनेशिया को छोड़ दुनिया के किसी देश के मुकाबले सबसे ज्‍यादा मुस्लिम भारत में रहते हैं। भारत की प्रगति और मजबूती के लिए कई बातें जरूरी हैं। उनमें से एक यह भी है कि मुस्लिम और अन्‍य अल्‍पसंख्‍यकों के साथ कैसा बर्ताव होता है। भारत एक लोकतांत्रिक देश है। इसकी विविधता ने सभी को साथ बढ़ने का अधिकार और मौका दिया है। यही नहीं, उचित अंकुश भी बनाकर रखा है। यह और बात है कि बीते कुछ समय से अचानक एक विचार मुखर हुआ है। इसमें भारतीय मुसलमानों के साथ भेदभाव की बात कही जा रही है। अमेरिका के पूर्व राष्‍ट्रपति बराक ओबामा से लेकर आबीआई के गवर्नर रह चुके रघुराम राजन तक इस एजेंडे को आगे बढाते हैं। इसके उलट अंतरराष्‍ट्रीय मुद्राकोष के पूर्व एक्‍जीक्‍यूटिव डायरेक्‍टर और पीएमईएसी के सदस्‍य रह चुके सुरजीत एस भल्‍ला ने इस विचार को निर्मूल बता निरस्त किया है। उन्‍होंने टाइम्‍स ऑफ इंडिया (TOI) में एक लेख लिखा है। इसमें पगार का हवाला देकर भल्‍ला ने अपनी राय रखी है। उन्‍होंने पगार को भेदभाव का महत्वपूर्ण फैक्‍टर माना है। उन्‍होंने तर्क दिया है कि 1980 के दशक की शुरुआत से ही मुस्लिमों की औसत पगार हिंदुओं की तुलना में अधिकतर ज्‍यादा रही है।

जाने-माने लेखक, अर्थशास्‍त्री और स्‍तंभकार सुरजीत भल्‍ला ने एक बड़ा मिथक दूर किया है। उन्‍होंने इसके लिए ठोस आंकड़ों का सहारा लिया है। अपने लेख में उन्‍होंने जॉर्ज सोरोस, बराक ओबामा से लेकर रघुराम राजन का जिक्र किया है। इन सभी ने हाल के समय में अलग-अलग तरह से भारत के लोकतंत्र और यहां मुस्लिमों की स्थिति पर सवाल खड़े कर उनके साथ भेदभाव की ओर इशारा किया है। वैसे यह एजेंडा खड़ा तो कांग्रेस और वामपंथियों का किया हुआ है लेकिन भल्ला ऐकेडमिशियन होने से इस पक्ष को नहीं छूते।

अर्थशास्‍त्र से बताया भेदभाव का कनेक्‍शन

सुरजीत भल्‍ला के मुताबिक, ऐसे संवदेनशील विषय पर किसी निष्‍कर्ष पर पहुंचना मुश्किल है। भेदभाव को कोई आंकड़ा मौजूद नहीं है। ऐसी बात करने के पीछे पूर्वाग्रह भी हो सकता है। उन्‍होंने बताया है कि भेदभाव का पता लगाने को बहुत साल पहले ही स्‍टैंडर्ड सेट किया गया था। नोबल पुरस्‍कार विजेता गैरी बेकर ने अपनी स्‍टडी ने इसके लिए कुछ महत्वपूर्ण फैक्‍टर बताए थे। इनमें से एक वेतन भी था। वेतन का असर शिक्षा, अनुभव और सामर्थ्‍य पर पड़ता है।

भल्‍ला ने बताया कि बेकनर का निष्‍कर्ष सिंपल था। जो कोई भी मार्केटप्‍लेस में भेदभाव करेगा वह कम मुनाफा कमाएगा। कारण है कि वह कम प्रोडक्टिव वर्कर (गोरे कर्मचारी) ज्‍यादा वेतन पर रखेगा। सुरजीत भल्‍ला के अनुसार, वेतन में अंतर एक तरीका हो सकता है। ऐसे और भी कई तरीके हैं जिनमें आंकड़ों की मदद से यह पता लगा सकते हैं कि अलग-अलग देशों में अल्‍पसंख्‍यक कितना सुरक्षित या असुरक्षित हैं

आंकड़ों के ज‍र‍िये साफ की तस्‍वीर

अपने लेख में अर्थशास्‍त्री ने बताया कि एनएसएसओ/पीएलएफएस सर्वे के 1983 से अब तक के सभी सर्वे के डेटा उपलब्‍ध हैं। उन्‍होंने भारत और अमेरिका में वेज गैप का जिक्र किया है। उन्होंने बताया है कि पिछले 40 साल में अमेरिका के वेज गैप शायद ही कम हुआ है। अमेरिका में अश्‍वेत नागरिक 1983 में करीब 18 प्रतिशत कम वेतन पाते थे। आज उन्‍हें 23 प्रतिशत कम पगार मिलती है। भारत के मामले में तस्‍वीर बिल्‍कुल उलट दिखती है। यह चौंकाने वाली भी है। कइयों की मान्‍यताओं से यह अलग है। सच यह है कि पगार/मजदूरी के मामले में लेबर मार्केट में मुसलमानों को किसी तरह के भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा है।

भल्‍ला ने बताया है कि भारत में वेतन बराबरी की तरफ बढ़े हैं। दिलचस्‍प तो यह है कि सिर्फ दो सालों (2011/12 और 2017/18) को छोड़ मुसलमानों की औसत मजदूरी या पगार हिंदुओं के मुकाबले में ज्‍यादा रही है। सुरजीत भल्‍ला ने आगे इस पर और रोशनी डालने की बात कही है।
Surjeet Bhalla
सुरजीत भल्‍ला

Myth About Indian Muslims Busted Data Shows Higher Median Wages Than Hindus

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