विश्वभर में पूजित है विद्या की देवी सरस्वती

पुरे विश्व में होती है वाग्देवी की पूजा : दुष्प्रचार का प्रतिरोध कीजिये

कुछ नव अर्धशिक्षा प्राप्त दुष्प्रचारकों का यह दावा कि सिर्फ भारत में देवी देवताओं की इतनी पूजा क्यों होती है? उनसे प्रति प्रश्न कीजिये कि कितने देशों में घूमें हैं. उन्होंने कैसे जाना कि वहाँ देवी- देवताओं की पूजा नहीं होती? ऐसा कहने वाला ज्ञानी नहीं बल्कि अर्ध शिक्षित और कुशिक्षा व्याधि ग्रस्त व्यक्ति हीं हो सकता है। माँ सरस्वती ऐसे लोगों को सद्बुद्धि दें।
मित्रों माँ सरस्वती और गणेश  की पूरे विश्व में पूजा होती है। गणेश पूजा की बात बाद में करेंगें, आज सरस्वती पूजा की बात करते हैं –

बौद्ध मान्यताओं में भी सरस्वती ज्ञान के प्रवाह की देवी है और सभी बौद्ध देशो मे इसी रूप में पूजनीय है।

तिब्बत मे इन्हे यनचेनमा, मंगोलिया में केलेयनउकिन तेगरी, चाइना में मिआओ यिन मू और जापान में बेन्जेटिन नाम से पुकारा जाता है। जापान मे बौद्ध के अलावा शिन्टो में भी इनकी बराबर मान्यता है। पूरे जापान में इनके मंदिर फैले हुये है।
ये सभी देश और इलाके धरती पर सबसे अधिक IQ वाली रेंज में है।

तिब्बती महायान ग्रंथों के अनुसार ये समुन्द्र मंथन से प्रकट हुई थी।

सिर्फ भी## मत में इनकी मान्यता नही है। और ये ही धरती पर सबसे कम IQ वाले लोग भी हैं। और आयरनी ये है कि खुद को सबसे अधिक ज्ञानवान वैज्ञानिक भी यही अपने को मानते समझते है।
✍🏻साभार

ॐ घण्टाशूलहलानि शङ्‌खमुसले चक्रं धनुः सायकं हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्।
गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा-पूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम्॥

अर्थ: जो अपने करकमलों में, घण्टा, शूल, हल, शंख, मूसल, चक्र, धनुष और बाण धारण करती हैं। शरद-ऋतु के शोभासम्पत्र चन्द्रमा के समान, जिनकी मनोहर कान्ति है, जो तीनों लोकों की आधारभूता और शुम्भ आदि दैत्योंञका नाश करने वाली हैं तथा गौरी के शरीर से जिनका प्राकट्य हुआ है, उन महासरस्वती देवी का, मैं निरन्तर भजन करता (करती) हूँ।

[दुर्गा सप्तशती (उत्तर चरित्र) पांचवें अध्याय का ध्यान श्लोक]
✍🏻आनन्द कुमार

सरस्वती के बदले महासरस्वती रूप में देवी के हाथ में वीणा-पुस्तक नहीं होंगें। उनकी आठ भुजाएं होंगी, शस्त्र धारण करती हैं और उनके साथ रूद्र और विनायक जैसी शक्तियां होती हैं। देवी की उपासना के काल में केवल विद्यारम्भ नहीं होता  शस्त्र पूजन भी होता है।

गु॒ङ्गू
सि॒नी॒वा॒ली
रा॒का
सर॑स्वती
इ॒न्द्रा॒णी
व॒रु॒णा॒नी

६ ऋतुओं की जन्मदात्री हैं।
इन्हे देवपत्नियाँ कहा गया है, अथर्ववेदसंहिता ७.४६ में सिनीवाली का विष्णु पत्नी के रूप में स्मरण है।
राका होलाका है अर्थात् फाल्गुन पूर्णिमा को राका कहा है, और पूर्वकाल में फाल्गुन पूर्णिमा से वसन्त ऋतु प्रारम्भ होती थी। स्वाभाविक है कि उससे भी पूर्व शिशिरारम्भ होता था, इस कारण शिशिर को फल्गु भी कहा जाता है।

इनके नामों का सम्बन्ध पूर्णिमा के नक्षत्राभिमानी देवता से ही है।
✍🏻अत्रि विक्रमार्क

प्राचीन भारत और नेपाल में पूरे साल को जिन छह मौसमों में बाँटा जाता था उनमें वसंत लोगों का सबसे मनचाहा मौसम था। जब फूलों पर बहार आ जाती, खेतों में सरसों का फूल मानो सोना चमकने लगता, जौ और गेहूँ की बालियाँ खिलने लगतीं, आमों के पेड़ों पर मांजर (बौर) आ जाता और हर तरफ रंग-बिरंगी तितलियाँ मँडराने लगतीं। भर-भर भंवरे भंवराने लगते। वसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए माघ महीने के पाँचवे दिन एक बड़ा उत्सव मनाया जाता था जिसमें विष्णु और कामदेव की पूजा होती हैं। यह वसंत पंचमी का त्यौहार कहलाता था।

लक्ष्मी र्मेधा धरा पुष्टि गौरी तुष्टि: प्रभा धृति:।
एताभि पाहि तनुभिरष्टाभिर्मा सरस्वति।।
अर्थात जहां सरस्वती निवास करती हैं वहां उनकी अष्ट विभूतियां लक्ष्मी, मेघा, धरा, पुष्टि, गौरी, तुष्टी और धृति का निवास होता है। इसीलिए ज्ञान की देवी की उपासना परम आवश्यक है।

सरस्वती मया दृष्टा वीणापुस्तकधारिणी
हंसवाहनसंयुक्ता विद्यादानं करोतु मे

प्रथमं भारती नाम द्वितीयञ्च सरस्वती
तृतीयं शारदा देवी चतुर्थं हंसवाहिनी

पञ्चमं तु जगन्माता षष्ठं वागीश्वरी तथा
सप्तमं चैव कौमारी चाऽष्टमं वरदायिनी

नवमं बुद्धिदात्री च दशमं ब्रह्मचारिणी
एकादशं चन्द्रघण्टा द्वादशं भुवनेश्वरी

द्वादशैतानि नामानि त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः
जिह्वाग्रे वसते तस्य ब्रह्मरूपा सरस्वती

जापान में सरस्वती को ‘बेंजाइतेन’ कहते हैं। जापान में उनका चित्रन हाथ में एक संगीत वाद्य लिए हुए किया जाता है। जापान में वे ज्ञान, संगीत तथा ‘प्रवाहित होने वाली’ वस्तुओं की देवी के रूप में पूजित हैं।
दक्षिण एशिया के अलावा थाइलैण्ड, इण्डोनेशिया, जापान एवं अन्य देशों में भी सरस्वती की पूजा होती है।

अन्य भाषाओ/देशों में सरस्वती के नाम-
बर्मा – थुयथदी (သူရဿတီ=सूरस्सती, उच्चारण: [θùja̰ðədì] या [θùɹa̰ðədì])
बर्मा – तिपिटक मेदा Tipitaka Medaw (တိပိဋကမယ်တော်, उच्चारण: [tḭpḭtəka̰ mɛ̀dɔ̀])
चीन – बियानचाइत्यान Biàncáitiān (辯才天)
जापान – बेंज़ाइतेन Benzaiten (弁才天/弁財天)
थाईलैण्ड – सुरसवदी Surasawadee (สุรัสวดี)
ग्रीस में ईरोस – the god of sexual love, (कामदेव )
हेरा – Goddesses of Home and Wealth and Prosperity (महालक्ष्मी )
एथेना – the Goddesses of Wisdom and Learning. (सरस्वती)

वैदिक सनातन एवं बौद्ध धर्मो की अपेक्षा जैन धर्म की सरस्वती (श्रुतदेवी) के वृहद स्तर पर पुरातात्विक साक्ष्य प्राप्त हुए हैं | जैन शिल्प में यक्षी, अंबिका एवं चक्रेश्वरी के बाद सरस्वती ही सर्वाधिक लोकप्रिय देवी रही है | सरस्वती (श्रुतदेवी) की सबसे प्राचीन प्रतिमा कंकाली टीले (मथुरा) से प्राप्त हुई है जो १३२ ई, की है ; इसके अतिरिक्त जैन परंपरा में बहुत ही सुंदर सरस्वती (श्रुतदेवी) प्रतिमाएं पल्लू (बीकानेर) और लाडनूँ आदि से प्राप्त हुई है |

आजकल सोशल मीडिया पर एक प्रचार या कुतर्क चलता है कि सरस्वती (माँ शारदा) की पूजा भारत मे होती है और ज्ञान बुद्धिस्ट देश जापान , चीन में आता है। ऐसा कहने और लिखने वाले जन्मजात वैज्ञानिक होने का प्रमाणपत्र लेकर आते हैं, साथ ही पैदा होने के साथ इनलोगों ने दुनिया घूमकर भी देख लिया होता है कि दुनिया में कहीं भी सरस्वती की पुजा नहीं होती।
सबसे पहले मित्रो मैं आपको बताना चाहता हूँ कि पौराणिक हिन्दुओ में ज्ञान की देवी माँ सरस्वती के नाम से विख्यात देवी की पूजा जापान और चीन दोनों जगहों पर होती है जिनका नाम जापान में Benzaiten ( 弁才天 , 弁財天 ) है , वहां के सभी शहरों में इनका मन्दिर है । चीन में इन्ही देवी को इन 3 नामो से “Biancaitian” or Tapien-ts’ai t’iennu or
Miao-yin mu जाना जाता है ये देवी भी वीणा (vina) लिए रहती है जिसको वहां biwa कहा जाता है ।
तिब्बत में सरस्वती देवी को Yang Chenmo के नाम से जाना जाता है । मंगोल में माँ सरस्वती को Keleyin ukin Tegri के नाम से जाना जाता है और थाईलैंड में माँ सरस्वती को Suratsawadi (สุรัสวดี) or
Saratsawadi (สรัสวดี) के नाम से पूजा जाता है ।

दस ऋषिकुलों के आह्वान मंत्रों आप्री में तीन देवियाँ भारती, सरस्वती और इळा समान रूप और आदर में पायी जाती हैं। मेधातिथि और काण्व भारती के लिये ‘मही’ का प्रयोग करते हैं तो कुछ ऋषिकुल मही और भारती दोनों का।

भारती धरती है, सरस्वती जीवनस्रोत और इळा मानवीय प्रज्ञा। दो प्रतिद्वन्द्वी कुल कौशिक विश्वामित्र गाथिन(3.4) और वसिष्ठ मैत्रावरुणि (7.2) अलग स्थानों पर एक ही ऋचा का प्रयोग करते हैं।

इस प्राचीन, विराट और संस्कृतिबहुल देश के लिये आवश्यकता इस बात की है कि एकता के बिन्दु खोजें जायँ जहाँ विविधता के प्रति सम्मान हो, स्वीकार हो और साहचर्य हो न कि ऐसे जुमले जो विकट समस्याओं से भीत पाखंडी समाज को आँखें फेर कुकुरझौंझ के मौके प%8

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