मांसभक्षी थे राम? वाममार्गियों ने भी की वाल्मीकि रामायण में मिलावट

क्या श्री राम माँसाहारी थे? लोकप्रिय नायक से सबने किया अपना प्रचार 

#डॉ_विवेक_आर्य

अयोध्या में श्री राम  मंदिर के शिलान्यास का समय जैसे-जैसे निकट आ रहा हैं। वैसे – वैसे कुछ लोग अवांछनीय बयान देकर देश का वातावरण खराब करने का प्रयास कर रहे हैं। इसी कड़ी मेरे अनेक कई मित्रों ने यह शंका मेरे समक्ष रखी है कि उनके सामने दिन प्रतिदिन वाल्मीकि रामायण में से कई श्लोक आते हैं। जिनसे यह सिद्ध होता हैं की श्री राम माँसाहारी थे?

इस शंका का समाधान होना अत्यंत आवश्यक है। क्यूंकि श्री राम के साथ भारतीय जनमानस की आस्था जुड़ी है। वैष्णव मतानुयायी गोस्वामी तुलसी दास रचित रामचरित मानस के प्रभाव से , वैष्णव मत की मूलभूत मान्यता शाकाहार के समर्थन में होने से भारतीय जनमानस का यह मानना है कि ऐसा नहीं हो सकता कि श्री राम माँसाहारी थे। मेरा भी यही मानना है कि श्री राम चन्द्र पूर्णरूपेण शाकाहारी थे। मेरे विश्वास का कारण स्वयं ईश्वरीय वाणी वेद है। वेदों में अनेक मंत्र मानव को शाकाहारी बनने को प्रेरित करते हैं, माँसाहारी की निंदा करते हैं, निरीह पशुओं की रक्षा आर्य पुरुषों का कर्तव्य बताते हैं और जो निरीह पशुओं पर अत्याचार करते हैं, उन्हे कठोर दंड देने की आज्ञा स्पष्ट रूप से वेदों में हैं।

श्रीरामचन्द्र का काल पुराणों के अनुसार करोड़ो वर्षों पुराना हैं। हमारे आर्याव्रत देश में महाभारत युद्ध के काल के पश्चात और उसमें भी विशेष रूप से पिछले 2500 वर्षों में अनेक परिवर्तन हुए हैं। जैसे ईश्वरीय वैदिक धर्म का लोप होना और मानव निर्मित मत मतान्तर प्रकट होना जिनकी अनेक मान्यताएं वेद विरुद्ध थी। ऐसा ही एक मत था वाममार्ग जिसकी मान्यता थी कि माँस, मद्य, मीन आदि से ईश्वर की प्राप्ति होती हैं।

वाममार्ग समर्थकों ने यह पाया कि जनमानस में सबसे बड़े आदर्श श्री रामचंद्र है, इसलिए जब तक उनकी अवैदिक मान्यताओं को श्री राम के जीवन से समर्थन नहीं मिलेगा तब तक उनका प्रभाव नहीं बढ़ेगा। इसलिए उन्होंने श्री राम के सबसे प्रमाणिक जीवन चरित वाल्मीकि रामायण में यथानुसार मिलावट आरंभ कर दी जिसका परिणाम सामने हैं।

महात्मा बुद्ध के काल में इस प्रक्षिप्त भाग के विरुद्ध “दशरथ जातक” के नाम से ग्रन्थ रचना हुई जिसमें यह सिद्ध किया गया कि श्री राम पूर्ण रूप से अहिंसा व्रतधारी थे और भगवान बुद्ध पूर्वजन्म में राम रूप में जन्म ले चुके थे। कहने का अर्थ यह हुआ कि जो भी आया उसने श्री राम की अलौकिक प्रसिद्धि का सहारा लेने का प्रयास लेकर अपनी-अपनी मान्यताओं का प्रचार करने का प्रयास किया।

यही से प्रक्षिप्त श्लोकों की रचना आरंभ हुई। हमें महर्षि दयानंद का आभारी होना चाहिए जिन्होंने अपने चिंतन और स्वाध्याय से यह सिद्धांत स्थापित किया कि वेदों के मंत्रों के विकृत अर्थ एवं रामायण, महाभारत, मनुस्मृति जैसे ग्रंथों में प्रक्षेप अर्थात मिलावट हैं। इस सिद्धांत के आधार पर इन सभी ग्रंथों पर लगने वाले सभी आक्षेपों का निराकरण हो जाता हैं।

विषय तीन भागों में विभाजित कर अपने विषय को ग्रहण करने का प्रयास करेंगें।

१. वाल्मीकि रामायण का प्रक्षिप्त भाग
२. रामायण में माँसाहार के विरुद्ध स्वयं की साक्षी
३. वेद और मनु स्मृति की माँस विरुद्ध साक्षी

वाल्मीकि रामायण का प्रक्षिप्त भाग

इस समय देश में वाल्मीकि रामायण की जो भी पांडुलिपियाँ मिलती हैं वह सब की सब दो मुख्य प्रतियों से निकली हैं। एक है बंग देश में मिलने वाली प्रति जिसमें बाल, अयोध्या,अरण्यक,किष्किन्धा ,सुंदर और युद्ध छह कांड हैं और कूल सर्ग ५५७ और श्लोक संख्या १९७९३ हैं। जबकि दूसरी प्रति बम्बई प्रान्त से मिलती हैं जिसमें बाल, अयोध्या,अरण्यक,किष्किन्धा ,सुंदर और युद्ध इन छह कांड के अलावा एक और उत्तर कांड हैं, कूल सर्ग ६५० और श्लोक संख्या २४५२८ हैं।

दोनों प्रतियों में पाठ भेद होने का कारण सम्पूर्ण उत्तर कांड का प्रक्षिप्त होना, कई सर्गों का प्रक्षिप्त होना हैं एवं कई श्लोकों का प्रक्षिप्त होना हैं।

प्रक्षिप्त श्लोक इस प्रकार के हैं

. वेदों की शिक्षा के प्रतिकूल:- जैसे वेदों में माँस खाने की मनाही हैं जबकि वाल्मीकि रामायण के कुछ श्लोक माँस भक्षण का समर्थन करते हैं अत: वह प्रक्षिप्त हैं।
२. श्री रामचंद्र जी के काल में वाममार्ग आदि का कोई प्रचलन नहीं था इसलिए वाममार्ग की जितनी भी मान्यताएँ हैं , उनका वाल्मीकि रामायण में होना प्रक्षिप्त हैं।
३. ईश्वर का बनाया हुआ सृष्टि नियम आदि से लेकर अंत तक एक समान हैं इसलिए सृष्टि नियम के विरुद्ध जो भी मान्यताएँ हैं वे भी प्रक्षिप्त हैं जैसे हनुमान आदि का वानर (बन्दर) होना, जटायु आदि का गिद्ध होना आदि क्यूंकि पशु का मनुष्य के समान बोलना असंभव हैं। हनुमान, जटायु आदि विद्वान एवं परम बलशाली श्रेष्ठ मनुष्य थे।
४. जो प्रसंग के विरुद्ध हैं वह भी प्रक्षिप्त हैं जैसे सीता की अग्नि परीक्षा आदि असंभव घटना हैं जिसका राम के युद्ध में विजय के समय हर्ष और उल्लास के बीच तथा १४ वर्ष तक जंगल में भटकने के पश्चात अयोध्या वापसी के शुभ समाचार के बीच असंगत  आख्यान है।

रामायण में माँसाहार के विरुद्ध स्वयं की साक्षी

श्री राम और श्री लक्ष्मण द्वारा यज्ञ की रक्षा

रामायण के बाल कांड में ऋषि विश्वामित्र राजा दशरथ के समक्ष जाकर उन्हें अपनी समस्या बताते है कि जब वे यज्ञ करते है तब मारीच और सुबाहु नामक दो राक्षस यज्ञ में विघ्न डालते है। माँस, रुधिर आदि अपवित्र वस्तुओं से यज्ञ  अपवित्र कर देते हैं। राजा दशरथ श्री रामचंद्र एवं लक्ष्मण को उनके साथ राक्षसों का विध्वंस करने भेज देते हैं। परिणाम यज्ञ का निर्विघ्न सम्पन्न होना एवं राक्षसों का संहार होता हैं।

जो लोग यज्ञ आदि में पशु बलि आदि का विधान मानते है, वाल्मीकि रामायण में राजा दशरथ  कृत अश्वमेध यज्ञ में पशु बलि आदि मानते है। उनसे हमारा यह स्पष्ट प्रश्न है कि अगर यज्ञ में पशु बलि विधान होता तो फिर ऋषि विश्वामित्र की तो राक्षस उनके यज्ञ में माँस आदि डालकर उनका सहयोग ही कर रहे थे नाकि उनके यज्ञ में विघ्न डाल रहे थे।

इससे तो यही सिद्ध होता हैं कि रामायण में अश्वमेध आदि में पशु बलि का वर्णन प्रक्षिप्त है और उसका खंडन स्वयं रामायण से ही हो जाता है।

ऋषि वशिष्ठ द्वारा ऋषि विश्वामित्र का सत्कार

एक आक्षेप यह भी लगाया है कि प्राचीन भारत में अतिथि सत्कार माँस से किया जाता था।

इस बात का खंडन स्वयं वाल्मीकि रामायण में है। जब ऋषि विश्वामित्र ऋषि वशिष्ठ के आश्रम पधारते है तब ऋषि वशिष्ठ ऋषि विश्वामित्र का सत्कार माँस आदि से नहीं अपितु सब प्रकार से गन्ने से बनाये पदार्थ, मिष्ठान,भात खीर,दाल, दही आदि से करते हैं। यहाँ पर माँस आदि का किसी भी प्रकार का कोई उल्लेख नहीं हैं। सन्दर्भ -वाल्मीकि कांड बाल कांड सर्ग ५२ एवं सर्ग ५३ श्लोक १-६

श्री राम की माँसाहार की विरुद्ध स्पष्ट घोषणा

अयोध्या कांड सर्ग २ के श्लोक २९ में जब श्री राम वन में जाने की तैयारी कर रहे थे तब माता कौशल्या से श्री राम  ने कहा कि मैं १४ वर्षों तक जंगल में प्रवास करूँगा और कभी भी वर्जित माँस का भक्षण नहीं करूँगा । जंगल में प्रवासरत मुनियों के लिए निर्धारित केवल कंद मूल पर निर्वाह करूँगा।

इससे स्पष्ट साक्षी रामायण में माँस के विरुद्ध क्या हो सकती है?

श्री राम का सीता माता के कहने पर स्वर्ण हिरण का शिकार करने जाना

एक शंका प्रस्तुत होती है कि श्री रामचंद्र महाराज ने स्वर्ण मृग का शिकार  माँस भक्षण को किया था।
इस शंका का उचित उत्तर स्वयं रामायण में अरण्य कांड में मिलता है।

माता सीता श्री रामचंद्र से स्वर्ण मृग पकड़ने को इस प्रकार कहती है-

यदि आप इसे जीवित पकड़ लेते तो यह आश्चर्य प्रद पदार्थ आश्रम में रहकर विस्मय करेगाअरण्यक कांड सर्ग ४३ श्लोक १५

और यदि यह मारा जाता हैं तो इसकी सुनहली चाम को चटाई पर बिछा कर मैं उस पर बैठना पसंद करुँगी।-
अरण्यक कांड सर्ग ४३ श्लोक १९

इससे यह निश्चित रूप से सिद्ध होता है कि स्वर्ण हिरण का शिकार माँस खाने को तो निश्चित रूप से नहीं हुआ था।

वीर हनुमान का सीता माता से वार्तालाप

वीर हनुमान जब अनेक बाधाओं को पार करते हुए रावण की लंका में अशोक वाटिका पहुँच गये तब माता सीता ने श्री राम का कुशलक्षेम पूछा तो उन्होंने बताया कि

राम जी न तो माँस खाते है और न ही मद्य पीते है। :-वाल्मीकि रामायण सुंदर कांड ३६/४१

सीता का यह पूछना दर्शाता है कि कहीं श्री राम शोक से व्याकुल होकर अथवा गलत संगत में पडकर वेद विरुद्ध मार्ग पर न चलने लगे हो।

अगर माँस भक्षण उनका नियमित आहार होता तब तो सीता जी को पूछने की आवश्यकता ही नहीं थी।

इससे वाल्मीकि रामायण में ही श्री राम जी के माँस भक्षण के समर्थन में दिए गये श्लोक जैसे

अयोध्या कांड ५५/३२,१०२/५२,९६/१-२,५६/२४-२७

अरण्यक कांड ७३/२४-२६,६८/३२,४७/२३-२४,४४/२७

किष्किन्धा कांड १७/३९

सभी प्रक्षिप्त सिद्ध होते हैं।

वेद और मनु स्मृति की माँस विरुद्ध साक्षी

वेद में माँस भक्षण का स्पष्ट विरोध

ऋग्वेद ८.१०१.१५ – मैं समझदार मनुष्य को कहे देता हूँ कि तू बेचारी बेकसूर गाय की हत्या मत कर, वह अदिति हैं अर्थात काटने- चीरने योग्य नहीं है

ऋग्वेद ८.१०१.१६ – मनुष्य अल्पबुद्धि होकर गाय को मारे काटे नहीं

अथर्ववेद १०.१.२९ –तू हमारे गाय, घोरे और पुरुष को मत मार

अथर्ववेद १२.४.३८ –जो(वृद्ध) गाय को घर में पकाता हैं उसके पुत्र मर जाते हैं

अथर्ववेद ४.११.३- जो बैलो को नहीं खाता वह कष्ट में नहीं पड़ता है

ऋग्वेद ६.२८.४ –गाए वधालय में न जाये

अथर्ववेद ८.३.२४ –जो गोहत्या करके गाय के दूध से लोगो को वंचित करे , तलवार से उसका सर काट दो

यजुर्वेद १३.४३ –गाय का वध मत कर , जो अखंडनीय है

अथर्ववेद ७.५.५ –वे लोग मूढ़ हैं जो कुत्ते से या गाय के अंगों से यज्ञ करते है

यजुर्वेद ३०.१८-गोहत्यारे को प्राण दंड दो

स्वामी दयानंद के अनुसार मनु स्मृति में वही ग्रहण करने योग्य है जो वेदानुकुल है और वह त्याग करने योग्य हैं जो  वेद विरुद्ध है।

महाभारत में मनु स्मृति के प्रक्षिप्त होने की बात का समर्थन इस प्रकार किया हैं:-

महात्मा मनु ने सब कर्मों में अहिंसा बतलाई है, लोग अपनी इच्छा के वशीभूत होकर वेदी पर शास्त्र विरुद्ध हिंसा करते है। शराब, माँस, द्विजातियों का बली, ये बातें धूर्तों ने फैलाई है, वेद में यह नहीं कहा गया है। महाभारत शांति पर्व मोक्ष धर्म अध्याय २६६

माँस खाने के विरुद्ध मनु स्मृति की साक्षी

जिसकी सम्मति से मारते हो और जो अंगों को काट-काट कर अलग करता हैं, मारने वाला तथा क्रय करने वाला, विक्रेता, पकानेवाला, परोसने वाला तथा खाने वाला ये ८ सब घातक हैं। जो दूसरों के माँस से अपना माँस बढ़ाने की इच्छा रखता हैं, पितरों, देवताओं और विद्वानों की माँस भक्षण निषेधाज्ञा का भंग रूप अनादर करता हैं उससे बढ़कर कोई भी पाप करने वाला नहीं हैं।-मनु स्मृति ५/५१,५२

मद्य, माँस आदि यक्ष,राक्षस और पिशाचों का भोजन हैं। देवताओं की हवि खाने वाले ब्राह्मणों को इसे कदापि न खाना चाहिए।        – मनु स्मृति ११/७५

जिस द्विज ने मोह वश मदिरा पी लिया हो उसे चाहिए की आग के समान गर्म की हुई मदिरा पीवे ताकि उससे उसका शरीर जले और वह मद्यपान के पाप से बचे।- मनुस्मृति ११/९०

इसी अध्याय में महर्षि मनु महाराज  ने श्लोक ७१ से ७४ तक मद्य पान के प्रायश्चित बताये हैं।

इस सब प्रमाणों और सन्दर्भों से इस संबंध में फैलाई जा रही  शंकाओं का समाधान निश्चित रूप से हो जाता है।

कुछ लोग श्री रामचन्द्र के वनप्रवास के समय मृग के शिकार करने को मांसाहार से जोड़ कर देखते है। मृग शब्द को लेकर भ्रान्ति होने का मूल कारण मृग शब्द से हिरण का ग्रहण करना हैं। वास्तविकता यह है कि मृग का अर्थ हिरण नहीं अपितु सिंह अर्थात जंगली पशु है। कुछ प्रमाणों से इस तथ्य को समझने का प्रयास करते हैं।

1. वाल्मीकि रामायण आरण्यक कांड 14/33 में जटायु राम से कहते हैं “इदं दुर्गमं ही कान्तारं मृग राक्षससेवितम्” अर्थात हे राम यह दुर्गम्य वन मृग राक्षसों से भरा है। यहाँ पर मृग का अर्थ हिंसक जंगली पशु निकलेगा क्यूंकि शांतिप्रिय हिरण से किसी को कोई खतरा नहीं होता।

2. संस्कृत में सिंह को मृगेन्द्र कहा जाता है। जैसे नरों के राजा को नरेंद्र कहते है वैसे ही जंगली पशुओं के राजा को मृगेन्द्र संज्ञा दी गई हैं।

3. वेद में भी मृग को सिंह कहा गया है जैसे “मृगों न भीम: कुचरों गरिष्ठ:”

4. जंगली पशुओं के शिकार करने को मृगया कहते हैं। हिमाचल आदि पहाड़ी क्षेत्रों में सिंह को मृग के नाम से जाना जाता हैं।

इन प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि रामायण में वर्णित मृग सिंह था न कि हिरण था। प्राण रक्षा के लिए हिंसक सिंह का शिकार करना हिंसा नहीं हैं।

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@ डॉक्टर विवेक आर्य के फेसबुक पेज ‘आर्य समाज (Arya Samaj) तथा वैबसाइट Vaidictruth से साभार 

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