सोशल मीडिया:लिबरलों को दर्द कि इस्लाम पै पोस्ट कैसे लिख दी

लिबरलों को दर्द हो रहा है कि इस्लाम पर पोस्ट कैसे लिख दी!

श्याम मीरा सिंह-

सिद्धार्थ ताबिश की लिखी एक पोस्ट कल शेयर की जिसे इस नीचे पढ़ सकते हैं। लिबरलों को दर्द हो रहा है कि इस्लाम पर पोस्ट कैसे लिख दी, इसलिए बचाने के लिए भी कूद पड़े हैं। धार्मिक कट्टरता पर बड़े बड़े लेख लिखने वाले लिबरल इस्लाम की कट्टरता पर लिखने में पिचके हुए आम की तरह प्रोटेक्टिव मोड में आ जाते हैं।

मुस्लिम आम जनता और इस्लाम का चरमपंथ ये दो अलग बातें हैं। कट्टर से कट्टर हिंदू और हिंदुत्व दो अलग बातें हैं। कट्टरता पर लिखने का अर्थ ये नहीं है कि आप उस मज़हब के इंसानों से नफ़रत करते हैं। इस्लाम उन बंद समुदायों में से एक है जिसने अपने अंदर और बाहर दोनों ही तरफ़ की उन आवाज़ों को बुरी तरह कुचल दिया जिन्होंने थोड़ी उदार बातें कीं।

इस धर्म के ठेकेदारों ने लोगों के गीत गाने तक पर पाबंदियाँ लगाईं हैं। कार्टून बनाने तक पर गले काट दिए हैं, वो विचार विश्व के किसी भी देश में Exist करता हो पूरी इंसानियत के लिए ख़तरा है। विशुद्ध इस्लाम को मानने वाले देशों में महिलाओं को ड्राइवरी का अधिकार भी अभी जाकर मिल रहा है। रही बात भारत की। तो भारत में इस्लामी चरमपंथ Exist करता है। इसके लिए आम इंसान जिम्मेदार नहीं हैं, बल्कि वो संगठित गिरोह हैं जो उसे ये कहते हैं कि धर्म के नाम पर हत्या भी करोगे तो जायज है.

इस्लामी शासकों की सहिष्णुता का उदाहरण दिया जा रहा है, कहा जा रहा है कि सब मिल-जुल कर रहते थे, तब कोई दिक्कत नहीं थी. तो ये सफ़ेद झूठ है। मुस्लिम शासक देश के बर्बर शासकों में से एक रहे। कुछ बेहद कम मात्रा में आंशिक रूप से अच्छे भी रहे पर उन्हें अपवाद ही कहा जा सकता है। हिंदू अधीनस्थ राजाओं और आम हिंदू जनता की स्थिति ऐसी थी जिसे कभी भी कुचला जा सके।

कब तक गुमराह करेंगे कि सब ठीक है। सब ठीक नहीं है, धार्मिक चरमपंथ सत्ता पाने का सबसे सुलभ तरीका रहा है, जिससे ना मध्यकालिक भारत बचा न दुनिया. आज भी पूरी दुनिया में अलग-अलग जगहों पर दक्षिणपंथी सरकारें आ रही हैं. धार्मिक चरमपंथ का ही परिणाम है कि आज भारत अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। आज सबसे अयोग्य लोग धर्म के ठेकेदार बनकर हमें रूल कर रहे हैं। अगर इस दौर में धार्मिक कट्टरता और चरमपंथ पर मूँह ज़मीन में धंसाए रहे तो तुम कभी भी कुछ नहीं बोल सकते। कुछ लोगों को बुरा लगेगा, लगना चाहिए।

पहले हमें भी बुरा लगता था जब कोई कहता था कि हिंदुत्व के नाम पर चरमपंथी सोच को बढ़ाया जा रहा है। शुरू में बुरा लगा बाद में अहसास होने लगा कि हाँ धर्म हमारे समय की सबसे बड़ी समस्याएँ में से एक है। ज़रूरी है कि आम हिंदू मुसलमानों को धार्मिक चरमपंथ से दूर रखा जाए और प्रगतीशील शिक्षा दी जाए ताकि वे अच्छे इंसान बने। धर्म के नाम पर मरने-मारने के लिए तैयार ना हो जाएँ।

आज हिंदू चरमपंथ अपनी नग्न अवस्था में हमारे सामने खड़ा है। अगर इसे ख़ारिज करना है तो सबसे पहले धर्मों से चिपके हुए लोगों को छुटाना होगा। किसी भी एक धार्मिक चरमपंथ से तभी लड़ा जा सकता है जब बाक़ी चरमपंथ पर भी समय समय पर बोला और लिखा जाए। अन्यथा कोई आपकी बात पर विश्वास नहीं करेगा।

लिबरल तबके ने हिंदुत्व के ज़हर को तो पहचान लिया और उसपर बड़े ही प्रभावी तरीक़े से चोट भी करता है लेकिन इस्लामी चरमपंथियों पर आते ही कान खुजाने लगता है। इससे न मुस्लिमों का भला हुआ ना हिन्दुओं का चरमपंथ कम हुआ, बल्कि इन दोहरी बातों को देख उनका लिबरल विचारों से विश्वास भी उठा.

इस दोहरेपन के कारण आज प्रगतीशील और संवैधानिक मूल्यों ने आम जनमानस में अपना विश्वास खो दिया है क्योंकि इन मूल्यों को लीड करने वाले अवसरवादी और वैचारिक रूप से कमजोर और फ़ैन्सी कम्युनिस्ट थे। अगर कल को किसी अल्ताफ़ या अख़लाक़ की मौत के पीछे कारणों में हिंदुत्व खोजना है, जोकि असली कारण भी है तो उदयपुर जैसी घटनाओं के पीछे की इस्लामिक चरमपंथी विचारधारा से आँखें मत छुपाइए। अन्यथा कोई आपकी बात पर विश्वास नहीं करेगा।

वैसे भी लिबरल विचारों को आज आम हिंदू जनता नकार चुकी है और RSS की विचारधारा की गोद में बैठ गई है क्योंकि उसे लिबरल और साम्यवादी विचारों के नाम टोटकेबाज डिज़ायनर लिबरल मिले, जो चरमपंथ को लेकर असली स्टैंड ले ही नहीं सके। रही बात मेरी तो मेरे लिए इस्लाम के चरमपंथ पर खुलकर बोलना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि कल को किसी निर्दोष मुस्लिम की नृशंसता से हत्या कर दी गई तो मैं किस मुंह से हिंदू आतंकवाद पर बोल सकूँगा। कैसे बताऊंगा कि इन हत्याओं के पीछे धर्म की राजनीति है.

इंसानों को प्रभावित करने वाली हर घटनाओं पर उसके अनुपात में बोलना मेरे जैसों के लिए इसलिए जरूरी है कि आगे बोलने के लिए नैतिक बल रहे। अगर एक पर चुप रहूँ और दूसरे पर बड़ा सा आर्टिकल ले आऊँ तो कैसे अपने पिता को समझा पाऊँगा कि अख़लाक़ को धर्म की राजनीति ने मारा। आख़िर वो नैतिक आधार ही कहाँ रहेगा अगर अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार बोले। धार्मिक चरमपंथ इस मुल्क ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया की सबसे बड़ी समस्या है। कहीं किसी धर्म के रूप में है, कहीं किसी धर्म के रूप में। इस पर गंभीर चोटों की ज़रूरत है ताकि इंसानों को बचाया जा सके। इंसान तब बच पाएंगे जब इंसानों का नैतिक बल बचा रहे।

सिद्धार्थ ताबिश वो मूल पोस्ट देखें जिसे शेयर करने पर भाई लोग भड़के हुए हैं…

~सिद्धार्थ ताबिश

1970 के आसपास अफगानिस्तान में लगभग 100000 (एक लाख) से अधिक सिख और 280000 (दो लाख अस्सी हज़ार) हिन्दू रहते थे.. आज 2022 में वहां सिर्फ़ 159 सिख और हिन्दू बचे हैं.. जिनमें से एक 140 सिख हैं और बाक़ी 19 हिन्दू.. बौध अब वहां हैं ही नहीं

लगभग 4 करोड़ की कुल अफ़गानिस्तान आबादी में, ये है अल्पसंख्यकों की आबादी.. कुल 156.. ये आबादी कैसे ख़त्म हो गयी इस पर कोई बात नहीं करता है.. खासकर मुसलमान भाई तो बिलकुल भी नहीं

कारगिल जैसे सुदूर और बीहड़ इलाक़ों में हमेशा सीधे साधे बौद्ध धर्म को मानने वाले रहते आये हैं.. मगर धीरे धीरे सरहद पार से आये इस्लामिक धर्म प्रवर्तकों ने आज वहां की 77% आबादी मुस्लिम बना दी है.. जिनमें 65% शिया मुसलमान हैं बाक़ी सब सुन्नी.. बौद्ध 14% बचे हैं और हिन्दू 8%.. अब समस्या ये है कि कारगिल में एक गोम्पा (बौद्ध मंदिर) है जो बहुत ही पुराना है.. अब हालात ये हो गए हैं वहां कि बौद्ध अपने उस पुराने मठ में पूजा अर्चाना नहीं कर सकते हैं.. बौद्ध समुदाय उस गोम्पा का पुनर्निर्माण और मरम्मत करना चाहते थे जिसकी इजाज़त वहां का मुस्लिम बाहुल्य समुदाय नहीं दे रहा है.. आजकल वहां इस बात को लेकर बहुत तनाव का माहौल है

ये सब ऐसे ही धीरे धीरे होता है और ऐसा होता है कि न तो दुनिया जान पाती है, और न ही वो इसके बारे में बात करती है.. पचास सालों में तीन लाख से घटकर कोई आबादी सिर्फ़ 19 हो जाती है मगर इतनी बड़ी समस्या पर न कोई कुवैत बोलता है और न ही कोई अन्य देश.. हां क़तर नुपुर शर्मा को फांसी पर लटकाने के लिए बावला हुवा जा रहा है

और आगे का हाल ये है कि अब चार करोड़ अफ़गानी मुसलामानों के बीच सिर्फ़ 140 सिख अफ़गानिस्तान में नहीं रह सकते हैं.. क़ाबुल में सिखों के गुरुद्वारे पर तीन दिन पहले हमला हुवा.. और भारत सरकार ने आनान फ़ानन में सभी सिखों और हिन्दुवों को वीज़ा दिया है ताकि उन सबको भारत में सुरक्षित रखा जा सके.. एक भी सिख को पाकिस्तान नहीं बुलाता है, एक भी हिन्दू को वो नहीं बुलाएगा.. एक भी सिख को क़तर नहीं बुलाएगा

अब जो बचे हुवे 19 हिंदू और 140 सिख हैं.. वो भी अफगानिस्तान में नहीं रहेंगे.. अब वहां 100% मोमिन रहेंगे.. वो क्यों रहेंगे वहां अकेले, बाक़ी धर्म के लोग क्यों नहीं रह सकते? किस तरह की तकलीफ़ दे रहे थे ये 159 लोग 4 करोड़ मोमिनों को?

इस पर कोई भी सवाल नहीं पूछेगा.. और न ही जिन भाईयों से हमें ये सवाल पूछना है वो इसका कोई जवाब देने में कोई रुचि रखते हैं.. क्योंकि उनके हिसाब से इस दुनिया की असल समस्या ये है कि नुपुर शर्मा अभी तक गिरफ्तार क्यों नहीं की गई?

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