शास्त्रों से जुड़े रहिए, कोई नहीं हरा सकता सनातन को
अनुवाद में संस्कृत न जानने से क्या गलतियाँ होंगी, इसका अनुमान लगाना थोड़ा सा कठिन हो सकता है। अक्सर जब कहा जाये कि गलती होती है, तो ये बात लोगों को अविश्वसनीय लगने लगती है। इसके उदाहरण के लिए देवदत्त पट्टनायक की लिखी “मेरी गीता” का ये कवर पेज (पीछे का) देखिये। कथित रूप से ये सातवें अध्याय के श्लोक 20-23 का भावानुवाद है। इन श्लोकों में लिखा क्या है?
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया।।7.20
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।।7.21
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान् हि तान्।।7.22
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि।।7.23
अर्थ:
भोगविशेष की कामना से जिनका ज्ञान हर लिया गया है, ऐसे मनुष्य अपने स्वभाव से प्रेरित हुए अन्य देवताओं को विशिष्ट नियम का पालन करते हुए भजते हैं। जो-जो (सकामी) भक्त जिस-जिस (देवता के) रूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस-उस (भक्त) की मैं उस ही देवता के प्रति श्रद्धा को स्थिर करता हूँ। वह (भक्त) उस श्रद्धा से युक्त होकर उस देवता का पूजन करता है और उससे मेरे द्वारा विधान किये हुये इच्छित भोगों को नि:सन्देह प्राप्त करता है। परन्तु उन अल्प बुद्धि मनुष्यों का वह फल नाशवान् होता है। देवताओं के पूजक देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।
अब जब आप मूल श्लोकों के अनुवाद, और तथाकथित भावानुवाद को मिलाकर देखेंगे तो पता चलता है कि श्लोकों में तो कुछ और कहा गया है, भावानुवाद उस विषय की बात ही नहीं कर रहा! इसी वजह से तथाकथित जानकारों के “भावानुवाद” के बदले सीधे जानकारों के किये अनुवाद को अधिक विश्वसनीय मानना चाहिए।
आप सोच सकते हैं कि यही श्लोक महत्वपूर्ण क्यों हैं, या इनपर ही बात क्यों की? एक तो इसका कारण ये है कि जिनके पास पुस्तक न हो वो भी आसानी से जांच सकते हैं कि कवर पेज पर यही अर्थ लिखा था। दूसरा कारण है कि अक्सर तथाकथित विद्वान कहते हैं, “सभी धर्मों में एक ही बात लिखी है”! सभी धर्मों में एक ही बात नहीं लिखी है, इस बात को #भगवद्गीता का ये हिस्सा प्रमाणित करता है। दूसरे मजहब-रिलिजन अपने अलावा सभी को झूठा मानते हैं। भगवद्गीता यहाँ कह रही है कि जिसकी जैसी श्रद्धा हो, जिन देवी-देवताओं को व्यक्ति पूजेगा, उनके लोकों को वो प्राप्त होगा।
अन्य रिलिजन-मजहब के देवी-देवताओं को झूठा घोषित करके, उन्हें मानने वालों के किसी नरक में जा गिरने और अनंत काल तक कष्ट भोगने जैसी कोई बात नहीं की गयी। ये जो “सर्वधर्म समभाव” का सिद्धांत है, ये केवल हिन्दुओं में होता है। अन्य रिलिजन-मजहब की किताबों से हमारा धर्म यहाँ अलग है। तो अगली बार जब कोई तथाकथित विद्वान आपसे कहे कि सभी धर्म ग्रंथों में एक ही बात लिखी है, तो उसे #भगवद्गीता के सातवें अध्याय का बीसवें से तेईसवां श्लोक दिखाइये और पूछिए कि जिन दूसरे मजहब-रिलिजन की बात तुम कर रहे हो, उनमें ये सिद्धांत कहाँ है?
“कहाँ लिखा है?” कॉमरेड फटाक से पूछते हैं। आपको भी पूछना चाहिए कि कहाँ लिखा है। इससे फायदा ये होगा कि “पर धर्मो भयावह” तो फ़ौरन भगवद्गीता (3.35) से निकल आएगा। इसकी तुलना में “सर्व गर्म वड़ा पाव” या “सर्व धर्म समभाव” जैसे अजीबोगरीब संवाद कहीं से नहीं निकलेंगे। यकीन न हो तो कोशिश करके देख लीजिये!
“You don’t have to burn books to destroy a culture. Just get people to stop reading them.”
― Ray Bradbury
मध्यकाल में आतंक की आंधी में कई सभ्यताएं नष्ट भ्रष्ट हो गई | वो लोग जिधर से गुजरे उधर उधर तबाही का मंज़र फैलता गया | मगर इस तबाही के अंधड़ की टक्कर जब भारत से हुई तो उनके तरीकों से हिन्दुओं की संस्कृति पर वैसा असर होता नहीं दिखा ! जब दूर कहीं ऑक्सफ़ोर्ड जैसी यूनिवर्सिटी बननी शुरू हुई थी उस दौर में नालंदा विश्वविद्यालय को जला देने पर भी असर क्यों नहीं हुआ ?
बाद के आक्रमणकारियों ने शायद इस विषय पर सोचा होगा | बरसों से मनुस्मृति दहन दिवस मनाने और किताबें जलाने के बाद भी आखिर क्यों, ना तो संस्कृत ख़त्म होती है, ना हिन्दू संस्कृति ?
दरअसल जब तक हमारी इन किताबों का ज्ञान लोगों के पास है तब तक इसे ख़त्म करना संभव नहीं है | श्रुति परंपरा की वजह से कई लोगों को ये किताबें जबानी याद होती थी | हरेक की हत्या संभव नहीं थी, इसलिए संस्कृति का समूल नाश कभी संभव ही नहीं हुआ | अपने प्रयासों में आतंक के अकल्पनीय, अमानुषिक तरीके डालने, और हर किताब जला देने के बाद भी आक्रमणकारी समूल नाश नहीं कर पाए |
थक हार कर उन्होंने अपने तरीके बदले | अब कहा जाता है ये तो बस साधू बनने के तरीके हैं | हारे हुए लोगों का आसरा है ! इसलिए भगवद्गीता ना पढ़ने की अजीब सलाह दी जाएगी | कहेंगे संस्कृत बहुत वैज्ञानिक है इसलिए क्लिष्ट है | मत सीखो ! ये एक मृत भाषा है, मत सीखो ! जबकि सच ये है कि संस्कृत की रचनाओं में करीब 70% तो साहित्य, कला, नृत्य, विज्ञान और चिकित्सा की पुस्तकें है ! कालिदास, माघ, सुश्रुत, भास्कर, पाणिनि, पतंजलि, किसी ने धर्म पर तो लिखा ही नहीं !
सच्चाई ये है कि वो आपकी सभ्यता को नष्ट करने के लिए आपकी किताबों को गायब करना चाहते हैं | जैसे नेता अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए ज्यादा लोगों को अनपढ़ रखना चाहते हैं वैसे ही | जैसे “गरीबी हटाओ” का नारा देकर वो लोगों को गरीब और लालची रखना चाहते हैं बिलकुल वैसे ही | जानकार आदमी प्रश्न सोचेगा | आत्मविश्वास आते ही वो प्रश्न करना शुरू करेगा | वो आपके विरोध को कुचलना चाहते हैं | प्रतिरोध के आसान तरीके अपनाइए | इन्टरनेट से संस्कृत ऑडियो मुफ्त डाउनलोड कर लीजिये |
सुनने पर कई ग्रन्थ आपको अपने आप याद हो जायेंगे | अगली बार ज़ाकिर नाइक जैसे धूर्त जब कहें कि गीता के 92वें अध्याय में लिखा है तो आप उसपर खुद भी हंस सकेंगे |
संस्कृत साहित्य सीखने-पढ़ने वालों को, एक अन्तरंग परिक्षण और दूसरी बहिरंग परिक्षण, ये दो विधाएं सिखाई जाती हैं। रामायण पढ़ते समय धार्मिक या दार्शनिक मुद्दे जहाँ अन्तरंग परिक्षण में आयेंगे, वहीँ उस समय की सामाजिक व्यवस्था क्या थी, कवी ने तुलनाओं-उपमाओं में क्या कहा है, व्याकरण या शब्द विन्यास क्या इशारे कर रहा है, ये सब बहिरंग में चला जाएगा। जब आप पोएट्री एप्प्रीशिएसन या फिल्म एप्प्रीशिएसन नहीं सीखते तो ऐसे ही मुद्दे गायब हो जाते हैं। धर्मगुरु या कथावाचक आपको रामायण / रामचरितमानस के धार्मिक अंग बता जायेंगे लेकिन काव्य वाले हिस्से गायब हो जायेंगे।
पोएट्री एप्प्रीशिएसन या फिल्म एप्प्रीशिएसन के आयोजन 100% वामपंथी मजहब के लोग ही करते-करवाते हैं। ऐसी सभाओं के आयोजक, उसमें शामिल वक्ता, वहां बैठे सीखने, ताली बजाने वालों की भीड़ का बड़ा हिस्सा भी, वामपंथ मजहब के लोगों का ही होगा। इक्का दुक्का फेन्स सिटर भी होते हैं। वो युवा वर्ग होगा जिसकी फिल्म-साहित्य में रूचि होती ही है, लेकिन राजनैतिक विचारधारा स्पष्ट नहीं है। ये युवा अपने शौक की वजह से, बोरिंग धार्मिक चर्चा से उबकर आये लोग होते हैं। धर्म की चर्चाएँ ज्यादातर जमीनी वास्तविकता से कटी उनके किसी काम की नहीं लगती।
बार-बार अपने समझ में आ रही बात करते लोगों से मिलते, ऐसे लोग धीरे धीरे वामी मजहब के समर्थक हो जाते हैं। इन्होंने बाकायदा कोई पार्टी ज्वाइन नहीं की, लेकिन विरोध की राजनीती की अवचेतन में ऐसी आदत है कि जो भी परंपरा है, उसका बिना कोई वैज्ञानिक परिक्षण किये ही, विरोध करना शुरू कर देना इन्हें स्वाभाविक लगता है। जैसे अगर आप पूछ लें कि गोबर से होने वाले नुकसान पर कौन सी रिसर्च हुई है, आपने कौन सी पढ़ी ? तो उन्हें पता नहीं होगा। वैज्ञानिक पद्दति कहती है कि पहले परखो, अगर प्रमाण ना मिलें तभी ख़ारिज करो। लेकिन, किन्तु, परन्तु जांच के बिना ख़ारिज करने का अभ्यास है तो वो कहेंगे, बुरा ही है।
तुलना में जब हम दक्षिणपंथी झुकाव वालों को देखें तो वो फिल्मों से साहित्य से कोसों दूर भागने के अभ्यस्त होते हैं। शायद लम्बे समय पहले जब विदेशी आक्रमण शुरू हुए और वो कला-नृत्य-संगीत को गैर मजहबी मानते थे तभी इसकी नींव पड़ी होगी। हो सकता है कला से जुड़े लोगों के आर्थिक स्रोत बंद करके उन्हें वेश्यावृति जैसे व्यवसायों में धकेला गया हो। हाल के ब्रिटिश शासन के दौरान भी ऐसे पेशों से जुड़े लोगों पर जबरन लाइसेंस लागू किया गया था। इनमें से कई को डीनोटीफाइड कास्ट (Denotified Caste) बनाया गया जिस से वो आर्थिक-सामाजिक रूप से बिलकुल अछूत, दयनीय अवस्था में पहुँच गए।
आज के भारत में देखें तो ढोल और ऐसे वाद्य यंत्र बनाने वाला डोम समुदाय विपन्नता की अंतिम सीमा पर दिखेगा। राई और ऐसे दुसरे नर्तक भी समाज से कटे मिलेंगे। छाऊ और परी-खांडा में से छाऊ तो सीधा छावनी से आया शब्द है जो ब्रिटिश (इसाई) पाबंदियों के कारण युद्ध कला से धीरे धीरे चोरी छिपे किया जाने वाला नृत्य है और खांडा का मतलब भी तलवार होता है। सामाजिक रूप से अछूत बनाये गए ऐसे समुदायों को किसी अज्ञात चारित्रिक श्रेष्ठता के मिथ्या दंभ में दक्षिणपंथियों ने दूर रखा। समस्या ये है कि प्रकृति रिक्तता के खिलाफ काम करती है। मौका पाते ही इस खाली जगह को वामी मजहब ने भरना शुरू किया।
संस्कृति आपकी, परंपरा आपकी, कलात्मकता पीढ़ी दर पीढ़ी संजोये रखने में बलिदान आपके और लाभ लेने कोई और आ कर बैठा है ! वज्र-मूर्ख शब्द शायद ऐसे व्यवहार को ही देखकर गढ़ा गया होगा। कोई गरीब ब्राह्मण गाँव गाँव घूमकर पीढ़ियों किस्से सुनाता रहा, दरिद्र कथावाचक बना ही मर गया। उसे “दास्तानगोई” का नाम देकर आप ब्राह्मणवाद को कोसने बैठे हैं। “यूं तो प्रेमी पच्छत्तर हमारे” भी किसी राग पर ही आधारित है, लेकिन जिन पंडित नाम वालों ने उन शास्त्रीय रागों को भूखे पेट भी बचाए रखा, उनकी अज्ञात तोंद और लुप्त होती शिखा का मजाक उड़ाने से आप कैसे चूक जाते ?
गाँव के तालाब मंदिर कुछ ही समय पहले पंचायत के होते थे, उसकी देखभाल किसी ब्राह्मण के जिम्मे होता था। सत्रहवीं शताब्दी से पहले निजी जमीन नहीं होती थी, सब सामुदायिक, पंचायत का होता था। इन तालाब-मंदिर-धर्मशाला जो आय होती वो ब्राह्मण का परिवार और पंचायत का खर्च चलाने में काम आती। ऐसे दौर में किसान आत्महत्या भी नहीं करता था क्योंकि बुरी से बुरी स्थिति में उसे देखने के लिए गाँव की पंचायत, इलाके का मंदिर तो था ही। मंदिर तो Hindu Religious and Charitable Endowment Act, 1951 के नाम पर हथियाए और बाकी संसाधन जाते ही किसान मरने भी लगा।
आश्चर्यजनक रूप से जालिम ठाकुर, कपटी लाला और पाखंडी पंडितों के होते किसानों की आत्महत्या की घटनाएँ नहीं होती थी। अब जब होती हैं तो ना जमींदार हैं, ना जमींदारी, और कर्ज लालाजी से नहीं, लोन बैंक से मिलता है, पाखंडी पंडित तो काफी पहले ही गावों से खदेड़ दिया गया था। आपको ये सब सिर्फ इसलिए विलन नजर आते हैं क्योंकि आपको फिल्मों ने यही दिखाया है। एक ही झूठ को बार बार दोहराने से वो कैसे सच होता है इसका ये एक अच्छा नमूना है। हिन्दी फ़िल्में वामी मजहब का एक प्रचार तंत्र जैसा हिस्सा हैं। नाज़ी गोएबेल्स के 1930 के कॉमरेड उस से काफी कुछ सीख कर आगे आये हैं।
फिल्मों को देखना भी वैसे ही सीखना पड़ता है जैसे बचपन में कभी खाना खाना, बोलना, लिखना, खेलना, चलना सब सीखा था। वामी मजहब के लोग बच्चों को भी फिल्म एप्प्रीशिएसन की क्लास देते हैं। आपको ये सिखाने वाला कोई नहीं बैठा। आपको खुद ही सीखना होगा। हाथ पांव हिलाइए, सीखिए, वरना लम्बी लड़ाई हम मोर्चा दर मोर्चा हार तो रहे ही हैं।
✍🏻आनन्द कुमार जी की पोस्टों से संग्रहित