लंदन में भूखे हैं स्कूली बच्चे, लेकिन इंग्लैंड, अमेरिका की नहीं होती हंगर रेटिंग
जिस लंदन में भूख के मारे बच्चे खा जाते हैं रबर, वहां एक्टिविस्ट्स ने फर्श पर बहा दिया दूध, देखें वीडियो
यूके (UK) में इन दिनों अजीबो-गरीब विरोध प्रदर्शन चल रहा है। यहां पर सड़कों पर दूध फेंका जा रहा है। यह प्रदर्शन एंटी-डेयरी एक्टिविस्ट्स की तरफ से आयोजित किया जा रहा है। उनका कहना है कि प्लांट बेस्ड डाइट को प्राथमिकता दी जानी चाहिए ताकि आने वाले दिनों में मौसम को सही रखा जा सके।
हाइलाइट्स
1-लंदन और कई जगहों पर यूके एनिमल रीबिलियन की तरफ से विरोध प्रदर्शन हो रहा है
2-डेयरी प्रोडक्ट्स के खिलाफ कार्यकर्ताओंं ने सुपरस्टोर्स में सैंकड़ों लीटर दूध बहा दिया
3-जबकि एक रिपोर्ट की मानें तो लंदन के स्कूलों में कई बच्चे इस समय भूखे हैंLondon-milk-protest-100 (2)
देहरादून/लंदन18 अक्टूबर: यूके में इन दिनों जानवरों के हक के लिए आवाज उठाने वाले संगठन यूके एनिमल रीबिलियन की तरफ से विरोध प्रदर्शन किया जा रहा है। संगठन के कई ऐसे कार्यकर्ता जो डेयरी प्रोडक्ट्स के खिलाफ हैं, उन्होंने पिछले दिनों कई सुपरस्टोर्स में सैंकड़ों लीटर दूध ऐसे ही बहा दिया। लोगों का ध्यान आकर्षित करने के मकसद से उन्होंने ऐसा किया। लेकिन कई लोग इस तरीके पर सवाल उठा रहे हैं। पिछले दिनों आई एक रिपोर्ट में इस बात पर चिंता जताई गई है कि यहां के स्कूलों में पढ़ने वाले सैंकड़ों बच्चों को सही डाइट नहीं मिल पा रही है। रिपोर्ट का कहना था कि स्कूल जाने वाले कई बच्चे भूखे रह जाते हैं।
बेबस स्टोर कर्मी और ग्राहक
एनिमल रिबिलियन, जलवायु परिवर्तन और एनिमल राइट्स से जुड़े हजारों कार्यकर्ता पिछले दिनों कई स्टोर्स जैसे फोरलम एंड मैंशन और सेल्फफ्रिजेस में दाखिल हो गए। इसके बाद उन्होंने फर्श पर दूध और इससे बने उत्पादों को फेंकना शुरू कर दिया। जबकि वहीं पर मौजूद स्टोर कर्मी और बाकी ग्राहक बेबस होकर उन्हें देखते रहे। पर्यावरण संगठन के तौर पर मशहूर इन संगठनों की मानें तो उनका मकसद प्लांट बेस्ट फू सिस्टम को देश में लाना है। उनकी मानें तो डेयरी या किसी और तरह की एनिमल फार्मिंग, व्यर्थ और पर्यावरण को तबाह करने वाली इंडस्ट्री है। साथ ही इस समय धरती पर जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गई है।
जमकर मचाया उत्पात
इस संगठन की तरफ से लंदन, मैनचेस्टर, नॉर्विच और एडिनबर्ग स्थित वेटरोस, होल फूड और मार्क्स एंड स्पेंसर स्टोर पर जमकर उत्पात मचाया गया। कई प्रदर्शनकारियों ने स्टोर के शेल्फ में रखी दूध की बड़ी बॉटल्स को उठाकर , उससे दूध फेंकना शुरू कर दिया था। वहीं एक और संगठन भी फर्श पर दूध बहाकर बॉटल्स को खाली करने में लगा था। एनिमल रिबिलियन की मानें तो वह आने वाले समय में प्लांट बेस्ड फूड सिस्टम का समर्थन करता है। इसके लिए ही वह इस तरह के कई और विरोध प्रदर्शन आयोजित करता रहेगा।
दिल तोड़ने वाली रिपोर्ट
इस साल सितंबर में आई एक रिपोर्ट जिसमें खाद्य गरीबी का जिक्र था, उसमें स्कूल जाने वाले बच्चों में बढ़ती भूख की दर के बारे में बताया गया था। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि इंग्लैंड में जितने भी स्कूल हैं, वहां पढ़ने वाले बच्चे इतने भूखे हैं कि वह या तो रबर खा जाते हैं या फिर लंच के समय कहीं छिप जाते हैं। बच्चे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि वह लंच का खर्च नहीं उठा पाते हैं। स्कूल के प्रधानाचार्यों की मानें तो सरकार ने स्कूलों को इस संकट से अकेले जूझने के लिए छोड़ दिया है।
घरों में नहीं खाना
इस रिपोर्ट को चैरिटी संस्था शेफ्स इन स्कूल की तरफ से तैयार किया गया था। इसकी तरफ से कराए गए सर्वे में कहा गया था कि यह बहुत ही दिल तोड़ने वाला सच है कि लंदन में भूखे बच्चों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है। कुछ बच्चे तो यह तक दिखाते हैं कि वह खाना खा रहे हैं जबकि उनका लंच बॉक्स खाली होता है। ये बच्चे फ्री स्कूल मील के योग्य नहीं हैं और न ही वो अपने दोस्तों को यह पता लगने देना चाहते हैं कि उनके घर में खाना नहीं है।
ब्रिटेन में सांसदों को मिल रहा सस्ता खाना, बच्चे रह जा रहे भूखे, ये है पूरा मामला
ब्रिटेन में सांसदों को मिल रहा सस्ता खाना (फोटो सोशल मीडिया
दुनिया के धनी एवं ताकतवर देशों में शुमार ब्रिटेन में जनता बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी के विरूद्ध सड़कों पर है। इस बीच ब्रिटेन से एक ऐसी खबर आई है, जिसने लोगों को हैरान कर दिया है। ब्रिटिश अखबार मिरर के एक रिपोर्ट के मुताबिक, यूके के सांसदों को खाने पर भारी भरकम सब्सिडी मिल रही है। ये बात हैरान कर देने वाली इसलिए है क्योंकि इसी ब्रिटेन में स्कूलों में उन बच्चों को खाना देने से इनकार किया जा रहा है, जिनके पास पैसे नहीं हैं। असल में अन्य देशों की तरह विकसित समझे जाने वाले ब्रिटेन में भी हालत ख़राब है और मंहगाई सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है। गरीबों की परवाह करने वाला कोई नहीं है।
सोशल मीडिया पर ब्रिटिश जनता सांसदों की इस असंवेदनशीलता पर जमकर अपनी भड़ास निकाल रहे हैं। ब्रिटिश सांसदों की तीखी आलोचना हो रही है। दरअसल, कोरोना महामारी बाद अन्य देशों की तरह विकसित देश माने जाने वाले यूके में भी स्थिति गंभीर है। बेतहाशा महंगाई से लोग त्रस्त हैं। ब्रिटिश जनता इन दिनों महंगाई के खिलाफ ‘इनफ इज इनफ’ कैंपेन चला रही है।
क्या है रिपोर्ट में ?
रिपोर्ट के मुताबिक, ब्रिटिश सांसदों की सैलरी 85 लाख रूपये है। इस पर उन्हें भत्ते अलग से मिलते हैं। साथ ही वे खाने पर मोटी सब्सिडी ले रहे हैं। पिछले छह सालों में उन्होंने 12.3 किलो खाना बर्बाद किया है। जबकि कोरोना के बाद हुए एक सर्वे में कई 20 लाख वयस्कों ने बताया कि कई दिन उन्हें एक टाइम का खाना भी नसीब नहीं हो पाया।
यूके की एक महिला का वीडियो इन दिनों सोशल मीडिया पर काफी वायरल है। जिसमें वो कह रही हैं कि उन्हें स्कूल प्रबंधन की ओर से कहा गया है कि जिन बच्चों के पास पैसे नहीं हैं, उन्हें खाना न दें। ये महिला मैनेचेस्टर के एक स्कूल में खाना देने का काम करती हैं। महिला का कहना है कि उसे हर रोज 10-15 बच्चों को खाना देने से मना करना पड़ता है। वीडियो में महिला रोते हुए कहती हैं कि उसने इसलिए नौकरी नहीं की है कि बच्चों को भूखा जाने दे क्योंकि वे पैसे नहीं दे सकती है।
This dinner lady says she cries going into work – because she has to deny children school lunch. pic.twitter.com/ep0C8WKpQR
— Ava-Santina (@AvaSantina) August 30, 2022
ब्रिटेन में सांसदों को मिलने वाली सब्सिडी
रिपोर्ट के मुताबिक, ब्रिटिश सांसदों को अच्छा से अच्छा खान 2 से 8 पाउंड यानी 184 से 750 रूपये में मिल जाता है। वहीं बेतहाशा महंगाई के कारण यूके के कई स्कूल बच्चों के लिए परोसे जाने वाले भोजन में मीट को कम कर रहे हैं। बहुत स्कूल फंड की कमी से जूझ रहे हैं, इसलिए वे उन बच्चों को भोजन नहीं करवा पा रहे हैं, जो पैसे देने में असमर्थ हैं। ब्रिटेन के कानून के मुताबिक, स्कूल में फिलहाल उन बच्चों को मुफ्त में भोजन कराया जाता है जिनकी पारिवारिक आय करीब 6.82 लाख रूपये है। लेकिन कोरोना महामारी के बाद इससे अधिक कमाने वाले परिवार के बच्चे भी भुखमरी के कगार पर पहुंच गए हैं। ऐसे में सरकार मुफ्त भोजन की सीमा को बढ़ाकर 18.45 लाख करने पर विचार कर रही है।
अमरीका में भूखे सोने को मजबूर लाखों बच्चे
बीबीसी की रपट
अमरीका में हर पांच में से एक बच्चा किसी खाद्य सहायता कर्यक्रम के चलते खाना खाता है.
दुनिया के कुल जीडीपी का करीब एक चौथाई अकेले अमरीका का है लेकिन यहाँ लाखों बच्चे भूख से बिलबिला रहे हैं और इनकी संख्या बढ़ रही है घट नहीं रही.
अमरीका में एक करोड़ सत्तर लाख बच्चे गरीबी की मार झेल रहे हैं।
दस साल की केली हेवुड और उसके 12 साल के भाई टायलर दोनों के दिमाग में हमेशा अगले भोजन के बारे में विचार चलते रहते हैं और बहुत बार वो नहीं मिलता. आयोवा के एक फ़ूड बैंक से केली की माँ केवल 15 चीज़ें खरीद सकती हैं. वो 15 चीज़ें कौन सी हों यह तय करना उनकी माँ या भाई बहनों के आसान नहीं है.हर दिन संकट
खाने की ज़रूरी चीज़ों के बाद ऐसी दो चार ही चीज़ें हैं जो बच्चों की पसंद से ली जा सकती हैं. ऐपल सॉस लिया जाएगा, डिब्बाबंद स्पेगेटी भी होगी, मीट बॉल हो सकती है.
जिस कमरे में वो रहते हैं वहां ऐसी कोई जगह नहीं है जहाँ खाना पकाया जा सके.अक्सर होता है कि केली के परिवार के पास पर्याप्त खाना खरीदने को पैसे नहीं होते.
केली बताती हैं, “हम दिन में तीन बार नहीं खाते.मतलब नाश्ता,दोपहर का खाना और रात का खाना.जब मुझे भूख लगती हैं तो मैं दुखी होती हूँ और कुछ करने का मन नहीं करता.”केली और उसका भाई टायलर अपनी माँ बारबरा के साथ रहते हैं. बारबरा किसी फैक्ट्री में काम करती थीं. उनकी नौकरी चली गई तो उन्हें बेरोज़गारी भत्ते के रूप में 1480 डॉलर मिलते हैं.
एक नज़र में देखने में यह पैसा ज़्यादा लग सकता है लेकिन इतने पैसों में अमरीका में गुज़ारा चलाना बेहद मुश्किल है.वो खुद के मकान में रह नहीं सकते क्योंकि वहां रहने का खर्च 1326 डॉलर महीना है. उसे देने के बाद इनके पास खाना खरीदने के लिए कुछ नहीं बचेगा.
बच्चों की मजदूरी
केली परिवार की मदद को रेलवे ट्रैक के आस-पास खाली डिब्बे बीनता हैं. एक डिब्बे की कीमत दो से पांच सेंट मिल जाती है.
टायलर यहाँ-वहाँ लोगों के बगीचों की घास काट देता है जिसमें से “हर घर में से जो चार डॉलर मिलते हैं वो मैं अपनी माँ को दे देता हूँ ताकि कुछ खाना खरीदा जा सके.”दुकान की जगह केली के कपड़े पुराने कपड़ों की एक दुकान से आते हैं जहाँ उसे हिदायत है कि वो ऐसे किसी कपड़े की ना सोचे जिसकी कीमत दो डॉलर हो.
अच्छे दिनों में परिवार के पास दो कुत्ते थे जिनमें से एक को दान दे दिया गया ताकि कुछ खाना बचे.जिस जगह वो रहते हैं उसका किराया करीब 700 डॉलर महीना है, पर इस जगह रहने के बाद परिवार के बजट को चलाना बेहद मुश्किल है.
टायलर बताता है, “जब मैं टीवी पर कहीं फ़ूड शो देखता हूँ तो मुझे लगता है कि मैं टीवी में घुस जाऊं और सारा खाना खा लूं.”अमरीका में ऐसे चार करोड़ 70 लाख परिवार हैं जो खाने के लिए फ़ूड बैंकों पर आश्रित हैं. हर पांच में से एक बच्चा किसी खाद्य सहायता कार्यक्रम से खाना खाता है.
ख़राब होते हालात
जिस इलाके में केली और टायलर रहते हैं वहां के नज़दीकी फ़ूड बैंक वाले बताते हैं कि पिछले कुछ दिनों से वहां सहायता लेने वाले परिवारों की संख्या बढ़ी है. इस फ़ूड बैंक में पिछले 30 साल से काम कर रही कारेन लॉगलिन कहती हैं, “हालात तेज़ी से बदले हैं ख़ास तौर पर वैश्विक आर्थिक मंदी बाद. हमारे यहाँ आने वाले लोगों में कम से कम 30 से 40 प्रतिशत वृद्धि हुई है.”
कारेन लॉगलिन बताती हैं, “ऐसा नहीं कि हर आदमी बेरोजगार हो गया हो लेकिन नौकरी जाने के बाद उन्हें मिल रहे रोज़गार में इतने कम पैसे मिल रहे हैं कि आप अपने परिवार को नहीं पाल सकते.”
यूं तो अमरीकी स्कूलों में खाना मिलता है लेकिन केली और टायलर स्कूल नहीं जा सकते क्योंकि वो पिछले कुछ ही समय में तीन मकान बदल चुके हैं और जहाँ वो अभी रह रहे हैं वहां भी वो कितने दिन तक और रहेंगे पता नहीं.
इन बच्चों के पिता नहीं हैं और इनकी नानी पास ही रहती हैं और जो भी थोड़ी बहुत मदद वो कर सकती हैं वो करती हैं.केली की माँ का मानसिक अवसाद के लिए इलाज भी चल रहा है .
एक बार तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने राष्ट्र के नाम संबोधन में कहा था कि वो न्यूनतम मज़दूरी बढ़ाकर कम से कम नौ अमरीकी डॉलर प्रति घंटा कर देंगे.
उनका कहना था, “इस एक कदम से लाखों कामकाजी परिवारों के हालात सुधर जाएंगे. वो खाना खरीद पाएंगे अपने घरों से निकाले नहीं जाएंगे और आखिरकार तरक्की करेंगे.”
आंकड़ों के मुताबिक़ करीब एक करोड़ सत्तर लाख अमरीकी बच्चे ऐसे हैं जिन्हें खाना तो मिल रहा है लेकिन वो स्वास्थ्यप्रद नहीं है. उनके परिवार ताज़ा खाना नहीं खरीद सकते सो वो पित्ज़ा या ऐसी ही कुछ चीज़ें खरीदते हैं जो आगे चल कर उन्हें मोटा कर देती हैं.
इस तरह की समस्या से निपटने को कुछ ऐसे स्कूल ने जहाँ गरीब बच्चे पढ़ने आते हैं उन्होंने शुक्रवार को बच्चों को शनिवार और रविवार के लिए खाना बाँध कर देना शुरू किया है.
इस सबके बीच केली पूरी शिद्दत से स्कूल वापस जाना चाहती है. केली कहती हैं, ” मैं स्कूल जाना चाहती हूँ क्योंकि अगर पढ़ाई अच्छी नहीं होगी तो अच्छी नौकरी नहीं मिलेगी अच्छा पैसा नहीं मिलेगा. अच्छा पैसा नहीं मिला तो मैं अपने घरवालों पर ही आश्रित रह जाउंगी.”
भारत में बच्चों को दी जाती है मिड डे मील
भारत सरकार सरकारी स्कूलों में मिड डे मील योजना चलाती है। इस योजना में हर दिन लगभग 10 करोड़ बच्चों को भोजन दिया जा रहा है। इस खाने में बच्चों के पोषण के लिए ज़रूरी तत्वों का भी ध्यान रखा जाता है और उसकी मात्रा भी पर्याप्त रखी जाती है।
संसद की कैंटीन में सब्सिडी की सुविधा बंद
केंद्र सरकार ने पिछले साल यानी 2021 में एक बड़ा निर्णय लेते हुए संसद में चलने वाली कैंटीन की सब्सिडी बंद कर दी है। यानी सांसदों को जो खाना बेहद कम दाम पर दिया जा रहा था, वह सुविधा पूरी तरह से समाप्त कर दी गई। अब सांसदों को बाजार दर के हिसाब से पूरा दाम चुकाना होता है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस फैसले से 8 करोड़ से अधिक रूपये बचाए गए हैं।
Hunger Index: कैसे बनती है भुखमरी रिपोर्ट जिसमें हम श्रीलंका-पाकिस्तान से भी पीछे,भारत ने क्यों किया खारिज? अमेरिका,ब्रिटेन की क्यों नहीं होती रैंकिंग
आखिर ये GHI क्या है? इस बार सबसे बेहतर रैंकिंग किन देशों की है? सबसे खराब रैंकिंग वाले देश कौन से हैं? भारत और उसके पड़ोसी देशों क्या हाल है? अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस जैसे देशों क्या? GHI निकालते कैसे हैं? आइये जानते हैं…
वैश्विक भूख सूचकांक (Global Hunger Index) यानी GHI में भारत 107वें स्थान पर खिसक गया है। पिछली बार के मुकाबले भारत छह पायदान नीचे है। GHI के लिए दुनिया के 136 देशों से आंकड़े जुटाए गए। इनमें से 121 देशों की रैंकिंग की गई। बाकी 15 देशों से समुचित आंकड़े नहीं होने के कारण उनकी रैंकिंग नहीं की जा सकी।
इस रैंकिंग में भारत अपने लगभग सभी पड़ोसी देशों से पीछे है। केवल अफगानिस्तान से ही भारत की स्थिति थोड़ी सी बेहतर है। अफगानिस्तान इस सूची में 109वें स्थान पर है। 29.1 स्कोर के साथ GHI के प्रकाशकों ने भारत में ‘भूख’ की स्थिति को गंभीर बताया है।
ये GHI क्या है?
सन 2000 से लगभग हर साल GHI जारी होता है। इस रिपोर्ट में जितना कम स्कोर होता है उस देश का प्रदर्शन उतना बेहतर माना जाता है। कोई देश भूख से जुड़े सतत विकास लक्ष्यों को कितना हासिल कर पा रहा है। इसकी निगरानी करने का साधन वैश्विक भूख सूचकांक (Global Hunger Index) यानी GHI है। जिसका इस्तेमाल अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग के लिए किया जाता है। GHI किसी देश में भूख के तीन आयामों को देखता है। पहला देश में भोजन की अपर्याप्त उपलब्धता, दूसरा बच्चों की पोषण स्थिति में कमी और तीसरा बाल मृत्यु दर(जो अल्पपोषण के कारण है)।
GHI रैंकिंग दी कैसे जाती है?
जहां तक रैंकिंग दिए जाने की बात है तो यह चार पैमानों पर दी जाती है। कुल जनसंख्या में कुपोषितों की आबादी कितनी है, पांच साल से कम उम्र के बच्चों में समुचित शारीरिक विकास नहीं होने की समस्या कितनी है, पांच साल से कम उम्र के बच्चों में लंबाई नहीं बढ़ने की समस्या कितनी है, 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्युदर कितनी है।
इन मानकों पर अलग-अलग देशों को 100-बिंदु पैमाने पर रैंक किया जाता है। इसमें 0 और 100 क्रमशः सर्वश्रेष्ठ और सबसे खराब संभव स्कोर हैं। नौ या नौ से कम स्कोर का मतलब उस देश में स्थिति बेहतर है। भूख की समस्या कम है। 10 से 19.9 तक के स्कोर वाले देशों में भूख की समस्या नियंत्रित स्थिति में मानी जाती है। 20.0 से 34.9 के बीच वाले स्कोर वाले देशों में भूख की समस्या गंभीर मानी जाती है। वहीं, 35.0 से 49.9 के बीच स्कोर वाले देशों में भूख की समस्या खतरनाक तो 50 से ज्यादा बेहद खतरनाक मानी जाती है।इस बार सबसे बेहतर रैंकिंग किन देशों की है?
इस बार की रैंकिंग में 17 देशों का GHI स्कोर 5 से कम है। इन सभी देशों को अलग-अलग रैंकिंग नहीं देकर सभी को एक से 17 की रैंकिंग दी गई है। GHI की ओर से कहा गया है कि इन देशों के बीच आंकड़ों में अंतर बहुत कम है। इन 17 देशों में बेलारूस,बोस्निया और हर्जेगोविना,चिली, चीन,क्रोएशिया,एस्टोनिया,हंगरी,कुवैत,लातविया, लिथुआनिया, मोंटेनेग्रो, उत्तरी मैसेडोनिया,रोमानिया,सर्बिया,स्लोवाकिया, तुर्की और उरुग्वे शामिल हैं।
सबसे खराब रैंकिंग वाले देश कौन से हैं?
दुनिया के नौ देश ऐसे हैं जहां भूख की समस्या खतरनाक स्तर पर है। यानीं, इन देशों का GHI स्कोर 35.0 से 49.9 के बीच है। इन देशों में चाड, कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य, मेडागास्कर, मध्य अफ्रीकी गणराज्य, यमन, बुरुंडी, सोमालिया, दक्षिण सूडान, सीरियाई अरब गणराज्य शामिल है। इनमें चाड, कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य, मेडागास्कर, मध्य अफ्रीकी गणराज्य और यमन को क्रमश: 117 से 121 तक की रैंकिंग मिली है। बाकी देशों को डेटा कम होने के कारण रैंकिंग नहीं दी गई है।
भारत और उसके पड़ोसी देशों क्या हाल है?
भारत के पड़ोसी देशों की बात करें तो पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल, म्यांमार की स्थिति हमसे बेहतर है। 121 देशों की सूची में श्रीलंका 64वें, म्यांमार 71वें, नेपाल 81वें, बांग्लादेश 84वें और पाकिस्तान 99वें पर है। भारत से पीछे सिर्फ अफगानिस्तान है। अफगानिस्तान 109वें नंबर पर है। चीन की बात करें तो चीन दुनिया के उन देशों में शामिल है जहां इसकी समस्या कम है। चीन को एक से 17 की रैंकिंग पाने वाले देशों में शामिल है। वहीं, भूटान उन देशों में शामिल है जहां ये रैंकिंग नहीं निकाली गई है।
अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस जैसे देशों क्या?
GHI में 136 देशों का सर्वे किया गया है। 2021 में 116 देशों के मुकाबले इस बार देशों में इजाफा हुआ है। इसके अलावा कई देश ऐसे हैं जो इसमें शामिल नहीं है। इनमें अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस जैसे कई देश शामिल हैं। भारत का पड़ोसी देश भूटान भी ऐसे देशों में शामिल है।
बीते दो दशक में भारत की रैंकिंग और GHI स्कोर कितना सुधरा या बिगड़ा है?
2000 से इस रैंकिंग शुरुआत हुई। इसका उद्देश्य 2030 तक दुनियाभर में भुखमरी की समस्या को खत्म करना था। तब भारत का GHI स्कोर 38.8 था। जो 2007 आते-आते घटकर 36.3 हो गया। 2014 में ये स्कोर खतरनाक स्तर से नीचे आया। 2014 में यह स्कोर 28.2 था। तब भारत गंभीर श्रेणी के देशों में शामिल था। यह अभी भी गंभीर स्तर पर बरकरार है। हालांकि,इस स्कोर में इजाफा(29.1) हुआ है।
जिन चार संकेतकों के आधार पर यह रैंकिंग तैयार की जाती है उनमें दो में भारत लगातार सुधार कर रहा है। इनमें बच्चों की मृत्युदर और लंबाई नहीं बढ़ने की समस्या शामिल है। इसके बाद भी बीते आठ साल में भारत के GHI स्कोर में इजाफा हुआ है। इसकी वजह बच्चों के समुचित शारीरिक विकास में कमी की मामले बढ़ने और कुल जनसंख्या में कुपोषित आबादी की समस्या बढ़ने को बताया गया है।भारत का इस रैंकिंग को लेकर क्या कहना है?
भारत सरकार ने इस रिपोर्ट को खारिज कर दिया है। सरकार का कहना है कि यह सरकार को बदनाम करने की साजिश का हिस्सा है। केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने इसे गलतियों का पुलिंदा करार दिया है। उसका कहना है कि यह रिपोर्ट गलत और भ्रामक सूचनाओं पर आधारित है। सूचकांक के मापदंड और कार्यप्रणाली भी वैज्ञानिक नहीं हैं। मंत्रालय का कहना है कि इसके चार संकेतकों में से तीन बच्चों से जुड़े हैं जो संपूर्ण आबादी की जानकारी नहीं देते हैं। मंत्रालय के मुताबिक चौथा और सबसे अहम सूचकांक कुल जनसंख्या में कुपोषित आबादी का है। यह केवल 3,000 लोगों के बहुत ही छोटे सैंपल पर किए गए जनमत सर्वेक्षण पर आधारित है।