शासन बदले, राष्ट्रध्वज से कभी नहीं गया मंदिर प्रतीक

दुनिया का ऐसा देश जो पहले था हिंदू फिर हुआ बौद्ध लेकिन झंडे पर अब भी विशाल मंदिर

मंदिर तो पूरे दुनिया में हैं लेकिन क्या आपको मालूम है कि एक विशाल मंदिर का चित्र एक देश के नेशनल फ्लैग पर है, ये मंदिर बताता है कि ये देश कितनी शिद्दत से हिंदू जड़ों से जुड़ा है. वाकई ये देश पहले हिंदू धर्म वालों का था लेकिन फिर यहां के ज्यादातर लोगों ने बौद्ध धर्म अपना लिया और अब ये देश बुद्धिस्ट देश बन चुका है.

जिस देश के झंडे की हम बात कर रहे हैं, उसमें विशाल मंदिर का चित्र बना हुआ है. ये इस देश का प्रतीक भी है. इस झंडे में दो रंगों की पट्टियां हैं – नीली और लाल. इन्हीं पट्टियों के बीच तीन शिखर कंगूरों वाला हिंदू मंदिर का चित्र है. जो बताता है कि इस देश का हिंदू धर्म से बहुत खास रिश्ता है.

इस देश का झंडा पिछले कई सालों में कई बार बदला लेकिन हर बार इसके झंडे में मंदिर का चित्र जरूर रहा. तो अब हम आपको बता देते हैं कि ये कौन सा देश है. इस देश का नाम है कंबोडिया. इसे राष्ट्रीय ध्वज के रूप में 1989 में स्वीकार किया गया. 1993 में सरकार ने इसे मंजूरी दे दी गई.

1875 से ही कंबोडिया के झंडे में अंगकोर वाट के मंदिर को रखा गया था. जिसमें ऊपर और नीचे नीली पट्टियां थीं और मध्य में लाल पट्टी और बीच में मंदिर का रेखाचित्र. कंबोडिया के 1948 में आजादी के बाद इसे नेशनल फ्लैग बनाया गया. इसे 09 अक्टूबर 1970 तक चलाया गया. जब तक कि देश का नाम बदलकर खमेर गणराज्य नहीं हो गया. तब लोन नोल ने इसके लिए नया झंडा पेश किया.

खमेर गणराज्य खमेर रूज के 1975 तक के शासन तक कायम रहा. इसके बाद फिर कंबोडिया का नाम डेमोक्रेटिक कंपूचिया हो गया, जो 1975 से 1979 तक अस्तित्व में था. तब फिर इसका झंडा बदला और पीले रंग में तीन टावरों वाले अंगकोर वाट डिजाइन के साथ लाल झंडे का इस्तेमाल किया. कंपूचिया गणराज्य कंबोडिया पर वियतनामी आक्रमण के बाद 1979 में स्थापित किया गया था.

1993 में, 1948 के कम्बोडियन ध्वज को फिर से अपनाया गया. अब यही कंबोडिया का राष्ट्रीय झंडा है. हालांकि कंबोडिया का नाम बदला हो या कोई शासन रहा हो लेकिन हमेशा ही इसके झंडे पर अंगकोर वाट का मंदिर बना ही रहा. लेकिन आप हैरान हो सकते हैं कि अगर शासनों के दौरान कभी कंबोडिया का नाम बदला तो उसके साथ उसका झंडा भी बदल गया. इस देश का झंडा पिछले 170 सालों में 09 बार बदला जा चुका है.

वैसे जिस मंदिर का चित्र कंबोडिया के राष्ट्रीय झंडे पर है वो प्रसिद्ध अंगकोर वाट 12वीं शताब्दी में महिधरपुरा राजाओं द्वारा बनवाया गया था. इसमें पांच मीनारें हैं, लेकिन इन सभी मीनारों को हमेशा झंडों पर इस्तेमाल किए गए शैलीबद्ध संस्करण में चित्रित नहीं किया गया. सितंबर 1993 में राजशाही बहाल हुई, 1948 के झंडे को उसी साल जून में फिर से अपनाया गया, जिसमें तीन मीनारें हैं.

गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड्स इस मंदिर को दुनिया की सबसे बड़ी धार्मिक संरचना मानता है. मूल रूप से एक हिंदू मंदिर के रूप में निर्मित गया था. राजा सूर्यवर्मन द्वितीय द्वारा बनवाया गया ये मंदिर मूलरूप से भगवान विष्णु को समर्पित था. 12वीं सदी के दौरान ये धीरे-धीरे एक बौद्ध मंदिर में तब्दील हो गया. इसे “हिंदू-बौद्ध” मंदिर के रूप में भी वर्णित किया जाता है.

ये मंदिर 28 सालों में बना था. कहा जाता है कि दिवाकर पंडित नाम के ब्राह्मण के आग्रह पर राजा सूर्यवर्मन द्वितीय ने ये मंदिर बनवाना शुरू किया. अंगकोरवाट के सभी मूल धार्मिक रूप हिंदू धर्म से लिए गए. इसे राजा के राज्य मंदिर और राजधानी शहर के रूप में बनाया गया. ऐसा लगता है कि राजा की मृत्यु के तुरंत बाद काम समाप्त हो गया, इससे मंदिर की फिनिशिंग और सजावट अधूरी रह गई.

हालांकि बाद में नए राजा, जयवर्मन सप्तम ने इसके काम को बहाल किया. लेकिन इस बीच कंबोडिया में बौद्ध धर्म फैलने लगा और राजा ने उस धर्म को अपनाया तो अंगकोर वाट को भी धीरे-धीरे बौद्ध स्थल में परिवर्तित कर दिया गया. कई हिंदू मूर्तियों का स्थान बौद्ध कला ने ले लिया.

कंबोडिया जिसे पहले कंपूचिया के नाम से जाना जाता था दक्षिण पूर्व एशिया का एक प्रमुख देश है जिसकी आबादी १,४२,४१,६४० (एक करोड़ बयालीस लाख, इकतालीस हज़ार छे सौ चालीस) है। नामपेन्ह इस राजतंत्रीय देश का सबसे बड़ा शहर एवं इसकी राजधानी है। कंबोडिया का आविर्भाव एक समय बहुत शक्तिशाली रहे हिंदू एवं बौद्ध खमेर साम्राज्य से हुआ जिसने ग्यारहवीं से चौदहवीं सदी के बीच पूरे हिन्द चीन (इंडोचायना) क्षेत्र पर शासन किया था। कंबोडिया की सीमाएँ पश्चिम एवं पश्चिमोत्तर में थाईलैंड, पूर्व एवं उत्तरपूर्व में लाओस तथा वियतनाम एवं दक्षिण में थाईलैंड की खाड़ी से लगती हैं। मेकोंग नदी यहाँ बहने वाली प्रमुख जलधारा है।

Preăh Réachéa Anachâk Kâmpŭchea
कम्बोडिया की राजशाही

ध्वज कुल चिह्न
राष्ट्रवाक्य:
“देश, धर्म, राजा”
राष्ट्रगान: Nokoreach
रॉयल किंगडम
भूरे रंग में एशियान और हरे रंग में कम्बोडिया
भूरे रंग में एशियान और हरे रंग में कम्बोडिया
राजधानी और सबसे बड़ा नगर
नामपेन्ह 11°33′N 104°55′E / 11.550°N 104.917°E
राजभाषा(एँ)-खमेर
निवासी-खमेर या कम्बोडियन
सरकार
संवैधानिक राजशाही,संसदीय प्रतिनिधित्व लोकतंत्र

राजा-नोरोदोम शिहामोनी
-प्रधानमंत्री-हुन सेन
गठन

खमेर साम्राज्य-८०२

फ्रांसिसी उपनिवेश-१८६३

फ्रांस से स्वतंत्रता-९ नवम्बर १९५३

राजशाही की पुनर्स्थापना-मई १९९३
क्षेत्रफल
-कुल-१८१,०३५ km2 (८८वाँ)

जल (%)-२.५
जनसंख्या
-२००८ जनगणना -१४,२४१,६४० (६७वाँ)
सकल घरेलू उत्पाद (पीपीपी)
२००८ प्राक्कलन
कुल $२८.२३९ बिलियन (-)
-प्रति व्यक्ति $२,०६६ (-)
मानव विकास सूचकांक (२०१३)वृद्धि ०.५८४
मध्यम · १३६वाँ

मुद्रा-राइल (៛)१ (KHR)
समय मण्डल-(यू॰टी॰सी॰+७)

ग्रीष्मकालीन (दि॰ब॰स॰)-(यू॰टी॰सी॰+७)
दूरभाष कूट-८५५
इंटरनेट टीएलडी-.kh
1.Local currency, although US dollars are widely used.
कंबोडिया की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से वस्त्र उद्योग, पर्यटन एवं निर्माण उद्योग पर आधारित है। २००७ में यहाँ केवल अंकोरवाट मंदिर आनेवाले विदेशी पर्यटकों की संख्या ४० लाख से भी ज्यादा थी। सन २००७ में कंबोडिया के समुद्र तटीय क्षेत्रों में तेल एवं गैस के विशाल भंडार की खोज हुई, जिसका व्यापारिक उत्पादन सन २०११ से होने की उम्मीद है जिससे इस देश की अर्थव्यवस्था में काफी परिवर्तन होने की अपेक्षा की जा रही है।

कंबुज का इतिहास

अंगकोरवात का मन्दिर
कंबुज या कंबोज कंबोडिया का प्राचीन संस्कृत नाम है। पूर्व इंडोचीन प्रायद्वीप में सर्वप्राचीन भारतीय उपनिवेश की स्थापना फूनान प्रदेश में प्रथम शती ई. में हुई थी। लगभग 600 वर्षों तक फूनान ने इस प्रदेश में हिंदू संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। तत्पश्चात्‌ इस क्षेत्र में कंबुज या कंबोज का महान्‌ राज्य स्थापित हुआ जिसके अद्भुत ऐश्वर्य की गौरवपूर्ण परंपरा 14वीं सदी ई. तक चलती रही। इस प्राचीन वैभव के अवशेष आज भी अंग्कोरवात, अंग्कोरथोम में वर्तमान हैं।

कंबोज की प्राचीन दंतकथाओं के अनुसार इस उपनिवेश की नींव ‘आर्यदेश’ के राजा कंबु स्वयांभुव ने डाली थी। वह भगवान्‌ शिव की प्रेरणा से कंबोज देश में आए और यहाँ बसी हुई नाग जाति के राजा की सहायता से उन्होंने इस जंगली मरुस्थल में एक नया राज्य बसाया जो नागराज की अद्भुत जादूगरी से हरे भरे, सुंदर प्रदेश में परिणत हो गया। कंबु ने नागराज की कन्या मेरा से विवाह कर लिया और कंबुज राजवंश की नींव डाली। यह भी संभव है कि भारतीय कंबोज (कश्मीर का राजौरी जिला तथा संवर्ती प्रदेश-द्र. ‘कंबोज’) से भी इंडोचीन में स्थित इस उपनिवेश का संबंध रहा हो। तीसरी शती ई. में भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर बसनेवो मुरुंडों का एक राजदूत फूनान पहुँचा था और संभवत: कंबोज के घोड़े अपने साथ वहाँ लाया था। कंबोज के प्रथम ऐतिहासिक राजवंश का संस्थापक श्रुतवर्मन था जिसने कंबोज देश को फूनान की अधीनता से मुक्त किया। इसके पुत्र श्रेष्ठवर्मन ने अपने नाम पर श्रेष्ठपुर नामक राजधानी बसाई जिसके खंडहर लाओस के वाटफू पहाड़ी (लिंगपर्वत) के पास स्थित हैं। तत्पश्चात्‌ भववर्मन ने, जिसका संबंध फूनान और कंबोज दोनों ही राजवंशों से था, एक नया वंश (ख्मेर) चलाया और अपने ही नाम से भवपुर राजधानी बसाई। भववर्मन तथा इसके भाई महेंद्रवर्मन के समय से कंबोज का विकासयुग प्रारंभ होता है। फूनान का पुराना जीर्णशीर्ण राज्य शीघ्र ही इस नए दुर्घर्ष साम्राज्य में विलीन हो गया। महेंद्रवर्मन की मृत्यु के पश्चात्‌ उनका पुत्र ईशानवर्मन गद्दी पर बैठा। इस प्रतापी राजा ने कंबोज राज्य की सीमाओं का दूर-दूर तक विस्तार किया। उसने भारत और चंपा के साथ राजनयिक संबंध बनाये और नई राजधानी ईशानपुर  का निर्माण किया। ईशानवर्मन ने चंपा के राजा जगद्धर्म को अपनी पुत्री ब्याही थी जिसका पुत्र प्रकाशधर्म अपने पिता की मृत्यु के पश्चात्‌ चंपा का राजा हुआ। इससे लगता है कि चंपा इस समय कंबोज के राजनीतिक प्रभाव में था। ईशानवर्मन के बाद भववर्मन्‌ द्वितीय और जयवर्मन्‌ प्रथम कंबोज नरेशों के नाम मिलते हैं। जयवर्मन्‌ के पश्चात्‌ 674 ई. में इस राजवंश का अंत हो गया। कुछ ही समय के उपरांत कंबोज की शक्ति क्षीण होने लगी और धीरे-धीरे 8वीं सदी ई. में जावा के शैलेंद्र राजाओं का कंबोज देश पर आधिपत्य स्थापित हो गया। 8वीं सदी ई. का कंबोज इतिहास अधिक स्पष्ट नहीं है किंतु 9वीं सदी का आरंभ होते ही इस प्राचीन साम्राज्य की शक्ति मानों पुन: जीवित हो उठी। इसका श्रेय जयवर्मन्‌ द्वितीय (802-854 ई.) को है। उसने अंगकोर वंश की नींव डाल कंबोज को जावा की अधीनता से मुक्त किया। उसने संभवत: भारत से हिरण्यदास नामक ब्राह्मण को बुलवाकर अपने राज्य की सुरक्षा को तांत्रिक क्रियाएँ करवाईं। इस विद्वान्‌ ब्राह्मण ने देवराज संप्रदाय स्थापित किया जो शीघ्र ही कंबोज का राजधर्म बन गया। जयवर्मन्‌ ने अपनी राजधानी क्रमश: कुटी, हरिहरालय और अमरेंद्रपुर नगरों में बनाई जिससे स्पष्ट है कि वर्तमान कंबोडिया का प्राय: समस्त क्षेत्र उसके अधीन था और राज्य की शक्ति का केंद्र धीरे-धीरे पूर्व से पश्चिम की ओर बढ़ता हुआ अंतत: अंग्कोर प्रदेश में स्थापित हो गया था।

जयवर्मन्‌ द्वितीय को अपने समय में कंबुजराजेंद्र और उसकी महारानी को कंबुजराजलक्ष्मी नाम से जाना जाता था। इसी समय से कंबोडिया के प्राचीन नाम कंबुज या कंबोज का विदेशी लेखकों ने भी प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया था। जयवर्मन्‌ द्वितीय के पश्चात्‌ भी कंबोज के साम्राज्य की निरंतर उन्नति और वृद्धि होती गई और कुछ ही समय के बाद समस्त इंडोचीन प्रायद्वीप में कंबोज साम्राज्य का विस्तार हो गया। महाराज इंद्रवर्मन्‌ ने अनेक मंदिरों और तड़ाग बनवाये। यशोवर्मन्‌ (889-908 ई.) हिंदू शास्त्रों और संस्कृत काव्यों का ज्ञाता था और उसने अनेक विद्वानों को राजश्रय दिया। उसके समय के अनेक सुंदर संस्कृत अभिलेख प्राप्य हैं। इस काल में हिंदू धर्म, साहित्य और काल की अभूतपूर्व प्रगति हुई। यशोवर्मन्‌ ने कंबुपुरी या यशोधरपुर नाम की नई राजधानी बसाई। धर्म और संस्कृति का विशाल केंद्र अंग्कोर थोम भी इसी नगरी की शोभा बढ़ाता था। ‘अंग्कोर संस्कृति’ का स्वर्णकाल इसी समय से ही प्रांरभ होता है। 944 ई. में कंबोज का राजा राजेंद्रवर्मन्‌ था जिसके समय कई बृहद् अभिलेख सुंदर संस्कृत काव्यशैली में लिखे मिलते हैं। 1001 ई. तक का समय कंबोज के इतिहास में महत्वपूर्ण है क्योंकि इस काल में कंबोज की सीमाएँ चीन का दक्षिणी भाग छूती थीं, लाओस उसके अंतर्गत था और उसका राजनीतिक प्रभाव स्याम और उत्तरी मलाया तक फैला हुआ था।

सूर्यवर्मन्‌ प्रथम (मृत्यु 1049 ई.) ने प्राय: समस्त स्याम पर कंबोज का आधिपत्य स्थापित कर दिया और दक्षिण ब्रह्मदेश पर भी आक्रमण किया। वह साहित्य, न्याय और व्याकरण का पंडित था तथा स्वयं बौद्ध होते हुए भी शैव और वैष्णव धर्मों का प्रेमी और संरक्षक था। उसने राज्यासीन हो देश में गृहयुद्ध समाप्त कर राज्य की स्थिति पुन: सुदृढ़ करने का प्रयत्न किया। उत्तरी चंपा को जीतकर सूर्यवर्मन्‌ ने उसे कंबोज का करद राज्य बना लिया किंतु शीघ्र ही दक्षिण चंपा के राजा जयहरि वर्मन्‌ से हार माननी पड़ी। इस समय कंबोज में गृहयुद्धों और पड़ोसी देशों के साथ अनबन से काफी अशांति रही।

जयवर्मन्‌ सप्तम (अभिषेक 1181) के राज्यकाल में पुन: एक बार कंबोज की प्राचीन यश:पताका फहराने लगी। उसने एक विशाल सेना बनाई जिसमें स्याम और ब्रह्मदेश के सैनिक भी सम्मिलित थे। जयवर्मन्‌ ने अनाम पर आक्रमण कर उसे जीतने का भी प्रयास किया किंतु निरंतर युद्धों से शनै: शनै: कंबोज की सैनिक शक्ति का ह्रास होने लगा, यहाँ तक कि 1220 ई. में कंबोजों को चंपा से हटना पड़ा। किंतु फिर भी जयवर्मन्‌ सप्तम की गणना कंबोज के महान्‌ राज्यनिर्माताओं में की जाती है क्योंकि उसके समय कंबोज के साम्राज्य का विस्तार चरम सीमा पर पहुँचा था। जयवर्मन्‌ सप्तम ने अपनी नई राजधानी वर्तमान अंग्कोरथोम में बनाई थी। इसके खंडहर आज भी संसार के प्रसिद्ध प्राचीन अवशेषों में गिने जाते हैं। नगर के चतुर्दिक्‌ एक ऊँचा परकोटा था और 110 गज चौड़ी एक परिखा थी। इसकी लंबाई साढ़े आठ मील थी। नगर के परकोटे के पाँच सिंहद्वार थे जिनसे पाँच विशाल राजपथ (100 फुट चौड़े, 1 मील लंबे) नगर के अंदर जाते थे। ये राजपथ, बेयोन के विराट् हिंदू मंदिर के पास मिलते थे, जो नगर के मध्य में स्थित था। मंदिर में 66,625 व्यक्ति नियुक्त थे और इसके व्यय के लिए 3,400 ग्रामों की आय लगी हुई थी। इस समय के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि कंबोज में 789 मंदिर तथा 102 चिकित्सालय थे और 121 वाहनी (विश्राम) गृह थे।

जयवर्मन्‌ सप्तम के पश्चात्‌ कंबोज के इतिहास के अनेक स्थल अधिक स्पष्ट नहीं हैं। 13वीं सदी में कंबोज में सुदृढ़ राजनीतिक शक्ति का अभाव था। कुछ इतिहासलेखकों के अनुसार कंबोज ने 13वीं सदी के अंतिम चरण में चीन के सम्राट् कुबले खाँ का आधिपत्य मानने से इनकार कर दिया था। 1296 ई. में चीन से एक दूतमंडल अंग्कोरथोम आया था जिसके एक सदस्य शू-तान-कुआन ने तत्कालीन कंबोज के विषय में विस्तृत तथा मनोरंजक वृत्तांत लिखा है जिसका अनुवाद फ्रांसीसी भाषा में 1902 ई. में हुआ था। 14वीं सदी में कंबोज के पड़ोसी राज्यों में नई राजनीतिक शक्ति का उदय हो रहा था तथा स्याम और चंपा के थाई लोग कंबोज की ओर बढ़ने का निरंतर प्रयास कर रहे थे। परिणाम यह हुआ कि कंबोज पर दो ओर से भारी दबाव पड़ने लगा और वह इन दोनों देशों की चक्की के पाटों के बीच पिसने लगा। धीरे-धीरे कंबोज की प्राचीन महत्ता समाप्त हो गई और अब यह देश इंडोचीन का एक साधारण पिछड़ा हुआ प्रदेश बनकर रह गया। 19वीं सदी में फ्रांसीसी का प्रभाव इंडोचीन में बढ़ चला था; वैसे, वे 16वीं सदी में ही इस प्रायद्वीप में आ गए थे और अपनी शक्ति बढ़ाने के अवसर की ताक में थे। वह अवसर अब और 1854 ई. में कंबोज के निर्बल राजा अंकडुओंग ने अपना देश फ्रांसीसियों के हाथों सौंप दिया। नोरदम (नरोत्तम) प्रथम (1858-1904) ने 11 अगस्त 1863 ई. को इस समझौते को पक्का कर दिया और अगले 80 वर्षों तक कंबोज या कंबोडिया फ्रेंच-इंडोचीन का एक भाग बना रहा। (कंबोडिया, फ्रेंच cambodge का रूपांतर है। फ्रेंच नाम, कंबोज या कंबुजिय से बना है।) 1904-41 में स्याम और फ्रांसीसियों के बीच युद्ध में कंबोडिया का कुछ प्रदेश स्याम को दे दिया गया किंतु द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात्‌ 1945 ई. में यह भाग उसे पुन: मिल गया। इस समय कंबोडिया में स्वतंत्रता आंदोलन भी चल रहा था । परिणामस्वरूप फ्रांस ने कंबोडिया को एक नया संविधान दिया (मई 6, 1947)। किंतु इससे वहाँ के राष्ट्रप्रेमियों को संतोष न हुआ और उन्होंने 1949 ई. (8 नवंबर) में फ्रांसीसियों को एक नए समझौते पर हस्ताक्षर करने पर विवश किया जिसमें उन्होंने कंबोडिया की स्वतंत्र राजनीतिक सत्ता स्वीकार कर ली, किंतु अब भी देश को फ्रेंच यूनियन में ही रखा गया था। इसके विरुद्ध कंबोडिया के प्रभावशाली राजा नोरदम सिंहानुक ने अपना राष्ट्रीय आंदोलन जारी रखा। इनके प्रयत्न से कंबोडिया शीघ्र ही स्वतंत्र राष्ट्र बन गया और ये अपने देश के प्रथम प्रधान मंत्री चुने गए।

धर्म, भाषा, सामाजिक जीवन
कंबोज वास्तविक अर्थ में भारतीय उपनिवेश था। वहाँ के निवासियों का धर्म, उनकी संस्कृति एवं सभ्यता, साहित्यिक परंपराएँ, वास्तुकला और भाषा-सभी पर भारतीयता की अमिट छाप थी जिसके दर्शन आज भी कंबोज के दर्शक को अनायास ही हो जाते हैं। हिंदू धर्म और वैष्णव संप्रदाय और तत्पश्चात्‌ (1000 ई. के बाद) बौद्ध धर्म कंबोज के राजधर्म थे और यहाँ के अनेक संस्कृत अभिलेखों को उनकी धार्मिक तथा पौराणिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के कारण भारतीय अभिलेखों से अलग करना कठिन ही जान पड़ेगा। उदाहरण के लिए राजेन्द्रवर्मन्‌ के एक विशाल अभिलेख का केवल एक अंश यहाँ प्रस्तुत है जिसमें शिव की वन्दना की गई है :

रूपं यस्य नवेन्दुमंडितशिखं त्रय्‌या: प्रतीतं परं
बीजं ब्रह्महरीश्वरोदयकरं भिन्नं कलाभिस्त्रिधा।
साक्षारदक्षरमामनन्ति मुनयो योगोधिगम्यं नमस्‌
संसिद्ध्यै प्रणवात्मने भगवते तस्मै शिवायास्तु वम्‌॥
पुराने अरब पर्यटकों ने कंबोज को हिंदू देश के नाम से ठीक ही पहचाना। कंबुज की राजभाषा प्राचीन काल में संस्कृत थी, उसका स्थान धीरे-धीरे बौद्ध धर्म के प्रचार से पाली ने ले लिया और आज भी यह धार्मिक क्षेत्र में यहाँ की मुख्य भाषा बनी हुई है। कंबुज भाषा में संस्कृत के हजारों शब्द अपने कंबुजी या ख्मेर रूप में आज भी पाए जाते हैं (जैसे-तेप्‌दा = देवता, शात्स = शासन, सुओर = स्वर्ग, फीमेअन = विमान)। ख्‌मेर लिपि दक्षिणी भारत की पल्लव और पूर्वी चालुक्य लिपियों के मेल से बनी है। कंबोज की वास्तुकला, मूर्तिकला तथा चित्रकला पर भारतीय प्रभाव स्पष्ट है। अंग्कोरथोम का बेयोन मंदिर दक्षिण भारत के मंदिरों से बहुत मिलता-जुलता है। इसके शिखर में भी भारतीय मंदिरों के शिखरों की स्पष्ट झलक है। इस मंदिर और ऐलोरा के कैलास मंदिर के कलातत्व, विशेषत: मूर्तिकारी तथा आलेख्य विषयों और दृश्यों में अद्भुत साम्य है।

कंबोज की सामाजिक दशा का सुंदर चित्रण, शू-तान-कुतान के वर्णन (13वीं सदी का अंत) इस प्रकार है-

विद्वानों को यहाँ पंकि (पंडित), भिक्षुओं को शू-कू (भिक्षु) और ब्राह्मणों को पा-शो-वेई (पाशुपत) कहा जाता है। पंडित अपने कंठ में श्वेत धागा (यज्ञोपवीत) डाले रहते हैं, जिसे वे कभी नहीं हटाते। भिक्षु लोग सिर मुड़ा पीत वस्त्र पहनते हैं। वे मांस मछली खाते हैं पर मद्य नहीं पीते। उनकी पुस्तकें तालपत्रों पर लिखी जाती हैं। बौद्ध भिक्षुणियाँ यहाँ नहीं है। पाशुपत अपने केशों को लाल या सफेद वस्त्रों से ढके रहते हैं। कंबोज के सामान्य जन श्याम रंग के तथा हृष्टपुष्ट हैं। राजपरिवार की स्त्रियाँ गौर वर्ण हैं। सभी लोग कटि तक शरीर विवस्त्र रखते हैं और नंगे पाँव घूमते हैं। राजा पटरानी के साथ झरोखे में बैठकर प्रजा को दर्शन देता है।

खमेर अप्सरा नृत्यांगनाएँ
लिखने को कृष्ण मृग का चमड़ा भी काम में आता है। लोग स्नान प्रेमी हैं। यहाँ स्त्रियाँ व्यापार भी करती हैं। गेहूँ, हल्दी, चीनी, रेशम के कपड़े, राँगा, चीनी बर्तन कागज आदि यहाँ व्यापार की मुख्य वस्तुएँ हैं।
गाँवों में प्रबंध को एक मुखिया या मयिची रहता है। सड़कों पर यात्रियों के विश्राम को आवास बने हुए हैं।
कंबोडिया – कंबोज का आधुनिक नाम है। यह हिंद चीन प्रायद्वीप का देश है जो सन्‌ 1955 ई. में फ्रांसीसी आधिपत्य से मुक्त हुआ। 19वीं शताब्दी पूर्व यह प्रदेश ख़्मेर राज्य का अंग था किंतु 1863 ई. में फ्रांसीसियों ने कब्जा लिया । द्वितीय विश्वयुद्ध में कंबोडिया पर जापान का अधिकार था।

कंबोडिया का क्षेत्रफल 1,81,000 वर्ग मील है। इसकी पश्चिमी और उत्तरी सीमा पर स्याम तथा लाओ और पूर्वी सीमा पर दक्षिणी वियतनाम हैं। दक्षिण-पश्चिम भाग स्याम की खाड़ी का तट है। कंबोडिया तश्तरी के आकर की एक घाटी है जिसे चारों ओर से पर्वत घेरे हुए हैं। घाटी में उत्तर से दक्षिण की ओर मीकांग नदी बहती है। घाटी के पश्चिमी भाग में छिछली विस्तृत झील ता़गले उदाँग नदी द्वारा मीकांग से जुड़ी हुई है।

कंबोडिया की उपजाऊ मिट्टी और मौसमी जलवायु में चावल प्रचुर परिमाण में होता है। अब भी विस्तृत भूक्षेत्र श्रमिकों के अभाव में कृषिविहीन पड़े हैं। यहाँ की अन्य प्रमुख फसलें तंबाकू, कहवा, नील और रबर हैं। पशुपालन व्यवसाय विकासोन्मुख है। पर्याप्त जनसंख्या मछली पकड़कर अपनी जीविका कमाती है। चावल और मछली कंबोडिया की प्रमुख निर्यातित वस्तुएँ हैं। इस देश का एक विस्तृत भाग बहुमूल्य वनों से आच्छादित है। मीकांग और टोनलेसाप के संगम पर स्थित प्नॉम पेन कंबोडिया की राजधानी है। बड़े-बड़े जलयान इस नगर तक आते हैं। यह नगर कंबोडिया के विभिन्न भागों से सड़कों से जुड़ा है।

कम्बोडिया की ६ठी राष्ट्रीय असेम्बली के सदस्यगण

 

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