द केरला स्टोरी: शुतुरमुर्ग बने रहेंगे तो परिणाम भुगतने को अभिशप्त हैं आप

सच्चाई के सामने शुतुरमुर्गी रवैया, यह याद रहे कि ऐसा करना सदैव आत्मघाती होता है

जो मुस्लिम संगठन आइएस की कारगुजारी दिखाने वाली इस फिल्म का विरोध कर रहे हैं उनमें से कई वे भी हैं जिन्होंने एक समय (2015 में) इस संगठन के खिलाफ फतवा जारी किया था। पता नहीं अब उन्हें क्या हो गया है?

राजीव सचान : ममता बनर्जी ने यह कहते हुए चर्चित फिल्म द केरल स्टोरी पर पाबंदी लगा दी कि यह एक विकृत फिल्म है। उनका यह भी मानना है कि यह केरल को बदनाम करने के लिए बनाई गई है। समझना कठिन है कि बंगाल की मुख्यमंत्री को केरल के हितों की चिंता कब से होने लगी और क्यों? केरल के कुछ सिनेमाघरों ने इस फिल्म को प्रदर्शित करने से अवश्य मना किया है, लेकिन केरल सरकार ने अभी उस पर पाबंदी नहीं लगाई है। तमिलनाडु सरकार ने फिल्म पर पाबंदी लगाने की घोषणा तो नहीं की है, लेकिन उसने उसे अघोषित रूप से प्रतिबंधित कर दिया है। उसके दबाव में तमिलनाडु मल्टीप्लेक्स एसोसिएशन ने फिल्म को न दिखाने का फैसला किया है। इस सबके बीच मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश में इस फिल्म को टैक्स फ्री कर दिया गया है।

जहां कुछ राज्यों में द केरल स्टोरी को प्रतिबंधित करने की मांग की जा रही है, वहीं कुछ में टैक्स फ्री करने की। हालांकि केरल और मद्रास हाई कोर्ट के साथ सुप्रीम कोर्ट में इस फिल्म को प्रतिबंधित करने की याचिकाएं खारिज की जा चुकी हैं, लेकिन उस पर रोक चाहने वाले चैन से नहीं बैठे हैं। वे फिर से सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए हैं। इस फिल्म ने चार दिन में करीब 50 करोड़ रुपये की कमाई कर ली है।

इस फिल्म में यह दिखाया गया है कि कैसे कुछ मुस्लिम संगठन केरल की ईसाई और हिंदू लड़कियों को बहकाकर इस्लाम में मतांतरित करने के साथ उन्हें कट्टर इस्लामी बना रहे हैं। इनमें से कुछ को मतांतरित करने का काम खूंखार आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट यानी आइएस से जुड़े लोगों ने किया और उन्हें सीरिया-अफगानिस्तान ले गए। फिल्म निर्माताओं ने पहले दावा किया था कि ऐसी लड़कियों की संख्या 32 हजार है। जब इस दावे को चुनौती दी गई तो वे पीछे हट गए और यह सफाई पेश की कि फिल्म में तो केवल तीन लड़कियों की आपबीती है। इस मामले में फिल्म निर्माताओं को बढ़ा-चढ़ाकर दावा करने से बचना चाहिए था। इसके बाद भी इस सच्चाई से मुंह मोड़ने का कोई मतलब नहीं कि केरल या फिर देश के अन्य हिस्सों में दूसरे समुदाय की लड़कियों को छल-छद्म से इस्लाम में मतांतरित करने का अभियान चल रहा है। केरल में तो ऐसी लड़कियों की संख्या हजारों में है और इसी कारण वहां के चर्च ने लव जिहाद का जुमला उछाला था, जो सारे देश में फैल गया।

जैसे इस सच से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि छल-कपट से अन्य समुदायों की लड़कियों को इस्लाम में दाखिल कराना एक हकीकत है, वैसे ही इससे भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि अपने देश में आइएस में भर्ती होने वाले मुस्लिम युवकों की कमी नहीं। पता नहीं उनकी संख्या कितनी है, लेकिन यह तो एक तथ्य है कि कई मुस्लिम युवा आइएस में भर्ती होने के लिए इराक, सीरिया और अफगानिस्तान जा चुके हैं। कुछ मारे भी जा चुके हैं।

चूंकि द केरल स्टोरी में आइएस को खलनायक के रूप में दिखाया गया है, इसलिए उससे किसी को आपत्ति हो सकती है तो इसी संगठन को, जैसा कि केरल हाई कोर्ट ने कहा भी है, लेकिन पता नहीं क्यों अनेक मुस्लिम संगठनों के साथ खुद को सेक्युलर-लिबरल कहने वाले इस फिल्म को प्रतिबंधित करना चाह रहे हैं। जो मुस्लिम संगठन आइएस की कारगुजारी दिखाने वाली इस फिल्म का विरोध कर रहे हैं उनमें से कई वे भी हैं, जिन्होंने एक समय (2015 में) इस संगठन के खिलाफ फतवा जारी किया था। पता नहीं अब उन्हें क्या हो गया है?

यह पहली बार नहीं, जब किसी सच से मुंह मोड़ा जा रहा हो। इसके पहले ऐसा ही काम कश्मीर में कश्मीरी हिंदुओं के उत्पीड़न और पलायन को दिखाने वाली फिल्म द कश्मीर फाइल्स के साथ भी हो चुका है। इस पर हैरानी नहीं कि ममता बनर्जी ने द केरल स्टोरी के साथ द कश्मीर फाइल्स को भी लपेट लिया। कोई भी समझ सकता है कि उन्होंने यह काम किसे खुश करने के लिए किया है। सेक्युलर-लिबरल खेमा और कई मुस्लिम संगठन आज तक इस सच को मानने को तैयार नहीं कि जिहादियों ने कश्मीर से हिंदुओं को मार भगाया था। वे उनके पलायन के लिए कभी उन्हें ही दोष देते हैं तो कभी तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन को।

कश्मीरी हिंदुओं के कश्मीर से पलायन का सिलसिला कायम रहने के बाद भी इस सच को स्वीकार करने से इन्कार किया जा रहा है कि वहां उनके रहने लायक परिस्थितियां न पिछली सदी के अंतिम दशक में थीं और न अब हैं। इस पर आश्चर्य नहीं कि द कश्मीर फाइल्स को लेकर भी वैसा ही कहा गया था, जैसा द केरल स्टोरी को लेकर कहा जा रहा है। जब द केरल स्टोरी में आइएस की कारगुजारी दिखाई गई है तो उससे किसी को आपत्ति क्यों होनी चाहिए? मुस्लिम संगठनों को तो बिल्कुल भी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि आइएस के खिलाफ फतवा जारी करते समय उन्होंने कहा था कि इस आतंकी संगठन का इस्लाम से तो कोई लेना-देना ही नहीं।

जैसे कश्मीर के कटु सत्य से मुंह मोड़ा गया और फिलहाल केरल की सच्चाई को नकारने की कोशिश हो रही है, वैसे ही एक समय कैराना से हिंदुओं के पलायन को भी नकार दिया गया था, क्योंकि इसका दावा वहां के भाजपा सांसद ने किया था। इस दावे को तब तक झुठलाया जाता रहा, जब तक राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अपनी रपट जारी कर यह नहीं कह दिया कि डर के माहौल और रंगदारी के कारण कैराना के हिंदुओं ने पलायन किया। अपने देश में सच के सामने शुतुरमुर्ग बनने के उदाहरणों की कमी नहीं, लेकिन यह याद रहे कि ऐसा करना सदैव आत्मघाती होता है।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)

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