ज्ञान:अडाणी से बड़े थे भारत के ये तीन व्यापारी जिन्होंने राजनीति से बदला भारत का भाग्य

गौतम अडानी से ज्यादा बड़े थे इतिहास के ये 3 कारोबारी, राजनीति से बदला था भारत का भाग्य!

गौतम अडानी चर्चा में हैं. आइए भारतीय इतिहास के तीन व्यापारियों की कहानी जानते हैं जिन्होंने इतिहास में भारतीय राजनीति को बदलकर रख दिया था.

व्यापारी राजनीति और युद्ध में खुले तौर पर नजर नहीं आते. कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो. लेकिन किसी भूगोल और सभ्यता के लिहाज से युद्ध और राजनीति में व्यापारियों की भूमिका हमेशा महत्वपूर्ण रही है. दुनिया पर अतीत में जिन सत्ताओं का राज था, असल में वह पहले-पहल व्यापारियों की शक्ल में ही निकले थे. वह चाहे अरब, मध्य एशिया के हों या फिर अंग्रेज और दूसरी तमाम यूरोपीय कॉलोनी. व्यापारियों के कारोबारी कौशल उनकी सभ्यता के काम आए. भारत में भी इस्लामिक और यूरोपीय उपनिवेश व्यापार की शक्ल में ही आया था.

यह भी ध्यान दें कि उपनिवेशों के खिलाफ तमाम देशों के संघर्ष में व्यापारियों ने ही निर्णायक भूमिका निभाई. वह भी बिना सत्याग्रह किए. बिना वैचारिक प्रतिबद्धता जगाए और एकाध अपवाद छोड़ दिया जाए तो बिना तलवार उठाए. बिना राज सिंहासन पर बैठे. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में व्यापारियों का योगदान अतुलनीय है जिसे आज भुला दिया गया है. आधुनिक स्वतंत्रता आंदोलन में यूरोपीय उपनिवेशों के खिलाफ तो है ही- उससे पहले इस्लामिक उपनिवेश में भी नजर आता है. असंख्य उदाहरण भरे पड़े हैं. लेकिन भारतीय समाज के निर्माण और इतिहास में भारतीय व्यापारियों की भूमिका का उल्लेख नहीं होता।. हिंडनबर्ग की रिपोर्ट के बाद गौतम अडानी चर्चा में हैं. हम भारतीय इतिहास के सिर्फ तीन व्यापारियों की कहानी बता रहे है.

गौतम अडानी

1) भामाशाह जिन्होंने अकबर के खिलाफ प्रताप की जनक्रांति को सुलगाए रखा

भामाशाह भारतीय इतिहास का वह नाम हैं जो उतने ही आदर के साथ लिया जाता है जितना कि महाराणा प्रताप का. भामाशाह ने मातृभूमि के लिए अपना सर्वस्व प्रताप और मेवाड़ को समर्पित कर दिया था. भामाशाह कावेडिया गोत्र के ओसवाल महाजन थे. जैन पंथ से थे और मेवाड़ के सबसे प्रतिष्ठित व्यापारी थे. वे प्रताप के प्रधानमंत्री भी थे. भामाशाह को इतिहास में खारिज करने के बहुत प्रयास हुए पर उनका नाम कभी ख़त्म नहीं किया जा सका. कई ग्रंथों में उनका संदर्भ आता है. वह प्रताप से सात वर्ष छोटे थे.

राजपुताने में भामाशाह के निशान आज भी देखने को मिल जाएंगे. अकबर ने जब भारतीय राज्यों को गुलाम बनाना शुरू किया और एक पर एक वीभत्स हमले किए. सामूहिक नरसंहार हुए- उसकी चपेट में प्रताप का चित्तौड़ भी आया. प्रताप ने अकबर से इतिहास में सबसे लंबा संघर्ष किया. करीब 12 वर्षों तक लगातार युद्ध हुआ. पर कभी गुलामी के आगे झुके नहीं और क्रांति की मसाल जलाए रखी. हल्दीघाटी युद्ध में प्रताप के दस्ते ने अकबर की सेना को तबाह ही कर दिया था. वह अभूतपूर्व युद्ध था.

हल्दीघाटी के युद्ध के बाद प्रताप की स्थिति जूझने की नहीं थी. उनके पास संसाधन तक नहीं बचे थे. सैनिकों के भोजन और तनख्वाह तक के पैसे नहीं थे. मगर भामाशाह ने अपना सर्वस्व  प्रताप को समर्पित कर दिया था. उन्होंने खजाने की रक्षा करने वाले प्रथा भील के साथ चिंताग्रस्त महाराणा के पास पहुंचे और कहा था- यह पूर्वजों का धन है. इसे मातृभूमि के काम में लगाए. मातृभूमि रही तो हम धन फिर कमा लेंगे. यह भामाशाह का ही धन था जो प्रताप 12 वर्षों से ज्यादा वक्त तक अकबर से जूझते रहे और सदैव अपराजेय रहे. भामाशाह की मृत्यु प्रताप की मृत्यु के तीन साल बाद हुई थी.

2) दीवान टोडरमल जिन्होंने इतिहास में जमीन का सबसे महंगा सौदा किया

गुरु गोबिंद सिंह के छोटे साहिबजादों और माता गुजरी की शहादत के बारे में देश का बच्चा बच्चा जानता है. दिसंबर 1704 में औरंगजेब ने गुरुगोविंद सिंह जी के दो छोटे साहिबजादों बाबा जोरावर सिंह जी और बाबा फतिह सिंह जी और माता गुज़री को पकड़ लिया था. दोनों बिछुड़ गए थे. दो मासूम बच्चों को धर्म बदलने को कहा गया. नन्हे बालक झुके नहीं. औरंगजेब ने साहिबजादों को दीवारों में जिंदा चुनवा कर शहीद कर दिया था.

निर्मम हत्याकांड के तुरंत बाद एक शाही फरमान जारी किया गया. और कहा गया कि साहिबजादों और माता गुजरी का अंतिम संस्कार सल्तनत की जमीन पर नहीं किया जा सकता. उनका संस्कार जमीन का टुकड़ा खरीदकर ही किया जा सकता है. मुगलों को मालूम था कि ऐसे में जमीन के बदले उन्हें बहुत दौलत मिलेगी. उन्होंने शर्त रखी कि जितनी जमीन की जरूरत है, उस पर सोने के सिक्कों (अर्शफियां) को सीधा खड़ा करके ही खरीदा जा सकता है. गुरु गोविंद सिंह चाहकर भी वहां नहीं जा सकते थे. ऐसे में दीवान टोडर मल ने साहस दिखाया. वह एक रईस कारोबारी और धर्म भीरू थे.

अनुमान है कि उन्होंने जमीन खरीदने को करीब 78000 सोने के सिक्के जमीन पर बिछाये थे. 4 गज जमीन के लिए. उस वक्त के हिसाब से चार गज जमीन की कीमत 400 करोड़ पड़ी थी. टोडरमल ने सर्वस्व लुटाकर गुरुगोविंद सिंह और भारत के स्वाभिमान की रक्षा की थी. वह राह दिखाई जो हमेशा उत्पीडन के खिलाफ संघर्ष की प्रेरणा बना रहा.

3) जगत सेठ दुनिया के सबसे अमीर कारोबारी जिन्होंने बंगाल की राजनीति पलट दी


मुर्शिदाबाद में नवाब सिराजुद्दौला का राज था. सिराजुद्दौला विदेशी ही था और रियाया उससे और उसके रिश्तेदारों की लूट और अराजकता से परेशान थी. उसी राज्य में मारवाड़ी व्यापारी जगत सेठ (फतेहचंद)  थे. माना जाता है कि वह अपने वक्त में दुनिया के सबसे अमीर कारोबारी थे. समूचे उत्तर भारत में उनका कारोबार फैला था. वे राजा महाराजाओं को कर्ज दिया करते थे. कहा यह भी जाता है कि उनकी दौलत तब ब्रिटेन की जीडीपी से भी ज्यादा थी. उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी को भी कर्ज दिया था

जगत सेठ एक टाइटल है जो फ़तेह चंद को मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह ने 1723 में दिया था।
भारत आज भले ही विकसित देशों की तरह साधन संपन्‍न न हो, लेकिन इस देश ने ऐसा सुनहरा दौर भी देखा है जब यह पूरी तरह साधन संपन्‍न था और इस देश को सोने की चिडिय़ा कहा जाता था। यही कारण था कि कई सदियों तक इस देश को विदेशी अक्रांताओं ने लूटा। हालांकि इसके बाद भी हमारे इतिहास में कुछ ऐसे नाम भी दर्ज हैं जो राजा-महाराज न होने के बाद भी अपने धन-दौलत के बल पर राज करते थे। ऐसे ही एक व्‍यक्ति थे मुर्शिदाबाद के जगत सेठ, जिन्‍हें सेठ फतेहचंद के नाम से भी जाना जाता था। आज के समय में भले ही बंगाल का मुर्शिदाबाद शहर गुमनामी में जी रहा हो, लेकिन उस समय यह हर किसी के लिए व्यापारिक केंद्र हुआ करता था, हर तरफ इसी स्थान के चर्चे हुआ करते थे, शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति हुआ हो उस समय जो इस स्थान और जगत सेठ के बारे में न जानता हो। कहा जाता है कि एक समय इनके पास इतना पैसा था, जितना इंग्‍लैंड के सभी बैंकों के पास नहीं था।

कौन थे जगत सेठ

जगत सेठ एक टाइटल है जो फ़तेह चंद को मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह ने 1723 में दिया था। जिसके बाद इस पूरे परिवार को जगत सेठ के नाम से जाने जाने लगा। इस घराने का संस्‍थापक सेठ मानिक चंद को माना जाता है। बताया जाता है कि जगत सेठ महताब राय के पूर्वज मारवाड़ के रहने वाले थे। 1495 ई. में गहलोत राजपूतों में से गिरधर सिंह गहलोत ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया था। इस परिवार के हीरानन्द साहू 1652 ई. में मारवाड़ छोड़ पटना में आ बसे थे। पटना उन दिनों व्यापार का एक बड़ा केन्द्र हुआ करता था। यहां हीरानन्द साहू ने शोरा का कारोबार शुरू किया, उन दिनों योरोपियन शोरा के सबसे बड़े ख़रीदार हुआ करते थे। शोरा व्यापार के साथ-साथ साहू ने ब्याज पर कर्ज देने के काम को भी बढ़ाया था और जल्दी ही उनकी गिनती धनवान साहूकारों में होने लगी थी। हीरानन्द साहू के सात बेटे थे, जो व्यापार करने के लिए इधर-उधर बिखर गये। उनके एक बेटे माणिक चन्द ढाका आ गये जो उस जमाने में बंगाल की राजधानी हुआ करती थी।

दरअसल माणिक चन्द ही थे जिन्होंने बंगाल के जगत सेठ परिवार की बुनियाद रखी थी। मुर्शिद क़ुली ख़ां बंगाल, बिहार और उड़ीसा के सूबेदार और माणिक चंद एक दूसरे के गहरे दोस्त थे। माणिक चंद न सिर्फ नवाब मुर्शिद क़ुली ख़ां के ख़जांची थे बल्कि सूबे का लगान भी उनके पास जमा होता था। दोनों ने मिल कर बंगाल की नयी राजधानी मुर्शिदाबाद बसायी थी और औरंगज़ेब को एक करोड़ तीस लाख की जगह पर दो करोड़ लगान भेजा था। 1715 में मुग़ल सम्राट फ़र्रुख़सियर ने माणिक चंद को सेठ की उपाधि दी थी। इसके लिए एक बड़े से पन्ने पर जगत सेठ खुदवा कर सील बनवाई गयी थी, जो दूसरे दुर्लभ उपहारों के साथ शाही दरबार में फतेह चंद को पेश की गयी। इसके बाद ये परिवार जगत सेठ के नाम से जाना जाने लगा। माणिकचंद के बाद परिवार की बागड़ोर फ़तेह चंद के हाथ में आयी जिनके समय में ये परिवार बुलंदियों पर पहुंचा।

ढाका, पटना, दिल्ली सहित बंगाल और उत्तरी भारत के महत्वपूर्ण शहरों में इस घराने की शाखाएं थीं। इसका मुख्यालय मुर्शिदाबाद में था, इसका ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ लोन, लोन की अदायगी, सर्राफ़ा की ख़रीद-बिक्री आदि का लेनदेन था। इस घराने की तुलना बैंक ऑफ़ इंग्लैंड से की गई है। आंकड़ों के मुताबिक, 1718 से 1757 तक ईस्ट इंडिया कंपनी जगत सेठ की फर्म से सालाना 4 लाख कर्ज लेती थी। डच और फ्रेंच कंपनियों के साथ भारत के कई राजा-महाराज को भी यह फर्म कर्ज देती थी।

करीब 1000 बिलियन पाउंड थी संपत्ति

जगत सेठ घराने की संपत्‍ति का आकलन करें तो कहा जाता था कि यह परिवार चाहे तो सोने और चांदी की दीवार बनाकर गंगा की धारा रोक सकता है। इस घराने ने सबसे अधिक संपत्ति फतेहचंद के दौर में अर्जित की। उस समय उनकी संपत्‍ति क़रीब 10,000,000 पाउंड थी, जो आज के हिसाब से करीब 1000 बिलियन पाउंड होगी। ब्रिटिश सरकार के दस्तावेजों के अनुसार उनके पास इंग्लैंड के सभी बैंकों की तुलना में अधिक पैसा था, कुछ रिपोर्टो का ये भी अनुमान है कि 1720 के दशक में ब्रिटिश अर्थव्यवस्था जगत सेठों की संपत्ति से छोटी थी।

इस संपत्ति की रखवाली को यह परिवार 2000 से 3000 सैनिकों की सेना रखता था। इनकी दौलत ऐसे भी आंक सकते हैं कि अविभाजित बंगाल की पूरी ज़मीन में लगभग आधा हिस्सा उनका था, यानी अभी के असम, बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल को मिला लें तो उनमें से आधे का स्वामित्व उनके पास था।


पलट दिया था बंगाल का शासन

जगत सेठ फ़तेहचंद्र के बाद उसका पौत्र महताबचंद्र दूसरा जगत सेठ बना। बंगाल के सूबेदार के साथ बहुत अच्छे संबंध बना कर रखने वाले जगत सेठ और बंगाल के सूबेदार सरफ़राज़ ख़ां में 1739-40 में कुछ खटक गया था। वजह थी सरफ़राज़ ख़ां की अय्याशी, औरतें उसकी कमज़ोरी थीं, किसी ने उसे यह बता दिया था कि जगत सेठ फतेह चंद की बहू अप्सराओं जैसी सुन्दर है। सत्ता और शराब के नशे में चूर सरफ़राज़ ख़ां ने आदेश दिया कि वह जगत सेठ फतेह चंद की बहू देखना चाहता है, यह आदेश जगत सेठ के मुंह पर तमाचा था। अपमान का बदला लेने को जगत सेठ ने बिहार के नायब सूबेदार से सम्पर्क साधा।

अलीवर्दी ख़ां को मौके की तलाश थी, वह बंगाल का सूबेदार बनना चाहता था, जगत सेठ की मदद ने उसकी योजनाओं को आगे बढ़ा दिया। 10 अप्रैल 1740 को अलीवर्दी खान ने सरफ़राज़ ख़ां पर चढ़ाई कर दी। इस युद्ध में टिकारी के महाराजा सुंदर सिंह अलीवर्दी खान का साथ दे रहे थे। दोनों सेनाओं का राजमहल के पास गिरिया के मैदान में आमना-सामना हुआ था। लड़ाई में सरफ़राज़ ख़ां के ही किसी फौजी ने उसे गोली मार दी थी।

अब कहां है परिवार

जगत सेठ ने प्लासी की लड़ाई से पहले और बाद में काफी रुपये-पैसों से अंग्रेजों को कर्ज़ से बड़ी मदद की। बाद में अंग्रेज़ों नें ईस्ट इंडिया कंपनी के ऊपर जगत सेठ के कर्ज़ से इंकार कर दिया। अंग्रेजों के धोखे से जगत सेठ विक्षिप्त अवस्था में चले गए। इसके कुछ समय बाद ही जगत सेठ घराने की अवनति शुरू हो गई, फिर भी 1912 ई. तक इस घराने के किसी न किसी व्यक्ति को जगत सेठ की उपाधि और थोड़ी-बहुत पेंशन अंग्रेज़ों  से मिलती रही। 1912 ई. के बाद यह पेंशन भी बंद हो गई। इस तरह एक सेठ का नाम लुप्त हो गया, अब इस परिवार के बारे में कोई जानकारी नहीं है।

जगत सेठ की ऐतिहासिक भूमिका

जगत सेठ को भी स्वदेश और समाज की चिंता थी. यह उन्हीं का कमाल था कि उन्होंने मीर जाफर की सत्ता की लालच का इस्तेमाल मुर्शिदाबाद में विदेशी शासकों के अंत और भविष्य के भारत की शुरुआत के लिए किया. उन्होंने आर्थिक मदद देकर मीर जाफर को नवाब सिराजुद्दौला के खिलाफ उकसाया. मीर जाफर ने सिराजुद्दौला का रिश्तेदार था लेकिन सत्ता के नशे में अंधा होकर उसने सिराजुद्दौला की हत्या कर सत्ता कब्जा ली. बाद में जगत सेठ ने ईस्ट इंडिया कंपनी के जरिए मीर जाफर को भी रास्ते से हटवा लिया.

इतिहास में नवाब सिराजुद्दौला को महिमामंडित करने के लिए जगत सेठ को खलनायक की तरह परोसा गया. देशद्रोही तक बताया गया. जबकि जगत सेठ ने एक तरह से इस्लामिक शासन का वैसे ही अंत करवाया जैसे वे सत्ता में आए थे. अंग्रेज जगत सेठ के मकसद को भांप नहीं पाए. लेकिन मीर जाफर की हत्या के बाद उन्हें योजना पता चल गई और अंग्रेजों ने जगत सेठ के कारोबार को जितना नुकसान पहुंचा सकते थे- पहुंचाया.

अंग्रेजों ने जगत सेठ को इस स्थिति तक पहुंचा दिया कि वो पैसे-पैसे के लिए मोहताज हो गए. उनकी तमाम संपत्तियां कब्जा कर ली गई. जगत सेठ के जीवन मेमन ऐसा वक्त भी आया कि दुनिया के सबसे अमीर कारोबारी को अंग्रेजी पेंशन पर जीवन गुजारने पड़ा. उनकी संतानों के वक्त अंग्रेजी सरकार ने पेंशन भी बंद कर दी. मगर जगत सेठ ने जहर से जहर को मारने का जो सपना देखा था आखिरकार वह देश की आजादी के साथ 1947 में पूरा हुआ.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *