विवेचना:तृणमूल ले गई माकपा-कांग्रेस का मुस्लिम जनाधार,भाजपा ने छीनी तृणमूल से सीटें

Bengal Election Result: क्या TMC की सफलता में है कांग्रेस-वाम मोर्चे का हाथ?
पश्चिम बंगाल (West Bengal) विधानसभा चुनावों के में तृणमूल कांग्रेस (TMC) को मिल रही भारी सफलता के पीछे कांग्रेस (Congress) और वाम मोर्चे के बलिदान का योगदान बताया जा रहा है.
देश में पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव (State Assembly Elections) के नतीजों के रुझान तस्वीर साफ करने लगे हैं. सबसे रोचक स्थिति बंगाल की है, जहां तृणमूल कांग्रेस (TMC) को 200 से ज्यादा सीटें मिल रही हैं. वहीं बीजेपी को तमाम ताकत झोंकने के बाद भी 80 के आसपास सीटों में बढ़त मिलती दिख रही है. ऐसे में कई लोगों, खासकर बीजेपी समर्थकों का कहना है कि टीएमसी की इस सफलता के पीछे कांग्रेस (Congress) और सीपीएम के बलिदान का योगदान है. आइए जानते हैं कि क्या वाकई ऐसा है.

क्या कहते हैं रुझान

चुनाव नतीजों के शुरुआती रुझानों का विश्लेषण बहुत रोचक तस्वीर पेश करता है. अगर केवल साल 2016 के नतीजों से तुलना की जाए तो कई दिलचस्प बातें सामने आती हैं. कुल सीटों के लिहाज से जहां टीएमसी को नफा नुकासान में एकदो सीट का ऊपर नीचे होने की बात सामने आ रही है तो वहीं 75-78 सीटों के फायदे मे दिखाई दे रही है. वहीं कांग्रेस को करीब 44 सीपीएम को 26 सीटों का नुकसान हो रहा है और दोनों का खाता खुलता नहीं दिख रहा है.

सीटवार मामले में उलझन

केवल इन्ही आंकड़ों को देखा जाए तो यही लगता है कि वाम मोर्चे और कांग्रेस की सीटों का टीएमसी और बीजेपी में बंटावारा हो गया है. वहीं अगर आप फौरी तौर पर देखें कि किसी सीट पर कौन सी पार्टी आगे चल रही है और 2016 में उसे किस पार्टी ने जीता था, तो मामला और उलझा हुआ लगने लगता है.

स्पष्ट नहीं तस्वीर

अगर केवल सीट छीनने के नजरिए से ही देखा जाएगा तो करीब 80 सीटों में बढ़त पा रही बीजेपी 50-55 में टीएमसी की सीटों पर आगे है. और यह सीटें छीनने सबसे अधिक है. कांग्रेस की करीब 20 के आसपास सीटें टीएमसी ने तो करीब 15 सीटें बीजेपी छीनती दिख रही है. इस तरह से देखा जाए तो बीजेपी और टीएमसी ने कांग्रेस सीटें आपस में बांटी हैं जिसमें टीएमसी आगे है.

वाम मोर्चे की सीटें

वहीं अगर वाम मोर्चे की सीटों के लिहाज से देखें तो यहां भी जहां टीएमसी ने 25-30 सीटों में बढ़त बनाई है वहीं बीजेपी भी सीपीएम से 10-12 सीटें छीनती दिख रही है. यह बंटवारा इतना स्पष्ट नहीं है कि सीधे तौर पर कहा जा सके कि सीपीएम या कांग्रेस का फायदा सीधे तौर पर किसी पार्टी को मिले.
कांग्रेस (Congress) की शीर्ष नेतृत्व बंगाल चुनाव में प्रचार के लिए नहीं आया था. (फाइल फोटो)

चुनाव प्रचार में सुस्ती

लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि यह दावा पूरी तरह से गलत है. चुनाव प्रचार के दौरान साफ तौर पर दिखाई दिया है कि कांग्रेस और वाम मोर्चे ने चुनाव प्रचार के दौरान सुस्ती दिखाई है. कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व तो बंगाल में दिखा ही नहीं. वाम मोर्चे की सुस्ती भी किसी से छिपी नहीं थी. ऐसे में मतदाता का कांग्रेस और वाम मोर्ची से उदासीनता मिली ही होगी. और यही वोटर टीएमसी और बीजेपी में बंटा होगा.
लेकिन इसका फैसला करना आसान नहीं है कि कांग्रेस और वाम मोर्चे की निष्क्रियता का कितना फायदा टीएमसी को मिला. ऐसा भी हो सकता है कि जिन सीटों पर टीएमसी आगे बढ़ रही कांग्रेस और वाम मोर्चे के पूर्व वोटरों ने बढ़त को निर्णायक बना दिया. लेकिन इतना तय है कि बीजेपी ने ज्यादातर सीटें टीमएमसी से छीनी हैं, यह उसके लिए अच्छी खबर है.
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Bengal Election Results: क्या वामपंथ का पूरी रही है. लेकिन सबसे चौंकाने वाला नतीजा वाम मोर्चे (Left Front) को लेकर है जिसे बमुशिकल एक दो सीटों पर ही बढ़त मिल रही है. ऐसे में सवाल उठने लगा है कि क्या वामपंथ का बंगाल से सफाया हो गया है या यह इसकी शुरुआत का संकेत है.

हैरान करने वाले रुझान

292 सीटों वाली बंगाल विधानसभा में ताजा रुझानों के मुताबिक टीएमसी को 200 से ज्यादा सीटों पर बढ़त मिल रही है. पार्टी और ममता ने अपना दबदबा कायम करने में सफलता हासिल की है. लेकिन भारतीय जनता पार्टी को 85 से ज्यादा सीटें नहीं मिल पा रही हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में 70 से ज्यादा सीटें जीतने वाले वाममोर्चे की इस बार के बंगाल चुनाव में बहुत बरी गत हुई है. अभी तक उसे केवल दो ही सीटों पर बढ़त मिली है.

दशकों का वर्चस्व

बंगाल में वामपंथ में 1967 में संयुक्त मोर्चे द्वारा प्रवेश किया था. इसके बाद 1972 से वाममोर्च ने साल 2011 तक बंगाल में एकछत्र राज किया था. केंद्र की राजनीति में तमाम उतार चढ़ावों के बावजूद बंगाल को हमेशा ही वामपंथ का एक मजूबत गढ़ माना गया. 2011 में बंगाल की सत्ता खोने के बाद से ही वामपंथ के पतन का कराणों का विश्लेषण किया जाने लगा था.

बंगाल के लिए नाकामी

बंगाल में वामपंथ जड़ें बहुत गहरी रहीं हैं. वहां की राजनैतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक ताने बाने तक में वामपंथ की पैठ रही है. लेकिन वामपंथ दुनिया के आर्थिक विकास के साथ तालमेल बिठाने में तो नाकाम रहा ही, वह बंगाल को उसका विकल्प भी नहीं दे सका. उद्योंगों ( कुछ हद तक जनमानस पर भी) परम्परागत वामपंथी सोच की जंग लग गई और बंगाल से उद्यमियों का पलायन होता गया है.

राजनैतिक कारण ज्यादा?

लेकिन इस समय सवाल यही है कि आखिर वामपंथ को ऐसा क्या हो गया कि बंगाल में ही उसके पैरों से जमीन पूरी तरह से खिसकती चली गई. इसके राजनैतिक कारण ज्यादा हैं. इसमें सबसे प्रमुख उसकी खुद की राजनैतिक निषक्रियता जो राष्ट्रीय स्तर से आते आते बंगाल तक ऐसी आई की उसका आधार खोता गया.

भ्रमित होते गए समर्थक

जब 2011 में ममता मुख्यमंत्री बनीं थी. तब सीपीआई एम ने उसे सहयोग दिया था. यह सहयोग चुनाव के बाद के गठबंधन की तरह था. लेकिन वह वैचारिकस्तर पर खुद को कभी जस्टिफाई नहीं कर सकी. राष्ट्रीय स्तर पर वह कभी खुद के विचारों को मजबूती से खड़ी ना होकर केवल बीजेपी को एन केन प्रकारेण रोकने का प्रायस करने वाली पार्टी ही रह गई.

और ये गलतियां

वाममोर्चे का कांग्रेस के साथ गठबंधन बंगाल में विनाशक साबित हुआ. उसके हिंदू वोट बीजेपी की ओर चले गए जो इस चुनाव में साफ तौर पर दिखाई दे रहा है. इसके अलावा मुस्लिम वोट बैंक को ममता उड़ा ले गईं वहीं मुस्लिम धर्मगुरुओं से हाथ मिलाने से खुद ही की वैचारिकता को नुकसान पहुंचा.

ममता -बीजेपी दोनों से विरोध

कई विश्लेषकों का मानना है कि वाम मोर्चे ने यह भी देखा कि वह ममता को हटाने के लिए बीजेपी का समर्थन किसी कीमत पर नहीं कर सकती. वहीं अगर वह स्वतंत्र रूप से ही चुनाव में भाग लेती है तो इससे स्पष्ट तौर पर बीजेपी को फायदा पहुंचता ऐसे में जानबूझ कर निष्क्रिय रह कर उसने खुद को बीजेपी से दूर भी रखा और ममता को अधिकतम नुकसान भी पहुंचाया. लेकिन यह सही इसलिए नहीं होगा क्योंकि इसमें सबसे ज्यादा नुकसान खुद वाममोर्चे को ही होता।
हकीकत यह है कि वाममोर्च का खालीपन बीजेपी ने लपक लिया. नतीजों के रुझान साफ बता रहे हैं कि जितना नुकसान वाममोर्चे को हुआ है उतना ही फायदा बीजेपी को दिख रहा है. इतना तय है कि भले ही ये नतीजें वामपंथ का सफया नहीं दर्शाते हों उसका आने वाला मुश्किल वक्त जरूर बता रहे हैं
ताजा रुझानों में टीएमसी को 200 से ज्यादा सीटों पर बढ़त मिलती दिख रही है. तो वहीं भारतीय जनता पार्टी ने भी रिकॉर्ड सफलता का इशारा किया है. उसे भी 80 से ज्यादा सीटों पर बढ़त मिलती दिख रही है.292 सीटों वाली बंगाल विधानसभा में बहुमत के लिए 148 सीटों की जरूरत है. ऐसे में ममता अपने ही दम पर सरकार बना सकती हैं.

यह होता रहा है बंगाल मेंबंगाल चुनाव का इतिहास रहा है कि एक ही पार्टी या गठबंधन ने लंबे समय तक यहां राज किया है. खुद ममता बनर्जी लगातार दो बार यहां की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं. बंगाल में सत्ता परिवर्तन आसान नहीं रहा है और जब भी हुआ है तो सत्तारुढ पार्टी की बुरी गत हुई है. यहां एक बात और है कि सता से हटने बाद कभी किसी दल ने वापस सरकार नहीं बनाई है
केवल दो ही मुख्यमंत्री कर सके हैं ऐसा
अभी तक ममता केवल दो ही बार बंगाल की मुख्यमंत्री रही हैं. ऐसे में वे अजॉय कुमार मुखर्जी तीन बार की बराबरी कर लेंगी जो तीन बार बंगाल के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. यानि बंगाल की राजनीति में दशकों से वामपंथ का प्रभाव रहा है. . इसके अलावा भारतीय जनता पार्टी ने इस चुनाव में लंबी छलांग तो है, लेकिन वे ममता दीदी को चुनौती देने की स्थिति में दूर-दूर तक नहीं दिख रही है.

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