यूक्रेन संकट: प्रतिबंध अचूक हथियार नहीं,रूसी रणनीति भी अमेरिका के घुटने टिकवा देना
Russia Ukraine Crisis: बिना जंग लड़े अमेरिका को घुटनों पर लाने की तैयारी में पुतिन, रूस-यूक्रेन युद्ध से कनेक्शन तो समझें
प्रियेश मिश्र
यूक्रेन को लेकर रूस और अमेरिका के बीच तनाव चरम पर है। राष्ट्रपति जो बाइडेन ने ऐलान किया है कि उनका देश यूक्रेन को हर संभव मदद देगा। अभी एक दिन पहले ही अमेरिकी कांग्रेस ने यूक्रेन और उसके यूरोपीय सहयोगियों को 13.6 अरब डॉलर की सैन्य व मानवीय आपात मदद प्रदान करने को मंजूरी दे दी है।
हाइलाइट्स
यूक्रेन में रूसी सेना की धीमी रफ्तार पर उठ रहे सवाल
पिछले 16 दिनों से कीव को घेरे हुए है रूसी सेना, पर नहीं कर पाई कब्जा
प्लानिंग में यूक्रेन युद्ध को लंबे समय तक खींचना चाहते हैं पुतिन
मॉस्को 13 मार्च : रूस और यूक्रेन (Russia Ukraine Crisis) में पिछले 17 दिनों से युद्ध जारी है। रूसी सेना ने आक्रमण के शुरुआती दिनों में ही राजधानी कीव (Russia Ukraine News) को घेर लिया था, पर अब तक कब्जा नहीं हो सका है। कई विशेषज्ञ इस युद्ध में रूसी वायु सेना (Russian Air Force) और नौसेना (Russian Navy Ships) के कम इस्तेमाल को लेकर भी अचंभित हैं। इस बीच सवाल उठ रहा है कि रूसी सेना को अपने से कहीं ज्यादा कमजोर यूक्रेन को जीतने में इतना समय क्यों लग रहा है। कई लोग इसे रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की प्लानिंग तो कुछ गलत अनुमान को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं, वहीं कुछ ऐसे भी हैं जो इसे रूस की युद्ध रणनीति का हिस्सा बता रहे हैं। इनका दावा है कि यूक्रेन में रूसी सेना की धीमी चाल के पीछे असल लक्ष्य अमेरिका है। पुतिन बिना जंग लड़े ही अमेरिका को घुटनों पर लाने की कोशिश कर रहे हैं।
यूक्रेन संकट के लिए अमेरिका को जिम्मेदार मानता है रूस
दरअसल, रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध के लिए अमेरिका को ही जिम्मेदार माना जा रहा है। रूस का आरोप है कि 2014 में अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने ही यूक्रेन में तख्तापलट करवाया था जिससे यूक्रेन से रूस समर्थित सरकार को हटना पड़ा था। इसके बाद सरकारों का रुख अमेरिका और यूरोप की ओर ज्यादा रहा है। साल 2019 में यूक्रेन ने अपने संविधान संशोधन कर अपने देश को यूरोपीय संघ और नाटो का सदस्य बनाने का ऐलान किया । रूस का मानना है कि अमेरिका ने यूक्रेन को एक मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया है। जिससे रूस की सुरक्षा को खतरा पैदा हो गया है।
अमेरिका को कैसे घुटनों पर लाएंगे पुतिन?
पुतिन चाहते हैं कि यूक्रेन का युद्ध लंबा खिंचे। इससे अंतरराष्ट्रीय जगत, खासकर यूरोप में गैस और तेल के दाम और ज्यादा बढ़ेंगे।अभी ही यूरोप में गैस की कीमत रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई हैं। यूरोप के कई देश अब तक अपनी गैस की जरूरतों को रूस पर निर्भर थे। वहीं, अब प्रतिबंधों से ये देश रूस से गैस नहीं खरीद रहे। ऐसे में इन देशों में गैस की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं। रूस के उप प्रधानमंत्री एलेक्जेंडर नोवाक पहले ही धमकी दे चुके हैं कि रूसी तेल और गैस को प्रतिबंधित करने का फैसला वैश्विक बाजार पर भयानक असर डालेगा।
रूस दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल उत्पादक
रूस दुनियाभर में तेल का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक है।पहले नंबर पर अमेरिका और दूसरे पर सऊदी अरब हैं। दुनियाभर में तेल और गैस के दाम पहले से ही बढ़ रहे हैं। ऐसे में रूस पर प्रतिबंधों से मांग में और ज्यादा तेजी देखी जा रही है, जबकि उत्पादन और उपलब्धता काफी कम हो गई है। रूस हर दिन पांच मिलियन बैरल क्रूड आयल उत्पादन करता है। इनमें से आधे से ज्यादा का निर्यात यूरोपीय देशों को किया जाता है।
अमेरिका चाहकर भी कम नहीं कर सकता तेल के दाम
अमेरिका चाहकर भी यूरोपीय देशों की जरूरतें पूरा करने को गैस और तेल की सप्लाई नहीं कर सकता है। उधर, सऊदी अरब ने भी अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल और गैस की कीमतों में कमी कोोाअपना उत्पादन बढ़ाने से इनकार किया है। ऐसे में यूरोपीय देश गंभीर ऊर्जा संकट से जूझ रहे हैं। खुद अमेरिका में तेल के दाम रिकॉर्ड स्तर की ओर बढ़ते नजर आ रहे हैं। ऐसे में अमेरिका के ऊपर यूरोपीय देशों का दबाव भी बढ़ रहा है।
अमेरिका-ईयू की अर्थव्यवस्था को बर्बाद करना चाहता है रूस
रूस के ऊपर पहले से ही इतने ज्यादा प्रतिबंध लग चुके कि उसकी अर्थव्यवस्था को उबरने में दशक लग सकता है। ऐसे में रूस चाहता है कि वह अमेरिका और बाकी यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था पर भी ऐसे ही दबाव बढ़ाएं। जब तक युद्ध चलेगा, तब तक दुनिया में तेल और गैस की कीमतों में कमी आने की उम्मीद नहीं है। ऐसे में अगर तनाव और ज्यादा भड़कता है तो इनकी कीमतें और ज्यादा बढ़ सकती हैं।
रूस-यूक्रेन संघर्ष: रूस पर प्रतिबंध लगा क्या उसे रोका जा सकेगा, क्यूबा में रहा बेअसर
क्यूबा पर प्रतिबंध लगे 60 वर्ष हो चुके। क्यूबा का नेतृत्व अब बदल चुका है लेकिन न तो कम्यूनिस्ट पार्टी बदली और न ही वहां का सिंगल पार्टी सिस्टम. ऐसा भी नहीं लगता कि प्रतिबंधों को हटाने को रखी गई शर्तें, आने वाले वक्त में पूरी होंगी. तो फिर प्रतिबंध जारी रखने की क्या वजह है?
फ्लोरिडा में क्यूबन-अमेरिकी सीनेटरों का एक समूह है जिनके लिए ये निजी समस्या है. उनके परिवारों को क्यूबा छोड़कर भागना पड़ा था. उनका मानना है क्यूबा को सज़ा देना ज़्यादा ज़रूरी है. और अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में फ्लोरिडा अहम है, यहां से 29 इलेक्टोरल वोट हैं.”
क्यूबा पर प्रतिबंध डेमोक्रेटिक पार्टी की सरकार ने लगाए थे और फिर डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन दोनों ने ही उन्हें और कड़ा किया.
ओबामा के दौर में प्रतिबंधों में कुछ राहत दी गई. लेकिन फिर रिपब्लिकन पार्टी की डोनाल्ड ट्रंप सरकार ने य़े फ़ैसला पलटा और क्यूबा को एक बार फिर आतंकवाद प्रायोजित करने वाले देश की सूची में डाल दिया. ट्रंप के बाद आए बाइडन ने अभी तक यह फ़ैसला नहीं बदला है.
दक्षिण अफ्रीका और इराक़
क्यूबा पर प्रतिबंधों का नतीजा आशानुरूप नहीं दिखा. कहा जाता है कि इस मामले में दक्षिण अफ्रीका अच्छा उदाहरण है, लेकिन यहां भी परदे के पीछे कहानी कुछ अलग है.
1948 के दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद नीति का उद्देश्य अल्पसंख्यक गोरों को फायदा पहुंचाना था. 1960 में शार्पविल में रंगभेद नीति का विरोध कर रहे निहत्थे लोगों पर पुलिस गोलियों से 50 से अधिक लोगों की मौत हो गई.
दक्षिण अफ्रीका के ओलंपिक खेलों में हिस्सा लेने पर रोक लगा दी गई. आर्थिक प्रतिबंध भी लगे, लेकिन उसने इनसे बचने का रास्ता ढूंढ लिया. वहां अपराधी नेटवर्क बन गया. तेल को लेकर लगे प्रतिबंध से बचने को कोयले से तेल बनने लगा. ये महंगा था लेकिन एक विकल्प तो था. तस्करी भी तेज़ी से बढ़ी. लेकिन 80 के दशक में चीज़ें बदलने लगीं. बड़े पैमाने पर रंगभेद नीति विरोधी प्रदर्शन शुरू हुए और स्थिति पर काबू पाना सरकार के लिए मुश्किल होने लगा.”
1986 में सरकार ने देशव्यापी आपातकाल लगा दिया. आर्थिक प्रतिबंध और कड़े किए गए. विदेशी बैंकों के कर्ज देने पर रोक लगी और उन्होंने सरकार को दिया कर्ज़ वापिस मांगा.
लोगों की नाराज़गी कम करने को सरकार ढांचागत सुधार करना चाहती थी लेकिन प्रतिबंधों में ये मुश्किल था. ऐसे में सरकार ने विरोध ख़त्म करने का फ़ैसला किया, लेकिन ये समस्या का हल नहीं था.”
1989 में एफ़डब्ल्यू डी क्लार्क राष्ट्रपति बने, और उन्होंने रंगभेद नीति ख़त्म की और आख़िरकार 1993 में प्रतिबंध हटा लिए गए.पश्चिमी देश दक्षिण अफ्रीका को एक सफल उदाहरण के रूप में पेश करते हैं. लेकिन असल में उस पर प्रतिबंध लगाने को अमेरिका पर काफी दबाव था. शीतयुद्ध के दौर में दक्षिण अफ्रीका के साथ अमेरिका के अच्छे संबंध थे. वो वामपंथी सरकारों वाले देशों से घिरा ग़ैर-कम्यूनिस्ट मुल्क था. लेकिन दक्षिण अफ्रीका में बदलाव आया तो अमेरिका ने कहा कि ये प्रतिबंधों से हुआ.”
इराक में भी प्रतिबंध के इच्छित परिणाम नहीं
2 अगस्त 1990 को इराक़ ने कुवैत पर हमला कर दिया. उस पर संयुक्त राष्ट्र ने इराक़ को कुवैत से बाहर जाने और कथित विनाशकारी हथियार नष्ट करने को बाध्य करने को प्रतिबंध लगा दिये.
अमेरिका और उसके सहयोगी इराक़ को कुवैत से बाहर निकालने में सफल हुए, लेकिन फिर, क्यूबा की तरह यहां भी प्रतिबंधों का उद्देश्य सत्ता परिवर्तन था.
यहां की आबादी पहले ही मुश्किलें झेल रही थी, वो बंटी हुई थी. अगर जनता किसी तरह अपना गुज़ारा कर रही हैं और सरकार राशन देकर उसकी मदद कर रही है तो ये उम्मीद करना बेवकूफ़ी थी कि लोग विद्रोह करेंगे.”
13 साल बाद संयुक्त राष्ट्र ने इराक़ पर लगे प्रतिबंध हटाए. लेकिन तब तक अमेरिका के नेतृत्व में इराक़ पर हमला और इराक़ के नेता सद्दाम हुसैन की सरकार का पतन हो चुका था. इस पूरे मामले से ये सवाल पैदा हुआ कि लाखों बेगुनाहों को मुसीबत में डालना कितना जायज़ था.
इराक़ मामले के बाद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सदस्यों और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने ये स्पष्ट हो गया कि किसी भी देश पर व्यापक प्रतिबंध नहीं लगाए जाने चाहिए. टार्गेटेड यानी कुछ ख़ास चीज़ों पर प्रतिबंध लगाने का रास्ता अपनाया जाने लगा, जैसे कुछ लोगों या संस्थानों पर पाबंदी लगाना.”
इसका पहला उदाहरण था लीबिया. 1988 में न्यूयॉर्क जा रहा एक यात्री विमान ब्रिटेन के पास हादसाग्रस्त हो गया. इस मामले में दो लीबियाई नागरिक ज़िम्मेदार ठहराये गये. लीबिया के उन्हें सौंपने से इनकार करने पर उस पर विमानन सेक्टर से जुड़े प्रतिबंध लगाए गए. इसका असर भी हुआ. लीबिया ने उन दो लोगों को प्रत्यर्पित किया. उन पर इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस में मुकदमा चलाया गया.”
सिएरा लियोन और अंगोला जैसी जगहों पर अस्थिरता का कारण बन रहे विद्रोही समूहों पर लगाम लगाने को भी इस तरह के प्रतिबंध इस्तेमाल किये गये है.ये ऐसे समूह थे जो हीरों का अवैध कारोबार करते थे, इन्हें ब्लड डायमंड या कॉन्फ्लिक्ट डायमंड भी कहा जाता है. इससे मिले पैसों का इस्तेमाल ये हथियार खरीदने में करते. हीरों के कारोबार पर रोक लगी तो असर इन समूहों की कमाई पर पड़ा.”
इस तरह के मामलों से उम्मीद जागी कि किसी एक चीज़ को लक्ष्य बनाकर लगाए प्रतिबंध काम कर सकते हैं
हर जगह इस तरह के प्रतिबंध सफल नहीं हुए. लंबे समय से सोमालिया पर हथियारों की सप्लाई को लेकर प्रतिबंध हैं. उत्तर कोरिया पर भी प्रतिबंध हैं. लेकिन ये नहीं कहा जा सकता कि ये प्रभावी रहे. प्रतिबंध असल में एक बड़ी रणनीति का हिस्सा होते हैं जिसमें कूटनीति की भी जगह होती है, लेकिन बदलाव हो ये ज़रूरी नहीं.”
प्रतिबंधों को लेकर ऐसी रणनीति बनाना मुश्किल है जो शत-प्रतिशत प्रभावी हों. मतलब ये कि यूक्रेन में रूस को रोकने को सही रणनीति तैयार करना पश्चिमी देशों के लिए आसान काम नहीं.
दांव पर काफी कुछ
पश्चिमी देशों ने रूस को चेतावनी दी थी कि यूक्रेन पर हमला किया तो ऐसे प्रतिबंध लगाए जाएंगे जिनके बारे में कभी सुना न गया हो. लेकिन इससे रूस रुका नहीं
अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों का उल्लंघन करने के लिए रूस पर आर्थिक, अंतरराष्ट्रीय व्यापार और तकनीकी साजोसामान से जुड़ी पाबंदियां लगाई गई हैं. उसे अलग-थलग करने की हर कोशिश की जा रही है.रूस की मुद्रा रूबल लुढ़ककर अब तक के अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है. ये भी सुनिश्चित किया जा रहा है कि रूस को कहीं और से समर्थन न मिले. लेकिन प्रतिबंधों का असर दिखने में वक्त लगता है.
रूस के साथ नॉर्ड स्ट्रीम 2 गैस पाइपलाइन के समझौते पर जर्मनी ने रोक लगाई है. लेकिन वैश्विक ऊर्जा बाज़ार में रूस की महत्वपूर्ण भूमिका होने से अमेरिका और यूरोपीय संघ अभी भी रूस के तेल और गैस उद्योग पर पूरी तरह प्रतिबंध नहीं लगा पाए.
लेकिन रूस के मामले में दांव पर काफी कुछ है. वो दुनिया में प्राकृतिक गैस का सबसे बड़ा निर्यातक है. उससे गैस खरीदने पर रोक लगाना प्रभावी रास्ता हो सकता है, लेकिन इसका असर उल्टा भी पड़ सकता है.अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन का कहना है कि उनकी कोशिश है कि प्रतिबंधों का असर यूरोपीय मुल्कों पर न पड़े. यूरोपीय संघ गैस की अपनी 40 फीसदी ज़रूरतों को रूस पर निर्भर है. और कोविड महामारी से उबर रही अर्थव्यवस्था के लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं.”
इस बारे में अंदाज़ा लगाना भी बेहद मुश्किल है कि राष्ट्रपति पुतिन का अगला कदम क्या होगा. वो पहले ही इन प्रतिबंधों को ग़ैर-क़ानूनी करार दे चुके हैं. उन्होंने अपने परमाणु हथियारों को भी हाई अलर्ट पर रखा है. ऐसे में चिंता बढ़ना लाज़मी है क्योंकि इससे जो हालात पैदा होंगे, उसका असर पूरी दुनिया पर दिखेगा. कुछ प्रतिबंधों को लेकर पश्चिमी मुल्कों के खुलकर सामने नहीं आने की एक वजह ये हो सकती है कि आपको बातचीत की कुछ गुंजाइश रखनी होती है. कहीं ऐसा न हो कि रूसी अर्थव्यवस्था इस कदर अस्थिर हो जाए कि पुतिन को लगे कि अब हारने को कुछ बचा नहीं.”
लेकिन अगर अभी कदम नहीं उठाया गया तो सवाल उठेगा कि यूक्रेन के बाद रूस सोवियत संघ का हिस्सा रहे किसी और मुल्क की तरफ अपने हाथ बढ़ाए तो क्या होगा. मुझे लगता है कि आपको जोखिम उठाकर ये रास्ता चुनना ही होगा।
लौटते हैं अपने सवाल पर- रूस पर प्रतिबंध लगाकर क्या उसे रोका जा सकेगा.
प्रतिबंध तब कारगर होते हैं जब मुल्क साथ मिलकर काम करते हैं और उनका इस्तेमाल एकमात्र विकल्प के रूप में नहीं किया जाता. उद्देश्य बदलना और बेहद कड़ी शर्तें भी स्थिति बिगाड़ सकती हैं.
आख़िर में प्रतिबंध कितने कारगर होंगे ये निर्भर करता है कि उस देश की प्रतिक्रिया पर जिस पर ये लगाए गए हैं. यानी केवल व्लादिमीर पुतिन जानते हैं कि ये प्रतिबंध उन्हें अपना रास्ता बदलने के लिए बाध्य कर सकते हैं या नहीं.
प्रतिबंध के पीछे सोच ये है कि हर व्यक्ति की एक क़ीमत होती है, यदि मुश्किलें बढ़ा दी जाएं तो व्यक्ति को पीछे हटना होगा.
हालांकि अगर पुतिन, रूस और नेटो के बीच एक बफर स्टेट बनाना चाहते हैं तो स्थिति चाहे जितनी भी बिगड़ जाए, वो अपना रास्ता बदलेंगे, ये कहा नहीं जा सकता.