उत्तराखंड 2021: अपेक्षाएं और उपेक्षा, रफ्तार के साथ बनी है दिशा की भी चिंता

उत्तराखंड राज्य का गठन प्रशासनिक जरूरत से नहीं, अभाव जनित आंदोलन से हुआ तो अपेक्षाएं भी उसी के अनुरूप रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य आदि थी। इसके अलावा राज्य अपनी विशिष्ट पहचान की भी लड़ाई लड रहा है । भारत जैसे बड़े देश में उत्तराखंड जैसे छोटे राज्य के लिए अपनी जरूरतों पर जोर देना आसान नहीं है

+रवीन्द्र नाथ कौशिक

शुरू से शुरू करें तो 1966 से उत्तराखंड क्रांति दल की 1979 में स्थापना तक का पर्वतीय राज्य परिषद के बैनर पर अपनी पार्टी के स्टैंड से अलग भारतीय जनसंघ के नेता ऋषि वल्लभ सुन्द्रियाल ( उनकी पार्टी अस्सी के दशक में डीबीएस कालेज देहरादून के भूगोल विभागाध्यक्ष डॉक्टर नित्यानंद की पुस्तक ‘उत्तरांचल क्यों?’ के पहले सीमांत पर अलग राज्य को पृथकतावादी, विखंडनवादी और ऐसे देशविरोधी मानती थी),परिषद के रामनगर सम्मेलन संयोजक लक्ष्मण सिंह अधिकारी,पत्रकार के रूप में भैरव दत्त धूलिया और भक्तदर्शन, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रथम जनरल सैक्रेटरी पूरन चंद जोशी तक स्थानीय से लेकर दिल्ली अवस्थित पर्वतीय एक्टीविस्टों तक ने यह थ्योरी स्थापित कर दी थी कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश का हिस्सा रहते न तो पर्वतीय जनों की समस्याओं और आकांक्षाओं की नीति-नियंताओं को समझ हो सकती है,न उनके समाधान की तत्परता। तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रभानु गुप्ता का पहाड़ में विश्वविद्यालय की मांग पर रानीखेत से चुनाव लडने के पहले का कथन प्रसिद्ध है कि पहाड़ के लोगों को पहले रोटी तो मिले,शिक्षा की बाद में सोचनी चाहिए। कालांतर में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा के शिशु कदम पहाड़ की समस्याओं पर उत्तर प्रदेश में ही समाधान देने के प्रतीकात्मक प्रयास ही थे।

अलग राज्य की पहली ठोस जरूरत तब सामने आई जब प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को तहखाने से निकाल आनन-फानन में लागू कर दिया। गढ़वाल और कुमाऊं के बाहर देश में इन सिफारिशों का विरोध यथास्थितिवादी शक्तियां कर रही थी लेकिन जिन पिछड़ी जातियों को मंडल कमीशन से 27 प्रतिशत आरक्षण मिल रहा था,उनका पर्वतीय क्षेत्र में अस्तित्व तक नहीं था। स्वाभाविक ही आशंका खड़ी हुईं कि यहां की ओबीसी रिक्तियां शेष उत्तर प्रदेश से ही भरी जायेंगी जिससे यहां के लोगों के हिस्से का रोजगार औरों के हाथों छिनेगा और इससे यहां की जनसांख्यिकी भी बदलने लगेगी। गढ़वाल-कुमाऊं में 1931 तक 10% गैर हिन्दू आबादी को छोड़ शेष 90% में 16.97% शिल्पकार (अनुजा) जातियों के अलावा राजपूत और ब्राह्मण ही थे‌। ऐतिहासिक कारणों से इनमें भी राजपूत बहुसंख्यक थे। ओबीसी नगण्य थे। कुछ मिला कर इस नई राजनीतिक मुसीबत से बचाव तभी हो सकता है जब यह क्षेत्र उत्तर प्रदेश से अलग हो। इस तरह मंडल विरोधी आंदोलन के बीच राज्य का विचार दमदार तरीके से आगे बढ़ा। 1994 के दुर्भाग्यपूर्ण रामपुर तिराहा कांड से यह भी तय हो गया कि जनता को केंद्र शासित भी नहीं,पूर्ण राज्य ही स्वीकार्य होगा। सैद्धांतिक रूप से पृथक पर्वतीय राज्य में सिर्फ गढ़वाल और कुमाऊं मंडल ही था लेकिन बाद में आर्थिक व्यवहार्यता के नाम पर इसमें ऊधम सिंह नगर और आध्यात्मिक कारणों से हरिद्वार को भी शामिल किया गया जिससे राज्य बनना तो संभव हो गया लेकिन इन दो जिलों के मिलाते ही राज्य में पर्वतीय और मैदानी क्षेत्र 50-50% हो गया । भू जनसांख्यिकी में भी नाटकीय परिवर्तन हो गया। इसी का प्रतिबिंब विधानसभा और सरकारी नीतियों में परिलक्षित हो रहा है।

राज्य और राज्यवासियों की अपेक्षायें

संक्षेप में राज्यवासियों की प्राथमिक अपेक्षाएं स्वभावत: रोजगार, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, सड़कों आदि पहुंच के साधन, अनेक कारणों से नष्ट हुए जलस्रोतों का विकल्प और स्वास्थ्य सुविधायें ही थी। ऐसा नहीं है कि उत्तराखंड राज्य बनने पर यहां की जनता को विकास का लाभ नहीं मिला। विकास कभी अपेक्षाओं की गति से नहीं हुआ करता। प्रश्न सिर्फ उसकी दिशा और नीयत का है। सरकार तो राज्य के ‌‌विकास को प्रदेश के उत्तर प्रदेश में पर्वतीय विकास के बजट सत्र से राज्य के बजट, प्रति व्यक्ति औसत आय और राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में आशातीत वृद्धि के आंकड़े से सिद्ध करती है। जनता की सत्ता प्रतिष्ठान से नजदीकी और हस्तक्षेप की ताकत भी बढ़ी है। पहले निर्वाचित मुख्यमंत्री पंडित नारायण दत्त तिवारी ने राज्य को व्यापक विकास की दृष्टि दी तो दूसरे निर्वाचित मुख्यमंत्री लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) भुवन चंद्र खंडूड़ी ने जनता से सीधे जुड़े सूक्ष्म विकास की ।चौथे मुख्यमंत्री हरीश रावत ने शासन तंत्र को जनजुडाव सिखाया। विकास की भी दो दृष्टि हैं,एक किसी भी कीमत पर विकास और सुविधायें,दूसरी पर्यावरण सुरक्षित रखते हुए आवश्यक सुविधाएं जुटाने को विकास। सरकारों को पांच साल में विकास धरातल पर दिखाना होता है। उसमें विकास परियोजना के पहले उचित पर्यावरणीय प्रभाव को अध्ययन के लिए स्थान संकुचित हो गया है। 2013 की केदारघाटी के विनाश के बाद इसी फरवरी में हिमनद फटने से तपोवन-विष्णुगाड जल विद्युत परियोजना और ऋषिगंगा जल विद्युत परियोजना में 200 से अधिक मौतों, करोड़ों की हानि के बाद भी संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र में कथित विकास की आपाधापी को लेकर किसी का दृष्टिकोण बदला हो, लगता नहीं है। किसी को ध्यान नहीं है कि कभी देहरादून और मसूरी तक में पंखों की जरूरत नहीं होती थी। आज हालात नाटकीय ढंग से बदले हैं। ठीक है, इसमें काफी कुछ योगदान वैश्विक भूमंडलीय ऊष्मीकरण का है लेकिन हम भी अपना योगदान करें। विशेषज्ञ बताते हैं कि दो प्रतिशत ऊष्मीकरण से हिमालय के 11078 ग्लेशियर तेजी से पिंघल रहे हैं। उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में 2005 में 127 झीलों की सूचना से देश के वैज्ञानिक चिंतित थे। ये अब 400 से ज्यादा हो गये हैं तो कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं है। ये ग्लेशियर ही एक अरब जनता को ताजा पानी देते हैं। आशंका है कि अगले दशकों में भूमंडलीय ऊष्मीकरण तेजी से बढ़ेगा तो केदारघाटी और रैणी जैसी दुर्घटनायें भी बढेंगी। दोनों जगह रातों-रात विशालकाय झीलें बन गई थी। चारधाम यात्रा और कर्ण प्रयाग तक रेलवे लाइन पर तेजी से काम राजनीति तो जीतेगा लेकिन इसमें पर्यावरणीय प्रभावों की चिंता कहीं खो गई है। निर्माण का मलबा कहां जा रहा है और उसके क्या परिणाम होंगे, किसी को चिंता नहीं है। विरोध हो भी रहा है तो संदिग्ध चरित्र के एनजीओ से जबकि यह विषय ग्लेशियोलोजिस्ट का था जिसे सरकार ने निष्क्रिय कर दिया है।
इसके अलावा यह भी चिंता का स्थायी विषय है कि भूकंप संवेदी इस राज्य में क्या हम भूकंपरोधी सरकारी-गैर सरकारी निर्माण सुनिश्चित कर पा रहे हैं ?

उत्तराखंड को देश को पर्यावरणीय सेवाओं का प्रतिफल मिलना अभी शेष है। वह मिल पाये तो पर्वतीय क्षेत्रों में खर्चीली विकास गति आगे बढ़े। पर्वतीय राज्य होने और बाजारों से दूर होने से से यहां कल-कारखाने लगने और चलने मुश्किल है। यही हाल बाकी व्यवसायिक गतिविधियों का है। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और मुख्यमंत्री पंडित नारायण दत्त तिवारी की जुगलबंदी से खुले कारखानों का सिलसिला फिर कभी आगे नहीं बढ़ पाया। पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने भी कोशिश की लेकिन बात बनी नहीं। उपाय यही है कि राज्य अपने विशिष्ट साधनों पर ही भरोसा कर देश-विदेश में अपनी विशिष्ट सेवाओं को प्रगति का इंजन बनाये।

रोजगार

हमारी शिक्षा नीति व्हाइट कॉलर जॉब सीकर्स पैदा करती है। स्वरोजगार और उद्यमिता को न प्रेरणा है,न प्रशिक्षण और नप्रोत्साहन। सरकारी और गैर सरकारी नौकरियों के वेतन और सुविधाओं में इतना अंतर है कि सरकारी नौकरियों के लिए भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद जमकर होता है। जिस विधानसभा में जनता के भाग्यविधाता बैठते हैं, वहां की रिक्तियां राज्य निर्माण के लिए लाठी-डंडे, गोलियां खाने और हर तरह का अपमान और उत्पीड़न सहने वाली जनता के लिए अवसर नहीं है। वहां भी अवसर हमारे सत्तारूढ़ जन प्रतिनिधियों और सत्ता के इर्द-गिर्द दूसरे वर्गों ने हथिया लिये। आश्चर्य है कि यहां एक भी रिक्ति कभी विज्ञापित नहीं होती। पूर्व सैनिकों को रोजगार दिलाने को बना उपनल भी सिफारिशियों की भर्ती का साधन बन गया। इसमें भी खुद को सैनिक पुत्र बताने वालों का हाथ रहा। सेवायोजन कार्यालय निरर्थक बना दिया गया। हालांकि इसमें सर्वोच्च न्यायालय का एक निर्णय भी कारण रहा जिसका समाधान जनप्रतिनिधियों को करना था, लेकिन नहीं किया। वैसे भी सरकारी नौकरियों के भरोसे बेरोजगारी समाप्त नहीं हो सकती। इसलिए हर सरकार स्वरोजगार पर जोर देती है। इसके बाद भी स्वरोजगार के लिए न उचित प्रशिक्षण और न ही नीतियां बन पाती।

पलायन

उत्तर प्रदेश के रहते क्षेत्र की आर्थिकी मनीआर्डर आधारित कही जाती थी। पुरूष वर्ग पलायन कर बाहर रोजी-रोटी कमा पीछे रहे परिवार के निर्वाह को मनीआर्डर भेजा करते थे। पहाड़ में आज भी मोटे तौर पर हर दूसरे – तीसरे घर का बेटा फ़ौज में हैं। राज्य बनने के पहले से फौजियों की पत्नियों में बच्चों की शिक्षा के लिए देहरादून या हल्द्वानी पलायन करने और वहीं बस जाने की प्रवृत्ति रही है। राज्य बनने पर इस प्रवाह में तेजी आई है। जो पलायन कर मैदान में आया, वापस नहीं गया। पहले शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी जीवन को आवश्यक सुविधाओं के अभाव में पलायन हुआ,अब कई जगह जन संख्या ही नहीं तो सुविधायें किस के लिए जुटायें? पहले जिस तेजी से स्कूल खुले,अब विद्यार्थियों की कमी से बंद हो रहे हैं। समय आया जब पहाड़ के हर गांव में सिर्फ वृद्ध रह गये। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के अभाव में हो रहे पलायन में राज्य बनने पर रोक की अपेक्षा थी, जो पूरी नहीं हो पाईं है। जो एक बार पहाड़ से किसी भी कारण उतरा,उसकी वापसी नहीं हो पाईं। पहाड़ में वहीं रह गया लगता है जिसके पास पलायन के साधन और संपर्क सूत्र नही हैं।
कोरोना काल के असाधारण समय मजबूरी में बड़ी संख्या में लोग अपनी मातृभूमि वापस लौटे तो सरकार को लगा कि इस आपदा को अवसर में बदल उन्हे यहीं रोक कर , उनके अनुभव का लाभ उठाते हुए उन्हें स्वरोजगार को प्रेरित किया जाये। कोशिश हुई, बैंकों को इसके लिए ऋण देने को कहा गया लेकिन पैसा डूबने के भय से बैंकों ने कोलेटरल की शर्तों में ढील देने से साफ इंकार कर दिया। दूसरे ऐसे समय भी भ्रष्टाचार ने पीछा नहीं छोड़ा। परिणाम वही हुआ कि स्थिति सामान्य होते न होते वापस लौट गए।

सड़कें

व्यंग्य मिश्रित आकलन है कि लेफ्टिनेंट जनरल भुवन चंद्र खंडूड़ी से लेकर नितिन गडकरी तक की बनाई सड़कें अभी तक तो पलायन को आसान बनाने के काम ही आई हैं। चारधाम को बन रही आल वैदर सड़कों की महत्वाकांक्षी परियोजना पर जिस तेजी से काम हो रहा है,ऐसा आज तक कभी नहीं देखा गया लेकिन इस पर अब काफी देर से आवाज उठ रही है कि तीर्थाटन को पर्यटन बना आस्था का उपहास बनाया जा रहा है। पहले लोग अपने जीवन के अंतिम कार्य के रुप में यहां मीलों कठिन पैदल मार्ग और चढ़ाई  चढ़कर आते थे तो वापसी की आशा भी नहीं करते थे। कहा जाता है कि श्रद्धालु अपना सांकेतिक अंतिम संस्कार और  पिंडदान खुद कर आते थे। अब जैसे लोगों को पिकनिक की सुविधाएं जुटाई जा रही है। दिल्ली से हवाई यात्रा से उत्तराखंड पहुंचे और हैलीसर्विस से चार धाम। शाम को वापस।

देवस्थानम बोर्ड

केंद्र सरकार ने चार धाम को सहज और सुरक्षित यात्रा को सभी मौसमों के लिए विश्व स्तरीय सड़क का प्रकल्प हाथ में लिया है जिसके पूरा होने पर तीर्थाटन में आशातीत वृद्धि का आकलन है। इससे राज्य और राज्यवासियों की आय में वृद्धि होगी। 2013 की आपदा के बाद केंद्र सरकार ने विशेषकर केदारनाथ धाम में बड़े पैमाने पर पुनर्निर्माण किया है। बद्रीनाथ के लिए भी महायोजना तैयार है। चारधाम और इनके अधीन 47 और महत्वपूर्ण मंदिर के लिए अवस्थापना सुविधाओं और बढ़ने वाले प्रस्तावित आगमन के प्रबंधन को सरकार ने वैष्णो देवी न्यास की तर्ज पर उत्तराखंड चारधाम देवस्थानम प्रबंधन विधेयक 2019 से देवस्थानम बोर्ड बनाया जिससे परंपरागत तीर्थ पुरोहितों के आर्थिक हित प्रभावित हो रहे थे। विधेयक में भी तीर्थ पुरोहितों को पूजा कराने और परिसर में दान लेने का अधिकार है। बहुत लंबे समय से तीर्थ पुरोहितों की मंदिर परिसर और उसके आसपास की गतिविधियों में अपारदर्शिता और व्यवहार को लेकर शिकायतें रहीं हैं। सामान्य तीर्थयात्री आस्था के चलते मौन रहते हैं लेकिन फिर भी बहुत कुछ सार्वजनिक है। फीडबैक यह भी है कि विरोध दर्जन भर तीर्थ पुरोहित परिवारों का ही था जिसे पूरे प्रदेश के ब्राह्मणों की नाराज़गी से जोड़ दिया गया और चुनाव के पहले सरकार यह मामूली सा दबाव भी झेल नहीं पाई। हां, सामान्य सनातनी की चिंता यह जरूर रही कि तमिलनाडु, केरल और आंध्र प्रदेश की तरह सनातनी मंदिरों की आय गैर सनातनियों के पालन-पोषण पर खर्च न होने लगे। आखिर सरकारें और उनकी नौकरशाही तो सैकुलर होती है ना। लोग इस आशंका के विरुद्ध आश्वस्ति जरूर चाहते थे । कुल मिलाकर लोकतंत्र में लगता है, कोई भी सुधार संभव नहीं है।

स्वास्थ्य

सरकार ने अस्पताल बनाये तो वे डाक्टरों और तकनीकी कार्मिकों के अभाव में उन्हे पीपीपी मोड पर दिया जाता रहा है । परिणामत: अस्पताल हायर सेंटरों के लिए रेफरल सेंटर बन कर रह गये। मामूली बीमारी में भी हर तरह के टेस्ट और फिर दून और हल्द्वानी रैफर। डॉक्टरों को पहाड़ चढ़ाने की सरकार की सारी कोशिशें बेकार साबित हुई है जिसके लिए सुविधाओं का अभाव कम, पर्वतीय जनों की सेवा की प्रतिबद्धता का अभाव ज्यादा जिम्मेदार है। हैरानी यह है कि करीब करीब मुफ्त फीस से डॉक्टर बनने की योजना उठाने वाले डॉक्टर भी अपनी प्रदेश की जनता की सेवा वचनबद्धता पूरी नहीं करते।

पेयजल

दो दशकों बाद पेयजल की आशा जल जीवन मिशन से पूरी होती दिखती है लेकिन पहले चरण में पाइप लाइनें तो गांव-गांव पहुंच गई, उनमें पानी को पंपिंग और अपलिफ्ट योजनायें भी आयें तो बात बनें। देहरादून की दीर्घ काल की पेयजल संपूर्ति को वर्तमान सरकार ने सौंग नदी बांध परियोजना बनाई है लेकिन नेतृत्व परिवर्तन के बाद उसका क्या भाग्य है, कुछ पता नहीं है। हैरानी है कि जिस सत्तारूढ़ दल के पास विजय स्नेही जैसे दून घाटी की पेयजल व्यवस्था के विशेषज्ञ हैं, उसने अनौपचारिक रुप से भी उनसे सलाह लेने की जरूरत नहीं समझी। सरकारों को अस्थाई रूप से आई जिम्मेदारी को भी नौकरी की तरह निभाने वाले अफसरों पर ज्यादा भरोसा है।

21साल में भी पर्यटन प्रदेश नहीं बन पाई देवभूमि

पर्वतीय प्रदेश होने से उत्तराखंड के पास पर्यटन को अपनी अर्थव्यवस्था और जनता के रोजगार का साधन बनाने का एक रास्ता था लेकिन उत्तराखंड राज्य 21 साल में भी पूरी तरह पर्यटन प्रदेश बनने में नाकाम रहा है। 21 साल में राज्य की विभिन्न सरकारों ने पर्यटन के विकास को लेकर कई बड़े एलान किए परंतु कई योजनाएं धरातल पर उतरी ही नहीं। राज्य सरकार के सामने पर्यटन सुविधाओं के विकास की योजनाओं को धरातल पर उतारने की चुनौती बनी हुई है।
राज्य में कई ऐसे पर्यटन स्थल हैं जो सुविधाओं के अभाव में देश दुनिया के पर्यटकों की पहुंच से बहुत दूर हैं, यदि इन पर्यटक स्थलों का विकसित किया जाए तो राज्य के लिए पर्यटन व्यवसाय आर्थिक तौर पर से ज्यादा मुनाफे का व्यवसाय साबित होगा।
सरकार इस संदर्भ में उदासीन दिखती है। 2017 में राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में पर्यटन का हिस्सा 13.57% था लेकिन इसके लिए विभागीय बजट सिर्फ .28% था। यह 2004-05 में .67% था। यानि बढ़ने की आधा रह गया। पर्यटक आयें भी तो उनके रहने-खाने की समस्या है।382 सरकारी गेस्ट हाउसों,रेस्ट हाऊसों में मात्र 2315 बैंड्स की व्यवस्था है जबकि 6239 होटल,पेइंग गेस्ट हाउस,धर्मशालाओं,गुरूद्वारों और आश्रमों की क्षमता 301185 बैड की है। 208 पर्यटक आवास गृहों, जनता यात्री निवास और एफ आर पी हट्स में 7709 बैड हैं। इनसे बात नहीं बनती। पर्यटक को सस्ते और अच्छे विश्राम के साथ सस्ते स्वच्छ भोजन और सस्ते, सुलभ, सुरक्षित परिवहन की जरूरत होती है। यहां के आवास और भोजन प्रदाताओं को प्रशिक्षण की आवश्यकता है ताकि वे पर्यटक को मुर्गा मानकर हलाल करने की कोशिश न करें। पर्यटन से अर्थ और रोजगार को सस्ती तथा अच्छी सेवा से ही स्थायित्व मिलता है जिसका लाभ पीढ़ियों तक मिलता है। ऐसे में पांच साल में 5000 होम स्टे बनवाने का लक्ष्य बनाया गया जिससे एक विशेष मांग की प्रतिपूर्ति तो होगी लेकिन भविष्य की बिस्तरों की मांग पूरी नहीं होगी। दशकों पहले लखनऊ से लौटे सामाजिक कार्यकर्ता-पत्रकार राजेंद्र पंत और सतीश लखेड़ा वहां के सस्ते और गुणवत्तापूर्ण भोजन की प्रशंसा करते हैं तो सुनने वाले लखनऊ जाने को प्रेरित होते हैं और उसकी तुलना उत्तराखंड से करेंगे।

राज्य सरकार ने उत्तराखंड में पर्यटन व्यवसाय को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाने के लिए राज्य के 13 जिलों के लिए 13 नए पर्यटक स्थल विकसित करने की योजना बड़े जोर-शोर से शुरू की थी और इस योजना पर अब तक 10 करोड़ से ज्यादा की धनराशि खर्च हो चुकी है। 20 करोड़ रुपए से ज्यादा और इस योजना पर खर्च होने का प्रस्ताव है परंतु यह योजना बीरबल की खिचड़ी साबित हुई है।

ऋषिकेश को अंतरराष्ट्रीय पर्यटन स्थल के रूप में और एक स्वच्छ और सुविधा संपन्न शहर के रूप में विकसित करने की योजना थी। इसके अलावा टिहरी झील को राष्ट्रीय विकास बैंक की आर्थिक मदद से 1,210 करोड़ रुपए की योजना में अंतरराष्ट्रीय पर्यटन स्थल बनाने की योजना थी जो धरातल पर नहीं उतर पाई। राज्य के पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज ने 13 जिलों में नयेे पर्यटन स्थलों के अलावा केेंद्र को भेजी परंतु योजना केंद्र सरकार की मंजूरी के लिए इंतजार कर रही है।  पर्यटन विभाग ने महाभारत सर्किट में देहरादून जिला के जौनसार चकराता क्षेत्र में लाक्षा गृह लाखामंडल, चमोली जिले में स्वर्गारोहिणी, बद्रीनाथ, सतोपंथ तथा पौड़ी गढ़वाल जिले में सीता माता मंदिर, जटायु मंदिर, भरत मंदिर  योजना भी भेजी जो केंद्र सरकार में विचाराधीन ही बताई जा रही है।
प्रस्तावित 13 नए पर्यटन स्थलों में अल्मोड़ा जिले में कटारमल सूर्य मंदिर, पौड़ी जिले के सतपुली में नौका विहार, नैनीताल जिले के मुक्तेश्वर में हिमालय दर्शन, देहरादून जिले के लाखामंडल में महाभारत सर्किट, हरिद्वार के कनखल क्षेत्र में 52 शक्ति पीठ , उत्तरकाशी जिले में 2 नए ट्रैकिंग स्थल , टिहरी जिले में टिहरी झील का अंतरराष्ट्रीय स्तरीय विकास, रुद्रप्रयाग में प्राकृतिक और हरित पर्यटन स्थल, उधम सिंह नगर जिले में बाणसागर जल क्रीड़ा स्थल , बागेश्वर जिले में गरुड़ घाटी में हिमालय दर्शन और अन्य पर्यटन स्थल, चंपावत जिले में पाटी देवीधुरा , चमोली और पिथौरागढ़ जिलों में प्राकृतिक और हरित पर्यटक स्थल विकसित करने की योजना शामिल की गई थी ।

सात पर्यटक स्थलों नैनीताल, केदारनाथ, हेमकुंड साहिब पंचकोशी, नई टिहरी, औली, मुनस्यारी और ऋषिकेश नीलकंठ में रोपवे की योजना थी । उत्तराखंड के पुराने पर्यटक स्थल नैनीताल, अल्मोड़ा, हरिद्वार, मसूरी, ऋषिकेश में विकास के नाम पर  अंधाधुंध तरीके से बड़े-बड़े अपार्टमेंट बने हैं जिन्होंने इन पर्यटक और तीर्थस्थलों का स्वरूप बिगाड दिया है।

विलुप्त हो रहे हैं परंपरागत व्यवसाय

प्रदेश के ठंडे इलाकों में परंपरागत ऊनी वस्त्र जैसे, झुड़की, चौड़ा, जंगेल, खारचे जैसे परंपरागत परिधानों के विलुप्त होने का कारण है, धीरे-धीरे सिमटता भेड़ बकरी पालन का कारोबार। मोटे अनुमान के मुताबिक उत्तराखंड बनने के बाद से अब तक भेड़-बकरी पालन  कारोबार में 50% गिरावट आ चुकी है। पड़ोसी राज्य हिमाचल समेत अन्य हिमालयी राज्य आज भी अपनी परंपराओं और विरासत को संजोये हुए हैं। इसी लिए उनकी पहचान आज भी कायम है। उत्तराखंड का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यही है कि आज तक प्रदेश अपनी पहचान स्थापित नहीं कर पाया। किसी भी प्रदेश को खास पहचान दिलाने में वहां की परंपराओं, और संस्कृति का बड़ा योगदान होता है। जिस प्रदेश की रीति-नीति परंपराओं और संस्कृति की पोषक होती है, उसकी पहचान को मजबूती मिलती है। मगर अपने प्रदेश रीति-नीति बनाते वक्त परंपराओं और संस्कृति का ध्यान में रखा ही नहीं गया। सवाल उठता है कि क्या यह इतना कठिन काम था? क्या रीति-नीति में पारंपरिक व्यवसायों और संस्कृति को गूंथना इतना मुश्किल था? विकास के माडल को लेकर हम अक्सर हिमाचल प्रदेश की बात करते हैं। हिमाचल प्रदेश में आज भी ‘पेड़- भेड़’ की नीति है। वहां विकास के साथ परंपरागत व्यवसाय आज भी जुड़े हुए हैं। लेकिन अपने यहां तस्वीर पूरी तरह उलट है। यहां एक दशक से विकास का रोना ही रोया जा रहा है। पलायन पर विलाप ही किया जा रहा है। समाधान के तलाशने के बजाय केवल प्रलाप हो रहे हैं। यहां परंपराओं और संस्कृति का संरक्षण सिर्फ कोरी बातों और खोखले दावों तक सीमित है। भेड़-बकरी पालन की ही यदि बात करें तो प्रदेश के तमाम इलाके हैं, जहां का यह परंपरागत व्यवसाय रहा है। उन इलाकों की आर्थिकी को मजबूत करने में इस व्यवसाय का बहुत बड़ा योगदान रहा है। राज्य बनने के बाद उम्मीद की गई कि उस व्यवसाय को सरकार के एजेंडे में जगह मिलेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जबकि होना यही चाहिए था कि भेड़-बकरी पालन या इस तरह के अन्य परंपरागत व्यवसायों को बढावा मिलता। ये व्यवसाय उद्योग की शक्ल ले पाते। इन्हें रोजगार के साथ जोड़ा जाता। आधुनिक तकनीक के साथ जोड़ा जाता। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजार के साथ जोड़ा जाता। यदि ऐसा किया जाता, तो सरकार को आज गांवों के उजड़ने की चिंता नहीं करनी पड़ती, पलायन का रोना नहीं रोना पड़ता, बाहरी निवेशकों को राज्य में बुलाने के लिए माथा पच्ची नहीं करनी पड़ती। और इस सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि, प्रदेश को एक ‘पहचान’ मिल चुकी होती। आज भी हाल ये है कि किसी को भी पता नहीं है कि उत्तराखंड ऊर्जा प्रदेश है, पर्यटन प्रदेश है, औद्यानिकी प्रदेश है, धार्मिक प्रदेश है या क्या है? एक भी व्यवसाय ऐसा नहीं है, जिसे राज्य बनने के बाद अलग पहचान मिली हो। आज हालात इस कदर खराब हो चुके हैं कि पारंपरिक व्यवसायों में से कुछ पूरी तरह बंद हो चुके हैं और कुछ बंद होने की कगार पर हैं। इस सबसे लाचार उत्तराखंड अपने वजूद की तलाश में अधर में झूल रहा है।

भ्रष्टाचार

भ्रष्टाचार हमारे कमजोर नैतिक मूल्यों का विज्ञापन है जिसे ‘व्यवहारिक’ लोग कामों में गति को लुब्रिकेंट मानते हैं। अपने उत्तराखंड में भी यह खूब फला-फूला। नई नौकरशाही में कुछ ही थे जो पर्वतीय राज्य के लिए समर्पित भावना से काम करने को उत्सुक थे। तब ‘ यह उत्तर प्रदेश नहीं है, नवोन्मेषी ढंग से काम होगा’ जैसी बातें सुनने को मिलती थी लेकिन जल्द ही राज्य को भ्रष्टाचार निपुण नौकरशाह मिल गये जिन्होंने यहां के जनप्रतिनिधियों को भी भ्रष्टाचार का प्रशिक्षण दिया। उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार को काबू करने के लिए पहले लोकायुक्त की नियुक्ति‌ पहली निर्वाचित सरकार के मुख्यमंत्री पंडित नारायण दत्त तिवारी के समय ही हो गई थी। यह बात अलग है कि पहले नियुक्त लोकायुक्त रिटायर न्यायमूर्ति हमेशा तिवारी जी के अंगूठे के नीचे रहे। यह‌ बात अलग है कि वे मध्य प्रदेश की भांति छापे मारने का अधिकार मांगते रहे। दू‌सरे लोकायुक्त भी अपने अस्तित्व का भान नहीं करा पाए। ‌‌हास्यास्पद स्थिति तब बनी जब पहले लोकायुक्त के समय से ही खुद लोकायुक्त कार्यालय भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार का अड्डा बन कर रह गया। उसके बाद मजबूत लोकायुक्त भाजपा और कांग्रेस के बीच शह और मात का खेल बन कर रह गया। पूर्व मुख्यमंत्री मेजर जनरल भुवन चंद्र खंडूड़ी का लोकायुक्त विधेयक उनके ममेरे भाई विजय बहुगुणा तो क्या खुद भाजपा को ही हजम नहीं हुआ। जनरल खंडूड़ी ने लोकायुक्त संस्था को सिर्फ परामर्श निकाय की जगह कार्रवाई सक्षम संस्था बनाने की कोशिश की जिसकी परिधि में खुद मुख्यमंत्री, नौकरशाह और निचली अदालतें तक आ गई। बहुगुणा ने विधेयक राष्ट्रपति भवन भेजने के बाद भी उसमें मुख्यमंत्री पद और निचली अदालतों को बाहर करने की ठान ली थी। आज राज्य में कोई लोकायुक्त को याद नहीं करता। पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने तो यहां तक बहाना बनाया कि भ्रष्टाचार को लेकर हमारी जीरो टॉलरेंस नीति के चलते लोकायुक्त की जरूरत ही नहीं । अब भला भ्रष्टाचार का दावा करके कौन सरकार चलती है। भ्रष्ट भी दावा और दिखावा तो ईमानदारी का ही करता है।

नया संकट:भू जनसांख्यिकी में परिवर्तन, बढ़ रही बेचैनी

‌राज्य बनने पर पैदा हुए रोजगार के नये अवसर भले स्थानीय जनता को न दिखें, उत्तराखंड की सीमा से लगते उत्तर प्रदेश के जिलों से लोग बड़ी संख्या में रोजगार को उत्तराखंड आये हैं। यह आबादी पर्वतीय क्षेत्रों तक में सरकारी नौकरी, छोटी-मोटी ठेकेदारी और नेतागिरी में फंसी हमारी जनशक्ति के छोड़े व्यवसायों में बड़े पैमाने में घुस लोकव्यवहार परिवर्तन का कारण बन रही है। नई औद्योगिक अभियान की राह हमवार करने को भू कानूनों में ढील से पर्वतीय क्षेत्रों में कारखाने तो नहीं खुले, क्षेत्र से अपरिचित भूमाफियाओं ने जरुर रहस्यमय रणनीतिक तरीके से जमीनें कब्जा ली। हद तो तब हुई जब लोग बुग्याल तक अंग्रेजों से खरीदने का दावा करने लगे। इससे राज्य में हिमाचल प्रदेश जैसे भूकानून की मांग उठी । इससे होते सामाजिक और सांप्रदायिक तनाव और सांस्कृतिक बेचैनी की तरंगें सत्ता प्रतिष्ठान तक भी पहुंची और उसने संज्ञान तो लिया लेकिन अब आगे चुनावी हलचल के बीच इस दिशा में कुछ सार्थक हो पाना संभव नहीं लगता।‌‌‌‌‌ लोगों के बीच अपने लोकाचार खतरे में लगें तो यह सार्वजनिक चिंता का विषय बनेगा। विशेषकर जब छल-कपट की दुनिया से दूर पर्वतीय जनों के अभावों को उनकी अस्मिता खरीदने का अवसर मान संदिग्ध ताकतें अपनी सक्रीयता बढायेंगी। इस सबसे यहां की भूजनसांख्यिकी वहीं बन जायेगी जिससे भिन्न होने के कारण उत्तराखंड राज्य की मांग मुखर हुई थी।

केंद्र से मिली उपेक्षा

केंद्रीय राजनीति में उत्तराखंड को बड़े राज्यों जितना महत्व मिलना मुश्किल था। आखिर यहां से लोकसभा में पांच सांसद ही जाते हैं। भाजपा शासन में इसे महत्व मिला तो इसके आध्यात्मिक और सीमांत राज्य के सुरक्षा की दृष्टि से। जबकि उत्तराखंड को महत्व उसकी प्राकृतिक संपदा से भी मिलना चाहिए।
(मनोज इस्टवाल, सुनील दत्त पाण्डेय और आरपी तोमर के इनपुट के साथ)

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