जयंती: अशफाकुल्लाह खां ने बलिदान से धोया ननिहाल का कलंक

अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ, (उर्दू: اشفاق اُللہ خان, अंग्रेजी:Ashfaq Ulla Khan, जन्म:22 अक्तूबर १९००, फांसी:19 दिसम्बर १९२७) भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के एक प्रमुख क्रान्तिकारी थे। उन्होंने काकोरी काण्ड में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। ब्रिटिश शासन ने उन पर अभियोग चलाया और १९ दिसम्बर सन् १९२७ को उन्हें फैजाबाद जेल में फाँसी पर लटका दिया गया। राम प्रसाद बिस्मिल की भाँति अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ भी उर्दू भाषा के बेहतरीन शायर थे। उनका उर्दू तखल्लुस( उपनाम) हसरत था। वे हिन्दी व अँग्रेजी में भी लेख एवं कवितायें भी लिखते थे। पूरा नाम अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ वारसी हसरत था। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के सम्पूर्ण इतिहास में बिस्मिल और अशफ़ाक़ की भूमिका निर्विवाद रूप से हिन्दू-मुस्लिम एकता का अनुपम आख्यान है।

अशफ़ाक़उल्ला ख़ाँ वारसी ‘हसरत’ का चित्र

उपनाम :’वारसी’ एवं ‘हसरत’
जन्मस्थल :शाहजहाँपुर, ब्रिटिश भारत
बलिदान स्थल:फैजाबाद, ब्रिटिश भारत
आन्दोलन:भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम
प्रमुख संगठन:हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेशन

अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ का जन्म उत्तर प्रदेश के शहीदगढ शाहजहाँपुर में रेलवे स्टेशन के पास स्थित कदनखैल जलालनगर मुहल्ले में २२ अक्टूबर १९०० को हुआ था। पिता मोहम्मद शफीक उल्ला ख़ाँ थे। माँ मजहूरुन्निशाँ बेगम बला की खूबसूरत खबातीनों में गिनी जाती थीं। अशफ़ाक़ ने अपनी डायरी में लिखा है कि उनके बाप-दादों के खानदान में एक भी ग्रेजुएट नहीं था वहीं दूसरी ओर ननिहाल में सभी उच्च शिक्षित थे। उनमें से कई तो डिप्टी कलेक्टर व एस० जे० एम० (सब जुडीशियल मैजिस्ट्रेट) भी रह चुके थे। १८५७ के गदर में उनके ननिहाल वालों ने हिन्दुस्तान का साथ नहीं दिया तो जनता ने गुस्से में उनकी आलीशान कोठी फूंक दी थी। वह कोठी आज भी पूरे शहर में जली कोठी के नाम से मशहूर है। अशफ़ाक़ ने अपनी कुरबानी देकर ननिहाल के नाम पर लगे बदनुमा दाग को हमेशा-हमेशा के लिये धो डाला।

बिस्मिल से मुलाक़ात
अशफ़ाक़ भाई-बहनों में सबसे छोटे थे। सब उन्हें प्यार से अच्छू कहते थे। एक रोज उनके बड़े भाई रियासत उल्ला ने अशफ़ाक़ को बिस्मिल के बारे में बताया कि वह बड़ा काबिल शख़्स है और आला दर्जे का शायर भी। आजकल मैनपुरी काण्ड मॅ गिरफ्तारी से शाहजहाँपुर में नजर नहीं आ रहा। काफी अर्से से फरार है खुदा जाने कहाँ और किन हालात में होगा। बिस्मिल उनका सबसे उम्दा क्लास फैलो है। अशफ़ाक़ तभी से बिस्मिल से मिलने को बेताब हो गये। १९२० में आम मुआफी के बाद राम प्रसाद बिस्मिल शाहजहाँपुर आये और् घरेलू कारोबार में लग गये। अशफ़ाक़ ने कई बार बिस्मिल से मुलाकात करके उनका विश्वास अर्जित करना चाहा परन्तु कामयाबी नहीं मिली। चुनाँचे एक रात खन्नौत नदी किनारे सुनसान जगह में मीटिंग हो रही थी तो अशफ़ाक़ वहाँ जा पहुँचे। बिस्मिल के एक शेर पर जब अशफ़ाक़ ने आमीन कहा तो बिस्मिल ने उन्हें पास बुलाकर परिचय पूछा। यह जानकर कि अशफ़ाक़ उनके क्लासफैलो रियासत उल्ला का सगा छोटा भाई है और उर्दू जुबान का शायर भी है, बिस्मिल ने उससे आर्य समाज मन्दिर में आकर अलग से मिलने को कहा। घर वालों के लाख मना करने पर भी अशफ़ाक़ आर्य समाज जा पहुँचे और राम प्रसाद बिस्मिल से काफी देर तक गुफ्तगू के बाद उनकी पार्टी मातृवेदी के ऐक्टिव मेम्बर बन गये। यहीं से उनकी जिन्दगी का नया फलसफा शुरू हुआ। वे शायर के साथ-साथ कौम के खिदमतगार भी बन गये।

अहमदाबाद और गया काँग्रेस में

दूरदर्शी अशफाकुल्लाह ने राम प्रसाद बिस्मिल को सलाह दी कि क्रान्तिकारी गतिविधियाँ के साथ-साथ कांग्रेस पार्टी में भी अपनी पैठ बनाकर रखना कामयाबी में मददगार साबित होगा। बहरहाल अशफ़ाक़ व बिस्मिल के साथ शाहजहाँपुर के और भी कई नवयुवक कांग्रेस में शामिल हुए। १९२१ की अहमदाबाद कांग्रेस में राम प्रसाद बिस्मिल व प्रेमकृष्ण खन्ना के साथ अशफ़ाक़ भी शामिल हुए। अधिवेशन में उनकी मुलाकात मौलाना हसरत मोहानी से हुई जो कांग्रेस के व्ररिष्ठ शरमायेदारों में शुमार थे। मौलाना हसरत मोहानी के पूर्ण स्वराज के प्रस्ताव का गान्धी जी ने विरोध किया तो शाहजहाँपुर के कांग्रेसी स्वयंसेवकों ने गान्धी की ड्टकर मुखालफत में खूब हंगामा मचाया। आखिरकार गान्धी जी को न चाहते हुए भी प्रस्ताव स्वीकार करना ही पडा। इसी प्रकार दिसम्बर १९२२ की गया कांग्रेस में भी नवयुवकों ने गान्धी की जमकर खिंचायी की । इसमें बंगाल, बिहार व उत्तर प्रदेश के नवयुवक एक हो गये। उन सबका गान्धी से एक ही सवाल था- “आपने किससे पूछकर असहयोग आन्दोलन वापस लिया?”

एच०आर०ए० का गठन

गया कांग्रेस के बाद पार्टी में दो दल बन गये एक धनाढ्य लोगों का दूसरा आम तबके से आये नवयुवकों का। पहले दल ने १ जनवरी १९२३ को स्वराज पार्टी बना ली दूसरे दल ने क्रान्तिकारी पार्टी के गठन का मन बनाया। बंगाल के कुछ नवयुवक सीधे शाहजहाँपुर आकर मैनपुरी षड्यन्त्र के अनुभवी क्रान्तिकारी पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल से मिले और उनसे नयी पार्टी के गठन में सहयोग का आग्रह किया। बिस्मिल उन दिनों सिल्क की साडियों के व्यापार में उलझे हुए थे उनके पास समय नहीं था। इस पर अशफ़ाक़ ने उन्हें समझाया और अपनी ओर से पूरा सहयोग का वचन दिया। उसके बाद ही बिस्मिल अपने साझीदार बनारसी लाल को सारा कारोबार सौंप पूरे मन से अशफ़ाक़ और बिस्मिल क्रान्तिकारी पार्टी के काम में जुट गये। पार्टी की ओर से १ जनवरी १९२५ को अँग्रेजी में छापे गये घोषणा पत्र दि रिवोलूशनरी को पूरे उत्तर प्रदेश के प्रत्येक जिले तक पहुँचाने में अशफ़ाक़ की सराहनीय भूमिका को देखते हुए एच०आर०ए० की केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्य योगेश चन्द्र चटर्जी अशफ़ाक़ को बिस्मिल का लेफ्टिनेण्ट मनोनीत कर प्रदेश की जिम्मेवारी इनके कन्धों पर डाल कर स्वयं बंगाल चले गये।

काकोरी काण्ड में अशफ़ाक़ की भूमिका

बंगाल में शचीन्द्रनाथ सान्याल व योगेश चन्द्र चटर्जी जैसे प्रमुख व्यक्तियों के गिरफ्तार होने पर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेशन का पूरा दारोमदार बिस्मिल के कन्धों पर आ गया। इसमें शाहजहाँपुर से प्रेम कृष्ण खन्ना, ठाकुर रोशन सिंह के अतिरिक्त अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ का योगदान रहा। जब आयरलैण्ड के क्रान्तिकारियों की तरह धन छीनने की योजना बनायी गयी तो अशफ़ाक़ ने अपने बड़े भाई रियासत उल्ला ख़ाँ की लाइसेंसी बन्दूक और दो पेटी कारतूस बिस्मिल को दिये ताकि धनाढ्य लोगों के घरों में डकैतियाँ डालकर पार्टी के लिये पैसा इकट्ठा किया जा सके। जब बिस्मिल ने सरकारी खजाना लूटने की योजना बनायी तो अशफ़ाक़ ने अकेले ही कार्यकारिणी मीटिंग में इसका खुलकर विरोध किया। उनका तर्क था कि अभी यह कदम उठाना खतरे से खाली न होगा; सरकार हमें नेस्तनाबूद कर देगी। इस पर सबने अशफ़ाक़ के बजाय बिस्मिल पर खुल्लमखुल्ला फब्ती कसी-“पण्डित जी! देख ली इस मियाँ की करतूत। हमारी पार्टी में मुस्लिम को शामिल करने की जिद का असर अब आप ही भुगतिये, हम तो चले।” इस पर अशफ़ाक़ ने कहा-“पण्डित जी हमारे लीडर हैं हम उनके बराबर नहीं हो सकते। उनका फैसला हमें मन्जूर है। हम आज कुछ नहीं कहेंगे लेकिन कल सारी दुनिया देखेगी कि एक पठान ने इस ऐक्शन को किस तरह अन्जाम दिया?” और वही हुआ, अगले दिन ९ अगस्त १९२५ की शाम काकोरी स्टेशन से जैसे ही ट्रेन आगे बढी़, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने चेन खींची, अशफ़ाक़ ने ड्राइवर की कनपटी पर माउजर रखकर उसे अपने कब्जे में लिया और राम प्रसाद बिस्मिल ने गार्ड को जमीन पर औंधे मुँह लिटाते हुए खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया। लोहे की मजबूत तिजोरी जब किसी से न टूटी तो अशफ़ाक़ ने अपना माउजर मन्मथनाथ गुप्त को पकडाया और घन लेकर पूरी ताकत से तिजोरी पर पिल पडे। अशफ़ाक़ के तिजोरी तोडते ही सभी ने उनकी फौलादी ताकत का नजारा देखा। तिजोरी कुछ देर और न टूटती और लखनऊ से पुलिस या आर्मी आ जाती तो मुकाबले में कई जाने जा सकती थीं; फिर उस काकोरी काण्ड को इतिहास में कोई दूसरा ही नाम दिया जाता।

गिरफ्त से बाहर

२६ सितम्बर १९२५ रात पूरे देश में एक साथ गिरफ्तारियाँ हुईं । अशफ़ाक़ पुलिस की आँखों में धूल झोंक भाग गये। कुछ दिन नेपाल रहकर कानपुर आ गणेशशंकर विद्यार्थी के प्रताप प्रेस में २ दिन रुके। वहाँ से बनारस होते हुए बिहार के एक जिले डाल्टनगंज में कुछ दिनों नौकरी की । पुलिस को भनक लगने से पहले उत्तर प्रदेश के कानपुर वापस आ गये। विद्यार्थी जी ने उन्हें अपने पास से कुछ रुपये देकर भोपाल उनके बड़े भाई रियासत उल्ला ख़ाँ के पास भेज दिया। कुछ समय वहाँ रहकर अशफ़ाक़ राजस्थान गये और अपने भाई के मित्र अर्जुनलाल सेठी के घर ठहरे। वहाँ से भी बिहार के उसी जिले डाल्टनगंज पहुँच कर अपनी पुरानी जगह नाम बदल कर नौकरी शुरू कर दी। एक दिन भेद खुल गया तो अशफ़ाक़ ट्रेन पकड कर दिल्ली चले गये और अपने जिले शाहजहाँपुर के ही मूल निवासी एक पुराने दोस्त के घर पर ठहरे। यहाँ एक मुसीबत अशफ़ाक़ के पीछे लग गयी। जिसके यहाँ ठहरे हुए थे उस दोस्त की लडकी ने अशफ़ाक़ पर डोरे डालने शुरू कर दिये। हालात से आजिज अशफ़ाक़ ने पासपोर्ट बनवा कर किसी प्रकार दिल्ली से बाहर विदेश जाकर लाला हरदयाल से मिलने का मन्सूबा बनाया ही था कि किसी भेदिये की खबर पाकर दिल्ली खुफिया पुलिस के उपकप्तान इकरामुल हक ने उन्हें धर दबोचा। कहा जाता है कि उस दोस्त ने ही अशफ़ाक़ को पकडवाने में पुलिस की सहायता की थी।

काकोरी केस के दीगर हालात

यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि काकोरी काण्ड का फैसला २१ मई १९२६ को सुना दिया गया। अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ और शचीन्द्रनाथ बख्शी को पुलिस बहुत बाद में गिरफ्तार कर पायी थी अत: स्पेशल सेशन जज जे०आर०डब्लू० बैनेट की अदालत में ७ दिसम्बर १९२६ को पूरक मुकदमा दायर किया गया। मुकदमे के मजिस्ट्रेट ऐनुद्दीन ने अशफ़ाक़ को सलाह दी कि वे किसी मुस्लिम वकील अपने केस के लिये नियुक्त करें किन्तु अशफ़ाक़ ने जिद करके कृपाशंकर हजेला को वकील चुना। इस पर एक दिन सी०आई०डी० के पुलिस कप्तान खानबहादुर तसद्दुक हुसैन जेल में जाकर अशफ़ाक़ से मिले और उन्हें फाँसी की सजा से बचने को सरकारी गवाह बनने की सलाह दी। जब अशफ़ाक़ ने उनकी सलाह को तबज्जो नहीं दी तो उन्होंने एकान्त में जाकर अशफ़ाक़ को समझाया-

“देखो अशफ़ाक़ भाई! तुम भी मुस्लिम हो और अल्लाह के फजल से मैं भी एक मुस्लिम हूँ इस बास्ते तुम्हें आगाह कर रहा हूँ। ये राम प्रसाद बिस्मिल बगैरा सारे हिन्दू सल्तनत कायम करना चाहते हैं। तुम कहाँ इन काफिरों के चक्कर में आकर जिन्दगी जाया करने की जिद पर हो। मैं तुम्हें आखिरी बार समझाता हूँ,मियाँ! मान जाओ; फायदे में रहोगे।”
इतना सुनते ही अशफ़ाक़ की त्योरियाँ चढ गयीं और वे गुस्से में डाँटकर बोले-

“खबरदार! जुबान सम्हाल कर बात कीजिये। पण्डित जी (राम प्रसाद बिस्मिल) को आपसे ज्यादा मैं जानता हूँ। उनका मकसद यह बिल्कुल नहीं और अगर हो भी तो हिन्दू राज्य तुम्हारे इस अंग्रेजी राज्य से बेहतर ही होगा। आपने उन्हें काफिर कहा। इसके लिये आपसे यही दरख्वास्त करूँगा कि मेहरबानी करके आप अभी इसी वक्त यहाँ से तशरीफ ले जायें वरना मेरे ऊपर दफा ३०२ (कत्ल) का एक केस और हो जायेगा।”
सुनते ही बेचारे कप्तान साहब (तसद्दुक हुसैन) की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी और वे अपना सा मुँह लेकर वहाँ से खिसक लिये। बहरहाल १३ जुलाई १९२७ को पूरक मुकदमे का फैसला सुना दिया गया – दफा १२० (बी) व १२१ (ए) में उम्र-कैद और ३९६ में सजाये-मौत अर्थात् फाँसीका दण्ड।

तमाम अपील – दलील के बावजूद फाँसी

जज ने फैसले में साफ-साफ लिखा था कि अभियुक्तों ने अपने व्यक्तिगत लाभ को यह षड्यन्त्र नहीं किया मगर फिर भी अगर ये लोग अपने किये पर पश्चाताप प्रकट करें तो सजा कम की जा सकती है। वकील की सलाह पर लखनऊ जेल में जाकर अशफ़ाक़ बिस्मिल से मिले और उनका मत जानना चाहा। इस पर बिस्मिल ने उन्हें समझाया कि जिस प्रकार शतरंज के खेल में हारी हुई बाजी जीतने को कभी कभार अपने एक – दो मोहरे मरवाने ही पडते है, ठीक उसी प्रकार हम लोग भी माफीनामा दायर कर अपने को मौत की सजा से बचा सकें तो बेहतर रहेगा। सात साल में उम्रकैद पूरी हो जाने पर हम इससे भी भयंकर काण्ड करके इस बेरहम सरकार की नाक में दम कर देंगे। पारस्परिक सहमति से उधर राम प्रसाद बिस्मिल ने और इधर अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ ने अपना-अपना माफीनामा दायर कर दिया। अशफ़ाक़ ने पहला माफीनामा ११ अगस्त १९२७ व दूसरा माफीनामा २९ अगस्त १९२७ को लिखकर भेजा। इसके अतिरिक्त वकील की सलाह पर एक और मर्सी-अपील अशफ़ाक़ की माँ मुसम्मात मजहूरुन्निशाँ बेगम की तरफ से वायसराय तथा गवर्नर जनरल को भेजी गयी परन्तु उस पर कोई विचार ही नहीं हुआ।

अशफ़ाक़ व उनकी माँ के बाद विधानसभा सदस्यों ने संयुक्त रूप से हस्ताक्षर करके संयुक्त प्रान्त के गवर्नर विलियम मोरिस को एक मेमोरेण्डम नैनीताल भेजा। उसके साथ ही पंडित गोविन्द वल्लभ पन्त व सी०वाई० चिन्तामणि ने भी प्रार्थना पत्र भेजा किन्तु सब बेकार रहा। २२ सितम्बर १९२७ को होम सेक्रेटरी एच० डब्लू० हेग ने अपनी फाइनल रिपोर्ट दी जिसमें स्पष्ट लिखा था- “इन लोगों का उद्देश्य एक स्थापित सरकार उलटना था। यह पूरी तरह सिद्ध हो चुका है अत: इस मामले में फाँसी ही दी जा सकती है,जबकि बंगाल षड्यन्त्र में, जिसकी यह एक शाखा थी,अब तक ऐसी कोई तथ्यात्मक पुष्टि नहीं हुई है; अत: वहाँ लोगों को फाँसी की सजा से मुक्त रखा गया है। मुझे पक्का विश्वास है कि इन्हें फाँसी की सजा न देकर जिन्दा छोड दिया गया तो ये बंगाल तो क्या, पूरे हिन्दुस्तान में फैल जायेंगे।

तमाम अपीलों-दलीलों का असर हुआ कि फाँसी की तारीख दो बार आगे बढा दी गयी। पहले तारीख १६ सितम्बर १९२७ थी,बाद में ११ अक्टूबर १९२७ हुई। लन्दन की प्रिवी-कौंसिल मर्सी-अपील जा चुकी थी। फाँसी की तारीख फिर से आगे टाल दी गयी। आखिरकार १९ दिसम्बर १९२७ तारीख की सूचना चारों जेलों को भेज दी गयी। फैजाबाद जेल में सूचना पहुँचते ही अशफ़ाक़ २९ नवम्बर १९२७ को अपने भाई रियासत उल्ला ख़ाँ, १५ दिसम्बर १९२७ को अपनी वालिदा मजहूरुन्निशाँ बेगम तथा १६ दिसम्बर १९२७ को अपनी मुँहबोली बहन नलिनी दीदी को खत लिख खुदा की इबादत में जुट गये।

बिरादराने-वतन के नाम

जुमेरात (गुरुवार), १५ दिसम्बर १९२७ की शाम फैजाबाद जेल की काल कोठरी से अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ ने अपना यह आखिरी पैगाम हिन्दुस्तान के अवाम के नाम उर्दू में भेजा था। मकसद था कि मुस्लिम इस पर खास तवज्जो अता करें। एक पुलिस अधिकारी पंंडित विद्यार्णव शर्मा की पुस्तक युग के देवता : बिस्मिल और अशफ़ाक़ में पृष्ठ संख्या १७२ से १७८ तक यह पूरा सन्देश दिया है-
“गवर्नमेण्ट के खुफिया एजेण्ट मजहबी बुनियाद पर प्रोपेगण्डा फैला रहे हैं। इनका मक़सद मजहब की हिफाजत या तरक्की नहीं, बल्कि चलती गाडी़ में रोडा़ अटकाना है। मेरे पास वक्त नहीं है और न मौका है कि सब कच्चा चिट्ठा खोल कर रख देता, जो मुझे अय्यामे-फरारी (भूमिगत रहने) में और उसके बाद मालूम हुआ। यहाँ तक मुझे मालूम है कि मौलवी नियामतुल्ला कादियानी कौन था जो काबुल में संगसार (पत्थरों से पीट कर ढेर) किया गया। वह ब्रिटिश एजेण्ट था जिसके पास हमारे करमफरमा (भाग्यविधाता) खानबहादुर तसद्दुक हुसैन साहब डिप्टी सुपरिण्टेण्डेण्ट सी०आई०डी० गवर्नमेण्ट ऑफ इण्डिया पैगाम लेकर गये थे मगर बेदारमग़ज हुकूमते-काबुल (काबुल की होशियार सरकार) ने उसका इलाज जल्द कर दिया और मर्ज को वहाँ पर फैलने न दिया। ”
इसके बाद उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता के फायदे, अहमदाबाद कांग्रेस जैसा इत्तिहाद (मेलमिलाप), गोरी अंग्रेजियत का भूत उतारने की बात करते हुए देशवासियों से विदेशी मोह व देशी चीजों से नफरत त्यागने की नायाब नसीहत देते हुए चन्द अंग्रेजी पंक्तियों के साथ रुखसत होने की गुजारिश की थी।

“मेरे भाइयो! मेरा सलाम लो और इस नामुकम्मल (अधूरे) काम को, जो हमसे रह गया है, तुम पूरा करना। तुम्हारे लिये मैदाने-अमल (कार्य-क्षेत्र) तैयार कर दिया। अब तुम जानो तुम्हारा काम जाने। मैं चन्द सुतूर (पंक्तियों) के बाद रुखसत (विदा) होता हूँ।

फाँसीघर से मजार तक का सफर

फाँसी वाले दिन सोमवार १९ दिसम्बर १९२७ को अशफ़ाक़ हमेशा की तरह सुबह उठे, शौचादि से निवृत्त हो स्नान किया। कुछ देर वज्रासन में बैठ कुरान की आयतें दोहराई और खुद जाकर फाँसी के तख्ते पर खडे हो कहा- “मेरे ये हाथ इन्सानी खून से नहीं रँगे। खुदा के यहाँ मेरा इन्साफ होगा।” फिर अपने आप ही फन्दा गले में डाल लिया। अशफ़ाक़ की लाश फैजाबाद जिला कारागार से शाहजहाँपुर लायी जा रही थी। लखनऊ स्टेशन पर गाडी बदलते समय कानपुर से बीमारी में भी गणेशशंकर विद्यार्थी ने उनकी लाश को अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित किये। पारसीशाह फोटोग्राफर से अशफ़ाक़ के शव का फोटो खिंचवाया और अशफ़ाक़ के परिवार जनों को हिदायत दे कानपुर वापस चले गये कि शाहजहाँपुर में इनका पक्का मकबरा जरूर बनवा देना, रुपयों की जरूरत पडे तो खत लिख देना। मैं कानपुर से भेज दूँगा। अशफ़ाक़ की लाश उनके पुश्तैनी मकान के सामने वाले बगीचे में दफ्ना दी गई। उनकी मजार पर संगमरमर के पत्थर पर अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ की ही कही हुई ये पंक्तियाँ लिखवा दी गयीं:

“जिन्दगी वादे-फना तुझको मिलेगी ‘हसरत’,
तेरा जीना तेरे मरने की बदौलत होगा।”

अशफ़ाक़ यह पहले से ही जानते थे कि उनकी शहादत के बाद हिन्दुस्तान में लिबरल पार्टी यानी कांग्रेस ही पावर में आयेगी और उन जैसे आम तबके के बलिदानियों का कोई चर्चा नहीं होगा; सिर्फ़ शासकों के स्मृति-लेख ही सुरक्षित रखे जायेंगे। तभी तो उन्होंने ये क़ता कहकर वर्तमान हालात की भविष्य-वाणी बहुत पहले सन् १९२७ में ही कर दी थी।

जुबाने-हाल से अशफ़ाक़ की तुर्बत ये कहती है, मुहिब्बाने-वतन ने क्यों हमें दिल से भुलाया है?
बहुत अफसोस होता है बडी़ तकलीफ होती है, शहीद अशफ़ाक़ की तुर्बत है और धूपों का साया है!!


गनीमत है गणेशशंकर विद्यार्थी ने २०० रुपये मनीआर्डर भेज अशफ़ाक़ की मजार पर छत डलवा कर उसे धूप के साये से बचा लिया।

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