पुण्य स्मरण: प्रज्ञाचक्षु विरजानंद जिन्होंने संसार को दिये महर्षि दयानंद
…………… चरित्र-निर्माण, समाज-सुधार तथा राष्ट्रवादी जन-चेतना के लिए समर्पित *मातृभूमि सेवा संस्था* (राष्ट्रीय स्तर पर पंजीकृत) आज देश के ज्ञात व अज्ञात राष्ट्रभक्तों को उनके अवतरण, स्वर्गारोहण व बलिदान दिवस पर कोटि कोटि नमन करती है।🙏🙏🌹🌹🌹🌹 ………………………………………………………………………………………………………………………..
*जन्म:-* 00.00.1778 *निर्वाण:-* 14.09.1868
🇮🇳 *गुरु वीरजानंद दंडी जी 🇮🇳*
गुरु विरजानन्द दंडी जी एक संस्कृत विद्वान, वैदिक गुरु और आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के गुरु थे। आपको मथुरा के अंधे गुरु के नाम से भी जाना जाता था। गुरु वीरजानंद दंडी जी का जन्म स्थान जालन्धर नगर, पंजाब का करतारपुर कस्बे का गंगापुर ग्राम है। गुरु विरजानन्द दंडी जी को उर्दू-फारसी के लेखन-पठन का सम्यक् ज्ञान था। इनका बचपन का नाम – वृज लाल था। पाँच साल की उम्र में चेचक के कारण ये पूर्ण अंधे हो गए। गुरु विरजानन्द दंडी जी के पिता संस्कृत के विद्वान थे। उन्होंने अपनी पूर्व शिक्षा अपने पिता से प्राप्त की थी। उन्होंने अपने पिता के निधन से पहले अमृत कोष को कंठस्थ कर लिया था। 12वें साल में इनके माँ-बाप चल बसे और भाई-भाभी के संरक्षण में कुछ दिन गुजारने के बाद ये घर से विद्याध्ययन के लिए निकल पड़े। कुछ काल तक इधर भटकने के उपरांत ये आध्यात्मिक नगरी के रूप में विख्यात ऋषिकेश आए और कुछ काल ऋषिकेश में रहने के बाद किसी की प्रेरणा से ये हरिद्वार किसी आश्रम में रहने लगे। वहाँ ये स्वामी पूर्णानन्द जी से मिले जो एक प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान थे, जिन्होंने उन्हें ‘संन्यासी’ में दीक्षा दी, और उन्हें विरजानंद सरस्वती का नाम दिया।
📝जल्द ही गुरु विरजानन्द दंडी जी ने संस्कृत साहित्य की अन्य शाखाओं में महारत हासिल करना शुरू कर दिया और दूसरों को पढ़ाने का काम भी शुरू कर दिया।पूर्णानन्द ने इन्हें वैदिक व्याकरण और आर्ष शास्त्रों से अवगत कराया। इसके बाद वे संस्कृत विद्वानों के लिए प्रसिद्ध काशी आए जहाँ 10 सालों तक उन्होंने 6 दर्शनों (वेदान्त, मीमांसा, न्यायादि) तथा आयुर्वेदादि ग्रंथों का अध्ययन किया। इसके बाद गया आए जहाँ उपनिषदों के अध्ययन का काम जारी रखा। यहाँ से वे कलकत्ता गए जहाँ अपने संस्कृत ज्ञान के लिए उन्हे प्रशंसा मिली। कलकत्ता में उनके पास भौतिक सुख-सुविधाओं के बावजूद, गुरु विरजानन्द दंडी जी जल्द ही उस शहर को छोड़कर गंगा के किनारे गदिया घाट पर बस गए। यहीं पर अलवर के तत्कालीन महाराजा स्वामी आए और उनसे बहुत प्रभावित हुए । महाराजा के निमंत्रण पर, स्वामीजी अलवर आने के लिए सहमत हुए जहाँ वे कुछ समय के लिए रुके। महाराजा के अनुरोध पर, स्वामीजी ने शब्द-बोध ग्रंथ लिखा, जिसकी पांडुलिपि अभी भी अलवर में पुस्तकालय में जमा है। अलवर से, गुरु विरजानन्द दंडी जी सोरों गए और वहाँ से मथुरा गए। मथुरा में उन्होंने एक “पाठशाला” स्थापित की, जिसमें देश भर से छात्र आते थे। पाठशाला का खर्च राजपूत राजकुमारों से दान द्वारा पूरा किया गया था और विद्यार्थियों से कोई शुल्क नहीं लिया गया था।
📝यहाँ मथुरा में गुरु विरजानन्द दंडी जी के सबसे बडे शिष्य, प्रसिद्ध स्वामी दयानन्द सरस्वती जी उनके पास आए । गुरु विरजानन्द दंडी जी एक बहुत ही कठिन गुरु थे और उन्होंने अपने छात्रों में बहुत ही उच्च स्तर के परिश्रम और अनुशासन की अपेक्षा की। यहां तक कि दयानंद सरस्वती को भी उनके गुरु ने नहीं बख्शा। अध्ययन पूरा होने के बाद जब स्वामी दयानन्द सरस्वती जी गुरु विरजानन्द दंडी जी को गुरू दक्षिणा के रूप में थोडी से लौंग, जो गुरू जी को बहुत पसन्द थी लेकर गये तो गुरू जी ने ऐसी दक्षिणा लेने से मना कर दिया। उन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती जी से कहा कि गुरू दक्षिणा के रूप में, मैं यह चाहता हूं कि समाज में फैले अन्ध विश्वास और कुरीतियों को समाप्त करो। गुरू जी के आदेश के अनुसार स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक राजनैतिक उत्थान में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। स्वामी विरजानंद जी का निर्वाण 14 सितबर 1868 ई0 को मथुरा में हुआ था।जब विरजानंद जी के निधन का समाचार दयानंद तक पहुंचा, तो उन्होंने एक गहरी आह भरी और कहा आह! भरतवर्ष! पवित्र आर्यावर्त, आज वैदिक का गौरवशाली सूर्य अस्त हो गया’। स्वामी विरजानंद की स्मृति में करतारपुर के ग्रैंड ट्रंक रोड पर एक स्मारक बनवाया गया है। 14 सितम्बर 1971 को डाक विभाग ने इनकी स्मृति में एक टिकट भी जारी किया।
*भारत माता के यह महान् तेजस्वी संन्यासी जाते हुए संसार को एक दिव्य-ज्योति स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के रूप में दे गए। भारतीय इतिहास में गुरु विरजानन्द दंडी जी का नाम सदा सूर्य की भाँति प्रकाशित रहेगा। ऐसे महान गुरु को हमारा शत्.शत नमन।* 🙏🙏🌹🌹🌹🌹🌹🌹
✍️ गार्गी वत्स, अध्यक्ष बैंगलोर
*🇮🇳 मातृभूमि सेवा संस्था 9891960477 🇮🇳*