वृंदावन धाम में मोरारी बापू की रामकथा को विराम
*विविध धारा के महापुरुष एक मंच पर आत्मीय रूप में मिलने चाहिए,उसकी भारत को और विश्व को बहुत जरूरत । – मोरारीबापू*
मथुरा 28 मार्च। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं अपने मुख से जिसे अपना श्रीविग्रह कहा है,ऐसे वृंदावनधाम के वैजयंती आश्रम में,विगत नौ दिन से आयोजित ‘मानस वृंदावन’ विषय को लेकर रामकथा चल रही थीं। आज इस कथा का विराम दिन था। व्यासासीन मोरारीबापू ने इस रसमय वृंदावन को, विशेष रस में डुबो दिया था। होलाष्टक के इन दिनों में रस के साथ रंग का भी सूक्ष्म रूप से अनुभव हो रहा था। रस और रंग के दो किनारों की अनुभूति कराने वाली इस कथा में पूरा पंडाल मानो बहा जा रहा था। वृंदावन रसिकों की राजधानी है, यहां यह स्वाभाविक संभाव्य है।
प्रतिदिन कथा के प्रारंभ में वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीकजी महाराज मुरारीबापू के प्रति अपने हृदय के अप्रतिम भावों को नि:शेष रूप से अपनी मधुरा वाणी में उतार कर विनीत भाव से व्यासपीठ की वंदना करते रहें। साथ ही साथ, प्रतिदिन एक वरिष्ठ कथाकार व्यासपीठ की वंदना करने हेतु और समस्त आयोजन के प्रति अपने आशीर्वादक वचनों से परिष्कृत करने के लिए उपस्थित रहते थे। श्री पुंडरीकजी ने अपने वक्तव्य में,भाव में बहते हुए कहा कि,बापू न जाओ। आज सुबह से हृदय कुछ विदीर्ण-सा है। अपने पुराने संस्मरण को याद करते हुए श्री पुंडरीकजी ने कहा कि,बापू की गोदी में खेलने का अवसर भी मिला है और विश्राम घाट की कथा में उनके साथ प्रसाद पाने का भी अवसर मिला है,वह उनका परम सौभाग्य था। बापू आज ब्रज को अपने मूल स्वरूप में छोड़कर जाते हैं। तत्पश्चात उड़ीसा के राज्यपाल प्रोफेसर श्री गणेशी लालजी की चित्रमुद्रित उपस्थिति और उनके सद्भावनापूर्ण वचनों का सबने आस्वादन किया। वे तीन दिन उपस्थित रहकर कथा सुनना चाहते थे पर संभव न हो पाया उसका उनको अफसोस था। उन्होंने कहा कि बापू की वाणी मधुर, प्रिय, सत्य से भरी है। बापू के हृदय में अत्यंत प्रेम रहता है, आंखों में करुणा का सागर रहता है। उनके मस्तक पर शांति और बंधुत्व का कुमकुम लगा है। बापू त्रस्त,पीड़ित, अपमानित, उपेक्षित मानव के हृदय में संजीवनी का संचार करते हैं। बापू की वाणी तमस का निर्वाण करती है,ज्योति का निर्माण करती हैं। यह वाणी तो,वास्तव में,इस धरती के मानव की वाणी हो ही नहीं सकती! यह तो आकाशवाणी है! इस स्वाति नक्षत्र में प्रकटी वाणी की एक बूंद भी कोई चातक,कोई श्रोता पा लेता है तो वह प्रभु राम के गले के हार का एक मोती बन जाता है। आज भाईजी श्री भूपेंद्रभाई ने भी अपनी भाव-वंदना और आशीर्वाद प्रस्तुत कियें। उन्होंने कहा कि आज मैं नदी के दो तटों को मिलते हुए देख रहा हूं। उन्होंने गौडीय परंपरा के श्री आचार्यजी और बापू के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त की। मर्यादा पुरुषोत्तम की अनंतता में, सरलता में दिव्यता क्या है उसको मैंने बापू से पाया है।और विशेष करके, जैसे तुलसीदास को सन्मुख खड़े रामजी के दर्शन हनुमानजी ने करवाएं वैसे रामचरितमानस और गोस्वामी तुलसीदासजी के रामचंद्रजी के दर्शन करानेवाले मेरे हनुमान मुरारीबापू है। इससे पहले मैं गोस्वामीजी के रामचंद्रजी से अवगत नहीं था।
कथा के प्रारंभ में बापू ने उपस्थित तमाम साधु-संतों की वंदना करते हुए कहा कि यहां कृष्ण कायम रहते हैं, कृष्ण की कथा भी कायम निवास करती है। केवल कथा के गायक आते जाते रहते हैं। शेष कथा के दौर को आगे बढ़ाते हुए बापू ने विश्वामित्र के साथ गए राम-लक्ष्मण के मिथिला दर्शन की चर्चा करते हुए कहा कि परम की आंखों से यदि संसार देखा जाए तो आदमी संसार में खो नहीं जाएगा,धन्य हो जाएगा। सीताजी का बाग में प्रवेश, स्नान करना,फिर गौरी की पूजा करना,एक सखी का पीछे रह जाना,सखी के द्वारा सीताजी का रामदर्शन.. इस पूरे घटनाक्रम का आध्यात्मिक अर्थघटन करते हुए बापू ने कहा कि हम जैसे संसारियों को पहले सत्संग रूपी बाग में जाना चाहिए। सत्संग कथा के रूप में तो है ही, पर कोई अच्छी कहानी सुनो, कोई अच्छा मंजर देखने से दबे हुए सद्भाव का प्रकटीकरण होने लगे तो वह भी सत्संग है। किसी बहती नदी के पास बैठकर जीवन में गतिशीलता का बोध लो, वह भी सत्संग है। हिमालय आदि पर्वतों के पास से उसकी धवलता, शीतलता, अचलता का बोध ग्रहण करें तो वह भी सत्संग है। कोई सज्जन आदमी के साथ संवाद करो वह भी सत्संग है।अच्छा नृत्य, अच्छी ग़ज़ल, कोई अच्छा फिल्म का गीत ..जो भीतरी सद्भाव को प्रकट करें तो वह भी सत्संग है। संदर्भ देखे बगैर कोई आलोचना करें तो वह सत्संग की आलोचना करता है। जलाशय में स्नान करना, मतलब सत्संग करते- करते किसी साधु के हृदय में डुबकी लगाना,कोई साधु हमें को याद करें। साधु की प्रियता प्राप्त हो। फिर,क्रम में आया है कि जानकीजी गौरी मंदिर में आई। गौरी श्रद्धा का प्रतीक है, अंधश्रद्धा नहीं,अश्रद्धा भी नहीं,केवल शुद्ध श्रद्धा। बाग देखने में एक सखी पीछे रह गई,जो राम-लक्ष्मण को देख लेती है। और जानकीजी को राम-दर्शन तक पहुंचाती हैं। गुरु की भूमिका में सखी आगे जाती है,जानकी जी पीछे जाते हैं। अगर इस पूरे क्रम को निभायेंगे तो हमें कोई-न-कोई गुरु मिल जाएगा जो राम को देख कर आया हो और हमें राम दर्शन तक पहुंचा देगा। जानकीजी राम-दर्शन के बाद लौटती है तो मुड़-मुड़कर लता-पेड़-पौधैं,नदी,पक्षी के बहाने राम को देख लेती हैं। तुलसीजी यहां वैश्विक संदेश देते हुए कहते हैं कि ईश्वर का दर्शन प्रकृति के माध्यम से करो। धनुष्य भंग से पहले रामजी ने तीन बार गुरु को याद किया है। वहां उपस्थित सब राजे-महाराजे अपने गुरु को भूल गए थे। गुरु का स्मरण न हो तो अहंकार का धनुष टूटता नहीं और अहंकार टूटे नहीं तो भक्ति,शांति,शक्ति साधकों को मिलती नहीं है।
रामसेतु, शैवों और वैष्णवों के बीच का सेतुबंध है। भगवान राम ने सेतुबंध के संदर्भ में कहा कि तोड़ना मेरा स्वभाव नहीं, जोड़ना मेरा स्वभाव है। यहां, ब्रज में, माहाप्रभुजी सबके सेतुबंध रूप थे। वे कभी शिव की पूजा करते थे तो कभी कृष्ण की। उनको कोई भेद नहीं था। सनातन धर्म की पावनी परंपरा के घाट सब बिलग होते हैं लेकिन प्रवाह तो गंगा का ही है। एक ही प्रवाह में, सनातन प्रवाह में, स्नान कराने की व्यवस्था मात्र है। लेकिन, न्हाना तो पड़ता है प्रवाही परंपरा में। घाट के पत्थर में सिर नहीं पटका जाता। यह वृंदावन में सब घाट के महापुरुष आशीर्वाद दे देने के लिए आए हैं। बापू ने एक निर्देशात्मक,निश्चयात्मक बात कही कि विविध धारा के महापुरुष एक मंच पर आत्मीय रूप में मिलने चाहिए, उसकी भारत को और विश्व को बहुत जरूरत है।
कथा के विविध प्रसंगों को छूते हुए बापू ने नव दिवसीय रामकथा का सुकृत,हृदय के भाव के रूप में गौर पूर्णिमा के आज के दिन पर गौर-हरि कृष्ण चैतन्य गौरांग महाप्रभु जी और उनकी पूरी परंपरा और शताब्दी महोत्सव की इन दो विभूतियों के चरणों में अर्पण किया। कथा के आयोजक शुभोदय जी ह्दयांजलि दी और उनके पिता श्री रमाभैया का पुण्य स्मरण किया। बापू ने कहा,कोरोना के संक्रमण के बढ़ते ख़तरे को देखते हुए सावधानी बरतने की ज़रूरत है ताकि इसे फैलने से रोका जा सके। उन्होंने पूरी सतर्कता के साथ सरकार द्वारा निर्देशित नियमों का पालन करने की अपील की। इसके साथ इस कथा को विराम दिया गया।