क्या करेगी भारतीय समाज में अश्लीलता?

*अश्लीलता*

भारत देश एक संस्कृति प्रधान देश है आप यूं भी कह सकते हैं कि भारत देश की संस्कृति और सभ्यता ही इस देश की पहचान है, इस देश के जैसी संस्कृति जहां पेड़ पौधे नदी पहाड़ सबको पूजा जाता है, विश्व में और कही नही देखी जाती, और इसी देश में मां को भगवान से ऊपर का दर्जा दिया जाता है इसी देश में बेटियों को देवी स्वरूप मान कर उनके चरणों को धोकर पूजा किया जाता है, इस देश की संस्कृति में स्त्रियों को जो स्थान दिया गया है वह दुनिया की किसी दूसरी सभ्यता में नहीं देखने को मिलता ।
जहां हमारी सभ्यता ने स्त्रियों को विशेष सम्मान दिया है वहीं स्त्रियों के लिए कुछ मर्यादा और सीमाएं भी सुनिश्चित की हैं जिससे उनका सम्मान समाज में बरकरार रहे और समाज की सोच में वह हमेशा पूज्यनीय बनी रहें, शायद इसीलिए लज्जा, शर्म, ममता को स्त्रियों का गहना कहा जाता है , मर्यादा और अनुशासन यह दो रास्ते हैं जो आज तक हमारे देश की स्त्रियों को उस स्थान पर पहुंचाते आए हैं जहां उनको हमेशा से पूजा जाता रहा है लेकिन समय के बदलते चक्र ने आज वो रास्ता बदल दिया है और हमारी कुछ माताएं बहनें बहक कर दूसरे रास्ते में चलने लगी हैं, आजादी और स्वतंत्रता के नाम पर चुना गया यह पथ जिसमे न तो पहनावे की बाध्यता है न शर्म लज्जा जैसे आभूषण की जरूरत, स्वछंदता के नाम पर सारी मर्यादाओं को तोड़कर वो कब अंग प्रदर्शन के जरिए अश्लीलता की पथ पर चलने लगती हैं उन्हें इसका आभास भी नहीं हो पाता और यह रास्ता उन्हें उस मंजिल पर लेकर पटक देता है जहां उन्हें अपमान , निराशा, धोखा ,आत्महत्या, हत्या और कभी बलात्कार जैसे भीषण परिणामों से भी दो- चार होना पड़ता है। हमारे पूर्वजों को शायद इसका आभास पहले ही था इसीलिए उन्होंने स्त्रियों के लिए कुछ मर्यादाओं का निर्धारण किया था,जो आज धीरे- धीरे विलुप्त होने की कगार पर हैं । अश्लीलता सिर्फ स्त्रियों में ही नहीं पुरुषों में भी देखने को मिल रही है, यह वह बीमारी है जो धीरे धीरे हमारे देश की प्राण संस्कृति और सभ्यता को खाकर खोखली करती चली जा रही है।
अब सवाल यह है कि अश्लीलता को परिभाषित कैसे किया जाए , “अगर सिर्फ यौन-संदर्भ ही अश्लील मान लिये जायें तो किशोर किसी भी उपन्यास को पढ़ने की स्थिति में नहीं रहेंगे और उन्हें सिर्फ विशुद्ध धार्मिक पुस्तकें ही पढ़नी पड़ेंगी।” (समरेश बसु बनाम अमल मित्रा, 1985, सुप्रीम कोर्ट केसेस भाग-4, पृष्ठ 289 )
भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 292-294 में ‘अश्लील’ की परिभाषा अंग्रेजी कानून के अनुकरण पर की गयी है। इंग्लैंड में यह कानून 1727 में लागू हुआ था । कारण था सर चार्ल्स सैडले द्वारा बालकनी से अपनी नग्नता का सार्वजनिक प्रदर्शन । पहली बार किसी कुलीन लार्ड के विरुद्ध मुकदमे में अश्लीलता को ‘कॉमन लॉ में अपराध घोषित किया गया। किताबों में अश्लीलता तब तक केवल धार्मिक अदालतों द्वारा ही दंडनीय थी ।
किताबों की अश्लीलता को लेकर 1857 में पहली बार लार्ड कैम्पबेल ने वैधानिक नियम बनाया। उनके उत्तराधिकारी ने ‘हिकलिन केस’ में इसकी व्याख्या की थी । मुकदमा ‘दि कनफेशन अनमास्कड’ शीर्षक के एक इश्तिहार को लेकर था। यह इश्तिहार पूर्णतया अश्लील, अशुद्ध और भद्दी क्रियाओं से संबंधित शब्दों और विचारों से भरा हुआ था। फैसला करते समय न्यायाधीश कोक बर्न ने अश्लीलता की एक कसौटी स्थापित की, “मैं समझता हूँ कि अश्लीलता की एक कसौटी यह है कि क्या अश्लील करार दी गयी सामग्री की प्रवृत्ति ऐसे लोगों को भ्रष्ट करने की है जिनके हाथ वह सामग्री पड़ सकती है और जिनके दिमाग उससे अनैतिक प्रभाव ग्रहण कर सकने के लिए खुले हैं।
भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने रणजीत डी. उदेशी बनाम महाराष्ट्र राज्य (ए. आई. आर. 1965 सुप्रीम कोर्ट 881) में भारतीय दंड संहिता की धारा-292 की संवैधानिक वैधता का निर्णय और ‘अश्लील’ शब्द की व्याख्या इसी आधार पर की थी । यही कसौटी सामान्यतः प्रयोग में लायी जाती रही है। इसके अनुसार वर्णन के विषय और वर्णन की विधि की अपेक्षा, वर्णन का उद्देश्य अश्लीलता के निर्धारण में अधिक निर्णायक है।

अगर स्त्रियों के पक्ष की बात की जाए तो कुछ का मानना है कि सदियों से परिवार, प्रतिष्ठा, धर्म, नैतिकता के नाम पर नारी का दमन होता रहा है। हो सकता है उससे मुक्ति की चाह या बदला लेने के रूप में ही आज स्त्री अपने शरीर का सार्वजनिक प्रदर्शन कर रही हो। फर्क सिर्फ इतना है कि अब वह अपनी देह या देह की छवि का सौदा अपनी शर्त पर कर रही है। भले ही अन्ततः इससे पुरुष और पुरुष के व्यावसायिक हितों का ही अधिक फायदा होता है। आज हर चीज का ‘ट्रेड मार्क’ या लेबल ही बिकता है। ट्रेड मार्क और लेबल को घर-घर पहुँचाने के लिए आवश्यकता होती है एक युवा, सुंदर और सेक्सी मॉडल की क्योंकि नंगी औरत की तस्वीर देखते ही पुरुष की लार टपकने लगती है। ‘कामसूत्र’ से लेकर ‘मारुति’ तक के विज्ञापन उत्तेजक मुद्रा में किसी स्त्री मॉडल के बिना अधूरे हैं। आज स्त्री वस्तु में बदल दी गयी है, अथवा हो गयी है। बाजार में अपना उत्पाद बेचने के लिए, लगता है, ये सारे हथकंडे ‘वैध’ हो गये हैं। व्यापार में फायदा जितना अधिक होगा उतना ही अधिक फायदा मॉडल को भी होना चाहिए। मॉडल की देह सम्पत्ति है तो उसको बेचने-ना बेचने का अधिकार भी उसी को है लेकिन क्या कोई मॉडल बिना किसी मानसिक,आर्थिक,सामाजिक, पारिवारिक दबाव के अपनी स्वतंत्र इच्छा से यह सब कर रही है?

जर्मेन ग्रियेर ने अपनी पुस्तक ‘द फीमेल यूनेक’ में लिखा है, “प्रत्येक सर्वेक्षण से स्पष्ट है कि आकर्षक औरत की छवि विज्ञापन की सबसे अधिक प्रभावशाली मुद्रा है ।”

भारतीय परिप्रेक्ष्य में स्त्री ( अथवा पुरुष ) शरीर तो सिर्फ साधन है, साध्य नहीं । अमर तो सिर्फ आत्मा है। शरीर का क्या है? आज है, कल नहीं रहेगा। जब शरीर साधन है… सुख का, प्रदर्शन का, वेश्यावृत्ति का, विज्ञापन का, रति-क्रीड़ा का, तो संस्कृति और नैतिकता के पतन का हो हल्ला किसलिए ? ‘आर्थिक उदारता’ और ‘आधुनिकता’ को जब गले लगाओगे तो ‘सेक्स’ को कमरे में या कैमरे में कब तक कैद करके रख सकते हो?
अश्लीलता का विरोध भी कुछ अश्लील फोटो छापकर ही तो किया जा रहा है। क्योंकि उद्देश्य विरोध नहीं, ‘माल’ बेचना है । समाज जिस समय से होकर गुजर रहा है वहाँ अश्लील और श्लील की सीमा रेखा समाप्त हो गई है। यही है आपके ‘सामने का समय ।’
पहले नारी को घर में कैद करके शोषण किया जाता था, अब उसे मुक्त करके किया जा रहा है। मुक्ति के सारे अधिकार अंततः पुरुष- सत्ता के ही हितों को पोषित कर रहे हैं। यौन-उद्योग के मालिक निश्चित रूप से पुरुष ही हैं, स्त्रियाँ नहीं । यही कारण है कि “विज्ञापनों, गीतों, फिल्मों, सीरियलों आदि तमाम सांस्कृतिक रूपों में मनुष्य की देह का आखेट किया जाता है। देह में दिल नहीं, देह में मौजूद ‘लिबिडो’ इसका निशाना होता है। कैमरे की नजर स्त्री की देह पर इसलिए मचलती है ताकि दर्शक (पुरुष) को स्त्री (सेक्स) नए ढंग से दिखाई जा सके। स्त्री के सेक्स-केन्द्रों (उरोज, जंघाएँ, ओठ, नाभि और योनि) को हमारे फिल्मी गीतों में जिस कलात्मक छल के साथ ‘सक्रिय’ किया जाता है, वह स्त्री-देह को समूचे समाज का क्रीड़ा-स्थल बना देना चाहता है ।
समाज में व्याप्त अश्लीलता नामक बीमारी की जितनी जिम्मेदार स्त्रियां हैं पुरुष भी उतना ही जिम्मेदार हैं। लेकिन आज स्त्रियों को यह बात समझनी चाहिए कि उनका मान सम्मान और प्रतिष्ठा उनकी मर्यादा उनके हाथ में है और उनके ही हाथ में उनका उत्थान और पतन है ।

@ सचिन तिवारी

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