बिहार में तेजस्वी और कांग्रेस के साथ हुआ क्या?
तेजस्वी यादव कहाँ चूक गए, अब आरजेडी की राह क्या होगी?
तेजस्वी यादव के नेतृत्व में इस बार आरजेडी को बड़ी हार का सामना करना पड़ा है
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बिहार में पहले चरण के मतदान से ठीक पहले बारिश हो रही थी. आसमान में बादल डेरा जमाए थे. नेताओं को ले जा रहे हेलिकॉप्टरों के उड़ान भरने में मुश्किलें हो रही थीं. एक नवंबर को महुआ में तेज प्रताप यादव आने वाले थे. उनके हेलिपैड के सामने भीड़ जमा थी. लोगों की नज़रें आसमान में थीं कि हेलिकॉप्टर कब लैंड करेगा. लेकिन आसमान में काले बादल घुमड़ रहे थे.
तभी तेज प्रताप की पीआर टीम ने कहा कि मौसम प्रतिकूल होने की वजह से तेज प्रताप उड़ान नहीं भर पाए.
उसी वक़्त महुआ में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की रैली चल रही थी. नीतीश सड़क मार्ग से महुआ पहुँचे थे. नीतीश मंच पर पहुँचे और बहुत लंबा भाषण नहीं दिया. वह एलजेपी (रामविलास) के उम्मीदवार का प्रचार करने पहुँचे थे. एलजेपी (रामविलास) उम्मीदवार संजय सिंह को आगे करते हुए कहा कि इन्हें वोट करेंगे न? माला पहना दें? लोगों ने हामी भरी और नीतीश ने माला पहना दी. मौसम प्रतिकूल होने के कारण तेजस्वी यादव ने भी कई रैलियां निरस्त कीं लेकिन 74 साल के नीतीश कुमार ने हेलिकॉप्टर उड़ाने लायक मौसम का इंतज़ार नहीं किया.
आसान नहीं है राह
आरजेडी कार्यकर्ता
सवाल अब आरजेडी के भविष्य पर भी उठने लगेंगे
2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में तेजस्वी यादव ने 200 से ज़्यादा रैलियों को संबोधित किया था. वहीं इस बार तेजस्वी ने 100 से भी कम रैलियां संबोधित की.
तेजस्वी यादव शुरुआती रुझानों में अपनी सीट राघोपुर से भी आगे-पीछे हो रहे थे. आख़िरकार वें 14,532 वोटों से जीते. तेज प्रताप यादव तो महुआ में तीसरे नंबर पर चले गए.राघोपुर में भाजपा के सतीश कुमार ने तेजस्वी को कड़ी टक्कर दी. सतीश कुमार ने 2010 में राघोपुर से राबड़ी देवी को हराया था. तेजस्वी यादव 2015 के विधानसभा चुनाव में राघोपुर से विधायक चुने गए. यह उनका पहला चुनाव था.
तब नीतीश कुमार और लालू यादव ने मिलकर चुनाव लड़ा था. चुनाव इसी गठबंधन ने जीता और तेजस्वी पहली बार में ही प्रदेश के उपमुख्यमंत्री बन गए.
दो साल भी नहीं हुए कि नीतीश कुमार फिर से भाजपा के साथ चले गए और तेजस्वी को 16 महीने बाद उपमुख्यमंत्री कुर्सी छोड़नी पड़ी. उसके बाद वो विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बने. तेजस्वी यादव पर भ्रष्टाचार के भी आरोप लगे. आईआरसीटीसी भूमि घोटाले में उन्हें अगस्त 2018 में जमानत मिली थी.
ये मामला पटना में तीन एकड़ ज़मीन का है. इस ज़मीन पर एक मॉल प्रस्तावित है. लालू यादव पर आरोप है कि उन्होंने 2006 में रेल मंत्री रहते एक निजी कंपनी को होटल चलाने का कॉन्ट्रैक्ट दिया और इसके बदले उन्हें महंगा प्लॉट मिला.
तेजस्वी के नेतृत्व में आरजेडी तीन चुनाव लड़ चुकी है. 2015, 2020 और 2025. 2015 में आरजेडी और नीतीश कुमार साथ थे और इस गठबंधन को जीत मिली थी.
आरजेडी 80 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. 2020 में आरजेडी ने कांग्रेस से मिलकर चुनाव लड़ा और नीतीश कुमार भाजपा के साथ आ गए थे.
इस चुनाव में भी आरजेडी 75 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. लेकिन 2025 का चुनाव उनके नेतृत्व में आरजेडी के लिए 2010 जैसा रहा. 2010 में भी आरजेडी मात्र 22 सीटों पर ही जीती थी और इस बार भी इसी के आसपास जीत मिली .
सवाल है कि अब आरजेडी का क्या होगा? क्या तेजस्वी यादव वो स्थान पाएंगे जो लालू यादव को 90 के दशक में मिला था?
आरजेडी के पूर्व नेता प्रेम कुमार मणि कहते हैं कि कोई भी पार्टी एक जाति से नहीं चल सकती और मुझे लग रहा है कि यादव भी आरजेडी से अब पूरी तरह से एकजुट नहीं हैं.
प्रेम कुमार मणि कहते हैं, ”दानापुर में यादव पूरी तरह से आरजेडी के साथ होते तो रामकृपाल यादव नहीं जीते होते बल्कि रीतलाल यादव जीतते. राघोपुर में कांटे की टक्कर नहीं होती. पूर्णिया में लोकसभा चुनाव में आरजेडी की बीमा भारती मात्र 27 हज़ार वोट नहीं पातीं और पप्पू यादव नहीं जीत पाते. मुसलमान भी इनसे छिटक रहे हैं. हिना शहाब को सिवान में पिछले साल लोकसभा चुनाव में तीन लाख से ज़्यादा वोट मिले . साफ है कि मुसलमानों ने इन्हें वोट किया, जबकि वह आरजेडी की उम्मीदवार नहीं थीं. सीमांचल में ओवैसी की पार्टी पांच सीटें नहीं जीत पाती.”
लालू यादव इसी साल 24 जून को लगातार 13वीं बार राष्ट्रीय जनता दल अध्यक्ष चुने गए. 28 साल पुरानी पार्टी का लालू यादव के अलावा कोई राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं रहा. 77 साल के लालू यादव कई स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे हैं.
नब्बे के दशक में लालू यादव की सफलता तक तेजस्वी के नेतृत्व में पार्टी नहीं पहुँच पाई है.लालू यादव सक्रिय राजनीति से भी दूर हैं लेकिन पार्टी में अब भी वह महत्व रखते हैं. 10 मार्च 1990 को लालू यादव बिहार के 25वें मुख्यमंत्री बने थे.
लालू यादव कॉलेज के दिनों से ही राजनीति में आ गए थे. पहला चुनाव लालू यादव ने 1977 में छपरा लोकसभा क्षेत्र से जीता . तब लालू यादव मात्र 29 साल के थे. 42 साल आयु तक लालू यादव चार बड़े चुनाव 1977 और 1989 में सांसदी और 1980, 1985 में बिहार में विधायक चुनाव जीत चुके थे।
लालू यादव मुख्यमंत्री बने तो उनका शासन बिल्कुल नए तेवर में था. शुरुआती महीनों में लालू स्कूलों और सरकारी दफ़्तरों में अचानक पहुंच जाते थे. अधिकारियों को सार्वजनिक डांटते. ग़रीबों के साथ खाना खाते और गांवों में कैबिनेट की बैठक कर लेते.लालू यादव ने 1992 में मैथिली का बिहार की आधिकारिक भाषा स्तर समाप्त कर दिया .90 के दशक में हिन्दुस्तान टाइम्स के पॉलिटिकल रिपोर्टर रहे संजय सिंह कहते हैं, ”मैथिली ब्राह्मणों से जोड़कर देखी जाती थी और लालू यादव के पहले बिहार की राजनीति में मैथिली ब्राह्मणों का दबदबा था. लालू यादव यह दबदबा हर स्तर पर तोड़ना चाहते थे. लालू यादव ने पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक हितैषी छवि बनाई. दशकों की राजनीति के बावजूद लालू यादव इस छवि से बाहर नहीं निकलना चाहते.”
पटना में जेडीयू के कार्यालय के बाहर लगा एक बैनर
लेकिन बिहार अब वह राज्य नहीं, जिस पर कभी लालू यादव ने शासन किया था और न ही लालू यादव अब वह नेता हैं, जो कभी मुख्यमंत्री थे. लालू यादव का स्वास्थ्य ठीक नहीं,उनका किडनी ट्रांसप्लांट हुआ है. सक्रिय राजनीति से भी बाहर हैं.
संजय सिंह कहते हैं कि लालू यादव की दो विरासत है।’लालू यादव की एमवाई समीकरण की विरासत तेजस्वी की मज़बूती है. अब भी आरजेडी के साथ यादव और मुसलमान बने हुए हैं. दूसरी विरासत है कि लालू और उनकी पत्नी राबड़ी देवी के राज में बिहार में अराजकता. तेजस्वी यादव अब भी इस राजनीतिक विरासत की छाया से बाहर नहीं निकल पाए. जब-जब चुनाव आता है, यह नैरेटिव मज़बूत हो जाता है कि सत्ता आते ही यादव क़ानून व्यवस्था अपने हाथ में ले लेंगे.”
संजय सिंह कहते हैं, ”तेजस्वी यादव के लिए आगे की राह बहुत मुश्किल है. उनके ऊपर चार दिसंबर से भ्रष्टाचार मामले में ट्रायल शुरू होगा. परिवार में फूट पहले से है. लालू यादव अस्वस्थ हैं। लालू यादव का उभार के समय कांग्रेस बिल्कुल कमज़ोर स्थिति में भी.”
“1989 में भागलपुर दंगे बाद मुसलमान विकल्प खोज रहे थे. अब स्थिति बिल्कुल अलग है. भाजपा बहुत मज़बूत पार्टी है. नीतीश कुमार के साथ बेहतरीन सामाजिक समीकरण बन जाता है. ऐसे में यादव और मुसलमान मिलकर भी आरजेडी को जिता नहीं पाते हैं.”
राबड़ी देवी की कैबिनेट में आबकारी मंत्री और राजद के वरिष्ठ नेता रहे शिवानंद तिवारी कहते हैं कि तेजस्वी यादव को लगता है कि वह अपने पिता की राजनीति अभी के समय कर लेंगे तो यह उनका ग़लत आकलन है.तेजस्वी यादव ने पूरी पार्टी वन मैन शो बना दी है. पार्टी का पूरा कैंपेन एक व्यक्ति केंद्रित रहा. लालू यादव के समय भी यही था. अब तो परिवार में ही सत्ता संघर्ष शुरू हो गया है. मैं राबड़ी देवी सरकार में मंत्री था और मुझे पता है कि सरकार कैसे चलती थी.
लोग कहते हैं कि लालू राज में क़ानून व्यवस्था परिवार के हाथ में होती है, तो इसमें तथ्य भी हैं.’तेजस्वी यादव के साथ यादव हैं. मुसलमान मजबूरी में साथ हैं.
”टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंस में प्रोफ़ेसर रहे पुष्पेंद्र कहते हैं कि राष्ट्रीय जनता दल अपने साथ नए मतदाता नहीं जोड़ पा रहा है. एनडीए को देखिए तो उसके साथ यादव और मुसलमान छोड़कर सारी जातियां हैं. लेकिन आरजेडी अपने साथ नए मतदाता नहीं जोड़ पा रही है. लालू यादव का उभार हुआ तो बिहार सामंती जकड़ में था. लालू यादव ने इस जकड़न पर चोट कर तोड़ा . लालू यादव जानते थे था कि इसके दम पर दस साल तो शासन हो ही सकता है. लेकिन सामंतवाद कमज़ोर होने पर लालू यादव को जो करना था, वो नहीं कर पाए. नीतीश कुमार ने कोई क्रांतिकारी बदलाव नहीं किया लेकिन सड़क और बिजली के साथ महिलाओं कौ राहत का श्रेय तो उन्हें दे ही सकते हैं.”
पुष्पेंद्र कहते हैं, ”विपक्ष वादा ही कर सकता है लेकिन सत्ताधारी पार्टी अपने वादे लागू करने का अधिकारी होता है. महागठबंधन या इंडी गठबंधन के कई अच्छे वादे एनडीए ने अपनी सरकारों में लागू किये है.बिहार में 40 लाख से ज़्यादा स्कीम वर्कर मिड डे मील बनाने वाले, आंगनबाड़ी और अन्य तरह के कर्मचारी हैं, जिनकी सैलरी चुनाव से पहले दोगुनी हो गई. बिहार की लाखों जीविका महिलाओं के खाते में 10-10 हज़ार रुपये आए. दूसरी तरफ़ तेजस्वी यादव के वादों पर किसी ने भरोसा नहीं किया. बिहार में हर परिवार के एक व्यक्ति को सरकारी नौकरी पर कौन भरोसा करता?”
पुष्पेंद्र कहते हैं कि आरजेडी को पारिवारिक परिधि से बाहर निकल यह भी समझना होगा कि यादवों को भी हिन्दुत्व की राजनीति पसंद आ रही है.मुसलमान आरजेडी के साथ मजबूरी में हैं और यादवों के लिए भी हिन्दुत्व की राजनीति अछूत नहीं है. ऐसे में आरजेडी नए वोटर जोड़ने के बदले अपना पुराना वोट बैंक भी खो सकती हैं.”
बिहार चुनाव में कांग्रेस के छह सीटों पर सिमटने के ये पाँच महत्वपूर्ण कारण
कांग्रेस बिहार में 1990 से ही सत्ता में नहीं है. एनडीए बिहार में 243 में से 202 सीटें जीतकर ऐतिहासिक बहुमत में है. राष्ट्रीय जनता दल, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और अन्य पार्टियों के महागठबंधन को बड़ी और अप्रत्याशित हार मिली है.कांग्रेस पार्टी का प्रदर्शन सबसे ख़राब रहा. 60 सीटों पर लड़ी कांग्रेस सिर्फ़ छह सीटें जीती। कांग्रेस का बिहार विधानसभा चुनावों में वोट शेयर 8.71 प्रतिशत है. 2020 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर 9.6 प्रतिशत था. तब कांग्रेस 70 सीटें लड़कर 19 जीती थीं.
पिछले कुछ दशकों से बिहार की राजनीति कांग्रेस के लिए बहुत मुश्किल रही है.2015 में पार्टी ने 27 सीटें जीतीं थीं. वहीं, 2010 में सिर्फ़ चार सीटें जीत पाई। इस बार कांग्रेस के खाते सिर्फ़ छह सीटें आई. पार्टी का हर दस में से सिर्फ़ एक उम्मीदवार जीता.
विश्लेषकों के अनुसार कांग्रेस का यह लचर प्रदर्शन भले अप्रत्याशित और हैरानी वाला हो लेकिन इसके संकेत चुनाव प्रचार में ही दिखने लगे थे. 1990 से बिहार में कांग्रेस का मुख्यमंत्री नहीं और पार्टी अधिकांशतः सत्ता से दूर रही है.चुनावी नतीजों के बाद कांग्रेस के अधिकतर नेताओं ने इस नतीजे को चुनाव आयोग को ज़िम्मेदार बताया है. कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने कहा, “ये चुनाव बिहार की जनता बनाम चुनाव आयोग है. चुनाव आयोग भारी पड़ रहा है.”
मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने कहा, “यह पूरा खेल फ़र्ज़ी मतदाता सूचियों और फ़र्ज़ी ईवीएम का है, मेरा शक सच निकला.” हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर हुड्डा ने कहा, “रैलियों की भीड़ देख कर लगता था कि महागठबंधन की सरकार बनेगी. ये हार अप्रत्याशित है, हम कारणों की समीक्षा करेंगे.”
हालांकि, विश्लेषक कांग्रेस का ख़राब प्रदर्शन का कारण सामाजिक आधार की कमी, कमज़ोर संगठन, गठबंधन से तालमेल का अभाव और उम्मीदवार चुनने में लापरवाही को मानते हैं.
कमज़ोर सामाजिक आधार
बिहार चुनाव में सबसे अधिक वोटिंग किशनगंज ज़िले में हुई है
विश्लेषक मानते हैं कि बिहार में कांग्रेस का कोई मज़बूत सामाजिक आधार नहीं है और यही पार्टी के ख़राब नतीजों का सबसे बड़ा कारण रहा.
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक सुरूर अहमद कहते हैं, “कांग्रेस के पास कोई मज़बूत सोशल बेस (सामाजिक आधार) नहीं हैं. अगड़ी जातियां पहले ही पार्टी से छिटक चुकी, पिछड़ी जातियां भी पार्टी से नहीं जुड़ पाई हैं.”
”कांग्रेस विचारधारा आधारित पार्टी है लेकिन बिहार की राजनीति में जातिगत और सामाजिक समीकरण अधिक हावी हैं. पार्टी के पास ऐसा कोई मज़बूत वर्ग नहीं है, जिसका सामाजिक आधार इतना बड़ा हो कि चुनाव के नतीजे प्रभावित कर सके.”
बिहार के प्रमुख हिन्दी दैनिक प्रभात ख़बर के स्टेट हेड अजय कुमार मानते हैं कि कांग्रेस ने अपने कमज़ोर होते जनाधार को फिर से जोड़ने का कोई गंभीर प्रयास बिहार में नहीं किया है.
अजय कुमार कहते हैं, “कांग्रेस का बिहार में सामाजिक आधार लगातार कमज़ोर होता गया है. 2005 के बाद से पार्टी ने अपना पुराना जनाधार जोड़ने का कोई ठोस प्रयास नहीं किया. राहुल गांधी ने लोकसभा चुनाव में दलित और ईबीसी जातियां जोड़ने की कोशिश जरूर की लेकिन वह प्रयास इस चुनाव में सफल साबित नहीं हुआ.”
विश्लेषक ये भी कहते हैं कि कांग्रेस पार्टी ने अपना सामाजिक आधार मज़बूत करने को चुनाव में कोई सक्रिय प्रयास नहीं किया।पत्रकार नचिकेता नारायण कहते हैं, “राहुल गांधी ने चुनाव से दो महीने पहले पिछड़ा वर्ग को लेकर एक संकल्प पत्र जारी किया था, लेकिन पार्टी ने इसे प्रचारित नहीं किया. नतीजतन, पिछड़ी जातियों में पार्टी की पकड़ कमजोर रही. वहीं, भाजपा और जेडीयू की मज़बूत सामाजिक एवं संगठनात्मक रणनीतियों ने चुनाव में बेहतर काम किया.”
वैचारिक चुनौतियां
बिहार विधानसभा चुनाव में जीत के बाद प्रधानमंत्री मोदी भाजपा हेडक्वार्टर में
भारतीय जनता पार्टी के पास हिंदुत्व का मज़बूत एजेंडा है और पार्टी ने एक दशक में कई चुनाव जीते हैं.हरियाणा, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के बाद अब बिहार में भाजपा के एनडीए गठबंधन ने बड़ी जीत पाई है.चुनाव प्रचार में भाजपा नेताओं ने अपने वैचारिक आधार की अभिव्यक्ति में कोई झिझक भी नहीं दिखाई.
वरिष्ठ पत्रकार सुरूर अहमद कहते हैं, “कांग्रेस के सामने एक बड़ी चुनौती यह है कि लोग उसकी विचारधारा से जुड़ नहीं पा रहे हैं. बिहार के लोगों ने कांग्रेस की विचारधारा और रणनीति दोनों नकार दी है. लेकिन कांग्रेस के सामने यह चुनौती सिर्फ़ बिहार में ही नहीं है. कांग्रेस को गहराई से सोचना होगा क्योंकि न केवल बिहार बल्कि पूरे देश में लेफ्ट टू सेंटर पार्टियों को चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. दूसरी तरफ़ दक्षिणपंथी पार्टियां और भी मज़बूत हो रही हैं.”
विश्लेषकों का ये भी मानना है कि सोशल मीडिया और सूचना विस्फोट के इस दौर में लोग भावनात्मक रूप से अधिक प्रभावित होते हैं. कांग्रेस जिन विषयों पर चुनाव लड़ रही है वो वैचारिक तो हैं लेकिन उनमें इमोशनल कनेक्ट नहीं है.
सुरूर अहमद कहते हैं, “जब से सोशल मीडिया लोगों की ज़िंदग़ी का हिस्सा बना है और सूचना विस्फोट हुआ है, लोग सोचने समझने के बजाए भावुक ज़्यादा हो गए हैं. कांग्रेस या दुनिया की दूसरी लेफ़्ट टू सेंटर (वामपंथी और मध्यमार्गी) पार्टियां दुनिया भर में इस चुनौती का सामना कर रही हैं. वह राइट विंग पार्टियों की तरह लोगों से भावनात्मक रूप से ना जुड़ पा रही हैं ना उनकी भावनायें प्रभावित कर पा रही हैं.”
नैरेटिव ना गढ़ पाना
बिहार में एक रैली के दौरान महागठबंधन के नेता
बिहार विधानसभा चुनाव में यूं तो कांग्रेस ने बेरोज़गारी, सामाजिक न्याय, आरक्षण, मुफ़्त बिजली, ग़रीब कल्याण, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मुद्दों को अपने घोषणापत्र में शामिल किया.
लेकिन पार्टी के चुनाव में बिहार मतदाता सूची में विशेष गहन पुनरीक्षण और ‘वोट चोरी’ जैसे विषय ही हावी रहे और मीडिया कवरेज में यही पार्टी के नैरेटिव भी दिखे.
विश्लेषक मानते हैं कि एसआईआर और ‘वोट चोरी’ विषयों से बिहार की जनता कनेक्ट नहीं कर सकी और कांग्रेस पार्टी प्रभावी नैरिटिव गढ़ने में विफल रही.
विश्लेषक यह मानते हैं कि इसका कोई ख़ास असर चुनाव पर नहीं रहा.
वरिष्ठ पत्रकार नचिकेता नारायण कहते हैं, “वोट चोरी को चुनावी मुद्दा बनाना बिहार के लोगों को समझ नहीं आया और इससे नैरेटिव बिल्डिंग में दिक्क़त आई.”
राहुल गांधी ने बिहार में पहले चरण के मतदान से ठीक एक दिन पहले दावा किया कि हरियाणा विधानसभा चुनावों के दौरान वोट चोरी हुई. उन्होंने भारतीय जनता पार्टी और चुनाव आयोग पर कई आरोप लगाए.
नचिकेता नारायण कहते हैं, “बिहार के लोग इस मुद्दे को समझ ही नहीं सके. लोग मतदान करने जा रहे थे और राहुल गांधी कह रहे थे कि आपका वोट चोरी हो रहा है.”
पत्रकार अजय कुमार भी मानते हैं कि कांग्रेस बिहार में अपना कोई नैरेटिव गढ़ने में कामयाब नहीं हो सकी.
अजय कुमार कहते हैं, “कोई पार्टी तब बेहतर प्रदर्शन कर पाती है, जब उसके पास स्पष्ट एजेंडा हो, सक्रियता हो और लोग उससे जुड़ें. कांग्रेस लंबे समय से अपना कोई नैरेटिव गढ़ने में संघर्ष कर रही है. बिहार चुनाव में भी यही हुआ, कांग्रेस ये दिखा ही नहीं पाई कि उसका एजेंडा क्या है.”
वहीं दूसरी तरफ़ एनडीए गठबंधन ने चुनाव की शुरुआत के दिनों से ही बिहार में लालू यादव के शासनकाल के दौरान रहे कथित ‘जंगलराज’ को अपने नैरेटिव का आधार बनाए रखा.
विश्लेषक मानते हैं कि एनडीए गठबंधन की सबसे कामयाब रणनीति यह रही कि उन्होंने अपने शासनकाल की कमियों की तरफ़ ध्यान ही नहीं जाने दिया ना ही उसे चर्चा में आने दिया बल्कि कभी लालू के ज़माने को सुर्ख़ियों में रखा और चर्चा भी इसके ही इर्द-गिर्द रही.
सुरूर अहमद कहते हैं, “कांग्रेस और महागठबंधन के दल नैरेटिव की लड़ाई में ही हार गए थे.”
वहीं नचिकेता नारायण कहते हैं, “एनडीए का जंगल राज को लेकर जारी अभियान सफल रहा जबकि कांग्रेस के पास इसका प्रभावी मुक़ाबला करने वाली कोई रणनीति या नैरेटिव नहीं था.”
गठबंधन से तालमेल की कमी
तेजस्वी यादव, मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी
कांग्रेस के पास बिहार में अभी कोई वोट बैंक नहीं है
बिहार चुनाव में एक तरफ़ एनडीए नए दलों को जोड़कर मज़बूत हो रहा था तो दूसरी तरफ़ महागठबंधन की प्रमुख पार्टियों कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल में तालमेल और विश्वास की कमी दिखने लगी थी.
हालात ऐसे हुए कि दोनों पार्टियों के नेताओं को पटना में साझा प्रेंस कॉन्फ्रेंस कर भरोसा देना पड़ा कि महागठबंधन में सब ठीक है.विश्लेषक मानते हैं कि गठबंधन सहयोगियों से तालमेल की कमी महागठबंधन में साफ़ दिख रही थी.
अजय कुमार कहते हैं, “बिहार में कांग्रेस ने न संगठन मज़बूत करने पर ध्यान दिया और ना ही गठबंधन से समन्वय को. कांग्रेस में मंडल आयोग के बाद से द्वंद्व रहा कि लालू यादव के साथ रहें या स्वतंत्र रूप से खड़ा हो. बिहार में पार्टी यूनिट की राय जो भी रही हो लेकिन पार्टी की लीडरशिप ने राजद से गठबंधन राजद चुना. ऐसा लगता है कि ये गठबंधन असरदार नहीं रहा.”
वहीं सुरूर अहमद मानते हैं कि कांग्रेस और राजद के बीच गठबंधन को लेकर जो असमंजस की स्थिति बनी थी उसका भी असर नतीजों पर रहा हो सकता है.हालांकि वह मानते हैं कि कांग्रेस महागठबंधन से अलग होती तो उसके हाल और भी ख़राब हो सकते थे.अगर कांग्रेस आरजेडी से अलग हो जाती तो वह बड़ी ग़लती होती क्योंकि अलग होकर उनके पास वोट प्रतिशत इतना कम हो जाता कि वह बिहार में अपना अस्तित्व बचाने को ही संघर्ष करती दिखती.”
वहीं पत्रकार नचिकेता नारायण कहते हैं, “कांग्रेस और उसके सहयोगियों में तालमेल का अभाव बड़ा कारण रहा. कई सीटों पर फ्रेंडली फाइट हुई, जो चुनावी रणनीति को नुकसानदायी है और ऑप्टिक्स के लिए भी.”
कमज़ोर संगठन और उम्मीदवारों के चयन पर सवाल
बिहार में कांग्रेस के पास मज़बूत काडर नहीं है, ना ही समर्पित कार्यकर्ता. विश्लेषक मानते हैं कि हाल के सालों में पार्टी संगठन और भी कमज़ोर हुआ है. विश्लेषक पार्टी के उम्मीदवारों के चयन पर भी सवाल उठाते हैं.
सुरूर अहमद कहते हैं, “”कांग्रेस के अंदर पार्टी का स्ट्रक्चर मज़बूत नहीं है. मिडिल क्लास और कुछ प्रेरित लोग कांग्रेस से जुड़े हैं, लेकिन व्यापक स्तर पर वह प्रभावी आधार नहीं बना पाई है. कांग्रेस के पास बिहार में ऐसे समर्पित कार्यकर्ता नहीं है जैसे राजद या उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के पास है. इसी से साफ़ हो जाता है कि कांग्रेस बिहार में बहुत मज़बूत स्थिति में नहीं है.”
अजय कुमार कहते हैं, “कोई पार्टी तब बेहतर प्रदर्शन कर पाती है, जब उसके पास स्पष्ट एजेंडा हो, सक्रियता हो और लोग उससे जुड़ें. ये कांग्रेस में लंबे समय से कमी रही. जिन राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां नहीं हैं, वहां ज़रूर कांग्रेस ने अपना एक मज़बूत संगठन खड़ा किया है लेकिन यूपी, बिहार और बंगाल जैसे राज्य जहां मज़बूत क्षेत्रीय पार्टियां है, वहां पार्टी अपना संगठन खड़ा करने में बहुत हद तक नाकाम ही रही है.”
वहीं पत्रकार नचिकेता नारायण मानते हैं कि कांग्रेस के उम्मीदवारों का चयन भी सवालों में रहा.

