ज्ञान: ये हैप्पी होली और हैप्पी दशहरा क्या होता है भाई?
मैं हमेशा कहती आई हूँ, ये भाइयों के घर बहनों और बुआओं के प्रताप से ही चलते हैं। बहन सैंकड़ो किलोमीटर दूर बैठी भी परिवार की वंश बैल की दुआएँ मांगती रहती है। उसका बस चले तो भाई-भतीजे की सब बलाएं अपने सर ले ले। बड़खुलिया बनाना इसी प्रक्रिया का परीचायक है, फूलेरा बीज़ से गोबर के अलग-अलग रूप देकर जो मालाएं बनाई जाती है वो सब कार्य माळा घोलाई तक चलता है।
आज माळा का दिन है, बुआ हंसती मुस्काती पीहर के घर अपनी सब आशीष बरसाने आ गई। इतना मोह है उसको पीहर के आँगन से की भावुक बोली, “भाई म्हारी उमर भी तने लाग जावे।” माळा को दक्षिणा वृत्त घुमाकर शाम को होलिका पूजन के समय अग्नि को समर्पित कर देगी वो। यह तांत्रिक प्रक्रिया या टोटका भी है। बहन, सब अळायें बळायें हर लेती हैं इसके द्वारा और होलिका की अग्नि में जला देती है। माळा घोलाई, भाई-बहन के शुद्धतम प्रेम का परिचायक भाव है। अब लोग इसको बाजार से खरीदने लागे हैं, अमेजन जैसी कम्पनी जो हमारी ही परम्पराओं का विरोध करती है किन्तु खुद बड़खुलिए बेचती है। मैं इन सबका पुरजोर विरोध करती हूँ, क्या बहने भाई-भतीजों के लिए अपने हाथ से इतना भी नही कर सकती। फिर होलिका बुआ तो प्रहलाद को गोदी में लेकर ही बैठ गई थी।
मेरे लिए यह इसलिए अधिक महत्वपूर्ण है क्यूंकि मैं सौलह दिन गणगौर पूजने वाली तीजणी बनूँगी कल से। साल भर जिस एक त्यौहार का मैं इंतजार करती हूँ वो है गणगौर, उस गणगौर की प्रथम पूजा होलिका दहन शांत होने के बाद उसी की राख से बनाये हुए पिंडोलियो से शुरू होती है।
कल सुबह से तीज तक चिल्ला चिल्लाकर तब तक गीत गाऊँगी ज़ब तक गवरजा आडा नही खोल देगी।
“बाड़ी वाला बाड़ी खोल ,
बाड़ी की किवाड़ी खोल
छोरिया आयी दूब न।
भाई बहन के प्रेम के प्रतीक माळा घोलाई पर्व की सभी को बधाई। जितनी बलाएं है जल जाएगी सब, बचेगा बस प्रेम।
होली है।
✍🏻भारती पंवार
दशामाता : कथा कथन से लोक शिक्षण
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होलिका दहन से लेकर दस दिन तक लोककथाओं के कथन और वार्ता के श्रवण की परम्परा में हमारे सामाजिक संबंध के सूत्र और वे मूल्य जुड़े होते हैं जो भारतीय परिवारों की मूल विशेषता है। यह विशेषता सामूहिक संबद्धता का पोषण करने वाली है।
दशामाता की व्रत कथाओं में अपेक्षाकृत पुरानी नल दमयंती की कथा है जो महाभारत में लोक से लेकर लिखी गई लेकिन लोककण्ठ ने उसे सदा आदरणीय मानकर सम्मान दिया। सास ने बहू को, बहू ने अपनी बहू को और बहू ने अपनी बहू को सुनाई… याद नहीं रही तो किसी बात कहने वाली स्त्री के पास जाकर सुनी और जिसको याद है, उसने दसों ही दिन बोलकर दोहराई। कोई सुनने वाली नहीं मिली तो हथेली में अन्न के आखा लेकर अथवा जल भरे लोटे के आगे सुनाई। लेकिन, सुनाई ही!
सत्य कथन, सबका सम्मान, सहचर का निश्छल साथ, सच्चा संबंध, समभाव, सहिष्णुता, सतीत्व, साझेदारी का महत्व, सहजता और सदाचरण – ये दस मानवता के शाश्वत मूल्य हैं। मानवता के निर्धारक होने से ये मातृरूप हैं। इनका जीवन में पालन करना ही पूजन है। दशामाता की कथाओं में ये भाव अंतर्निहित है। इनके व्रत पालन से ही दमयंती महारानी होती है और नल महाराजा! सदा सुदशा, सुख, सौभाग्य के लिए यह जीवन मंत्र है। ( राजस्थान की लोक व्रत संस्कृति : डॉ. कविता मेहता)
भविष्य पुराण में आशामाता के नाम से इस व्रत को दिया गया है। आशा संख्यावाची शब्द है जिसका आशय दिशा है और दिशाएं 10 होती हैं। इस तरह यह व्रत दस दिन वाला है। दस तिथि वाला है। बीच में जिस दिन रविवार पड़ जाए उस दिन दाड़ा बावजी (सूर्यदेव) के नाम व्रत रखकर एक ही रोट को दही, गुड़ घी के साथ (अलुना) खाया जाता है लेकिन उससे पहले रोट में छेदकर चुपचाप भानुदर्शन किया जाता है। किसी मनुष्य का चेहरा नहीं देखा जाता। यह उस काल की नारी स्मृति है जब कुन्ती जैसी कन्याएं प्रकाश जैसे तत्त्व के धारक को मोहवश खोह से देखती थी लेकिन अन्नचूर्ण के रोट उसी सूर्य के आकार के बनाकर चुपके से खाना सीखी थी…।
दशा व्रत दस बिंदी वाला है। मातृकाओं को बिंदी से ही जाना जाता है। कार्तिकेय ने उनके आधार पर ही २६ (+ १) अक्षर सीखे। इसका अन्य कोई रूप नहीं। डोरक व्रत होने से इसको हमेशा याद रखा जाता है। डोरे पर दस गांठ होती है। व्रत में भित्ति पर दस गांठ की प्रतीक कुमकुम और काजल या मेंहदी से 10 – 10 बिंदी लगाई जाती है। पीपल का पूजन किया जाता है और परिक्रमा कर हल्दी मिले आटे के गहने निवेदित किए जाते हैं और घर के द्वार पर स्वास्तिक बनाकर एकाशन किया जाता है…। यह लोकभाषा के संरक्षण का सुंदर माध्यम भी है।
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✍🏻श्रीकृष्ण जुगनू
जलाया तो दोनों त्योहार में गया
एक में लंका जलाई गई
दूजे में होलिका
हिरण्य माने सोना
वहां सोने की लंका थी
यहां हिरण्यकश्यप था
कश्यप को पश्यक कर दें तो जिसकी दृष्टि सोने पर लगी हो
कश्यप का एक अर्थ पलंग भी होता है ;
हिरण्यकश्यपु माने भोग-विलास करने वाला
दोनों अवसरों पर नई फसलों का आगमन होना होता है
माने कृषि लक्ष्मी आने वाली होती हैं
हैप्पी होली और हैप्पी दशहरा बोलनेवालों की क्या कहूँ
अपनी ही समझ पर तरस आता है
जो दशमुख यानी रावण हार गया वह अब दशहरा हैप्पी कैसे होगा जी
दशमुख से पिंड छूटा तो हैप्पी
जो होलिका फूंक गई वह हैप्पी होली कैसे होगी जी
बत्ती जलाना और अन्धकार भगाना जैसे दो चीज नहीं
वैसे ही होलिका जलाना और अपना प्रकृष्ट आह्लाद प्रह्लाद बचाना दो चीज नहीं
प्रह्लाद माने हैप्पीनेस 🙂
हैप्पी बसंत पूर्णिमा बोले तो समझ नहीं आएगा न !!
जाइए ! जाके गुझिया का आटा पिसा आइये
जैसा ही प्रयोग है हैप्पी होली ! बकलोली !!
प्रह्लाद हैं भक्त,
होली का आह्लाद भक्तों का प्रकृष्ट आह्लाद है,
नवधा भक्ति का प्रचार करनेवाले भगवान नारायण के भक्तों का उल्लास है,
हरि और हर एक दूजे के भक्त और भगवान हैं,
विविध रंगों के मेल से निकलती एकल प्रसन्नता-हुल्लास-उल्लास !!
नव रंग, नव रस, नवधा भक्ति युक्त नव उल्लसित जीवन की कामना !!
स्वर्ण कर्षक को हिरण्य कशिपु कहा गया-
हिरण्यकशिपु ने दुनिया भर की संपत्ति यानि सोना खींचकर जमा कर लिया था।
उस असुर ने पंच महाभूतों पर एकाधिकार कर लिया था। उसकी इच्छा से हवा, पानी आग आदि प्रकृति की सारी शक्तियां को काम करना पड़ता था,
आर्थिक शक्तियों पर एकाधिकार कर विश्व के प्राणियों को दास बनने का काम आज भी हो रखा है।
आर्थिक विषमता का संत्रास फैला हुआ है और प्रकृति कुपित हो उठी है।
भावी पीढ़ियों की रक्षा अनिवार्य हो गयी है।
देवसृष्टि को आसुरी माया से मुक्ति दिलाने का काम सज्जन शक्तियों को करना होगा।
होलिका जलने के लिए ही होती है।
वर्ष भर का क्लेश जलाकर नित्य नूतन होते रहने की संस्कृति है होली!
“ब्रह्म अगिनि तन बारि के
गत संबत दियो जराय।
संगत साधु की
जहँ मन पावे बिसराम…”!
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✍🏻सोमदत्त द्विवेदी एवं प्रमोद दुबे जी की पोस्टों से संग्रहित