सुप्रीम कोर्ट में क्या विचारणीय है बिलकीस बानो प्रकरण में

बिलकिस बानो केस में गुजरात सरकार से मांगा जवाब:सुप्रीम कोर्ट ने पूछा- दोषियों की रिहाई के फैसले में दिमाग लगाया या नहीं

नई दिल्ली 26 अगस्त। मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना के आखिरी वर्किंग डे यानी 25 अगस्त को उनकी अगुवाई वाली बेंच ने बिलकिस बानो केस में गुजरात सरकार को नोटिस जारी किया। कोर्ट ने ये नोटिस बिलकिस बानो गैंगरेप के 11 दोषियों को रिहा करने के गुजरात सरकार के फैसले को लेकर जारी किया है। 15 अगस्त को रिमिशन पॉलिसी के तहत गुजरात सरकार ने सभी 11 दोषियों को रिहा कर दिया था।

दोषियों की रिहाई के खिलाफ दायर याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार से पूछा कि क्या नियमों के तहत दोषी छूट के हकदार हैं? क्या इस मामले में छूट देते समय एप्लिकेशन ऑफ माइंड का इस्तेमाल किया गया था?

बिलकिस केस के दोषियों की रिहाई के खिलाफ एक्टिविस्ट रूप रेखा वर्मा, CPI (M) नेता सुभाषिनी अली और स्वतंत्र पत्रकार फिल्ममेकर रेवती लाल ने याचिका दायर की थी।

इस विवेचना में जानते हैं कि आखिर क्या होता है एप्लिकेशन ऑफ माइंड, कोर्ट के गुजरात सरकार को जारी नोटिस का मतलब क्या है…

क्या है एप्लिकेशन ऑफ माइंड

सुप्रीम कोर्ट ने बिलकिस बानो केस में गुजरात सरकार को नोटिस जारी करते हुए जिस एप्लिकेशन ऑफ माइंड का हवाला दिया, वो आखिर क्या है? दैनिक भास्कर ने यही सवाल पूछा सुप्रीम कोर्ट के वकील अब्दुल कादिर अब्बासी से।

अब्बासी ने कहा- ‘एप्लिकेशन ऑफ माइंड एक ज्यूडिशियल टर्म है। दरअसल, जब भी किसी को रिहा किया जाता है या जमानत दी जाती है, तो उसको लेकर कोई लॉजिक दिया जाता है या कोई वजह बताई जाती है। अगर वजह पर्याप्त है, तो वह फैसला टिकता है। अगर बिना किसी वजह के ही ऐसा किया जाता है, तो हायर कोर्ट लोअर कोर्ट या ट्रिब्यूनल से कहते हैं कि आपने फैसला देते समय एप्लिकेशन ऑफ माइंड का इस्तेमाल नहीं किया। इसी वजह से कई बार हायर कोर्ट, लोअर कोर्ट के फैसलों को खारिज भी करते हैं।’

अब सवाल ये है कि आखिर किसी फैसले में नॉन-एप्लिकेशन ऑफ माइंड क्या होता है?

1. कानून की जरूरतों को पूरा किए बिना लिया गया फैसला

2. कानून की शर्तों को पूरा किए बिना लिया गया फैसला

3. जनहित पर विचार न करना

4.कानूनी जरूरतों की अवहेलना करके फैसला लेना

5.संबंधित सबूतों पर विचार न करना

6. प्रासंगिक मैटेरियल (जैसे-दस्तावेज, गवाही, सबूत, पुराने फैसले) पर विचार किए बिना राय बनाना

7. दस्तावेज, गवाही, सबूत को रिकॉर्ड में लिए बिना फैसला लेना। यानी हर फैसले के साथ संबंधित दस्तावेज और सबूत साथ में होना जरूरी है।

उदाहरण को बिलकिस बानो केस में दोषियों को 14 साल बाद जेल में गुड कंडक्ट यानी अच्छे आचरण से छोड़ा गया, तो उसके सबूत होने चाहिए।

8. अटकलों के आधार पर फैसला लेना

9.संबंधित पक्षों के अधिकारों के महत्वपूर्ण बिंदुओं पर विचार किए बिना फैसला लेना

10. विवेकाधीन शक्तियों के इस्तेमाल में देरी

11. जल्दबाजी में दिया गया आदेश

गुजरात सरकार ने रिमिशन पॉलिसी में बिलकिस के दोषियों को किया था रिहा

गुजरात सरकार ने ये फैसला CrPC की धारा 433 और 433A में लिया था। CrPC की इन दो धाराओं के तहत- संबंधित राज्य सरकार किसी भी दोषी के मृत्युदंड को किसी दूसरी सजा में बदल सकती है। इसी तरह उम्रकैद को भी 14 साल की सजा पूरी होने के बाद माफ कर सकती है।

इसी तरह संबंधित सरकार कठोर सजा को साधारण जेल या जुर्माने में और साधारण कैद को सिर्फ जुर्माने में भी बदल सकती है। इस आधार पर राज्य नीति बनाते हैं। जिसे रिमिशन पॉलिसी कहते हैं।

बिलकिस बानो वाले मामले में 11 दोषियों में से एक राधेश्याम भगवानदास शाह ने सीधे गुजरात हाईकोर्ट में अपील दायर की। अपील में कहा था कि रिमिशन पॉलिसी में उसे रिहा किया जाए।

जुलाई 2019 में गुजरात हाईकोर्ट ने ये कहते हुए याचिका खारिज कर दी कि सजा महाराष्ट्र में सुनाई गई थी, इसलिए रिहाई की अपील भी वहीं की जानी चाहिए। दरअसल, बिलकिस बानो की अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने इस केस को महाराष्ट्र ट्रांसफर किया था। जहां मुंबई की स्पेशल सीबीआई कोर्ट में इन सभी को उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी।

गुजरात हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दोषी भगवानदास सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। मई 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस मामले में गुजरात सरकार फैसला करे, क्योंकि अपराध वहीं हुआ था। कोर्ट के निर्देश पर ही गुजरात सरकार ने रिहाई पर फैसला लेने को पंचमहल के कलेक्टर सुजल मायत्रा की अध्यक्षता में समिति गठित की।

समिति ने हाल ही में सर्वसम्मति से 11 दोषियों के समय से पहले रिहाई के पक्ष में फैसला दिया। इसके बाद गुजरात सरकार ने इन दोषियों की रिहाई पर मुहर लगा दी।

14 साल के बाद रिहा करना नियम नहीं, SC ने कहा था- उम्रकैद मतलब उम्रभर की कैद

2012 के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया था कि उम्रकैद का मतलब होता है उम्रभर की कैद। जस्टिस केएस राधाकृष्णन और जस्टिस मदन बी लोकुर की बेंच ने कहा था कि ‘ऐसा लगता है कि एक गलत धारणा ये है कि आजीवन कारावास की सजा काट रहे कैदी को 14 या 20 साल की कैद पूरी होने पर रिहा होने का अधिकार है। कैदी को ऐसा कोई अधिकार नहीं है।

उम्रकैद या आजीवन सजा काट रहे दोषी को अपने जीवन के अंत तक हिरासत में रहना होता है। उम्रकैद की सजा पूरी होने से पहले दोषी भारतीय दंड संहिता के सेक्शन 432 में संबंधित सरकार की किसी छूट या रिमिशन से रिहा हो सकता है, लेकिन CrPC के सेक्शन 433-A के मुताबिक, संबंधित सरकार उम्रकैद की सजा को 14 साल से पहले नहीं घटा सकती है।’

रिहाई के बाद गोधरा जेल के बाहर दोषियों का स्वागत मिठाई खिलाकर किया गया। रिहाई की याचिका दाखिल करने वाले एक दोषी राधेश्याम ने कहा, ‘बाहर आकर खुश हूं।’

केंद्र की मौजूदा नीति में बलात्कार के दोषी नहीं हो सकते है रिहा

जून 2022 में केंद्र सरकार ने दोषी कैदियों को जेल से रिहा करने के उद्देश्य से राज्य सरकारों के लिए एक गाइडलाइन जारी की थी। आजादी का अमृत महोत्सव में जारी इस गाइडलाइन में रेप के दोषी समय से पहले जेल से रिहाई के हकदार नहीं थे।

हालांकि गुजरात के अतिरिक्त मुख्य गृहसचिव राजकुमार के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार से तब की रिमिशन पॉलिसी यानी समय से पहले जेल से रिहा करने की नीति में इन 11 दोषियों की जल्द रिहाई पर विचार करने के लिए कहा था, जब उन्हें ट्रायल कोर्ट ने सजा सुनाई थी।

जैसा कि हम पहले बता चुके कि इन सभी को मुंबई की स्पेशल सीबीआई कोर्ट ने 2008 में सजा सुनाई थी। उस वक्त गुजरात में 1992 की रेमिशन पॉलिसी लागू थी। इस पॉलिसी में रेप के दोषियों को समय से पहले न छोड़े जाने की बात नहीं थी। यही वो बात है जो गुजरात सरकार के इस फैसले पर सफाई देने उतरे अतिरिक्त मुख्य गृह सचिव राजकुमार ने कही।

अतिरिक्त मुख्य सचिव ने दावा है कि सुप्रीम कोर्ट ने 1992 की रिमिशन पॉलिसी में इन 11 कैदियों को समय से पहले जेल से छोड़ने की अपील पर विचार करने को कहा था। इसलिए अमृत महोत्सव वाली केंद्र की रिमिशन पॉलिसी बिलकिस बानो केस पर लागू नहीं होती।

अमृत महोत्सव पॉलिसी : ये दोषी हो सकते हैं वक्त से पहले रिहा

1-दोषी महिलाएं और ट्रांसजेंडर, 60 साल से ज्यादा उम्र के पुरुष कैदी, विकलांग और आधी सजा काट चुके कैदियों को रिहा करने का फैसला लिया गया था।
2-ऐसे कैदी जिनकी सजा पूरी हो चुकी है, लेकिन गरीबी के चलते वो खुद पर लगा जुर्माना नहीं भर पा रहे हों, ऐसे सभी कैदियों का जुर्माना भी माफ कर दिया गया है।
3-केंद्र की इस गाइडलाइन के मुताबिक कैदियों को तीन चरणों में रिहा किया जाना है। पहला- 15 अगस्त 2022, दूसरा- 26 जनवरी 2023 और तीसरा 15 अगस्त 2023 को।

नई पॉलिसी में इन्हें समय से पहले नहीं छोड़ा जा सकता

1-मृत्युदंड या उम्रकैद की सजा पाने वाले
बलात्कार, आतंक, दहेज हत्या और मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में दोषी
2-एक्सप्लोसिव एक्ट, द नेशनल सिक्योरिटी एक्ट, द ऑफिशियल सिक्रेट्स एक्ट, एंटी हाईजैकिंग एक्ट, मानव तस्करी के मामले में दोषी

इन अपवादों को छोड़कर बाकी कैदियों को समय से पहले रिहा करने के लिए सबसे जरूरी है कि जेल में उनका बर्ताव लगातार अच्छा रहा हो। खासतौर पर पिछले 3 सालों के दौरान।

बिलकिस के पति याकूब रसूल ने दोषियों की रिहाई पर कहा था- ‘हम कुछ नहीं कहना चाहते। बस दंगे में मारे गए अपनों की आत्मा की शांति को प्रार्थना करना चाहते हैं।’

बिलकिस बानो केस क्या था?

28 फरवरी 2002 को गुजरात दंगा शुरू हुआ तो 5 महीने की गर्भवती बिलकिस बानो अपने परिवार के 15 लोगों के साथ एक खेत में जा छिपी थीं। 3 मार्च 2002 को हाथ में लाठी-डंडा और तलवार लिए 20-30 लोग वहां पहुंच गए। इन लोगों ने न सिर्फ बिलकिस के परिवार के 7 लोगों की निर्मम हत्या की, बल्कि कई लोगों ने बिलकिस के साथ रेप किया।

बिलकिस जब न्याय के लिए सुप्रीम कोर्ट पहुंचीं, तो कोर्ट ने इस मामले को सीबीआई के पास ट्रांसफर करने का फैसला किया। घटना के करीब 2 साल बाद 2004 में इस मामले से जुड़े आरोपितों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था।

अहमदाबाद में ट्रायल शुरू होते ही बिलकिस सुप्रीम कोर्ट पहुंचीं और केस अहमदाबाद से मुंबई ट्रांसफर करने की अपील की। अगस्त 2004 में केस मुंबई ट्रांसफर कर दिया गया।

21 जनवरी 2008 को CBI की विशेष अदालत ने 11 दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाई। 7 दोषियों को सबूत के भाव में बरी कर दिया गया। जबकि ट्रायल के दौरान ही एक आरोपित की मौत हो गई।

सीबीआई कोर्ट के फैसले को 2018 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने भी बरकरार रखा था। अप्रैल 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार को बिलकिस बानो को 50 लाख रुपए मुआवजा, नौकरी और घर देने का आदेश दिया था।

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