संपादकीयम्: भाजपा के साथ गड़बड़ क्या है? स्टॉकहोम सिंड्रोम की तो नहीं हो गई शिकार??
गैरों पे करम, अपनों पे सितम… स्टॉकहोम सिंड्रोम में धंसती ही जा रही है भाजपा
उत्तर प्रदेश में कुछ भाजपा कार्यकर्ताओं को प्रवक्ता का पद तो नहीं दिया गया था, लेकिन उन्हें समय – असमय टीवी चैनलों के डिबेट प्रोग्राम्स में भाग लेने भेज दिया जाता था। एक बार अमित शाह उत्तर प्रदेश आए तो उनमें से एक कार्यकर्ता को उनसे बात करने का मौका मिल गया। शाह ने उन्हें सामने देख टोकते हुए पूछा कि क्या चल रहा है? शाह के सवाल पर कार्यकर्ता ने अपने मन की बात कह दी। उन्होंने कहा कि सब ठीक है, बस एक दिक्कत यह है कि हम टीवी चैनलों पर जाते तो हैं, लेकिन पार्टी की तरफ से कोई अथॉरिटी नहीं मिलने के कारण हमारी बातों का वजन थोड़ा कम रहता है। उन्होंने बस इसी में दिक्कत होती है। इस पर शाह ने आव देखा ना ताव और झट से कह दिया- परेशानी होती है तो छोड़ दो। कार्यकर्ता की स्थिति ऐसी हो गई कि काटे तो खून नहीं। यह कहानी हाल ही में एक वरिष्ठ पत्रकार ने एक टीवी चैनल के कार्यक्रम में बताई। आज भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ताओं की लिस्ट देख लीजिए, ज्यादातर दूसरी पार्टियों से आए हैं। तो क्या भाजपा में ऐसे लोगों की कमी है जो उसकी विचारधारा को सही तरीके से मीडिया के सामने रख सके? क्या भाजपा में इस हद तक वैचारिक न्यूनता है कि उसके संस्कारों और विचारों में पले-बढ़े नेता पार्टी का बचाव करने के लायक भी नहीं होते?
उत्तराखंड की भाजपा सरकार में कांग्रेसी आरक्षण
उत्तराखंड में तो एक न्यारा ही प्रयोग चल रहा है और वह यह कि यहां की भाजपा सरकार में खांटी भाजपाईयों को जगह मिलना तय नहीं है लेकिन कांग्रेस से भाजपा में आये नेताओं का 50% कोटा तय है। वह भी तब जब हरीश रावत सरकार को गिराने का प्रयोग बुरी तरह विफल रहा था। वो सरकार तो 14 विधायक टूटने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट ने बहाल कर दी थी। वह तो भला हो यहां की राष्ट्रवादी जनता का कि उसने ही कांग्रेस को निर्णायक रूप से बाहर का रास्ता दिखा दिया लेकिन इसका क्या करिए कि भाजपा ने अपने अंदर ही एक कांग्रेस जिंदा रखी हुई है?
हीनता भाव से ऊबर नहीं पा रही पार्टी?
जानकार कहते हैं कि जनसंघ के समय से ही पार्टी पर हीनता भाव हावी रहा है। उसे अपने प्रतिस्पर्धी ज्यादा योग्य दिखते हैं, अपने लोग अयोग्य। एक विचार यह है कि बात योग्यता की नहीं, रणनीति की है। तब की जनसंघ, फिर भाजपा ने अपने खिलाफ विरोध का स्वर कमजोर करने को विरोधियों को ही अपने पाले में लाने की रणनीति अपनाई। इसमें कोई संदेह नहीं कि विरोधी को मिलाना भी एक रणनीति है, लेकिन अति सर्वत्र वर्जयेत। संतुलन सभी सिद्धांतों का नाभिनाल है। संतुलन खोने पर बड़े से बड़ा सिद्धांत अपनी प्रासंगिकता खो देता है।
विरोधियों को अंडा, अपनों को डंडा!
पहले जब प्रतिस्पर्धियों को अपने खेमे में लाया जाता था तो उनका एक कूलिंग पीरियड होता था। भाजपा दूसरी पार्टियों से आए नेताओं को पहले अपने संस्कारों में ढालती थी, फिर कुछ ऑफर करती थी। अब मोदी-शाह की भाजपा ने नियम बदल दिया है। ऐसा लगता है कि भाजपा खुद हर मौके पर ऑफर लिए खड़ी हो जाती है। जिसे ऑफर पसंद आता है वो बातचीत करता है और डील फाइनल। अब कोई कूलिंग पीरियड नहीं, ‘पहले आयें पहले पायें’। ऐसे में वर्षों से सेवा करते कार्यकर्ता ठगे जाते हैं। ऊपर बताई गई उत्तर प्रदेश के कार्यकर्ता की कहानी याद कर लीजिए। सोचिए, एक तरफ दूसरों के लिए ‘आओ और पाओ’ की नीति जबकि अपनों के लिए ‘लगे रहो’ का दंड!
विनाश काले विपरीत बुद्धि
यह दंड ही है। मोदी-शाह की भाजपा के चाल-चलन पर गौर करें तो दिखेगा कि अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों को दंड देने की परिपाटी दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ रही है। दूसरी तरफ जितना घोर विरोधी, उतना बड़ा ऑफर। यह पार्टी के कार्यकर्ताओं से लेकर मतदाताओं एवं विभिन्न क्षेत्रों के समर्थकों तक पर लागू होता है। ऐसा लगता है कि मोदी-शाह की भाजपा ने यह मान लिया है कि भाजपा कार्यकर्ता, मतदाता और समर्थक स्वाभावत: निम्न स्तरीय होते हैं और विरोध करने वाले शतप्रतिशत उच्चस्तरीय। फिर प्रतिस्पर्धा या विरोधी और दुश्मन में फर्क होता है। कृपाशंकर सिंह जैसे नेता को पार्टी में ला तुरंत चुनाव का टिकट देना बताता है कि आज की भाजपा कैसे अपनों को छोड़कर दूसरों की तरफ भागती है। लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में भाजपा की फजीहत के कारणों का विश्लेषण आज भी हो रहा है और सभी मान रहे हैं कि निराश कार्यकर्ताओं ने जोर नहीं लगाया।
बंगाल और केरल के वोटरों को छोड़ा उनके हाल, मुसलमानों को ज्यादा हक
ये भाजपा ही है जिसने पश्चिम बंगाल में अपने मतदाताओं को राज्य प्रायोजित हिंसा का शिकार होने दिया और दिखावे के विरोध-प्रदर्शन के सिवा कोई ठोस जमीनी कार्रवाई नहीं की जिससे आगे ममता बनर्जी की सरकार, उनकी पार्टी टीएमसी के गुंडे और शासन-प्रशासन भाजपा समर्थकों को अनुचित रूप से प्रताड़ित कर सके। लोकसभा के चुनाव हों या विधानसभा , हर बार भाजपा को वोटरों की बेरहम मारपीट, निर्मम हत्याएं, घरबार जलाए गए, परिजनों पर अत्याचार, औरतों का बलात्कार, डर के मारे पड़ोसी राज्यों में पलायन हुआ, लेकिन भाजपा ने उन्हें संरक्षण देने का प्रयास तो छोड़िए, ऐसा जताने की कोशिश भी नहीं की। दूसरी तरफ जो भाजपा को कभी वोट न देने वाले मुसलमान। भाजपा के बड़े-बड़े नेता, प्रवक्ता बड़े गर्व से कहते हैं कि मुसलमानों को उनकी जनसंख्या से ज्यादा केंद्रीय योजनाओं का लाभ दिया जाता है। क्यों ? सरकार की योजनाओं में भेदभाव न होना अलग बात है, हक से ज्यादा देना अलग बात। ठीक यही कहानी केरल के हिंदुओं के साथ भाजपा की नीति को लेकर कहीं जा सकती है।
स्टॉकहोम सिंड्रोम में फंसती जा रही भाजपा
दरअसल, मोदी-शाह की भाजपा स्टॉकहोम सिंड्रोम का बुरी तरह शिकार हो चुकी है। स्टॉकहोम सिंड्रोम दुश्मनों पर दिल उड़ेलना है। जितना बड़ा दुश्मन उतना ही ज्यादा प्यार। दिलीप मंडल का मामला ही देख लें। जिंदगी भर संघ और भाजपा की नीतियों का विकृत विरोध, सामाजिक न्याय की आड़ में जातीय युद्ध की जमीन तैयार करते दिलीप मंडल ने थोड़ा सुर क्या बदला, भाजपा तुरंत ऑफर लेकर आ गई। वो तो सोशल मीडिया पर खिल्लियां उड़ने लगीं तो उनकी पोस्टिंग होल्ड कर दी गई। ये कोई अकेला मामला नहीं है।
घुसपैठियों पर रहम, हिंदू शरणार्थियों से नजर फेरी
याद कीजिए, दिल्ली में घुसपैठिये रोहिंग्या और बांग्लादेशियों को बसाने की कैसी योजना बनी थी। केंद्रीय शहरी विकास मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने मोदी 2.0 सरकार में ट्वीट कर बताया था कि दिल्ली में इन घुसपैठियों के लिए आवास योजना लाई जाएगी। ऐसी फजीहत हुई कि सरकार को कदम वापस लेने पड़े। दूसरी तरफ मुस्लिम देशों से सब कुछ लुटाकर भारत आए हिंदुओं की दुर्दशा कौन नहीं जानता? दिल्ली के मजनूं के टीले पर सैकड़ों हिंदू परिवार आज भी नरक जी रहे हैं। मोदी सरकार उनके लिए कौन सी आवास योजना लाई, कोई बता सकता है?
देश-संस्कृति के विरोधियों को सम्मान!
देवदत्त पटनायक सनातन धर्म के व्याख्यान की आड़ में सनातन विरोधी एजेंडे पर काम करते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन सरकार के संस्कृति मंत्रालय से कार्यक्रम आयोजित हुआ तो देवदत्त पटनायक वक्ता थे। कई बार लगता है कि भाजपा भारत और भारतीयता समर्थकों को कोई सहयोग या समर्थन नहीं देती, उलटे इसके भारत और सनातन विरोधी प्रचारकों को प्लैटफॉर्म देती है।
भाजपा की लगातार तीसरी बार सरकार बनी है, लेकिन कितने लोगों को आज भी पता है कि सीताराम गोयल और रामस्वरूप कौन थे? अगर ये दोनों वामपंथी खेमे के होते तो आज हर पढ़ा-लिखा व्यक्ति उन्हें जानता, उनकी किताबें पढ़ता, उनका उल्लेख करता। सीताराम गोयल ने भारत में मुसलमानों द्वारा ध्वस्त हिंदू मंदिरों की प्रामाणिक सूची तैयार की है। हर भारतीय को सीताराम गोयल और रामस्वरूप की पुस्तकें पढ़नी चाहिए जो इंटरनेट पर मुफ्त में उपलब्ध हैं।
आडवाणी को पकड़ने वाले बने केंद्रीय मंत्री
ये मोदी-शाह की भाजपा ही है जिसने रिटायर्ड आईएएस आरके सिंह को न केवल पार्टी जॉइन करवाई बल्कि केंद्रीय मंत्री बनाया। ये वही आरके सिंह हैं जिन्होंने सोमनाथ से अयोध्या की रथयात्रा पर निकले लाल कृष्ण आडवाणी को बिहार में गिरफ्तार किया था।
‘मुल्ला’ मुलायम और नेचुरल करप्ट को पद्म पुरस्कार, वीर सवारकर की पूछ नहीं
मोदी-शाह की भाजपा अपने विरोधियों पर कितना मेहरबान है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सरकार ने उस मुलायम सिंह यादव को पद्म पुरस्कार अलंकृत किया जिन्होंने मुख्यमंत्री रहते अयोध्या में कारसेवकों पर गोलियां चलवाईं। कितने आश्चर्य की बात है कि अयोध्या आंदोलन का नेतृत्व अन्य संगठनों के साथ भाजपा ने ही किया था। जिन शरद पवार की एनसीपी को नैचुरली करप्ट पार्टी कहा गया, उन्हें भी पद्म पुरस्कार इसी सरकार ने दिया। बंगाल के दिवंगत मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को मोदी सरकार ने पद्म पुरस्कार ऑफर किया और उन्होंने लेने से इनकार कर दिया। दूसरी तरफ, वीर सावरकर को आज तक भारत रत्न दिए जाने की मांग पर कोई विचार तक नहीं हुआ। कहां मुलायम, शरद, बुद्धदेव और कहां सावरकर। दुश्मनों के प्यार में पड़ी भाजपा की बुद्धि नहीं मारी गई तो और क्या हुआ? 1968 में एक फिल्म आई थी- आखें। उसमें एक गाना है- गैरों पे सितम, अपनों पे सितम… मोदी-शाह की भाजपा का कुछ यही हाल है।
–रवीन्द्र नाथ कौशिक
ज्ञान – स्टॉकहोम सिंड्रोम क्या होता है?
मनोविज्ञान के अनुसार स्टॉकहोम सिंड्रोम एक ऐसी स्थिति है जब बंधक बनाए जाने वाले व्यक्ति को अपने अपहर्ता के साथ सहानुभूति हो जाती है।
23 अगस्त 1973 को स्वीडन के स्वेरिजेज क्रेडिटबैंक में दो लोग – यान और एरिक ऑल्सन मशीनगन लेकर घुस गए। उन दो लोगों ने छह बैंक कर्मचारियों को बंधक बना लिया। बैंक कर्मचारियों के बदले वह अपने एक दोस्त की रिहाई चाहते थे। पुलिस से किडनैपर्स की बातचीत जारी थी। उन्होंने बंधकों को बैंक लॉकर में छः दिन कैद रखा था। मामला 23 अगस्त से 28 अगस्त तक खिंचा। स्टॉकहोम पुलिस से समझौता वार्ता में किडनैपर्स ने अपने दोस्त क्लार्क ओलोफसन की जेल से रिहाई मांगी ।
लोग सोच रहे थे कि बंधकों की क्या हालत होगी, लेकिन आखिरकार जब वह बाहर आए तो जैसा सोचा गया वैसा कुछ नहीं हुआ। उनमें किडनेपर्स के लिए कोई गुस्सा नहीं था। बंधकों ने अपने किडनैपर्स के खिलाफ एक शब्द भी नहीं कहा। एक महिला बंधक ने तो एक किडनेपर से सगाई ही कर ली। उन लोगों ने किडनैपर्स का केस लड़ने को पैसा भी जमा किया और बाद में वे उन्हे मिलने जेल भी जाते रहे।
इस घटना के बाद किडनैप होने वाले और किडनैपर के रिश्तों को अलग तरीके से भी देखा जाने लगा। कहते हैं कि अपराध और मनोविज्ञानी निल्स बेजरॉट ने सबसे पहले स्टॉकहोम सिंड्रोम शब्द खोजा। मनोविज्ञानी डॉक्टर फ्रैंक ऑचबर्ग ने एफबीआई और स्कॉटलैंड यार्ड के लिए इसे परिभाषित किया। यह शब्द ऐसे जटिल रिश्ते परिभाषित करता है जिसके बारे में शायद कोई सोच भी नहीं सकता। यह संकट समय आत्मरक्षा की एक रणनीति जनित है ताकि दुश्मन से ऐसी सहजता उत्पन्न की जाये कि वे उनके दिमाग से उन्हें नुकसान पहुंचाने का भाव निकल जाये। स्वीडिश प्रधान मंत्री ओलोफ पाल्मे के साथ एक टेलीफोन कॉल में एक महिला बंधक का कहना था कि उसे बंधकों पर तो पूरा भरोसा था लेकिन पुलिस एक्शन में अपने मारे जाने का डर था। इस संबंध में अंग्रेजी फिल्म मनो हाऐस्ट बनी जिस पर आधारित ‘हाइवे’ नाम से हिंदी फिल्म भी बनी जिसमें खलनायक रणदीप हुड्डा नायिका आलिया भट्ट का अपहरण कर लेता है। अंत में आलिया का पात्र हुड्डा के मोहपाश में बंधा दिखता है।