मत: डॉलर मुकाबले हल्का होता रुपया,आपको क्या जानना जरूरी?
Rupee: डॉलर के मुकाबले लगातार कमज़ोर हो रहा है रुपया, आपके लिए क्या समझना है जरूरी?
Rupee Dollar: $1 की कीमत #80 के बराबर हो चुकी है. यह भारतीय इतिहास का सबसे सबसे न्यूनतम स्तर है. पिछली सरकार (यूपीए 2004- 2014) की तुलना में देखें तो डॉलर के मुकाबले रुपए में तकरीबन #20 की गिरावट आई है. 2014 की शुरुआत में एक अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय मुद्रा का मूल्य# 61.8 हुआ करता था.
विक्रांत निर्मला, वाराणसी
भारतीय अर्थव्यवस्था अभी एक आर्थिक चोट से उभर ही रही होती है कि एक नई आर्थिक चिंता उसके समक्ष खड़ी हो जाती है. पहले कोविड-19 के कारण आर्थिक वृद्धि दर में आई गिरावट से अभी अर्थव्यवस्था निकल ही रही थी कि डॉलर के मुकाबले रुपए में अप्रत्याशित गिरावट ने नई आर्थिक चिंताएं पैदा हो गई।
1 जुलाई को विदेशी मुद्रा भंडार घटकर 588.314 अरब डॉलर रह गया था
अब $1 की कीमत # 80 हो चुकी है. यह भारतीय इतिहास का सबसे न्यूनतम स्तर है. पिछली सरकार (यूपीए 2004- 2014) की तुलना में देखें तो डॉलर के मुकाबले रुपए तकरीबन# 20 गिरा है. 2014 के शुरु में अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय # 61.8 होता था.
कमज़ोर होते रुपए के आर्थिक नुकसान क्या हैं?
भारतीय अर्थव्यवस्था आयात आधारित अर्थव्यवस्था है. हमेशा से ही निर्यात के मुकाबले आयात ज्यादा रहा है. इसलिए गिरते रुपए का पहला नुकसान तो यह होगा कि भारत के इंपोर्ट बिल पर पहले की तुलना में अत्यधिक भार बढ़ेगा, परिणामस्वरूप विदेशी मुद्रा भंडार घटेगा. 8 वर्षों में भारत के लिए अप्रत्याशित विदेशी मुद्रा भंडार एक बड़ी कामयाबी रही है. लेकिन पहले ही निवेशकों के भारत से पैसे बाहर निकालने से विदेशी मुद्रा भंडार पर नकरात्मक असर पड़ रहा था और अब कमज़ोर होते रुपए से दोहरी मार पड़ेगी.
विदेशी मुद्रा भंडार घटेगा
3 सितंबर 2021 को पहली बार विदेशी मुद्रा भंडार 642.5 अरब डॉलर के सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंचा था. लेकिन भारतीय रिजर्व बैंक के ताजा आंकड़ों से पता चलता है कि 1 जुलाई को विदेशी मुद्रा भंडार घटकर 588.314 अरब डॉलर रह गया था. डॉलर के मुकाबले रूपये में आती तेज गिरावट से व्यापार घाटा भी बढ़ रहा है. जून में व्यापार घाटा 26.18 अरब डॉलर रहा था, जबकि जून 2021 में यह मात्र9.60 अरब डॉलर ही था.
महंगाई की मार
कमजोर होते रुपए की मार महंगाई के रुप में भी दिखाई पड़ती है. भारत के कुल विदेश व्यापार में हम सबसे अधिक आयात पेट्रोलियम उत्पाद करते हैं. इसलिए सबसे ज्यादा असर भी इसी पर दिखाई पड़ेगा. रुपए की कमज़ोरी से महंगे आयात भुगतान की स्थिति में कंपनियां पहले से महंगे डीजल और पेट्रोल के दामों में एक बार फ़िर बढ़ोत्तरी करेगी. जिसका असर सीधे जनता पर दिखेगा. भारत खाद्य तेल और इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों का भी आयात बड़े स्तर पर करता है. इसलिए यहां भी दामों में उछाल दिखेगा. ऐसी स्थिति में पहले से महंगाई की मार झेल रही भारतीय अर्थव्यवस्था के और भी बुरे दिन आ जायेंगे.
रुपए में गिरावट से क्या निर्यात में फायदा मिलेगा?
एक आर्थिक आकलन यह जरूर कहता है कि निर्यात बढ़ाने को मुद्रा के मूल्य में गिरावट फायदेमंद हो सकती है, लेकिन भारत के दृष्टिकोण से देखें तो यह आकलन बहुत सटीक नज़र नहीं है. उदाहरण को जून महीने में भले ही देश का एक्सपोर्ट 23.5% तक बढ़ा हो लेकिन इसके मुकाबले में आयात दोगुने से भी अधिक रहा है. जून 2022 में देश का आयात सालाना आधार पर 57.55% बढ़ा है. अब ऐसी स्थिति में निष्कर्ष यही है कि रुपए में गिरावट के बावजूद भी भारत का व्यापार घाटा (India’s Trade Deficit) बढ़ा है.
रुपए की गिरावट के क्या कारण हैं?
इस प्रश्न का उत्तर जानने से पहले हमें यह समझना होगी कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में सिर्फ रुपया ही एक मात्र करेंसी नहीं है जो डॉलर के मुकाबले कमजोर हुई है. बल्कि दुनिया के संपन्न आर्थिक देशों की करेंसी भी कमज़ोर हुई है. इन सभी के पीछे के कारण भी लगभग एक से ही दिखाई पड़ते हैं. सबसे पहला कारण तो यूक्रेन-रूस के बीच जारी युद्ध को माना जा सकता है. इन दो देशों की लड़ाई ने वैश्वीक अस्थिरता पैदा की है, जिसकी वज़ह से आर्थिक नुकसान देखने को मिल रहे हैं. कोविड-19 की वजह से जारी आर्थिक सुस्ती भी इसका एक मुख्य कारण है. लेकिन भारतीय रुपए में गिरावट का एक अतिरिक्त कारण निवेशकों का भारत से मोहभंग होना भी है.
कुछ दिनों में संभलेगी स्थिति
भारत के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार प्रोफेसर के वी सुब्रह्मण्यम की मानें तो रुपए में आई गिरावट अल्पकालिक है. उनके अनुसार जब वैश्विक अस्थिरता बढ़ती है तो ‘फ्लाइट टू सेफ्टी’ जैसी आर्थिक घटना की वजह से करेंसी में गिरावट आती है. भारतीय रुपए के लिए भी यही कारण दिखाई पड़ता है. सुब्रह्मण्यम केेअनुसार भारतीयय रुपए में आई गिरावट बहुत से देशों के मुकाबले अभी कम है. यूक्रेन और रूस के बीच जंग की शुरुआत से आकलन करें तो यूरो करेंसी डॉलर के मुकाबले 11.2% कमज़ोर हुई है तो वहीं जापानी येन 18.8% कमज़ोर हुआ है. जबकि इसकी तुलना में भारतीय करेंसी की गिरावट 5.3% ही है. इसलिए आने वाले समय में रुपया एक बार फिर बेहतर स्थिति में आ जायेगा.
डॉलर की मजबूती की वजह
केंद्र सरकार भी स्थितियां भांपते हुए आयात भुगतान के अन्य माध्यमों पर काम कर रही है. चूंकि भारत विदेशी मुद्रा के रुप में डॉलर का भुगतान अधिकांश आयात के लिए करता है, इसलिए भारत के ऊपर डॉलर मुद्रा का एक विशेष दबाव हमेशा से बना रहता है. हाल की परिस्थितियों में भारत ने बहुत से देशों के साथ भारतीय रुपए में ही व्यापार करने की संधि की है, जिसमें प्रमुख रुप से रूस और ईरान जैसे देश शामिल हैं. इन देशों से एक फायदा यह है कि पेट्रोलियम उत्पादों के आयात में सुविधा मिल जाएगी. वैश्विक अर्थव्यवस्था का समीकरण भी अब यही कहता है कि दुनिया को डॉलर के अलावा अन्य करेंसी को भी व्यापार के लिए अधिक से अधिक इस्तेमाल करने की जरूरत है. डॉलर के एकाधिकार को चुनौती देना ही विश्व व्यापार में अन्य देशों को स्थापित करेगा.
(लेखक विक्रांत निर्मला बीएचयू के फाइनेंस एंड इकोनॉमिक्स थिंक काउंसिल के संस्थापक एवं अध्यक्ष हैं)
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Dollar Vs Rupee: डॉलर ने सिर्फ रुपये को ही नहीं पछाड़ा, पीछे रह गए Euro, Pound, Yen भी
Dollar rupee: बीते कुछ समय में डॉलर को ये मजबूती निवेशकों के ज्यादा जोखिम लेने की आदत की वजह से मिली है. भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं में 2020 और 2021 के दौरान शेयर मार्केट ने जबरदस्त रिटर्न दिया है. ब्याज दरों के निचले स्तर पर रहने और डॉलर की पर्याप्त सप्लाई ने विदेशी निवेशकों के बीच जोखिम उठाने की धारणा को मजबूत किया।
भारतीय रुपया (Indian Currency) इन दिनों संभवतया अपना सबसे बुरा दौर देख रही है. डॉलर के मुकाबले रुपया ऐतिहासिक सर्वकालिक निचले स्तर पर है, लेकिन 2022 की शुरुआत से अब तक के हालात देखें तो डॉलर न सिर्फ रुपये को ही नहीं रुलाया, बल्कि यूरोप से लेकर अमेरिकी महाद्वीप की कई बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की मुद्रायें भी पछाड़ दी हैं. इसमें यूरो से लेकर ब्रिटिश पौंड और जापानी येन भी शामिल है…
करीब 80 रुपये का हुआ एक डॉलर
दिसंबर 2021 में एक डॉलर 74.50 रुपये बराबर था. 15 जुलाई को ये 79.74 रुपये का हो गया है. इस तरह डॉलर के मुकाबले रुपया पिछले साढ़े छह महीने में तेजी से गिरकर ल्य््य्य्््य््य्य्््य््य्य्््य््य
7% तक नीचे आ गया है. रुपये का ये अब तक का सबसे निचला स्तर है.
Euro, Pound, Yen का भी बुरा हाल
अगर आप सोचते हैं कि डॉलर की मजबूती सिर्फ रुपये के मुकाबले है. तो साल 2022 की शुरुआत से अब तक दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले डॉलर तेजी से मजबूत हुआ. यूरोपीय देशों की मुद्रा Euro, ब्रिटेन की पौंड, जापान की येन, स्विट्जरलैंड की फ्रैंक, कनाडा के डॉलर और स्वीडन की क्रोना के मुकाबले डॉलर इस साल अब तक 13% तक मजबूती हो चुका. ऐसे में रुपये की कमजोरी अलग-थलग करके नहीं देख सकते ।
क्यों मजबूत हो रहा डॉलर?
बीते कुछ समय में डॉलर को ये मजबूती निवेशकों के ज्यादा जोखिम लेने की आदत से मिली है. भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं में 2020 और 2021 में शेयर मार्केट ने जबरदस्त रिटर्न दिया है. ब्याज दरों के निचले स्तर और डॉलर की पर्याप्त सप्लाई ने विदेशी निवेशकों में जोखिम उठाने की धारणा को मजबूत किया.
इसके उलट 2021 की दूसरी छमाही से विकसित देशों में महंगाई बढ़ी है. अमेरिका के फेडरल रिजर्व ने भी महंगाई कंट्रोल करने के प्रयास में ब्याज दरें बढ़ाई. फरवरी में रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते तेल कीमतों में बढ़ोतरी हो गई और वैश्विक स्तर पर अनिश्चिता दिखी. ऐसे में निवेशक सचेत हो भारत जैसे देशों से निवेश निकालने लगे. वहीं तेल महंगा होने से हमारा इंपोर्ट बिल बढ़ा जिससे डॉलर की डिमांड और बढ़ी। आखिरकार रुपये मुकाबले डॉलर मजबूत दिखने लगा.
2013 में भी गिरा था रुपया, तब मनमोहन सरकार ने की थी यह गलती
No-Author | इकनॉमिक टाइम्स | Updated: Sep 7, 2018, 9:00 AM
2013 में जब रुपया रोज गिर रहा था और आज 2018 में जब यही कहानी खुद को दुहरा रही है तो तब की कांग्रेस और आज की बीजेपी सरकार के सामने परिस्थितियां अलग-अलग हैं। आइए जानते हैं, तब मनमोहन ने क्या गलती की थी और अब मोदी क्या करें…
सौभीक चक्रबर्ती, नई दिल्ली
रुपया रोज गिर रहा था। हर दिन हेडलाइंस में रुपए की गिरावट छा रही थी। तब सरकार को लगने लगा कि कुछ तो किया जाना चाहिए। बाजार ने रुपये को और वहशी बना दिया था। सरकार की नीतियों पर भरोसा डिगने लगा था। मिला-जुलाकर कुछ ऐसा ही हुआ था 2013 में। 2 जनवरी 2013 को रुपया डॉलर के मुकाबले 54.24 पर था जो 3 सितंबर को 67.635 तक आ गिरा था।
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह। (फाइल फोटो)
हालात कांग्रेस नीत यूपीए सरकार के नियंत्रण से बाहर हो गए थे और इस बार भी यही चीजें दोहरा सकती हैं, अगर बीजेपी सरकार स्थितियों को काबू कर पाने में नाकामयाब रही। और हां, बीजेपी सरकार के पास 2018 में नियंत्रण खोने पर बहानेबाजी की गुंजाइश कांग्रेस के मुकाबले बहुत कम होगी। कारण यह है कि इन पांच सालों में आर्थिक आंकड़े बहुत बदल गए हैं…
डॉलर के मुकाबले रुपया पहली बार 72 के पार
आइए, इन आंकड़ों पर गौर करें…
1. 2013 में फरवरी से अगस्त के बीच रुपया 23% टूट गया था। 2018 में जनवरी से सितंबर के बीच रुपया 11% टूटा है।
2. 2013 में वित्तीय घाटा जीडीपी का 4.8% था। 2018 में यह 3.5% के आसपास है।
3. 2013 में चालू खाता घाटा जीडीपी का 3.4% था। 2018 में घाटे में तेज वृद्धि के बावजूद यह 2% से कम है।
4. 2013 में फरवरी से अगस्त के बीच कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमत औसतन 107 डॉलर प्रति बैरल से कम थी। 2018 में जनवरी से सितंबर के बीच यह औसतन 75 डॉलर प्रति बैरल रही।
5. 2013 में सितंबर के पहले सप्ताह तक भारत का विदेशी मुद्रा भंडार करीब 285 अरब डॉलर था। अभी विदेशी मुद्रा भंडार बढ़कर 415 अरब डॉलर तक पहुंच गया है।
इन आंकड़ों के मायने क्या हैं?
2013 में कांग्रेस सरकार को रुपये में अभी के मुकाबले ज्यादा गिरावट देखना पड़ा था। तब अंदरूनी और बाहरी घाटे बहुत ज्यादा थे, कच्चे तेल की कीमतें बहुत ज्यादा थीं और विदेशी मुद्रा भंडार भी कम था। मैक्रोइकनॉमिक्स कहता है कि मौजूदा सरकार अपनी पूर्ववर्ती से बेहतर स्थिति में है।
इनके अलावा, दो अन्य कारक भी सरकार के पक्ष में काम कर रहे हैं। पहला- इस परिस्थिति में रिजर्व बैंक को स्पष्ट और निश्चित अधिकार मिले हुए हैं। उसका काम खुदरा महंगाई दर को नीचे (करीब 4%) रखना है। इसलिए, रुपया गिरने की स्थिति में आरबीआई से त्वरित कार्रवाई की उम्मीद नहीं की जा सकती है। हां, वह उतार-चढ़ाव को कुछ हद तक काबू करने के लिए छोटे-छोटे कदम जरूर उठाता है।
दूसरा, 2013 में आर्थिक विकास की रफ्तार घट रही थी, लेकिन 2018 में यह फिर से जोर पकड़ रही है। जब सरकार किसी मैक्रोइकनॉमिक फैक्टर में तेज बदलाव को लेकर कदम उठाना चाहती है तो आर्थिक विकास के मजबूत आंकड़ों से उसे ऐसा करने में आसानी हो जाती है।
मनमोहन सरकार से कहां हुई थी गलती?
बाजार की गतिविधियों का अनुमान लगानेवाले शार्क की तरह होते हैं जो समुद्र में एक बूंद खून को भी सूंघ लेते हैं। और, खून तभी बहेगा जब कांग्रेस की तरह बीजेपी भी हर दूसरे दिन स्थितियों पर काबू पाने के कदम उठाने लगेगी। कांग्रेस ने विभिन्न कदमों के साथ-साथ उदार आर्थिक नियमों को पलट दिया था, क्वांटिटेटिव कंट्रोल्स लागू कर दिए थे, अप्रवासी भारतीयों से देश में डॉलर भेजने की गुहार लगाई थी। तब आरबीआई ने नीतिगत ब्याज दरों को 400 बेसिस पॉइंट्स बढ़ा दिया था। इससे रुपये को और धक्का लगा।
आर्थिक मोर्चे पर देश के प्रदर्शन के आंकड़ों में छोटे-छोटे बदलाव भी राजनीतिक गलियारे में गहमागहमी के कारण बन जाते हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया ने 10 महत्वपूर्ण आर्थिक पैमानों पर आंकड़े जुटाए हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार और नरेंद्र मोदी की मौजूदा एनडीए गवर्नमेंट में कौन-कहां टिकती है…
जीडीपी ग्रोथ के मामले में मोदी सरकार मनमोहन सरकार के मुकाबले पिछड़ती दिख रही है। ध्यान रहे कि मनमोहन सरकार के 10 साल के कार्यकाल के मुकाबले मोदी सरकार के चार साल के कार्यकाल की तुलना की गई है।
खपत
मोदी सरकार के सरकारी खर्चे तो बढ़े हैं, लेकिन निजी खर्जों में गिरावट आई है। यानी, मोदी सरकार ने चार साल में ही मनमोहन सरकार के 10 सालों के मुकाबले ज्यादा खर्च किए।
निश्चित पूंजी निर्माण
सकल निश्चित पूंजी निर्माण (ग्रॉस फिक्स्ड कैपिटल फॉर्मेंशन) जीडीपी का ही एक अवयव होता है जिससे पता चलता है कि अर्थव्यवस्था में आई नई पूंजी का कितना हिस्सा निवेश किया गया। इसमें नई पूंजी की खपत शामिल नहीं किया जाता। यानी, सरकार, कंपनियां एवं अन्य संस्थानों ने कितना नया निवेश किया, उसका आकलन ही सकल निश्चित पूंजी निर्माण कहलाता है।
गैर-खाद्य ऋण
बैंक कई तरह के संस्थानों को लोन देते हैं। जब लोन भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) या खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए दिया जाता है तो उसे फूड क्रेडिट कहा जाता है। यानी गैर-खाद्य ऋण में वे बैंक कर्जे आते हैं जिनका फूड सिक्यॉरिटी से लेना-देना नहीं होता है।
वित्तीय घाटा
सरकार की आमदनी और खर्च में अंतर को वित्तीय घाटा कहा जाता है। कोई अर्थव्यवस्था कितनी सेहतमंद है, इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जाता ैह कि वहां वित्तीय घाटा कितना कम है। इस मोर्चे पर मोदी सरकार मनमोहन सरकारी से आगे दिखती है।
महंगाई
मनमोहन सरकार के 10 वर्षों में औसत वार्षिक महंगाई 8.1% रही थी जबकि मोदी सरकार में महज आधा प्रतिशत है।
रीपो रेट
जब बैंकों के पास पैसे कम पड़ जाते हैं तो वे रिजर्व बैंक से कर्ज लेते हैं। रीपो रेट वह ब्याज दर है जिस पर रिजर्व बैंक उन्हें कर्ज देता है।
चालू खाता घाटा
हर देश दुनिया के विभिन्न देशों से कुछ सामान खरीदता (आयात करता) है और कुछ सामान उन्हें बेचता (निर्यात करता) है। अगर निर्यात से मिली रकम आयात के लिए खर्च की गई रकम से कम हो तो उसे चालू खाता घाटा कहते हैं।
विदेशी मुद्रा भंडार
दुनिया के देशों से खरीद-बिक्री में डॉलर का इस्तेमाल होता है। इस लिहाज से डॉलर का जितना बड़ा भंडार होता है, विदेशों से तेल जैसे जरूरी सामानों के आयात में उतनी ही आसानी होती है। अगर विदेशी मुद्रा भंडार निचले स्तर पर आ जाए तो सरकार के लिए नागरिकों को जरूरी सामान मुहैया कराना मुश्किल हो जाएगा।
क्या करे मोदी सरकार?
मोदी सरकार को दो बड़े कदम उठाने चाहिए। पहला- काले धन वालों पर कार्रवाई को लेकर राजनीतिक बयानबाजी के इतर उपयुक्त कदम उठे और दूसरा- कन्ज्यूमर डिमांड को हर हाल में ऊंचा बनाए रखा जाए क्योंकि चुनावी साल नजदीक आ गया है। अगर काले धन पर कार्रवाई तेज नहीं हुई तो सेबी विदेशों से घूमा-फिराकर भारत के शेयर बाजार में यहीं का काला धन लगाने से रोकने की ओर कानून बनाने की दिशा में बढ़ेगा। यह एक बढ़िया विचार है और काले धन के खिलाफ सरकार की नीति के अनुकूल भी। लेकिन, इससे पहले समस्या के बेहतर समाधान का रास्ता तलाशना चाहिए।
दूसरी बात यह कि अभी जो विदेशी पोर्टफोलियो निवेश आ रहे हैं, उन पर अगले कुछ महीनों में कार्रवाई बिल्कुल नहीं की जानी चाहिए। इस तरह के नए नियम से निवेशकों में भगदड़ मच सकती है। वह भी ऐसे वक्त जब भारत को शांत एवं स्थिर बाजार के रूप में दिखने की दरकार है। ऐसे में सरकार नहीं चाहेगी कि सेबी काले धन के विदेशी मार्ग से शेयर बाजार में आने पर पाबंदी के नियम लाए।
वहीं, अगर सरकार ने मांग बढ़ाने के लिए खजाना कुछ ज्यादा ही खोल दिया तो यह कदम जोखिम भरा हो सकता है। वित्तीय घाटे को लेकर पिछली सरकारों के मुकाबले ज्यादा चौकन्ना रहना इस सरकार की एक बड़ी उपलब्धी है। इसलिए, सरकार को चाहिए कि वह शांत रहे और रुपये को अपना स्तर प्राप्त करने दे।
मोदी सरकार से यह उम्मीद
रुपये में मौजूदा गिरावट को टाला नहीं जा सकता क्योंकि अमेरिका में ब्याज दरें बढ़ने के कारण वहां दुनियाभर से पूंजी का प्रवाह हो रहा है। कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतें बढ़ रही हैं और कमजोर रुपये से आयात महंगा और निर्यात सस्ता हो जाता है। कुछ एक्सपर्ट्स के मुताबिक, रुपया डॉलर के मुकाबले 73 तक पहुंचकर थम जाएगा। इन सब तथ्यों के मद्देनजर, सरकार सिर्फ घबराहट में आकर ही असंगत और मूर्खतापूर्ण कदम उठा सकती है। हालांकि, अभी तक इसके कोई संकेत नहीं मिले हैं। एक समझदार इंसान यही उम्मीद करेगा कि सरकार मौजूदा स्टैंड पर कायम रहेगी।