मत:संत तुलसीदास ने कॉमिक बना दिये भगवान परशुराम
परशुराम की कहानी क्या संदेश देती है!?
रंगनाथ सिंह-
सोशल मीडिया पर कुछ लोग परशुराम-परशुराम खेल रहे हैं। कुछ लोग जय बोल रहे थे। कुछ लोग मौज ले रहे थे। परशुराम से जुड़े ज्यादातर विवरण महाकाव्य-पुराण काल के हैं। परवर्ती काल में परशुराम बहुत ही स्मॉल फिगर या अकिंचन मात्र रह गये। उत्तर भारतीय धार्मिक साहित्य में उनका आखिरी बार उल्लेखनीय उल्लेख तुलसीदास के रामचरितमानस में आता है। मानस का परशुराम प्रसंग बहुत ही कॉमिक है। कभी मौका मिले तो जरूर पढ़िए।ऐ
पौराणिक कथा है कि परशुराम ने हैहय वंश के राजा सहस्रबाहु की हत्या कर दी थी। सहस्रबाहु ने परशुराम के पिता जमदग्नि की हत्या की थी। यह भी कथा है कि परशुराम ने कसम खायी थी कि वह एक भी हैहय वंशीय क्षत्रिय को जीवित नहीं रहने देंगे और उन्होंने हैहय क्षत्रियों का 21 बार ‘सर्वनाश’ कर दिया। कुल मिलाकर कहानी गैंग्स ऑफ हैहयपुर थी।
ध्यान रहे कि हैहयवंशी सहस्रबाहु मूलतः यदुवंशी राजा थे। राजा हैहय राजा यदु के पोते के पुत्र थे। उस समय तक यदुवंशी खुद को सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़ा नहीं बल्कि क्षत्रिय समझते थे।
रामचरित मानस में परशुराम की एंट्री तब होती है जब शिव धनुष टूट जाता है। मीडिया की शब्दावली में कहूँ तो राम द्वारा शिव धनुष तोड़े जाने तक परशुराम वरिष्ठ पत्रकार हो चुके थे। राम और लक्ष्मण टीएनएजर थे तो मान लीजिए ट्रेनी जर्नलिस्ट थे। राम के अंदर ट्रेनी सब-एडिटर जैसा धीरज था। लक्ष्मण में ट्रेनी-रिपोर्टर जैसा पुरानी सत्ता को उखाड़ फेंकने का उतावलापन।
रामचरितमानस के धनुष प्रंसग में परशुराम की एंट्री हुड़ हुड़ दबंग जैसी है। पूरा टेरर बनाने के बाद परशुराम की नजर टूटे हुए धनुष पर पड़ती है तो वो गरजने लगते हैं। जनक समेत सभी लोग डरने लगते हैं। सॉफ्ट स्पोकेन राम जवाब में कहते हैं- मालिक, शिवजी का धनुष आपके ही किसी दास ने तोड़ा होगा, आप मुझसे कहें कि आपकी क्या आज्ञा है…
अपनी सीवी के बोझ तले दबे परशुराम समझ नहीं पाते कि सीन के पीछे क्या सीन है। परशुराम कहते हैं- सेवक है तो सेवक वाला काम करे…धनुष तोड़कर उसने मुझसे दुश्मनी ले ली है…यहाँ से सीन में लक्ष्मण एंट्री करते हैं। पत्रकारिता की भाषा में कहें तो यहाँ से भैया फैक्टर आ जाता है।
दुश्मनी की बात सुनकर राम चुप हो जाते हैं और लक्ष्मण बोल पड़ते हैं- गुरु, हम लोग बचपन से धनुही (छोटा धनुष) तोड़ते आ रहे हैं। पहले तो तुम कभू न तमतमाए आए। इस धनुष को लेकर इतने सेंटी काहे हो रहे हो।
परशुराम जवाब में कहते हैं- बेवकूफ शिवजी के धनुष को धनुही कहता है….
लक्ष्मण कहते हैं- गुरु, हमारे लिए ई धनुष ऊ धनुष सब सेम है। पुराने धनुष को तोड़ने में हमारा कोई प्राफिट-लॉस नहीं है फिर भी आप लोड लिए जा रहे हैं। शॉर्ट-कट में इतना समझ लीजिए कि इसमें भैया का कोई दोष नहीं है। भैया तो इसे नया समझकर उठाए रहे लेकिन ई पुराना निकला और भैया के छूते ही टूट गया।
टीनएज लखन का यह एट्टिट्यूड देखकर परशुराम और भड़क गये। अबकी बार अपना फरसा दिखाकर बताने लगे कि वो अतीत में किन-किन का मर्डर कर चुके हैं। यहाँ पर परशुराम यह भी बताते हैं कि उनका फरसा गर्भ में पल रहे शिशुओं की भी हत्या कर सकता है। लखन फिर भी चंठ ही रहे। यहीं उन्होंने ऑफेन कोटेड पंक्ति कही है –
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूँकि पहारू।।
इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तर्जनी देखि मरि जाहीँ।।
इन-शॉर्ट परशुराम की बात सुनकर लक्ष्मण हँसने लगे। हँसकर लखन बोले- गुरु कब से तरेर रहे हो कि बड़के योद्धा हो। फरसा दिखा रहे हो। फूँक मारकर पहाड़ को उड़ाना चाहते हो। इहाँ कोई कुम्हड़े का बतिया (नवजात फूल) नहीं है जो तुम्हारी उँगली देखकर मुरझा जाएगा। जो लोग गाँव से जुड़े होंगे वो जानते होंगे कि मान्यता है कि सब्जियों के भतिया को उंगली दिखाने से वो मुरझा जाती हैं।
परशुराम एक बार फिर धमकाने के लिए अपनी सीवी का रायता फैलाते हैं। परशुराम विश्वामित्र से कहते हैं कि इस ‘उद्दण्ड मूर्ख निडर’ बालक को बताओ मैं कौन हूँ नहीं तो ये मरेगा।
इस बार लक्ष्मण के मुख से बाबा तुलसी फिर से एक अमर काव्य पँक्ति कहलवाते हैं-
लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि अक्षत को बरनै पारा।।
अपने मुहु तुम्ह आपनि करनि। बार अनेक भाँति बहु बरनी।।
दूसरी कालजयी पँक्ति का सरल हिन्दी अनुवाद यूँ हुआ- गुरु, तुम्हारे रहते तुम्हारे बारे में बोलने का दूसरे को मौका कहाँ मिल रहा है…तुम अपने मुँह से अपने करतब कई बार कई तरह से बता चुके हो…कुछ और बचा हो तो बता लो। वैसे योद्धा अपने कर्मों से वीरता दिखाते हैं और कायर डींग हाँककर…
परशुराम शुरू में धनुष टूटने से नाराज थे लेकिन लक्ष्मण की लंठई देखकर वो इस बात पर ज्यादा भड़क जाते हैं कि ये चार दिन का लौण्डा कब से तू-तड़ाक किये जा रहा है। परशुराम फरसा उठाकर फिर विश्वामित्र से गुहार लगाते हैं कि समझा लो नहीं तो ये बालक मरेगा…
विश्वामित्र परशुराम को समझाते हैं- गुरु, जाने दो बालक है। परशुराम विश्वामित्र से कहते हैं- गुरु तुम्हारी मोहब्बत में इन दोनों को छोड़ रहे हैं। (याद रहे विश्वामित्र परशुराम के भी गुरु माने जाते हैं।) बाबा तुलसी लिखते हैं – परशुराम की यह बात सुनकर विश्वामित्र मन ही मन मुस्काते हैं और सोचते हैं कि गुरु, मामला समझ नहीं रहे हैं कि ये आर्डिनरी क्षत्रिय नहीं है। गुरु लोहे के सरिया को गन्ना समझ रहे हैं और सोच रहे हैं कि मुँह में लेते ही घुल जाएगा। (यह उपमा तुलसीदास की है मेरी नहीं।)
लक्ष्मण की लंठई की कोई सीमा नहीं है। परशुराम विश्वामित्र से कह रहे हैं बता दो इसे हम कौन हैं तो लक्ष्मण बीच में कूद कर कहते हैं- गुरु, किसे नहीं पता है तुम कौन हो…माँ-बाप के ऋण से तो तुम अच्छे से उऋण हो ही चुके हो, बाकी गुरु ऋण चुकाने की चिंता में दुबले हुए जा रहे हो। अब यह हमारे माथे ही लिखा था तो ठीक है, बहुत दिन हो गये हैं तो काफी ब्याज भी हो गया होगा। किसी हिसाब-किताब वाले को बुलाकर टोटल जुड़वा लो तो मैं अभी थैली खोलकर सूद-मूर सब चुका देता हूँ। (ध्यान दें लक्ष्मण ने माँ-बाप के ऋण पर तीयर्क मार की थी जिसके गहरे निहितार्थ थे)
लक्ष्मण की यह वक्रोक्ति सुनकर परशुराम फरसा उठाकर चढ़े, सभा में लोग हाय-हाय करने लगे लेकिन लक्ष्मण कहते हैं- गुरु, तुम फरसा चमका रहे हो और मैं तुम्हें ब्राह्मण समझकर छोड़ रहा हूँ। लक्ष्मण का यह डॉयलाग सुनकर राम आँखों से इशारा करके उन्हें रोकते हैं। राम की पहली लाइन आपको याद ही होगी- आपका ही दास होगा, आज्ञा दीजिए…यहाँ भी राम का कैरेक्टर उनके संवाद से खुलकर उभरता है।
ऊपर इतनी कहा-सुनी हो चुकी है फिर भी राम परशुराम से कहते हैं- गुरुदेव, बालक पर कृपा कीजिए। यह तो सीधासादा दुधमुँहा बालक है। अगर यह आपका भौकाल जानता तो ऐसी बेवकूफी थोड़े ही करता।
राम जब लक्ष्मण की कड़े शब्दों में भर्त्सना करने लगे तो परशुराम का क्रोध थोड़ा शान्त हुआ। लेकिन तुलसी बाबा का दृश्य-विधान देखिए-
राम बचन सुन कछुक जुड़ाने। कहि कछु लखनु बहुर मुसकाने।।
हँसत देखि नख सिख रिस ब्यापी। राम तोर भ्राता बड़ पापी।।
इधर राम परशुराम की तारीफ और लक्ष्मण की बुराई कर रहे थे जिसे सुनकर परशुराम चौड़े हो रहे थे और दूसरी तरफ लक्ष्मण मुस्करा रहे थे। लक्ष्मण की मुस्कान देखकर फिर से परशुराम के सिर से पैर तक क्रोध चढ़ गया।
यहाँ से आगे के संवाद में राम मीठे बोल बोलते हैं, परशुराम बड़े बोल बोलते हैं और लक्ष्मण हँस-हँसकर टेढ़े बोल बोलते हैं।
आप प्लॉट और ट्विस्ट देखिए। तुलसी बाबा की कथा में सनी कॉरलियान की भूमिका में छोटे भाई लक्ष्मण हैं जो मिजाज का गरम है, सीधे भिड़ जाता है। राम माइकल कॉरलियान है जो तमीज से बात करता है और युद्ध से पहले शांति समझौते का प्रयास करता है। अगले ट्विस्ट तक राम का लाइन ऑफ आर्ग्यूमेंट है कि छोटे को माफ कर दीजिए, जो सजा देनी है मुझे दे लीजिए। अगर धनुष जोड़ सकते हैं तो किसी को बुलाकर जोड़वा लेते हैं…आदि-इत्यादि
आधा दर्जन से ज्यादा संवादों बाद परशुराम को मामला समझ में आ जाता है। परशुराम कहते हैं- राम तू भी अपने भाई की तरह टेढ़ा है…तू भी मुझे केवल ब्राह्मण समझ रहा है तो मैं बताता हूँ कि मैं कैसा ब्राह्मण हूँ…धनुष तोड़कर तुझे घमण्ड हो गया है…
यहाँ से राम का मूड चेंज होता है। राम कहते हैं- गुरु, सोच-विचारकर बोलो। हमारी गलती छोटी है, तुम बड़ा क्रोध कर चुके। और घमण्ड कैसा, धनुष पुराना था, छूते ही टूट गया। (आपको याद होगा ठीक यही तर्क शुरू में लक्ष्मण ने दिया था। अब आप समझ गये होंगे कि लक्ष्मण क्यों मुस्करा रहे थे।)
राम आगे कहते हैं- गुरु, अगर तुम्हें लग रहा है कि तुम्हें ब्राह्मण समझकर (यानी युद्ध में कमजोर समझकर) हम तुम्हारा अपमान कर रहे हैं तो सच सुनो। दुनिया में ऐसा कोई योद्धा नहीं जिसके आगे हम भय से सिर झुका दें। देवता हो दानव हो सम्राट हो कमजोर हो ताकतवर हो हमें युद्ध के लिए ललकारता है तो है तो हम युद्ध करते हैं। हम क्षत्रिय हैं। मृत्यु से डर गये तो हमारा नाम खराब होता है। यह सब कहने के बाद राम एक रहस्यवादी तर्क देते हैं जिसे तुलसीदास ने भी ‘गूढ़’ ही कहा है।
बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहि डेराई।।
सुनि मृदु गूढ़ बचन रघुपत के। उघरे पटल परसुधर मति के।।
राम कहते हैं- ब्राह्मणवंश की ऐसी महिमा है कि जो आपसे डरता है फिर वो किसी से नहीं डरता। बाबा तुलसी पुराणों के पन्ने पलटता तो उन पर खींझता या कुछ लोग गौरवान्वित होते। लेकिन अभी लगता है कि परशुराम विराट नायक हैं। ट्विटर फोटो देखिए तो डिजायनर फरसा, काली चमकती दाढ़ी और जिम से निकली हुई मछलियाँ दिखाती तस्वीर।
परशुराम मातृहंता हैं। परशुराम क्षत्रियहंता हैं और उन्होंने कर्ण से उसकी विद्या सिर्फ इसलिए छीन ली क्योंकि उसने बोला था कि वो क्षत्रिय है। ये मुख्यत: तीन गंभीर आरोप हैं जो परशुराम का पीछा नहीं छोड़ रहे। परशुराम भक्त ये कहते हैं कि उन्होंने पिता की आज्ञा से माँ को मारा लेकिन बाद में उन्हें जीवित कर दिया और प्रायश्चित किया। वे माँ की हत्या नहीं करना चाहते थे, लेकिन पिता की बात मानने को मजबूर थे। हालाँकि ये कमजोर डिफेंस है। क्षत्रियहंता वाली बहस में ये तर्क है कि वे आततायी क्षत्रिय थे जिन्होंने उनके पिता को मारा था तो बदला तो बनता था। और आततायी वाली बात तो कृष्ण भी कह गए हैं कि ‘संभवामि युगे-युगे’। इसमें ये बात तो समझ में आती है कि गैंग ऑफ बासेपुर टाइप का मामला होगा जैसा कि Rangnath Singh ने अपने एक पोस्ट में बहुत पहले लिखा, लेकिन इक्कीस बार की बात थोड़ी अतिरंजित लगती है। किसी ने तर्क दिया कि इक्कीस बार नहीं होगा, इक्कीस जगहों पर युद्ध होगा! कर्ण वाले मामले में डिफेंस ये दिया जाता है कि उनको क्षत्रिय होने का उतना गुस्सा नहीं आया जितना झूठ बोलने का आया।
क्षत्रिय वाले मामले में तो उन्होंने एक बार उच्चस्तरीय पैरवी आने पर भीष्म को भी एडमिशन दे दिया था। कर्ण वाला मामला दरअसल ब्रीच ऑफ ट्रस्ट था या उन्हें उस समय तक पूरी तरह से क्षत्रियों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि वे दिव्यास्त्रों का सदुपयोग ही करेंगे।
वैसे भारतीय पुराण और इतिहास ब्राह्मण-क्षत्रिय संघर्ष से अछूते नहीं हैं। चाहे परशुराम-हैहय का मामला हो या वशिष्ट-विश्वामित्र का(ये थोड़ा अकादमिक किस्म लड़ाई थी) या फिर द्रोण-द्रुपद का या फिर बौद्ध धर्म का ब्राह्मणवाद पर आघात या नाथ पंथ उदय या जैनों की लंबी चौबीस तीर्थंकरों की परंपरा। ये याद रखिए कि सिख धर्म के प्रणेता नानक देव भी खत्री परिवार से थे जो संभवत: मध्यकाल तक आते-आते क्षत्रिय शब्द का अपभ्रंश था। पूरे भारत में इस तरह के दर्जनों मत फैले जिन्होंने ब्राह्मण श्रेष्ठता को चुनौती दी और ये बात हिंदू पुराणों और इतिहास से स्पष्ट है। दक्षिण भारत में भी ऐसे कई मत हुए।
महाभारत के शांति पर्व में पितामह भीष्म कहते हैं कि समाज की स्थिरता और सनातन की रक्षा के लिए ब्राह्मण-क्षत्रिय में सामंजस्य आवश्यक है। यानी ये चिंता उस समय भी थी कि कहीं आपसी तालमेल से व्यवस्था बिगड़ न जाए। आप चाहें तो इसमें वीपी सिंह और अर्जुन सिंह के आरक्षण को भी जोड़ सकते हैं जिसने ‘ब्राह्मणवाद’ को झकझोड़ दिया। जो काम बुद्ध नहीं कर पाए वो वीपी सिंह ने कर दिया। वो तो भला वामन और बलि के झगड़े का कि वो उत्तर में नहीं हुआ, नहीं तो वो भी ब्राह्मण-क्षत्रिय संघर्ष बन जाता। दक्षिण का मामला था तो उसे द्रविडों ने हाइजैक कर लिया।
लेकिन ऐसा नहीं है कि मिलन के बिंदु नहीं हैं। राम, कृष्ण और बुद्ध को अवतार के रूप में चित्रण, चाणक्य-चंद्रगुप्त संबंध, वशिष्ठ और राम का संबंध, द्रोण की अर्जुन आशक्ति और ऋषियों की विराट परंपरा क्षत्रियत्व के समर्थन में चट्टान की तरह खड़ी है। बल्कि वो ब्राह्मण व्यवस्था ही है जिसका व्यावहारिक संचालक क्षत्रिय है और आध्यात्मिक-दार्शनिक संचालक ब्राह्मण। इस चुनावी युग में भी ब्राह्मणों को अपनी जाति के मुख्यमंत्री के बाद सबसे ज्यादा राजपूत मुख्यमंत्री ही पसंद आते रहे हैं।
दिलचस्प ये है कि जिन दशवतार की चर्चा है उसमें तीन क्षत्रिय हैं और तीन ब्राह्मण(एक भविष्य में आएँगे)। बाकी चार मनुष्येत्तर और मानव-पशु की सीमा पर स्थित अवतार हैं।
कुछ लोगों का दावा है कि बुद्ध को बाद में तुष्टिकरण के लिए जोड़ा गया कि बैलेंस न बिगड़ जाए। एक चौबीस अवतार का भी वर्णन मिलता है जिसमें क्षत्रिय या क्षत्रिय-वत तो पाँच ही हैं, ब्राह्मण या ब्राह्मण जैसे करीब दस हैं। लगता है बाद में जब लिस्ट को एक्सेल शीट में डालकर छोटा किया गया होगा तो आज के हिसाब से सामाजिक समीकरण बिठा दिया गया होगा!
दिलचस्प ये कि इसमें से वैश्य या शूद्र गायब हैं। वैश्य-वृति हालाँकि धनोपार्जन से जुड़ी है लेकिन हमारे यहाँ उसे ‘उत्तम खेती के बाद ऐसा मध्यम बाण’ किया गया कि आज भी हमारे यहाँ किसान हित प्रमुख है और कॉरपोरेट की आलोचना अच्छी मानी जाती है। ऐसा लगता है कि वणिक-वृति को थोड़े बहुत लोभ-लालच से जोड़ा गया, इसलिए उसकी अवतार में एंट्री नही हुई, वरना जीडीपी तो वहीं मैनेज करता रहा। रही बात शूद्र की तो वो स्थाई सेवक था और उसे सेवा से ही फुरसत नहीं मिलती तो वो क्या नेतृत्व करता या अवतार आता।
इसे यूँ समझिए कि आजादी के वक्त लगभग सारे बड़े नेता देश विदेश के बड़े विश्वविद्यालयों में पढ़े तो वे अवतार हुए, बाकी लोग जो कस्बा के स्कूल-कॉलेज में पढ़े वे सेवक होकर सरकारी,निजी नौकरी में गए। वे शूद्र हैं जो देश का बोझ अपने कंधे पर लिए हुए हैं, लेकिन मुख्य भूमिका में नहीं है। इसमें ‘अछूत’ नहीं थे, क्योंकि वे वर्णव्यवस्था से बाहर थे और बाद में उनकी एंट्री हुई। वे हाशिये के लोग थे।
अब कुछ गंभीर बात। हिंदू परंपरा में अवतार की कल्पना सृष्टि के जैविक विकास क्रम से होते हुए मानवीय गुणों के विस्फोट से जुड़ी है। अगर आप उसे मानते हैं तो। मत्स्य, वाराह, कच्छप और नरसिंह जैविक क्रम को दर्शाते हैं। उसके बाद वामन और परशुराम ब्राह्मण अवतार हैं जिनके समय सामाजिक ढाँचा, परिवार, विवाह इत्यादि की व्यवस्था हुई होगी। परशुराम के बारे में माना जाता है कि दक्षिण में उन्होंने कई जातियों को विवाह और परिवार की व्यवस्था अपनाना, खेती करना, जल की व्यवस्था करना सिखलाया जो उस समय इस व्यवस्था से बाहर थे। राम और कृष्ण और बुद्ध क्षत्रिय अवतार हैं जो व्यवस्था संचालक और संशोधन के अवतार है। इसलिए राम को मर्यादा-पुरुषोत्तम कहा गया और कृष्ण को सोलह कलाओं से युक्त महामानव।
बुद्ध ने अपने समय में व्याप्त लंबे कर्मकांड, पाखंड और जड़ता को दूर किया। कल्कि अवतार आना शेष है। ऐसे में पौराणिक कथाओं को ब्राह्मण-क्षत्रिय संघर्ष तक रिड्यूश कर देना मुश्किल है, क्योंकि हम उसे अपने कालखंड से बाहर नहीं देख पाते।
इतना लंबा पढ़ लेने के बाद अगर आप इस लेख से आहत और खुश हैं, तो दरअसल वही मेरा उद्देश्य भी है। आप सभी परशुराम बनें और श्री राम अवतार के बाद अपना आभामंडल समेट लें।