यूक्रेन: कोई नाराज हो या खुश, रूस के खिलाफ नहीं जायेगा भारत
कोई खफा हो या खुश… रूस के खिलाफ नहीं जाएगा भारत, सरकार के न्यूट्रल रहने की वजह समझिए
रूस के खिलाफ यूएनजीए के प्रस्ताव से भारत का कन्नी काट लेना अमेरिका सहित पश्चिमी देशों को काफी खला
India abstain from Voting in UNGA: अमेरिका की अगुआई में पश्चिमी देश रूस को सबक सिखाने को उतारू हैं। यूक्रेन पर हमले (Russia-Ukraine War) के लिए ज्यादातर देशों ने रूस की आलोचना की है। संयुक्त राष्ट्र (United Nations) में भी उसके खिलाफ माहौल बनता दिखा है। एक के बाद एक निंदा प्रस्ताव आ रहे हैं। बुधवार को संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) में भी रूस के खिलाफ ऐसा प्रस्ताव लाया गया। इसमें यूक्रेन पर हमले पर रूस की कड़ी निंदा की गई। हालांकि, इस बार भी भारत ने इसमें हिस्सा लेने से किनारा (India abstain from Voting) कर वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया। मामले में उसने न्यूट्रल रुख (India stand on Russia) अपनाया हुआ है। वह बातचीत से इस मसले का समाधान निकालने का पक्षधर है। भारत के तटस्थ रुख से वह निशाने पर भी आने लगा है। अमेरिका को भी भारत का स्टैंड अखर रहा है। जब दुनिया के 141 मुल्कों ने रूस के खिलाफ एक सुर में आवाज उठाई तो भारत क्यों अलग खड़ा है। सरकार के न्यूट्रल स्टैंड की आखिर क्या वजह है।
अगर किसी को लगता है कि भारत रूस के खिलाफ जाएगा या इस मामले में उसके सुर पश्चिमी देशों से मिलेंगे तो यह भूल है। यूक्रेन पर हमले के बाद भारत के रुख पर लगातार दुनिया की नजर है। हालांकि, उसने रूस के खिलाफ कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। उसने बीच का रास्ता अपनाया है। वह बातचीत और कूटनीति से विवाद का समाधान निकालने की बात कर रहा है।
यह और बात है कि भारत सरकार का यह स्टैंड अमेरिका सहित पश्चिमी देशों को रास नहीं आ रहा है। उनकी नजर में भारत रूस के साथ है। हालांकि, इस स्टैंड से किसी को ताज्जुब नहीं होना चाहिए। सिर्फ महासभा में ही नहीं इसके पहले संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में भी उसने रूस के खिलाफ वोटिंग से अपने को दूर रखा था।
देश में सरकार किसी की रही हो, रूस के खिलाफ भारत कभी नहीं गया। यह पहली बार नहीं है जब रूस के कारण भारत अग्निपरीक्षा दे रहा है। पहले भी वह इस इम्तिहान से गुजरा है। 2014 में पुतिन के रूस ने यूक्रेन पर हमला कर क्रिमिया कब्जाया था तब भी मनमोहन सिंह सरकार का इसी तरह का न्यूट्रल स्टैंड था। इस बार भी इसमें कोई बदलाव नहीं आया है।
क्यों नहीं बदलेगा भारत का स्टैंड?
भविष्य में भी शायद ही भारत के स्टैंड में कोई बदलाव आए। आज के हालात देखते हुए कोई शिकायत कर सकता है कि आखिर भारत ने ऐसा रुख क्यों अपनाया हुआ है। क्यों भारत किसी ‘आक्रमणकारी’ देश के खिलाफ खुलकर बोलने से बच रहा है। लेकिन, भारत के इस रुख के पीछे कुछ ठोस वजहें हैं। उन्हें जानना और समझना होगा।
संयुक्त राष्ट्र में भारत के हित किए गए दरकिनार
दुनिया में भारत से ज्यादा शांति का हिमायती मुल्क भला कौन होगा। हालांकि, संयुक्त राष्ट्र खासतौर से सुरक्षा परिषद में उसका अनुभव खट्टा रहा है। पश्चिमी देशों के निजी हितों का वह सबसे बड़ा शिकार रहा है। यह सिलसिला 1948 से है जब भारत संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर मुद्दा लेकर पहुंचा था।
पाकिस्तानी हमले की भारत की शिकायत पर सुरक्षा परिषद ने प्रतिक्रिया नहीं दी। अलबत्ता, ब्रिटेन और अमेरिका कश्मीर मुद्दे पर बिना भारत की सलाह के पाकिस्तान की जवाबी शिकायत को अनुमति देने में सबसे आगे रहे। इसने पाकिस्तान को मौका दिया कि वह भारत के हिस्से वाले क्षेत्र को अपने पास बनाए रखे।
पाकिस्तान और चीन दोनों ने जम्मू-कश्मीर के कई इलाकों में अवैध गतिविधियां जारी रखीं। लेकिन, पश्चिम ने भारत का कभी समर्थन नहीं किया। न ही उसने चीन की ही वैसी निंदा की है जैसी वह यूक्रेन को लेकर रूस की कर रहा है। यहां तक लद्दाख में जब चीन और भारत के सैनिकों में झड़प हुई तो भी पश्चिमी देश चीन को खफा करने से बचे। भारत को संतुलन बनाने के लिए कूटनीतिक रास्ता निकालना पड़ा।
रूस ने हमारे साथ क्या किया है?
अब जरा बात रूस की कर लेते हैं। वह 70 के दशक से हमारा सबसे भरोसेमंद दोस्त रहा है। इसी से भारत के रक्षा संबंध रूस के साथ बहुत गहरे हैं। वह करीब 70 फीसदी हथियार रूस से खरीदता रहा है। यही नहीं रूस ने संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर पर भारत का हमेशा समर्थन किया। भारत भी जवाब में उसके साथ रहा ।1979-80 में अफगानिस्तान पर रूस ने हमला किया तब तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने उसकी सैन्य कार्रवाई का बचाव किया था।
तटस्थ रहने के क्या हैं जोखिम?
तटस्थ रहने के जोखिम भी हैं। इस रुख से दुनिया आज भारत को रूस के साथ खड़ा देखती है। पुतिन ने जो किया है, उस स्टैंड पर मुहर मानती है। इस तरह यह चीन की अरुणाचल प्रदेश में आक्रामकता को सही ठहरा देता है। वहीं, पाकिस्तान भी कश्मीर घाटी में अलगाववादियों को हवा देता है। यह उसकी कार्रवाइयों को भी जायज कर देता है।
1957 से 1971: भारत के लिए रूस ने सुरक्षा परिषद में 6 बार लगाया वीटो पावर, हर बार अमेरिका करता रहा विरोध
Russian Veto Power In Favour Of India : यूक्रेन पर हमले के लिए रूस के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में लाए गए निंदा प्रस्ताव पर मतदान से भारत दूर रहा। इसकी आलोचना भी हो रही है, लेकिन अतीत को खंगालने पर स्पष्ट होता है कि भारत का यह कदम बहुत सोचा-समझा और सराहनीय है। आखिरकार पूर्व के सोवियत संघ (USSR) और मौजूदा रूस ने यूएनएससी में हमेशा भारतीय हितों का ख्याल रखा और जरूरत के वक्त वीटो का इस्तेमाल करने से भी कभी पीछे नहीं रहा। रूस का भारत के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा रहना 1957 से चला आता है। तब से अब तक एक दो नहीं बल्कि कुल छह मौके आए जब रूस ने भारत के खिलाफ लाए प्रस्ताव अपने विटो पावर से रोक दिये। आइए जानते हैं, कब-कब यूएनएससी में भारत पर आई आफत और सुरक्षा कवच की भूमिका निभाता रहा रूस…
20 फरवरी 1957 – कश्मीर पर बचाव
भारत ने 1947 में आजादी हासिल की तो कश्मीर का रियासत ने भारत-पाकिस्तान से इतर स्वतंत्र रहने का फैसला किया। हालांकि, कुछ ही दिनों में पाकिस्तान ने कबायली भेजकर हमला बोल दिया तो कश्मीरी नेताओं ने भारत से मदद मांगी। भारत ने अधिग्रहण दस्तावेज पर दस्तखत करने की शर्त पर कश्मीर की मदद की लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू मामले को संयुक्त राष्ट्र ले गए। भारत को नेहरू की इस गलती की सजा भुगतनी पड़ी। ऐसा ही मौका आया 1957 में जब 20 फरवरी को ऑस्ट्रेलिया, क्यूबा, यूके और अमेरिका एक प्रस्ताव लाये जिसमें संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अध्यक्ष से आग्रह किया गया था कि वो भारत और पाकिस्तान से बात करके इस मुद्दे को सुलझाएं। इसके लिए दोनों देशों को विवादित क्षेत्र से अपनी-अपनी सेनायें वापस बुलाने को राजी करने का सुझाव दिया गया।
प्रस्ताव यह भी था कि संयुक्त राष्ट्र को कश्मीर में अस्थायी रुप से फोर्स तैनात करना चाहिए। तब तत्कालीन सोवियत संघ ने प्रस्ताव पर अपना वीटो पावर इस्तेमाल किया जबकि स्वीडन ने वोटिंग से दूरी बना ली थी। तब यूएनएससी के अध्यक्ष भी स्वीडन के ही थे। ऑस्ट्रेलिया, चीन, कोलंबिया, क्यूबा, फ्रांस, इराक, फिलिपींस, यूके और अमेरिका ने प्रस्ताव के समर्थन में वोट किया था।
18 दिसंबर, 1961 – गोवा, दमन और दीव पर हाय तौबा
फ्रांस, तुर्की, यूके और अमेरिका सुरक्षा परिषद में भारत के खिलाफ संयुक्त प्रस्ताव लाये जिसमें गोवा और दमन एवं दीव में भारत द्वारा सैन्य बलों के इस्तेमाल पर आपत्ति जताई गई थी। प्रस्ताव में भारत सरकार से फौज हटाकर 17 दिसंबर 1961 से पहले की स्थिति बहाल करने की मांग की गई थी।प्रस्ताव 7-4 से गिर गया। सोवियत संघ, सिलोन (तब का श्रीलंका), लाइबेरिया और यूएई ने प्रस्ताव के विरोध में भारत का साथ दिया था। वहीं, चीली, चीन, इक्वाडोर, फ्रांस, तुर्की, यूके और अमेरिका ने भारत के विरोध में प्रस्ताव का समर्थन किया था। बहस में यूएन में सोवियत एंबेसडर वेलेरियन जोरिन (Valerian Zorin) ने कहा, ‘पुर्तगाल का बचाव करने वाले संयुक्त राष्ट्र का हित नहीं बल्कि उपनिवेशवाद का पक्ष ले रहे हैं जो 20वीं सदी का सबसे शर्मनाक फलसफा है। हालांकि, वो देश दर्जनों बार विपरीत कदम उठा चुके हैं।’ (तस्वीर- वेलेरियन जोरिन)
22 जून, 1962 – फिर उठा कश्मीर का मुद्दा
अमेरिका के समर्थन से आयरलैंड सुरक्षा परिषद में प्रस्ताव लाया था जिसमें भारत और पाकिस्तान की सरकारों से कश्मीर विवाद को सुलझाने की मांग की गई थी। कहा गया कि दोनों सरकारें ऐसा माहौल बनाएं ताकि बातचीत से समझौते तक पहुंचा जा सके। यूएसएसआर ने फिर से प्रस्ताव के खिलाफ वीटो पावर लगाया। रोमानिया ने भी प्रस्ताव के विरोध में मतदान करके भारत का साथ दिया जबकि घाना और यूएई ने वोटिंग से दूरी बनाई। वहीं, चीली, चीन, फ्रांस, आयरलैंड, यूके, अमेरिका और वेनेजुएला ने प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया।
4 दिसंबर, 1971 – पाकिस्तान सीमा पर युद्धविराम की गुहार
अमेरिका के नेतृत्व में प्रस्ताव लाकर भारत-पाकिस्तान सीमा पर युद्धविराम लागू करने की मांग की गई जिसके खिलाफ रूस ने वीटो पावर का इस्तेमाल किया। अर्जेंटिना, बेल्जियम, बुरुंडी, चीन, इटली, जापान, निकारागुआ, सियरा लियोन, सोमालिया, सीरिया और अमेरिका ने प्रस्ताव के समर्थन में वोट किया। तत्कालीन जनसंघ (बाद की बीजेपी) के अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी ने रूस के वीटो का स्वागत किया था। दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित रैली में वाजपेयी ने कहा था, ‘मौजूदा संकट में जो साथ देगा, वह हमारा दोस्त है। विचारधारा की लड़ाई बाद में लड़ लेंगे।’ ध्यान रहे जनसंघ वामपंथ का विरोधी था जिसका अगुवा तत्कालीन सोवियत संघ और अब का रूस है
5 दिसंबर, 1971 – शरणार्थियों का मसला
अर्जेंटिना, बेल्जियम, बुरुंडी, इटली, जापान, निकारागुआ, सियरा लियोन और सोमालिया भारत-पाकिस्तान बॉर्डर पर युद्धविराम लागू करने का प्रस्ताव लाये ताकि शरणार्थियों की वापसी हो सके। सोवियत संघ ने पांचवीं बार वीटो पावर के इस्तेमाल से भारत का साथ दिया। वहीं अमेरिका ने भारत का विरोध करते हुए प्रस्तावक देशों का साथ दिया। वहीं, पोलैंड ने प्रस्ताव के विरोध में वोट किया। बड़ी बात यह हुई कि इस बार यूके वोटिंग से दूर रहा और फ्रांस भी।
14 दिसंबर, 1971 – सैन्य वापसी की मांग
अमेरिका प्रायोजित प्रस्ताव में भारत और पाकिस्तान की सरकारों से युद्धविराम और सेनाओं को अपने-अपने इलाकों में वापस बुलाने को सभी जरूरी कदम उठाने की मांग की गई। यूएसएसआर ने फिर से प्रस्ताव को वीटो कर दिया। पोलैंड ने भी प्रस्ताव के विरोध में वोट डाला जबकि फ्रांस और यूके फिर वोटिंग में भाग नहीं लिया। अर्जेंटिना, बेल्जियम, बुरुंडी, चीन, इटली, जापान, निकारागुआ, सिरया लियोन, सोमालिया, सीरिया और अमेरिका ने प्रस्ताव के पक्ष में वोट किया था।
अमेरिका ने तब भी नहीं बदली भारत विरोध की नीति
इस तरह, सुरक्षा परिषद में भारत के खिलाफ लाए गए छह प्रस्तावों में जिनके खिलाफ रूस ने वीटो पावर का इस्तेमाल किया, अमेरिका ने उन सबका समर्थन किया। इस दौरान कुछ ताकतवर देशों ने तटस्थता भी बरती, लेकिन अमेरिका हर मौके पर भारत का विरोध करता रहा। 1971 में भारत के खिलाफ दो बार प्रस्ताव लाए गए तब फ्रांस और यूके ने वोटिंग में भाग नहीं लेकर तटस्थता की स्थिति अपना ली, लेकिन अमेरिका तब भी भारत का विरोध करता रहा। उससे पहले यूके और फ्रांस भी भारत के विरोध में वोटिंग करते रहे थे।
नई दिल्ली का सबसे बड़ा डिफेंस पार्टनर है रूस, बैलेंस्ड अप्रोच ही सबसे सही
रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध में पश्चिमी देशों की रणनीति दूर खड़े होकर सबको भड़काने वाली है। अमेरिका हो या यूरोपियन यूनियन, सब यूक्रेन के साथ खड़े होने की बात करते हैं, मगर जमीन पर सब दावे हवा हैं। ऊपर से दबाव भारत पर बनाया जा रहा है कि वह रूस vs यूक्रेन विवाद में अपना स्टैंड साफ करे। ‘भारत को लेकर अमेरिका की नीति’ पर सीनेट कमिटी की सुनवाई से अंकल सैम की मंशा काफी कुछ खुलकर सामने आ गई। असिस्टेंट स्टेट सेक्रेटरी डोनाल्ड लू ने कहा कि हम चाहते हैं कि भारत रूस की कार्रवाइयों के खिलाफ रुख स्पष्ट करे। लू ने आर्म-ट्विस्टिंग का नमूना पेश करते हुए कहा कि अमेरिका भारत से जो भी रक्षा तकनीक साझा कर रहा है, रूस संग उसके ऐतिहासिक रिश्तों और रक्षा संबंधों को देखते हुए हमें सुनिश्चित करना होगा कि वह सुरक्षित रहे। कुछ दिन पहले तक अमेरिका कह रहा था कि वह भारत की किसी पक्ष के साथ न खड़े होने की स्थिति को समझना है मगर अब उसके तेवर बदल गए हैं। आखिर भारत पर दबाव बनाकर अमेरिका अपना कौन सा उल्लू सीधा करना चाहता है?
सीनेट में भारत को लेकर क्या-क्या कहा गया?
डोनाल्ड लू ने सुनवाई के दौरान कहा, ‘मैं यह कहना चाहूंगा कि हम सभी भारत से रुख स्पष्ट करने की गुहार कर रहे हैं, रूस की कार्रवाइयों के खिलाफ। लेकिन अब तक हमने क्या देखा है? हमने देखा कि कई बार वोटिंग से दूरी बनाई गई।’ लू ने संयुक्त राष्ट्र में भारत के रवैये पर कहा, ‘हमने पिछले दो दिन में रोचक बदलाव देखा है। यूएन में भारत में सभी देशों से यूएन चार्टर का पालन करते हुए अन्य देशों की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करने को कहा; जो कि यूएन चार्टर और यूक्रेन की संप्रभुता के उल्लंघन के सीधे संदर्भ में है।’
लू ने कहा कि अमेरिका तीन दशक पहले तक सोच भी नहीं सकता था कि वह रक्षा क्षेत्र में भारत को कुछ भी बेचेगा मगर अब काफी ज्यादा सौदे हो रहे हैं। लू ने साफ तो नहीं कहा मगर इशारों में धमका जरूर दिया कि अगर भारत रूस के खिलाफ नहीं गया तो अमेरिका भारत के साथ अपने रक्षा संबंधों की समीक्षा कर सकता है।
तीन दशक पहले तक हम रक्षा के क्षेत्र में भारत को कुछ भी बेचने की सोच भी नहीं सकते थे। हम यह समझने की प्रक्रिया में हैं जो रक्षा तकनीक हम भारत के साथ साझा कर रहे हैं, वह भारत के रूस के साथ ऐतिहासिक रिश्तों और रक्षा सौदों को देखते हुए सुरक्षित रह पाएगी या नहीं।
डोनाल्ड लू, असिस्टेंट स्टेट सेक्रेटरी
भारत पर प्रतिबंध लगाने की तैयारी में अमेरिका!
रूस के साथ भारत S-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम के सौदे पर आगे बढ़ रहा है। पिछले दिनों बाइडन प्रशासन ने कहा था कि उन्हें इस सौदे से कोई समस्या नहीं है। अब अमेरिका के विरोधियों पर प्रतिबंध वाले कानून (CAATSA) के तहत भारत पर प्रतिबंध लगाने की बात हो रही है। हालांकि लू ने कहा कि बाइडन प्रशासन ने अभी इस बारे में फैसला नहीं किया है। चीन को काउंटर करने के लिए अमेरिका ने भारत के साथ नजदीकियां बढ़ाई हैं। लू ने कहा, ‘आने वाले महीनों और सालों में मॉस्को से वेपन सिस्टम्स खरीदना काफी मुश्किल होने वाला है। मुझ लगता है कि भारत उन देशों में से एक हैं जो इसे लेकर चिंतित होंगे।’
भारत के रुख की वजह क्या है?
रूस भारत का सबसे बड़ा रक्षा साझेदार है। भले ही भारत को कभी 70% हथियार सप्लाई करने वाला रूस आज की तारीख में घटकर 49% आ गया है मगर फिर भी उसके मुकाबले अभी दूसरा कोई नहीं। S-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम की खरीद से भारत को चीन और पाकिस्तान के खिलाफ मजबूती मिलेगी। यही वजह है कि अमेरिकी प्रतिबंधों के खतरे के बावजूद भारत ने रूस के साथ इस सौदे पर आगे बढ़ना जारी रखा है। मॉस्को और नई दिल्ली के रिश्ते दशकों पुराने हैं। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में कश्मीर मुद्दे पर रूस ने वीटा किया था जिसकी वजह से यह द्विपक्षीय मसला ही बना रहा। हालांकि भारत ने UNSC में अपने रुख से यह जरूर साफ कर दिया है कि वह यूक्रेन में पैदा हालात से खुश नहीं हैं।
अगर भारत ने पक्ष लिया तो…
भारत के सामने चुनौती अपने नागरिकों को यूक्रेन से निकालने की भी है। अगर भारत अभी रूस या यूक्रेन में किसी का पक्ष लेता है तो उसके नागरिकों की जान पर खतरा बढ़ जाएगा। ताजा घटनाक्रम से यही संकेत मिलते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ बातचीत में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने दावा किया कि यूक्रने भारतीय छात्रों को ‘मानव ढाल’ की तरह इस्तेमाल कर रहा है। वहीं, यूक्रेन ने कहा कि भारत, चीन और पाकिस्तान के नागरिकों को रूस बाहर नहीं निकलने दे रहा। ऐसे में भारत के लिए दोनों देशों में से किसी का भी साथ देना सही नहीं है। जाहिर है, प्राथमिकता संघर्ष क्षेत्र से अपने नागरिकों को बाहर निकालना होनी चाहिए।
भारत पर दबाव बनाकर अमेरिका को क्या होगा हासिल?
रूस और यूक्रेन की लड़ाई में अमेरिका समेत पश्चिमी देशों ने दखल नहीं दिया है। रूस पर आर्थिक प्रतिबंध जरूर लगाए गए हैं और यूक्रेन को हथियार सप्लाई का वादा भी किया गया है। इसके बावजूद, यूक्रेन को जितनी मदद की उम्मीद थी, उतनी नहीं मिली। यूक्रेन के प्रधानमंत्री वोल्दोमिर जेलेंस्की बार-बार गुहार लगा रहे हैं कि उनके देश को तत्काल NATO की सदस्यता दे दी जाए मगर ऐसा हो नहीं रहा। पश्चिमी देशों ने रूसी आक्रमण के सामने यूक्रेन को उसके हाल पर छोड़ दिया है। अब अगर अंकल सैम चाहते हैं कि भारत अपने पुराने दोस्त रूस के खिलाफ जाए तो इसके पीछे उसके अपने कारण हैं। वह नहीं चाहेगा कि एशिया में भारत जैसा साझेदार रूस के पाले में खड़ा रहे खासतौर से तब जब पैसिफिक में तनाव बढ़ रहा है। ऊपर से चीन के बढ़ते प्रभुत्व को भी काउंटर करना है।
अभी रूस और चीन लगभग एक पाले में हैं, अगर भारत भी रूस के साथ चला गया तो अमेरिका के लिए बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाएगा। भारत को अभी बेहद फूंक-फूंककर कदम रखने की जरूरत है क्योंकि अगर दिल्ली के रुख में बदलाव दिखा तो रूस पाकिस्तान पर डोरे डाल सकता है। हाल ही में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने पुतिन से रूस जाकर मुलाकात की है। रूस ने पिछले दो दशक के दौरान भारत और अमेरिका की नजदीकियों को स्वीकार किया है लेकिन यूक्रेन उस लक्ष्मण रेखा की तरह है जिसे पार करते हुए वह दिल्ली को नहीं देखना चाहेगा।