अमेरिका और चीन कैसे बने खेल सुपर पावर?
दुनिया के सुपर पावर ही ओलिंपिक में टॉप पर क्यों आते हैं? अमेरिका-सोवियत संघ के बाद अब अमेरिका-चीन में होड़
ओलिंपिक गेम्स दुनिया का सबसे बड़ा स्पोर्ट्स इवेंट है। अंतरराष्ट्रीय ओलिंपिक समिति में 206 नेशनल ओलिंपिक कमेटी सदस्य हैं। यह संयुक्त राष्ट्र में शामिल देशों की संख्या (193) से भी ज्यादा हैं। जाहिर है कि तमाम देश ओलिंपिक में हिस्सा लेने और इसमें अच्छे प्रदर्शन को बहुत ज्यादा प्राथमिकता देते हैं। हालांकि, इसमें आमतौर पर वही देश सबसे अच्छा प्रदर्शन कर पाते हैं जो शारीरिक के साथ-साथ आर्थिक, सामरिक और बौद्धिक स्तर पर भी प्रभावशाली होते हैं।
मेडल टेबल में ऊपरी स्थानों पर तो वही देश आ पाते हैं जो सुपर पावर होने की हैसियत रखते हैं। यहां हम जानने की कोशिश करेंगे कि आखिर ओलिंपिक में प्रदर्शन का महाशक्ति होने से क्या संबंध है? हम यह भी जानेंगे कि दुनिया के सुपर पावर ओलिंपिक में सफलता पाने को क्या करते हैं।
पहले जानते हैं कि मॉडर्न ओलिंपिक में दुनिया के सुपर पावर का प्रदर्शन कैसा रहा
1896 से मॉडर्न ओलिंपिक गेम्स आयोजित हो रहे हैं। तब से दुनिया ने अमेरिका, सोवियत संघ, ब्रिटेन, चीन, फ्रांस, जर्मनी, इटली और जापान जैसे देशों को महाशक्ति रुप में देखा। ओलिंपिक की ऑल टाइम मेडल टैली के टॉप-10 पर नजर डालें तो इन्हीं देशों का दबदबा दिखता है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद दो सबसे बड़े सुपर पावर अमेरिका और सोवियत संघ टॉप-2 पॉजीशन पर हैं। इन दोनों से पहले सुपर पावर और उपनिवेशवादी रहे ब्रिटेन और फ्रांस भी टॉप-5 में हैं। दूसरे विश्व युद्ध में सहयोगी रहे जर्मनी और इटली भी टॉप-10 में हैं।
1. खुद को दूसरों से आगे और बेहतर बताना
ओलिंपिक का मोटो या सूत्र वाक्य तीन इटैलियन शब्दों से बना है। ये हैं सिटियस-अल्टियस-फोर्टियस…इनका मतलब है फास्टर, हायर और स्ट्रॉन्गर, यानी ज्यादा तेज, ज्यादा ऊंचा और ज्यादा मजबूत। कोई देश सुपर पावर बनता है या बनना चाहता है तो वह इन तीनों कसौटियों पर भी खरा उतरने की कोशिश करता है। ओलिंपिक इसके लिए उन्हें सबसे बड़ा प्लेटफॉर्म देता है। इससे बिना युद्ध लड़े और बिना खून बहाए खुद को शक्तिशाली बताया जा सकता है।
2. प्रोपेगैंडा टूल
ओलिंपिक से शक्तिशाली देश दुनियाभर में अपनी धाक जमाते हैं। उनका संदेश होता है कि हम ओलिंपिक में इसलिए अच्छे हैं क्योंकि हमारा सिस्टम, हमारी अर्थव्यवस्था, हमारी टेक्नोलॉजी बेहतर है। अमेरिका और सोवियत संघ ने यह काम प्रभावशाली तरीके से किया। अब चीन भी इस दिशा में सफलता हो रहा है।
3. अपने लोगों का भरोसा जीतना
ओलिंपिक में भले ही जंग न हो, लेकिन मुकाबले में दुनियाभर के एथलीट होते हैं। इसमें मेडल हासिल करने वाले देशों के लोगों का आत्मविश्वास बढ़ता है और उनका अपने देश, अपनी सरकार, अपने सिस्टम पर यकीन बढ़ता है।
सुपर पावर देश ओलिंपिक में जीत के लिए क्या करते हैं
बड़ा खर्च
अमेरिका, चीन, रूस, ब्रिटेन जैसे देश ओलिंपिक में अच्छे प्रदर्शन को काफी खर्च करते हैं। जरूरी नहीं कि ये खर्च सिर्फ सरकार करे। अमेरिका अपने ओलिंपिक एसोसिएशन को कोई फंडिंग नहीं देता है, लेकिन प्राइवेट जरियों से हर ओलिंपिक को अमेरिकी एथलीटों प 20 हजार करोड़ रुपए खर्च होता है।
ब्रिटेन ने हर साल खेल इन्फ्रास्ट्रक्चर और ट्रेनिंग को 1.5 बिलियन डॉलर (करीब 11 हजार करोड़ रुपए) खर्च किया है।
चीन और रूस से खर्च के आंकड़े सामने नहीं आते। माना जाता है कि चीन ओलिंपिक को खिलाड़ियों को तैयार करने पर 4 साल के हर साइकिल में 18-20 हजार करोड़ रुपए खर्च कर रहा है।
बेहतरीन इन्फ्रास्ट्रक्चर
अमेरिका और चीन जैसे देशों के लगभग हर बड़े शहर में बेहतरीन स्पोर्ट्स इन्फ्रास्ट्रक्चर मौजूद है। इनमें इंटरनेशनल क्लास स्टेडियम, इक्विपमेंट, हाई परफॉर्मेंस सेंटर, बायोमैकेनिक्स सेंटर आदि शामिल होते हैं।
ट्रेनिंग और कोचिंग
ओलिंपिक की शुरुआत अमेच्योर स्पोर्ट्स इवेंट के रूप में हुई थी, लेकिन बड़े देशों ने इसे प्रोफेशनल तरीके से अप्रोच किया। हर खेल के विज्ञान को समझते हुए खिलाड़ियों को तैयार किया जाता है। इसके लिए स्पोर्ट्स यूनिवर्सिटी और स्पोर्ट्स रिसर्च सेंटर बनाए गए हैं। चीन में खिलाड़ियों की ट्रेनिंग में कठोरता भी बरती जाती है और कम उम्र से ही उन्हें ओलिंपिक को तैयार किया जाता है।
अमेरिका ओलंपिक में सबसे ज्यादा पदक कैसे जीतता है, ऐसा कौन सा सिस्टम है वहां?
How America Dominates the Olympics: अमेरिका ने पेरिस ओलंपिक में अन्य सभी देशों से बेहतर प्रदर्शन किया. यह लगातार आठवें ओलंपिक खेल हैं, जहां अमेरिकी टीम ने सबसे ज्यादा पदक जीते हैं. हकीकत है कि अमेरिकी अपने खेल से प्यार करते हैं. इसके साथ ही अमेरिकी कॉलेज प्रणाली वहां की खेल संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है.
अमेरिका के ग्रांट होलोवे ने पुरुषों की 110 मीटर बाधा दौड़ में स्वर्ण पदक, जबकि डैनियल रॉबर्ट्स (सबसे दाएं) ने रजत पदक जीता.
अमेरिका ने पेरिस ओलंपिक खेलों की पदक तालिका में एक बार फिर अपना दबदबा बनाया. अमेरिकी एथलीटों ने कई करीबी कॉलों और विवादास्पद फैसलों के बावजूद 40 गोल्ड मेडल सहित कुल 126 पदक जीते. जबकि एक अमेरिकी एथलीट से ब्रॉन्ज मेडल छीन लिया गया. चीन ने भी 40 गोल्ड मेडल जीते, लेकिन वो कुल 91 पदकों के साथ दूसरे नंबर पर रहा. ग्रेट ब्रिटेन 65 पदकों के साथ तीसरा स्थान हासिल करने में सफल रहा. मेजबान फ्रांस ने 64 पदकों के साथ चौथा स्थान हासिल किया.
यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि अमेरिका ने पेरिस ओलंपिक में अन्य सभी देशों से बेहतर प्रदर्शन किया. यह लगातार आठवें ओलंपिक खेल हैं, जहां अमेरिकी टीम ने सबसे ज्यादा पदक जीते हैं. अमेरिका ने सबसे बड़ा दल पेरिस भेजा. उसके 637 एथलीटों ने ओलंपिक की विभिन्न स्पर्धाओं में भाग लिया. जबकि दूसरे स्थान पर रहे चीन ने तुलनात्मक रूप से छोटा दल भेजा था. चीन के केवल 388 एथलीटों ने पेरिस में हिस्सा लिया. जबकि मेजबान फ्रांस के दल में 596 और ऑस्ट्रेलिया के दल में 477 एथलीट थे.
पदक प्रतिष्ठा और सम्मान का प्रतीक
ओलंपिक में भाग लेने वाले देशों के लिए पदकों की संख्या ही प्रतिष्ठा और सम्मान का प्रतीक है. कुछ देश गोल्ड मेडल देखकर आकलन करते हैं कि कौन शीर्ष पर रहा. कुछ लोग जीते गए पदकों की कुल संख्या को श्रेष्ठता का आधार बनाते हैं. लेकिन कई बार इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप इसे किस नजरिये से देखते हैं. क्योंकि अमेरिका अक्सर दोनों श्रेणियों में टॉप पर रहता है. ओलंपिक इतिहास में पहली बार, खेलों के अंत में गोल्ड मेडल की गिनती बराबर रही. अमेरिका और चीन दोनों ने पेरिस खेलों को 40 गोल्ड मेडल के साथ समाप्त किया. यह बात दोनों देशों के प्रभुत्व का संकेत है. इन दोनों के बीच ही खेल जगत में टॉप पर रहने के लिए टक्कर होती है.
खेल से प्यार करते हैं अमेरिकी
यह कोई रहस्य नहीं है कि अमेरिकी अपने खेल से प्यार करते हैं. 2022 तक, अमेरिका में खेल बाजार का मूल्य लगभग 80.5 बिलियन डॉलर है. यह यूरोप, मध्य पूर्व और अफ्रीका की सभी प्रमुख लीगों की तुलना में 50% अधिक है. वहां खेल आयोजनों का मीडिया कवरेज व्यापक और निरंतर होता है, जिसमें महान खिलाड़ियों को रातों-रात ऑल-स्टार बनाने की क्षमता होती है. यह बताने की जरूरत नहीं है कि अमेरिकी कॉलेज प्रणाली अमेरिकी खेल संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गई है.
कॉलेज कोचिंग का गहरा असर
1980 के दशक में ग्रेट ब्रिटेन के दो बार के ओलंपिक चैंपियन और इंटरनेशनल एथलेटिक्स फेडरेशन के प्रमुख सेबेस्टियन को ओलंपिक ट्रैक प्रतियोगिता के दौरान अमेरिकी टीम की शक्ति, गहराई और स्पीड से चकित रह गए. लेकिन यह सब कैसे संभव हुआ. पेरिस की पदक तालिका देश की अच्छी कॉलेज कोचिंग प्रणाली का एक सशक्त उदाहरण है. सेबेस्टियन को ने कहा, “ अमेरिका में मिलने वाली कोचिंग का स्तर बहुत ऊंचा है. उनकी ट्रैक एंड फील्ड टीम पर कॉलेज कोचिंग प्रणाली का बहुत प्रभाव है.” यह बात उस शख्स ने कही है जो इस खेल को किसी भी अन्य व्यक्ति के मुकाबले अच्छी तरह से जानता है.
चलते हैं ओलंपिक खेल कार्यक्रम
अमेरिकी ओलंपिक अधिकारी जानते हैं कि कॉलेज कोचिंग प्रणाली उनके लिए सोने का अंडा देने वालाी मुर्गी है. इसके जरिये वे हर साल हजारों छात्रों को प्रशिक्षित करते हैं और इससे विजेता खिलाड़ी निकलते हैं. लेकिन यह व्यवस्था तभी तक कारगर है, जब तक बजट को लेकर सचेत प्रशासक इसके पक्ष में हैं. अगर वे एथलीट्स, पहलवानों और जिम्नास्टों को संपत्ति की बजाय संसाधनों की बर्बादी मानने लग जाएं तो क्या होगा? अमेरिका ने भले ही पेरिस में ओवरऑल मेडल टैली में अपना दबदबा बनाए रखा, लेकिन उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि गोल्ड मेडल जीतने के मामले में चीन उसकी गर्दन पर दबाव डाल रहा है. थोड़ी सी ढील उसकी बढ़त को पीछे धकेल सकती है. अमेरिकी ओलंपिक और पैरालंपिक समिति के मुख्य कार्यकारी रॉकी हैरिस ने कहा, “पिछले कुछ वर्षों में हमने देखा है कि प्रशासन ओलंपिक खेल कार्यक्रमों में बड़े पैमाने पर कटौती करने का इच्छुक नहीं हैं, लेकिन भविष्य में ऐसा हो सकता है.”
दूसरे देशों के चैंपियन भी होते हैं अमेरिका में तैयार
अमेरिका में खिलाड़ियों के प्रशिक्षण का एक पहलू यह भी है कि वहां पर अन्य देशों के शीर्ष खिलाड़ी भी आते हैं. इसका ताजा उदाहरण फ्रांस के 22 वर्षीय तैराक लियोन मारचंद हैं. पेरिस ओलंपिक में चार गोल्ड और एक ब्रॉन्ज मेडल जीतने वाले लियोन ने अपने पिछले तीन साल एक अमेरिकी कॉलेज में प्रशिक्षण में बिताए हैं. उनके अलावा सेंट लूसिया की जूलियन अल्फ्रेड 100 मीटर दौड़ जीतकर दुनिया की सबसे तेज महिला एथलीट बन गईं. उन्होंने टेक्सास विश्वविद्यालय में पढ़ाई की है. स्कॉटलैंड के जोश केर ने 1,500 मीटर में रजत पदक जीता. जोश केर न्यू मेक्सिको विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान उसके लिए भी दौड़ चुके हैं. यानी पेरिस में ऐसे खिलाड़ी भी थे जिन्होंने बारीकियां तो अमेरिका में सीखीं, लेकिन उनकी जीत का जश्न किसी और देश में मनाया गया.
खेलों में चीन के ‘सुपरपावर’ बनने की कहानी
इन दिनों चीन के हांगचो शहर में एशियन गेम्स चल रहे हैं, और सभी एशियाई देश मेडल जीतने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। 23 सितंबर को शुरू हुए ये एशियन गेम्स 8 अक्तूबर तक चलेंगे। दरअसल, ये गेम्स 2022 में ही होने थे, लेकिन कोविड-19 महामारी के कारण इसे टाल दिया गया था।
आपको बता दें कि हांगचो चीन का तीसरा शहर है, जहाँ एशियन गेम्स आयोजित किए जा रहे हैं। इससे पहले चीन की राजधानी बीजिंग में 1990 में और क्वांगचो में 2010 में एशियन गेम्स हुए थे।
वहीं, भारत की बात की जाए तो साल 1951 से शुरू हुए एशियन गेम्स में भारत की अहम भूमिका रही है। पहला एशियन गेम्स नई दिल्ली में ही आयोजित हुए थे, और भारत हर एशियन गेम्स में हिस्सा ले चुका है।
उधर, चीन ने पहली बार साल 1974 में एशियन गेम्स में भाग लिया और साल 1982 के बाद से हर एशियन गेम्स में गोल्ड मेडल की संख्या में सबसे आगे रहा। इस बार भी हांगचो एशियन गेम्स में में चीन पदक तालिका में टॉप पर बना हुआ है। चीन पहले दिन से ही गोल्ड मेडल जीतने के साथ ही नंबर वन स्थान पर काबिज है। चाहे ओलंपिक खेल हो या फिर एशियन गेम्स, उसका प्रदर्शन हमेशा सुपर पावर की तरह ही रहा है।
यह सच है कि चीन ने खेलों में ऐसा दबदबा कायम कर लिया है कि वह खेलों की दुनिया में ‘सुपरपावर’ बन गया है। लेकिन इसका कारण क्या है? दरअसल, चीन के लिए खेलों का महत्व किसी युद्ध से कम नहीं है। उसकी सफलता के पीछे एक खास मिशन है, जिसमें वह लगातार आगे बढ़ता गया और अपनी पदक तालिका मजबूत बनाता गया।
साल 1980 के ओलंपिक खेलों के बाद से चीन की खेल प्रणाली काफी हद तक मजबूत हुई, और ओलंपिक और एशियन गेम्स में बहुत अधिक गोल्ड मेडल हासिल करने के बारे में चीन सरकार ने सोचना शुरू किया, और बहुत जल्दी सफलता हासिल करने के लिए युद्धस्तर पर तैयारी की। चीनी खिलाड़ियों की ट्रेनिंग वैज्ञानिक और मेडिकल साइंस के आधार पर ज्यादा जोर देकर करवाई जाती है, जिससे वो मेडल जीतने में कामयाब होते हैं।
इतना ही नहीं, चीन खेल अकादमियों, टैलेंट स्काउट्स, मनोवैज्ञानिकों, विदेशी कोचों, और नई टेक्नोलॉजी और साइंस पर लाखों डॉलर खर्च करता है। चीन उन खेलों पर ख़ास जोर देता है जिनमें बहुत अधिक इवेंट्स होते हैं और बहुत सारे मेडल जीतने की संभावना होती हैं, जैसे शूटिंग, जिमनास्टिक, तैराकी, नौकायन, ट्रैक एंड फील्ड आदि।
इसके लिए, चीन के स्कूलों में बच्चे 6 साल की उम्र से ही जिमनास्टिक्स, खेलकूद आदि की ट्रेनिंग लेना शुरू कर देते हैं। ज्यादातर चीनी माता-पिता अपने बच्चों को स्पोर्ट्स स्कूल में भेजते हैं, जहां उन्हें सख्त ट्रेनिंग दी जाती है और अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता के लिए तैयार किया जाता। एक बात यह भी है कि चीनी माता-पिता को अपने बच्चों के लिए खेल एक सुनहरा करियर ऑपशन लगता है।
चीन के 96 प्रतिशत राष्ट्रीय चैंपियन सहित लगभग 3 लाख एथलीटों को चीन के 150 विशेष स्पोर्ट्स कैंप में ट्रेनिंग दी जाती है, जैसे वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ फिजिकल एजुकेशन, चच्यांग फिजिकल एजुकेशन एंड स्पोर्ट्स स्कूल और अन्य हज़ारों छोटे-बड़े ट्रेनिंग केंद्र। दक्षिण चीन के युन्नान प्रांत की राजधानी खुनमिंग में हाईकंग स्पोर्ट्स ट्रेनिंग सेंटर चीन का सबसे बड़ा खेल ट्रेनिंग सेंटर है। इसमें बास्केटबॉल, वॉलीबॉल, जूडो, तलवारबाजी, मार्शल आर्ट और अन्य खेलों की सुविधाएं हैं, जो सभी इंटरनेशनल स्टैंडर्ड के अनुरूप हैं।
इन सबके बीच, चीन में 3,000 से अधिक स्पोर्ट्स स्कूल हैं जो प्रतिभा की पहचान करने और उसका पोषण करने के लिए जिम्मेदार हैं। ये स्कूल खेलों में क्षमता दिखाने वाले छात्रों को विशेष ट्रेनिंग देते हैं।
इन स्पोर्ट्स स्कूल में कम उम्र के बच्चे बेहद कड़ी ट्रेनिंग से गुजरते हैं। इस तकलीफ को सहकर ही वे चैंपियन बनने की कला सीखते हैं। तभी तो ओलिंपिक हो या एशियन गेम्स, हर इवेंट्स में ‘गोल्ड’ जीतने के लिए चीनी खिलाड़ी ऐड़ी-चोटी का जोर लगाते हैं। भले ही चीनी एथलेटिक्स अन्य देशों से आगे हों, लेकिन इस मुकाम को हासिल करने के लिए उन्हें कड़ी मेहनत और ट्रेनिंग से गुजरना पड़ता है। इसी कारण लगभग हर खेलों में चीनी खिलाड़ियों की धूम रहती है।
यकीनन, अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में चीनी एथलीटों की सफलता का श्रेय देश की खेल प्रणाली, सरकारी नीतियों, सांस्कृतिक फैक्टर्स, सॉफ्ट पावर, निजी निवेश, ट्रेनिंग और कोचिंग सहित फैक्टर्स के मिले-जुले स्वरूप को जा सकता है। इन फैक्टर्स ने प्रतिभाशाली एथलीटों का एक समूह तैयार करने में मदद की है जिन्होंने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सफलता हासिल की है।
(लेखक: अखिल पाराशर, बीजिंग में चाइना मीडिया ग्रुप में पत्रकार हैं)