मत:पश्चिम भारत से परेशान क्यों हैं? कारण है ग्लोबल साऊथ का नेतृत्व
India Canada Row Over Hardeep Nijjar Murder Know Why India Unsettles West
मत: चीन को काउंटर करने तक तो ठीक लेकिन…मोदी के भारत ने पश्चिम को क्यों किया बेचैन
India-Canada tension news: पश्चिम भारत के उदय में मदद करने के लिए खुश था, जब तक कि उसे चीन को काउंटर करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता था। लेकिन नरेंद्र मोदी की ग्लोबल साउथ का नेतृत्व करने की कवायद ने पश्चिमी अभिजात्य वर्ग को डरा दिया है।
मुख्य बिंदु
पश्चिमी देशों को बाकी दुनिया से अपनी शर्तों पर निपटने की आदत
कनाडा के साथ विवाद में पश्चिम को भारत से इस तरह की प्रतिक्रिया की नहीं थी उम्मीद
ग्लोबल साउथ के देशों का नेतृत्व करने की भारत की कवायद से पश्चिमी देश बेचैन
PM Modi with world leaders
मिन्हाज मर्चेंट
भारत-कनाडा विवाद ने एक महत्वपूर्ण विषय पर रुख साफ किया है: भारत के भू-राजनीतिक उदय में अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिम का कितना हित है? यह एक जटिल रिश्ता है। आजादी के बाद दशकों तक, अमेरिका ने भारत के ऊपर पाकिस्तान को वरीयता दी। समर्थन दिया। 1971 के बांग्लादेश युद्ध में, उसने भारत को डराने के लिए अपने शक्तिशाली सातवें बेड़े तक को बंगाल की खाड़ी में भेजा था।
1998 में, अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने पोखरण-2 परमाणु परीक्षण के बाद भारत पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाए। उसी बीच, पाकिस्तान ने उत्तर कोरिया और चीन से परमाणु तकनीक चोरी की लेकिन अमेरिका ने आंखें मूंद लीं।
भारत-अमेरिका रिश्तों में बदलाव तब आया जब सितंबर 2001 का आतंकवादी हमला हुआ। पाकिस्तान स्थित आतंकवादी समूहों की भागीदारी ने अमेरिका की आंखें खोल दीं। दशकों तक भारत के शांतिपूर्ण परमाणु कार्यक्रम के खिलाफ भेदभाव करने के बाद, अमेरिका ने आखिरकार 2005 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार के साथ एक नागरिक परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर किए।
अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दोनों देशों के बीच शानदार संबंध स्थापित किए।
2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत-अमेरिका संबंधों को आगे बढ़ाने में मदद मिली। मोदी उन कुछ वैश्विक नेताओं में से एक हैं जिन्हें अमेरिकी कांग्रेस के संयुक्त सत्र को संबोधित करने के लिए दो बार आमंत्रित किया गया है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने भारत-अमेरिका साझेदारी को दुनिया में सबसे महत्वपूर्ण रणनीतिक संबंधों में से एक बताया है।
लेकिन अंदरखाने तनाव बढ़ रहा था। सितंबर में नई दिल्ली में G20 समिट के दौरान, जुटे नेताओं ने नई दिल्ली डेक्लरेशन पर आम सहमति तैयार करने में भारत की भूमिका की तारीफ की, जो यूक्रेन पर मतभेदों के बावजूद, 2022 के बाली डेक्लरेशन से कहीं अधिक महत्वाकांक्षी थी।
इसके बावजूद, नई दिल्ली में मेलजोल के पीछे असंतोष की बुदबुदाहट भी थी। कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो को सार्वजनिक रूप से किनारे करना कनाडा के करीबी पार्टनर्स – अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के लिए कष्टकारी था।
प्रमाण कहां है?
ये पांच देश फाइव आइज़ इंटेलिजेंस-शेयरिंग नेटवर्क का हिस्सा हैं। उनके खुफिया इनपुट सिर्फ आपस तक सीमित होते हैं, एकदम सीक्रेट। उन्हें फाइव आइज़ पार्टनर्स के बीच तो रियल टाइम में पूरा का पूरा शेयर किया जाता है, लेकिन भारत समेत दूसरे सहयोगी देशों को केवल जरूरत के आधार पर दिया जाता है।
यह कोई संयोग नहीं है कि ट्रूडो ने खालिस्तानी आतंकवादी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में भारत के शामिल होने का आरोप लगाने को कनाडा के हाउस ऑफ कॉमन्स को चुना। ट्रूडो ने कोई सबूत नहीं दिया और हफ्तों बीतने के बाद अब भी कोई प्रमाण नहीं दिया है। हालांकि उन्होंने भारत की कड़ी प्रतिक्रिया और कड़े प्रतिकार के बाद आरोपों पर नरम रुख अपनाया है। ट्रूडो सबूत के नाम पर फाइव आइज़ से ‘सिग्नल और ह्यूमन इंटेलिजेंस’ के इनपुट का हवाला देते रहे हैं।
अमेरिका ने आखिर शुरुआत में भारत के साथ सबूत साझा किए बिना लगाए गए ट्रूडो के आरोपों का समर्थन क्यों किया? अगर स्थिति उलट होती और भारतीय प्रधानमंत्री ने लोकसभा में किसी पश्चिमी देश के खिलाफ इसी तरह का सार्वजनिक आरोप लगाया होता तो क्या अमेरिका और अन्य फाइव आइज़ देश इसे चुपचाप लेते?
बिल्कुल नहीं। लेकिन पश्चिम को पूरी उम्मीद थी कि भारत ट्रूडो के निराधार आरोपों को अपने ‘एजेंटों’ के खिलाफ एक पक्के आरोप के तौर पर स्वीकार करेगा जो कथित तौर पर फाइव आइज़ के एक महत्वपूर्ण सदस्य देश धरती पर एक्स्ट्राजुडिशल हिंसा भड़का रहे हैं।
लेकिन खेल उल्टा पड़ गया। भारत ने निर्णायक प्रतिक्रिया व्यक्त की। उसने एक वरिष्ठ कनाडाई राजनयिक निष्कासित कर दिया। उसने कनाडाई नागरिकों को वीजा बंद कर दिया। उसने एक कनाडाई व्यापार प्रतिनिधिमंडल की यात्रा रद्द कर दी और भारतीयों को कनाडा का दौरा करते समय सावधानी बरतने को ट्रैवल अडवाइजरी जारी कर दी। भारत में कनाडा के राजनयिकों की ‘जरूरत से ज्यादा’ संख्या को संतुलित करने को तमाम राजनयिकों को देश छोड़ने की डेडलाइन तय कर दी।
पिछले हफ्ते न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) में विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने पश्चिम के दोहरे मापदंडों पर खुलकर और करारा हमला बोला। फाइव आइज़ चुपचाप देखता रहा। अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने जयशंकर से औपचारिक बैठक की।
जब से भारत ने रूस-यूक्रेन युद्ध पर तटस्थ रुख अपनाया है, अमेरिका और यूरोप भीतर ही भीतर नई दिल्ली से नाराज हैं।
G20 की सफल अध्यक्षता को पश्चिम ने भारत की सार्वजनिक प्रशंसा की, लेकिन G7 के नेताओं के बीच अंदरखाने नई दिल्ली की आलोचना भी हुई। ये देश भारत से इसलिए चिढ़े हुए हैं कि उसने जी-20 के मंच का इस्तेमाल अपने भू-राजनीतिक उदय दिखाने को भी किया।
यही असली मुद्दा है। पश्चिम को आदत लग गई है दुनिया के बाकी हिस्सों से अपनी शर्तों पर निपटने की। चीन का उदय, जिसे अमेरिका और यूरोप ने 1980 से 2010 के दशक तक तकनीक और व्यापार के साथ आंख बंद करके संरक्षण दिया, पश्चिम के लिए एक सदमे के रूप में आया।
भारत का उदय स्वीकार्य था क्योंकि पश्चिम के लिए यह एक तीर से दो निशाने वाली बात थी। पहली, यह क्षेत्रीय रूप से चीन का मुकाबला करता था; और दूसरी, यह भारत को पश्चिम के भू-राजनीतिक प्रभाव क्षेत्र में मजबूती से लेकर आया।
लेकिन पश्चिम के लिए बड़ी बाधा है- मोदी की ग्लोबल साउथ के देशों के एक स्वतंत्र समूह का नेतृत्व करने की कवायद।
पश्चिम के लिए, इसने दीर्घकालिक सिरदर्द का संकेत दे दिया है। उसने शीत युद्ध के दौरान सोवियत संघ को हराने में 40 साल बिताए थे। वह रूस को और नीचे गिराने को यूक्रेन को हथियार दे रहा है। हालांकि ये रणनीति अब उलटी पड़ती दिख रही है। इसने एक ताकतवर चीन-रूस धुरी के गठन को ट्रिगर करके पश्चिमी वर्चस्व के लिए एक नया खतरा पैदा किया है जो दूसरे शीत युद्ध की ओर ले जा सकता है।
भारत के ग्लोबल साउथ की तीसरी धुरी बनने के कवायद साथ, पश्चिम ने फैसला किया है कि भारत को एक रिएलिटी चेक दिया जाना चाहिए। पहले कभी भी यूरोपीय देशों के किसी पूर्व उपनिवेश का भारत की तरह भू-राजनीतिक उदय नहीं हुआ है। यह 2025 में जर्मनी को पछाड़कर दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के लिए तैयार है। यह 300 वर्षों में पहली बार होगा जब दुनिया की चार सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में यूरोप का कोई देश नहीं होगा। चीन, जापान और भारत ब्रिटिश साम्राज्य, फ्रांसीसी साम्राज्य और जर्मनी के पुराने क्रम की जगह लेंगे।
बाइ़डन-मोदी संबंध सौहार्दपूर्ण है लेकिन रिश्तों में एक तरह की ठंडक भी आ गई है। पश्चिम के तत्वों का मानना है कि भारत बहुत बड़ा हो चुका है, बहुत तेजी से आगे बढ़ा है। पश्चिमी देश कभी नहीं चाहेंगे कि एशिया के दो ताकतवर दिग्गज चीन और भारत, पश्चिम के सदियों पुराने वर्चस्व वाले युग का द एंड करें।
(टाइम्स ऑफ इंडिया.कॉम में प्रकाशित वरिष्ठ पत्रकार और लेखक मिन्हाज मर्चेंट के लेख का हिंदी अनुवाद)