मुस्लिम आखिर क्यों छोड़ रहे हैं इस्लाम?

#मुस्लिम_क्यों_छोड़_रहे_इस्लाम?

भारत में #शिया_वक्फ_बोर्ड_के_पूर्व_अध्यक्ष_वसीम_रिजवी ने इस्लाम त्याग दिया। न तो यह इस तरह का इकलौता मामला है और न ही इस तरह की घटनाएं अब इक्का-दुक्का हैं। दुनिया भर में मुस्लिमों के एक बड़े हिस्से का इस्लाम से मोहभंग हो रहा है। वाशिंगटन स्थित प्रतिष्ठित प्यू रिसर्च सेंटर के एक सर्वेक्षण के अनुसार 6 प्रतिशत भारतीय मुसलमानों को अल्लाह पर भरोसा नहीं है। आखिर क्या है इस्लाम से ईमानवालों के इस मोहभंग का कारण?

एक पड़ताल

फिलस्तीन में जन्मे हसन मोसाब यूसुफ ने अपने जीवन का एक लम्बा समय कुख्यात इस्लामिक आतंकवादी संगठन ‘हमास’ के लिए काम करते हुए बिताया है। उसने अपनी आत्म-कथा लिखी है – ‘सन आफ हमास’। इसमें उसने बताया है कि उसके पिता ‘हमास’ के संस्थापक सदस्य थे, इसलिए इस्लाम के लिए जिहाद करना उसे विरासत में मिला था। अपने प्रारंभिक जीवन में उसे इस बात पर गर्व भी था। किंतु धीरे-धीरे कुरान से और उसमें जिसकी इबादत’ की जाती है, उस अल्लाह से, हसन मोसाब यूसुफ का विश्वास उठने लगा। परिणामत: उसने इस्लाम को त्याग दिया। उसके इस्लाम छोड़ने से इस्लाम के दुकानदारों में एक खलबली मची है। आज वह कहता है कि कुरान में जिस अल्लाह नामक गॉड का वर्णन है वह विश्व का सबसे बड़ा आतंकवादी है, इसके बाद हसन को मारने के लिए फतवे दिए जा रहे हैं।

चिंता मत करो अगर आप अपने अतीत में बाल विवाह, दासता, यौन दासता, पत्नी की पिटाई, पत्थर मारने, लोगों के हाथ, पैर और सिर काटने में यकीन रखते थे जब आप इस्लाम छोड़ते हैं तो उन बुरी मान्यताओं को छोड़ देते हैं

मोसाब के आस्था परिवर्तन से परिचित लखनऊ के एक युवा समीर( नाम परिवर्तित) कहते हैं,

‘‘भारत में यही स्थिति सैयद वसीम रिजवी की है। जबसे उन्होंने इस्लाम और कुरान पर प्रश्न उठाने आरम्भ किए, वे मौलानाओं और मुफ्तियों की घृणा के पात्र बन गए हैं। उन्हें प्रतिदिन जान से मार दिए जाने की धमकियां दी जा रही हैं। उन्हें ‘रसूल का गुस्ताख’ और ‘वाजिब-उल-कत्ल’ कहा जा रहा है। उल्लेखनीय है कि इस्लाम या मुहम्मदवाद की स्थापना करने वाले मुहम्मद को उनके अनुयायी रसूल या पैगम्बर यानी अल्लाह का दूत कहते हैं और मध्य-युग के इस्लामी कानून शरिया के अनुसार, रसूल की ‘तौहीन’ करने वाले की सजा मौत बताते हैं।

वसीम रिजवी का इस्लाम त्यागना एक बड़ी घटना है। हालांकि दुनिया में इस्लाम त्यागने की घटना पहले से होती रही है। नवंबर, 2015 में ट्विटर पर एक हैशटैग ट्रेंड हुआ था- #एक्समुस्लिमबिकॉज। इसमें यूरोप के अनेक मुसलमानों ने अपने सीने पर एक तख्ती लगाकर अपनी तस्वीर ट्वीट की थी कि उन्होंने इस्लाम क्यों छोड़ा। यूरोप से चली यह हवा अब आंधी का रूप ले चुकी है और इसने भारत में भी दस्तक दे दी है। इस्लाम छोड़ने वाले यद्यपि भयवश खुले में नहीं आते। पिछले वर्ष तक इस्लाम त्यागने वाले दो-तीन यू-ट्यूबर ही भारत के थे। अब इनकी संख्या काफी बढ़ गई है। वे कुरान और हदीस के जानकार हैं। कई तो अरबी के भी अच्छे जानकार हैं और अपने वीडियो से भारतीय मुसलमानों को सच से रू-ब-रू करा रहे हैं।

इस्लाम के अध्ययन में तार्किक रुचि रखने वाली चांदनी (नाम परिवर्तित) कहती हैं, ‘‘दो बातें ध्यान देने योग्य हैं : इस एक ही कानून (शरिया) से ‘इस्लाम शांति का मजहब है’ कहने वाले तर्कहीन हो जाते हैं और मुहम्मद के जीवन का सच बताना ही ‘तौहीन’ कह दिया जाता है।’’

जाहिर है, शिक्षा और तकनीक के माध्यम से विचारों को साझा करने वाले इस बेमिसाल दौर में मौलानाओं और मुफ्तियों को डर केवल हसन मोसाब यूसुफ या सैयद वसीम रिजवी से नहीं है। उन्हें डर है उन लाखों व्यक्तियों से, जिनका जन्म तो किसी मुसलमान परिवार में हुआ था लेकिन अब वे स्वयं को मुसलमान नहीं कहते। इस्लाम छोड़ने वालों को इस्लाम में मुलहिद या मुरतद (काफिर) कहा जाता है। सोशल मीडिया के इस दौर में इन मुलहिदों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। ये वे लोग हैं जो मौलानाओं की मजहबी तकरीरों की अपेक्षा तथ्यों का आकलन करते हैं, सवाल उठाते हैं।

प्रश्न यह उठता है कि ऐसा क्या है जो इन पढ़े-लिखे और अपनी व्यक्तिगत सोच रखने वालों को मोहम्मदवाद से विमुख कर देता है?

अब तक जिन लोगों ने इस्लाम छोड़ा है, उनमें से ज्यादातर की प्रतिक्रियाओं में उभरने वाली साझी बात यह है कि सबसे पहले तो उन्हें पैगम्बरवाद की मूल अवधारणा ही तर्कहीन प्रतीत होती है।

पाकिस्तान में जन्मे आज के कई यूट्यूबर रोज अपने पूर्व मुस्लिम (Ex Muslim) होने की घोषणा गर्व के साथ करते हैं और विदेश में अज्ञात स्थानों से प्रसारण करते हुए उलेमाओं और मुफ्तियों के सामने प्रतिदिन कुछ प्रश्न बार-बार उठा रहे हैं। इस प्रकार के वीडियो की सूची बेहद लंबी है और उन्हें देखने वालों की संख्या हर रोज अंतहीन कतार की तरह बढ़ती ही जा रही है।

इन यूट्यूब वीडियो में रोजाना उठने वाले कुछ सामान्य प्रश्न मुस्लिम युवाओं को उद्वेलित भी करते हैं और नए तार्किक विमर्श के लिए तैयार भी।

उदाहरण के लिए :

इस्लाम के अनुसार, मुहम्मद साहब स्वयं अनपढ़ थे। अल्लाह ने जब उन्हें पैगम्बर चुना तो सीधे संवाद नहीं किया। एक जिब्रील नामक ‘फरिश्ता’ भेजा। जिब्रील ने जब लिखा हुआ ‘पैगाम’ मुहम्मद साहब को देकर उसे पढ़ने के लिए कहा तो मुहम्मद साहब ने उससे कहा कि वे तो पढ़ना जानते ही नहीं हैं।
एक रूढ़िवादी मुस्लिम परिवार से आने वाली मास कम्युनिकेशन की छात्रा, सायमा (नाम परिवर्तित), स्वयं को ‘खुले विचारों’ वाली कहने में गर्व अनुभव करती हैं।

#क्या_कहते_हैं_इस्लाम_छोड़ने_वाले?
#एपोस्टेट_इमाम

फिलहाल लंदन में रह रहे एपोस्टेट इमाम कुरान, हदीस के अच्छे जानकार हैं। वह जाकिर नाइक के इस्लामिक रिसर्च फाउंडेशन में काम कर चुके हैं। अब वह पूर्व मुस्लिम हैं। उन्हें इस्लाम की जो बातें आपत्तिजनक लगीं, उसका उल्लेख उन्होंने निम्नवत किया..

#मुर्तद_की_सजा_मौत

पशु दुर्व्यवहार जैसे सभी कुत्तों विशेषकर काले कुत्तों को मारना, छिपकली और गिरगिट को मारना, जानवरों को दर्दनाक तरीके से हलाल करके मारना।

सच्चे मुसलमान हमेशा अल्लाह के रास्ते में किताल (हत्या) करेंगे। कयामत से पहले ईसा ने सभी काफिरों को आकर मारना है, महदी ने पूरी दुनिया को जीत लेना है, गजवा ए हिंद करने के लिए महदी की सेना खुरासान से काले झंडे के साथ आएगी आदि-आदि।

महिलाओं को कोई अधिकार नहीं है जैसे आधा हिस्सा विरासत में, पुरुष मेहरम (पति, पिता, भाई) के बिना अपने घरों से बाहर नहीं जा सकती हैं, उनकी गवाही पुरुष की तुलना में आधी है, पुरुष अपनी पत्नियों को मार सकते हैं और इस्लामी कानून में इसके लिए कोई सजा नहीं है, यदि एक लड़की के साथ बलात्कार किया जाता है तो उसे 4 पुरुष गवाहों को लाना पड़ता है वरना उसे पत्थर मारने या कोड़े मारने की सजा दी जाएगी, महिलाओं को तलाक देने का अधिकार नहीं आदि ।
कुरान और हदीस दोनों में मुहम्मद के यौन जीवन के अलावा कुछ भी ठीक से समझाया नहीं गया है।

उनके अनुसार, ‘‘यदि इस सृष्टि का कोई सृजन करने वाला है और वो अपने बनाए हुए लोगों को संदेश (पैगाम) देना चाहता है तो उसे इतना अटपटा ढंग चुनने की क्या आवश्यकता है?’’

जाहिर है, कही-सुनी या लिखी बातों को भी अपने नजरिए से परखने वाली नई पीढ़ी मुस्लिम समाज में प्रगतिशील तरीके से बात, बहस- मुबाहिसे की जगह तैयार कर रही है और ये बातें तर्क की बात करने वाली इस पीढ़ी के नौजवानों के गले नहीं उतरतीं।

यूट्यूब पर लोकप्रिय इस्लामी विमर्शों में छद्म नाम से भाग ले चुके एक पूर्व मुस्लिम कहते हैं, ‘‘कई बार मजहबी आस्थाएं तर्क से परे होती हैं। इसलिए केवल इतना ही होता तो भी चल जाता क्योंकि कोई किस बात पर विश्वास करना चाहता है, यह उसका निजी निर्णय हो सकता है। किंतु, इस्लाम में, इन विश्वासों के आधार पर दूसरों के अधिकारों का हनन होता है। यह लोगों के इस्लाम से विमुख होने का एक बहुत बड़ा कारण है।’’
इस बयान में सचाई झलकती है। क्योंकि सामाजिक विमर्श से जुड़े न्याय और समानता जैसे कई बिंदु हैं जिनपर नए जमाने के मुस्लिम/पूर्व मुस्लिम यूट्यूब योद्धा रूढ़िवादी मौलानाओं को रोज ‘लाइव स्ट्रीम’ में घेर रहे हैं।

क्या कहते हैं इस्लाम छोड़ने वाले

परवीन पूजा उपाध्याय :-

मुझे कभी इस धर्म में आध्यात्मिकता नजर नहीं आई , बस एक व्यापार सी पूरी आइडियोलॉजी है , महिलाओं को कोई इज्जत नहीं दी जाती, यह आसमानी किताब सिर्फ़ मर्दों की खुशी के लिए लिखी है, कट्टरपंथ से भरा है इस्लाम , इसको त्याग कर सब से ज्यादा शांति मिली।

अमन हिंदुस्तानी :-

मेरे इस्लाम छोड़ने की वजह ये है कि जब मैंने कुरान को पढ़ा तो उसमे बहुत-सी मानवता विरोधी आयतें पाईं। और, सबसे बड़ी विडम्बना ये है कि इस्लाम में सुधार की कोई सम्भावना नहीं है और इसमें अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है और ऐसी बहुत सी बुराइयां हैं जिसकी वजह से मैंने इस्लाम छोड़ा।

अलमोसो फी :-इस्लामिक विचारों का विरोधाभास तथा आध्यात्मिक दिवालियापन मेरे इस्लाम छोड़ने का कारण बना।

इस्लाम एक सर्वसत्तात्मक विचार है जो आस्था के नाम पर केवल मानव के प्रश्न पूछने की प्राकृतिक सामर्थ्य को ही नहीं कुचलता बल्कि शारीरिक शोषण भी करता है। मानव से मानव का भेद कर अपना और पराया होने की भावनाओं को हवा देता है। परिजनों के बीच घृणा को जन्म देता है। धर्म और शिक्षण की आड़ में इस्लाम व्यक्ति को यथाक्रम अनुशासित कर आत्म-नियंत्रण छीन लेता है तथा क्रमश: सम्पूर्ण रूप से नियंत्रित करने लगता है।
नायाब रसूल से श्रीहरि :-सनातन धर्म एक समुद्र के जैसा गहरा है। इसके अध्यात्म में डूब कर इस्लाम मुझसे स्वत: ही छूट गया। मुझे उसे छोड़ने के लिए प्रयत्न नहीं करना पड़ा। सनातन धर्म की विशालता ऐसी है कि मैं अपना मजहब, नाम, जाति, मित्र, रिश्तेदार तक भूल चुका हूं। जो सनातन में प्रवेश करता है, वह स्वयं को परमात्मा के रूप में पहचान लेता है। जय नरसिम्हा

उदाहरण के लिए : सभी गैर-मुसलमान घृणा के पात्र हैं

सबसे पहली बात जो इस्लाम छोड़ने वालों को खटकती है, वह है मजहब के आधार पर घृणा। वे प्रश्न करते हैं कि गैर- मुस्लिम मानवों से इतनी घृणा क्यों है? उन्हें काफिर जैसे घृणास्पद संबोधन से क्यों संबोधित किया जाता है? कुरान में काफिर की सबसे स्पष्ट परिभाषा इसके अध्याय 98 में मिल जाती है। इसके अनुसार, अहल-ए-किताब और मुशरिक, दोनों ही काफिर हैं और ये सभी मखलूक (जीवों) से बदतर (नीच) हैं।

यह रचयिता न केवल उन्हें सब मखलूक से बदतर कहता है बल्कि ‘अपने’ अनुयायियों को इन्हें मारने (8:12, 9:5, 47:4), लूटने (8:40, 8:41) और इनकी महिलाओं का अपहरण करने (4:24) के लिए उकसाता है।
और फिर यह भी कहा जाता है कि अल्लाह रहमान-उर-रहीम है अर्थात् क्षमाशील और दयावान है। यह घृणा और विरोधाभास, तर्कशील मुस्लिमों को इस्लाम से विमुख कर रहा है।

इस्लाम छोड़ दिया क्योंकि इस्लाम में महिलाएं कभी भी न तो नेतृत्व कर सकती हैं न इमाम बन सकती हैं

क्या आपने कभी सवाल उठाया कि इस्लाम में एक महिला की गवाही आधी क्यों है? मुझे बतौर मुस्लिम इस बात ने हमेशा परेशान किया

महिलाओं के प्रति भेदभाव

इस्लाम में महिलाओं की स्थिति के निचले दर्जे की होने पर भी विमुख मुस्लिमों को आपत्ति है। कुरान के अनुसार, ‘‘अल्लाह’’ ने मर्दों को औरतों पर फजीलत बख्शी है (4:34), इसलिए वह चाहे तो अपनी पत्नी को पीट सकता है।
केवल इतना ही नहीं, मर्द एक ही समय पर चार बीवियां रख सकता है। अर्थात् शादियों की संख्या की कोई सीमा नहीं है, एक समय पर बीवियों की संख्या की सीमा है। इतिहास में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं, जहां एक को तलाक दिया और अगले दिन दूसरी ले आए। इसके अतिरिक्त भी महिलाओं को कई जगह निचली स्थिति में रखे जाने की बात है जिसे इस्लाम छोड़ने वाले पसंद नहीं कर रहे।

क्या कहता है प्यू सर्वेक्षण

इस साल के पूर्वार्ध में जारी प्यू रिसर्च सेंटर के सर्वेक्षण के अनुसार, 6 प्रतिशत भारतीय मुसलमानों ने खुद को अल्लाह में विश्वास नहीं करने वाला बताया। मुस्लिम समाज में अपनी सर्वोच्च शक्ति को न मानने वालों की यह संख्या किसी भी अन्य धार्मिक-मजहबी समुदाय से अधिक है।

जामिया हमदर्द विश्वविद्यालय के इस्लामी अध्ययन विभाग में सहायक प्रोफेसर और देवबंद मदरसा के पूर्व छात्र वारिस मजहारी भी मीडिया से बातचीत में कहते हैं, ‘‘पूर्व मुसलमानों की संख्या बढ़ रही है। भारत में, वे उत्पीड़न के डर से खुले में नहीं आते और पाखंडी जीवन व्यतीत करते हैं। कुछ लोग पूर्व-मुस्लिम बन रहे हैं क्योंकि वे राजनीतिक इस्लाम के मजहबी नियमों से तंग आ चुके हैं।’’

लेखक – नीरज अत्रि
साभार – पांचजन्य

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