ट्विटर पर क्यों जोर पकड़ रहा ‘हलाल फ्री दिवाली, तीन खरब डालर का है ये बिजनेस
ट्विटर पर जोर पकड़ रहा ‘हलाल फ्री दिवाली’ ट्रेंड, 3 ट्रिलियन डॉलर्स से ज्यादा का बाजार, हर बात जानें
Halal Free Diwali Trend: सोशल मीडिया पर ‘हलाल’ सर्टिफाइड उत्पादों के बायकॉट की मुहिम चल रही है। अपील की जा रही है कि दिवाली के मौके पर कोई भी ‘हलाल’ उत्पाद न खरीदे जाएं। पूरी दुनिया में 1974 से पहले किसी उत्पाद के हलाल सर्टिफाइड होने का रिकॉर्ड नहीं मिलता।
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हलाल मार्केट की वैल्यू तीन ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा
हाइलाइट्स
1-पूरी दुनिया में फैला है हलाल सर्टिफिकेशन का कारोबार
2-3 ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा का है ग्लोबल हलाल मार्केट
3-खाने से लेकर दवा, टूरिज्म और घर भी हलाल सर्टिफाइड
4-गैर-मुस्लिम क्यों खरीदें हलाल सर्टिफाइड प्रोडक्ट्स?
नई दिल्ली 17 अक्टूबर: हलाल फ्री दिवाली… भारत में ट्विटर पर सुबह से यही ट्रेंड कर रहा है। हलाल उत्पादों के बायकॉट की मुहिम #Halal_Free_Diwali हैशटैग के साथ चली है। दावा है कि हलाल उत्पादों के जरिए गैर-मुस्लिमों से जबरन पैसा जुटाया जाता है और फिर उसे धर्म विशेष के प्रचार में इस्तेमाल किया जाता है। मशहूर फूड चैन्स और डिलिवरी ऐप्स भी इस ट्रेंड के निशाने पर हैं। उनसे पूछा जा रहा है कि वे ‘हिंदुओं पर हलाल खाना क्यों थोपते हैं?’ हलाल सर्टिफिकेट के खिलाफ भी ट्वीट्स हुए हैं। यह विवाद नया नहीं है। गाहे-बगाहे यह बात उठती है कि हिंदू हलाल मीट नहीं खाना चाहते। उन्हें ‘झटका’ चाहिए लेकिन वह इतनी आसानी से मिलता नहीं। कोई प्रोडक्ट हलाल सर्टिफाइड है या नहीं, उसे लेकर अलग बवाल होता रहा है। हाल के कुछ सालों में यह बात सामने आई है कि हलाल सर्टिफिकेशन का इंडस्ट्री खरबों रुपये की है।
क्या है हलाल?
हलाल एक तरह का वैल्यू सिस्टम और लाइफस्टाइल है जिसकी वकालत इस्लाम करता है। हलाल का मतलब है कि जिसकी इजाजत हो और जो वैध हो। हराम, हलाल का ठीक उलटा होता है मतलब इस्लाम में उन बातों की इजाजत नहीं है। इस्लाम में पांच ‘अहकाम’ हैं जिनमें फर्ज (अनिवार्य), मुस्तहब (अनुशंसित), मुबाह (तटस्थ), मकरूह (निंदात्मक) और हराम (निषिद्ध) शामिल हैं।
हलाल सर्टिफिकेशन का इतिहास क्या है?
क्या हलाल है और क्या नहीं, यह मुस्लिमों की व्यक्तिगत राय पर छोड़ दिया गया था। शायद आपको यह जानकर हैरानी हो कि 1974 से पहले किसी उत्पाद के हलाल सर्टिफाइड होने का दस्तावेज उपलब्ध नहीं है। 1974 में पहली बार मांस के लिए हलाल सर्टिफिकेशन शुरू किया गया। 1993 तक केवल मांस ही हलाल सर्टिफाइड होता था। डिब्बाबंद उत्पादों की लोकप्रियता के साथ हलाल सटिफिकेशंस के आंकड़े भी चढ़े। अब यह मल्टी-बिलियन डॉलर इंडस्ट्री में बदल चुका है। हर साल 1 नवंबर को विश्व हलाल दिवस मनाया जाता है। बकायदा यूनाइटेड वर्ल्ड हलाल डिवेलपमेंट (UNWHD) नाम की संस्था है जो हलाल उत्पादों को लेकर जागरूकता फैलाती है।
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ट्विटर पर चल रही ‘हलाल फ्री दिवाली’ की मुहिम
सिर्फ खाना ही नहीं, दवा से लेकर लिपस्टिक तक भी हलाल
ग्लोबल हलाल सर्टिफिकेशना मार्केट केवल मांस या अन्य खाद्य पदार्थों तक सीमित नहीं है। अब फार्मास्यूटिकल्स, कॉस्मेटिक्स, हेल्थ यहां तक कि टॉयलेट प्रोडक्ट्स भी हलाल सर्टिफाइड होते हैं। आज की तारीख में हलाल फ्रेंडली टूरिज्म भी होता है और वेयरहाउस को भी हलाल सर्टिफिकेट मिलता है। रेस्तरां भी हलाल सर्टिफिकेट लेते हैं और ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट्स भी। लॉजिस्टिक्स, मीडिया, ब्रैंडिंग और मार्केटिंग में भी हलाल का दखल है। कोच्चि के एक बिल्डर ने तो पिछले दिनों हलाल-सर्टिफाइड अपार्टमेंट्स बेचने की पेशकश की थी।
सबको हलाल उत्पाद क्यों बेचती हैं कंपनियां?
हलाल मार्केट की वैल्यू 3 ट्रिलियन डॉलर्स (24,71,38,50,00,00,000 रुपये) से भी ज्यादा है। हर साल 15-20% की दर से इसका बाजार बढ़ रहा है। इनमें से खाद्य पदार्थों की हिस्सेदारी केवल 6-8% है। दुनिया की करीब 32% आबादी मुस्लिम है। वह एक बड़ा कंज्यूमर बेस हैं और मैनुफैक्चरर्स के लिए अहम। कोई भी इंडस्ट्री एक ही उत्पाद को दो तरह से नहीं बनाना चाहेगी कि एक हलाल सर्टिफाइड हो और दूसरा गैर-इस्लामिक देशों के लिए। इससे लागत भी बढ़ेगी और प्रॉडक्शन भी जटिल हो जाएगा। इसी वजह से हलाल सर्टिफिकेट लेकर एक ही उत्पाद सबको बेचना कंपनियो को आसान लगता है।
कौन देता है हलाल सर्टिफिकेट?
भारत में पांच या छह संस्थाएं हलाल सर्टिफिकेट जारी करती हैं। सबसे ज्यादा डिमांड जमीयत-उलमा-ए-महाराष्ट्र और जमीयत-उलमा-ए-हिंद हलाल ट्रस्ट की है। कंपनी की ओर से सबमिट की गई रिपोर्ट्स और दस्तावेज देखकर शरिया समितियां तय करती हैं कि हलाल सर्टिफिकेट देना है या नहीं। उत्पाद की साइंटिफिक या एनालिटिकल टेस्टिंग होती हो, ऐसा लगता नहीं। इस पूरी प्रक्रिया में सरकार की कोई भूमिका नहीं है।
हलाल मीट झटका से कैसे अलग, जानिए
हलाल के विरोधियों का तर्क है कि इसके जरिए अल्पसंख्यक उपभोक्ता दुनिया के बहुसंख्यकों पर अपनी इच्छाएं थोपते हैं। गैर-मुस्लिमों के लिए हलाल सर्टिफिकेट के कोई मायने नहीं हैं। हलाल सर्टिफिकेट्स का पैसा आखिर में कहां जाता है? यह भी अहम सवाल है। भारत में हलाल पर यही दो सवाल बार-बार पूछे जाते हैं:
गैर-मुस्लिमों को हलाल सर्टिफाइड उत्पाद खरीदने के लिए मजबूर क्यों किया जाता है?
हलाल सर्टिफिकेट जारी करने वाली एजेंसियां इतनी बड़ी रकम का इस्तेमाल कहां करती हैं?
इन सवालों पर बहस की जरूरत है। भारतीय सेना में 23 साल सेवा दे चुके सरोज चड्ढा ने टाइम्स ऑफ इंडिया पर अपने ब्लॉग में लिखा कि सरकार के दखल से न सिर्फ भारतीय मुस्लिम नाराज होंगे, बल्कि इस्लामिक दुनिया भी। इसे मुस्लिमों के मूल अधिकारों में कटौती की तरह भी पेश किया जा सकता है।बेहतर यही होगा कि कंज्यूमर को फैसला करने दिया जाए। अगर गैर-मुस्लिमों को लगता है कि हलाल सर्टिफिकेशन उनके साथ धोखा है या फिर इससे उनकी भावनाएं आहत होती हैं तो वे ऐसे उत्पाद न खरीदें। एक उदाहरण के रूप में झटका मीट को ले सकते हैं। देश के कई हिस्सों में झटका मांस, हलाल सर्टिफिकेट की कमी के चलते मिलना बंद नहीं हुआ। उसकी उपलब्धता घटी, हलाल मांस उत्पादों की तगड़ी मार्केटिंग हुई और झटका मांस का कारोबार करने भी हलाल की तरफ शिफ्ट हो गए।
समझिए कितना बड़ा है मीट मार्केट
भारत के 82 प्रतिशत उपभोक्ता गैर-मुस्लिम हैं। अगर हलाल के खिलाफ आंदोलन तेज हुआ तो कंपनियों को ग्राहकों के लिए दो-दो तरह के उत्पाद बनाने पड़ सकते हैं। ऐसे में वे ज्यादा मुनाफे वाले विकल्प की ओर जाएंगी। हलाल के मसले से कैसे निपटना है, भारत उसका रास्ता दिखा सकता है।
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