इतिहास:नेहरू ने नाभा रियासत से क्यों मांगी थी माफ़ी?
बार-बार ये क्यों कहा जाता है कि नेहरू ने नाभा में अंग्रेज़ों से माफी मांगी और जेल से रिहा हो गये थे!!! ये सवाल क्यों उठता है??? क्योंकि “नाभा कांड” में कुछ न कुछ ज़रूर गड़बड़ था, दाल में कुछ काला था, इसीलिए लोगों को संदेह होता है !!! इस पूरे विवादित मामले को कुछ तथ्यों और संदर्भों के साथ समझने की कोशिश करना चाहिये… हर दावे को वाट्सएप यूनिवर्सिटी बता देना, आजकल जुमला बन गया है… चलिये 8 तथ्यों के माध्यम से इस मामले को समझने की कोशिश करते हैं।
पहला तथ्य
नेहरू ने माना जेल बेहद खराब था, वो बेहद परेशान थे, खासकर चूहों ने उन्हे बहुत प्रताड़ित किया। नेहरू ने अपनी आत्मकथा के पेज नंबर 162 पर लिखा है –
“नाभा जेल में हम एक बेहद रद्दी और गंदी कोठरी में रखे गये थे। वो कोठरी छोटी और सीलन भरी थी। छत इतनी नीची थी कि हमारा हाथ उस तक पहुंच जाता था। हम ज़मीन पर ही सोये और रात में अचानक जाग उठता था और तब मुझे मालूम पड़ता कि कोई चूहा मेरे मुंह के ऊपर से गुज़रा है।”
दूसरा तथ्य
नेहरू की इस तकलीफ और डर का वर्णन उनके साथ उसी कोठरी में बंद के. संतानम ने भी किया है… के संतानम ने नाभा जेल पर एक संस्मरण लिखा था जिसका नाम है ‘Handcuffed with Jawaharlal’… संतानम अपने इस संस्मरण में लिखते हैं कि –
“जेल में हमारे नहाने-धोने और कपड़ों का कोई इंतज़ाम नहीं था। जेल की कोठरी 20 फीट बाय 12 फीट की थी। कोठरी की कच्ची छत से हमेशा मिट्टी गिरती रहती थी। जवाहरलाल नेहरू बेहद परेशान थे, वो गुस्से में आकर हर आधे घंटे में कोठरी को साफ रखने के लिए ज़मीन पर झाड़ू लगाने लगते थे। लेकिन मैं और गिडवानी गुस्सा होने के बजाय खुश रहते थे।”
तीसरा तथ्य
मोतीलाल नेहरू ने वायसराय से जुगाड़ लगाई और नाभा जेल में जवाहरलाल को वीआईपी सुविधा मिली… के. संतानम के शब्दों में –
“पंडित मोतीलाल नेहरू बहुत चिंतित थे। उन्होने हमारे ठिकाने के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए पंजाब के बड़े अधिकारियों और प्रभावशाली लोगों से संपर्क किया। जब उन्हे सफलता नहीं मिली तो उन्होने सीधे वायसरॉय से संपर्क किया। इस पूरी प्रक्रिया में दो से तीन दिन लग गये। लेकिन इसके बाद नाभा जेल के अधिकारियों का व्यवहार पूरी तरह से बदल गया। हमारे नहाने का इंतज़ाम हो गया और हमारे कपड़े भी दे दिये गये। यहां तक कि जेल के बाहर से हमारे लिए खाने और फलों का इंतज़ाम भी हो गया।”
चौथा तथ्य
खुद जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा एन ऑटोबायोग्राफी में माना है कि जब वो नाभा जेल में बंद थे तब उनके पिता मोतीलाल नेहरू ने वायसराय से संपर्क किया था… नेहरू पेज नंबर 165 पर लिखते हैं कि –
“मेरे पिता को देसी रियासतों का हालचाल मालूम था। इसीलिए वो नाभा में मेरी अचानक हुई गिरफ्तारी से बेहद परेशान हो गये। अपनी परेशानी में उन्होने वायसराय को भी तार भेज डाला। नाभा में आकर मुझसे मुलाकात करने के लिए पिताजी के रास्ते में कई दिक्कतें खड़ी की गईं लेकिन आखिरकार उन्हे मुझसे मुलाकात की इजाज़त मिल गई।”
पांचवां तथ्य
मोतीलाल नेहरू अपने बेटे को लेकर इतने परेशान हुए कि उन्होंने वायसराय को ये भरोसा तक दे दिया कि वो नाभा में किसी राजनैतिक आंदोलन में हिस्सा नहीं लेंगे, जबकि वो कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके थे, लेकिन उन्हे किसी आंदोलन से नहीं बल्कि सिर्फ अपने बेटे से मतलब था। कितनी हैरत की बात है कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मोतीलाल नेहरू अपने बेटे जवाहर से मिलने के लिए अंग्रेज सरकार की हर शर्त मान रहे थे… मोतीलाल नेहरू 25 सितंबर को अंबाला कैंट पहुंचे और यहां से उन्होने सीधे वायसराय को तार भेजा… जिसमें उन्होने लिखा कि-
“मैंने नाभा के प्रशासक को ये भरोसा दिया था कि मैं वहां किसी आंदोलन में हिस्सा नहीं लूंगा। मेरा नाभा आने का इकलौता मकसद ये है कि मैं अपने बेटे जवाहरलाल से मुलाकात करना चाहता हूं और उसकी अदालत में पैरवी करना चाहता हूं। लेकिन मेरे गारंटी देने के बाद भी मुझे धारा 144 में नाभा छोड़ने का हुकुम सुना दिया गया। इन हालात में मुझे संदेह है कि मेरे बेटे को न्याय मिलेगा और जेल में उसके साथ अच्छा व्यवहार होगा। मैं अंबाला कैंट स्टेशन पर आपके उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हूं।”
छठा तथ्य
मोतीलाल नेहरू के एक जिगरी दोस्त हरिकिशनलाल पंजाब सरकार में मंत्री थे और अंग्रेज़ों के खास थे… उनके ज़रिए मोतीलाल नेहरू पहले ही नाभा में ब्रिटिश प्रशासक जे. विल्सन जॉनसन पर दबाव बना रहे थे… इसका जिक्र मिलता है बी.आर. नंदा की किताब – द नेहरुज़ में… पद्मभूषण से सम्मानित बी आर नंदा नेहरू-गांधी परिवार के बेहद करीबी थे… बी. आर. नंदा के मुताबिक जॉनसन ने मोतीलाल को लिखा था कि –
“पंजाब सरकार के सम्मानित मंत्री श्री हरिकिशनलाल ने मुझे आपका वो तार भेजा है जो आपने उन्हे 22 सितंबर 1923 को इलाहबाद से किया था। मैं निम्नलिखित शर्तों पर आपको आपके पुत्र से मिलने की अनुमति दे सकता हूं, और इसके लिए आपको लिखित आश्वासन देना होगा।”
1. आप जब तक नाभा रियासत में हैं तब तक आप यहां कोई भी राजनैतिक गतिविधि नहीं करेंगे।
2. जवाहरलाल नेहरू से मुलाकात के बाद आप तत्काल नाभा रियासत से चले जाएंगे।
(जे. विल्सन जॉनसन (I.C.S.) प्रशासक, नाभा रियासत)
सातवां तथ्य
दो साल की सज़ा, तीन घंटे में कैसे खत्म हो गई? नाभा की अदालत ने जवाहरलाल नेहरू, आचार्य गिडवानी और के. संतानम को दो साल की कैद सुनाई गई… लेकिन इसके बाद वो हुआ जो आजतक भारत के अदालती इतिहास में कभी नहीं हुआ है… शाम को करीब चार बजे अदालत ने नेहरू को दो साल की सज़ा सुनाई और शाम 7 बजे नाभा के अंग्रेज़ प्रशासक ने ये सज़ा रद्द कर दी… इस रहस्यमयी घटना का वर्णन नेहरू ने भी रहस्यमयी तरीके से किया है… उन्होने अपनी आत्मकथा में जो लिखा है उसको पढ़कर लगता है कि वो शायद कुछ छुपा रहे हैं… नेहरू लिखते हैं कि –
“उसी शाम को जेल सुप्रीटेंडेंट ने हमें बुलाया और हमें प्रशासक का आदेश दिखाया जिसमें हमारी सजा स्थगित कर दी गई थी। उसने हमें एक और एक्जक्यूटिव ऑर्डर दिखाया जिसमें हमें तत्काल नाभा रियासत छोड़कर चले जाएं और अगली बार बिना अनुमति के प्रवेश न करें। मैंने दोनों हुक्म की कॉपी मांगी लेकिन वो हमें नहीं दी गई। इसके बाद हमें रेलवे स्टेशन भेज दिया गया। रात में शहर के दरवाज़े बंद हो गये। हम अंबाला जाने वाली गाड़ी में बैठ गये।”
आंठवां तथ्य
डर के मारे नेहरू फिर कभी नाभा नहीं गये। दरअसल नाभा के इस जेल और रिहाई कांड के करीब 6 महीने बाद 1924 में एक बार फिर वहां सिखों का विद्रोह भड़क उठा… चूंकि नेहरू ने पिछली बार इस विद्रोह का नेतृत्व किया था लिहाज़ा इस बार भी उन्हे अपना फर्ज निभाते हुए नाभा जाना चाहिए था… फिर भी नेहरू वहां नहीं गये… लेकिन महान स्वतंत्रता सेनान आचार्य गिडवानी सीना तान कर नाभा पहुंच गये… पुलिस ने गोली चलाई, जिसमें कई आंदोलनकारी मारे गये और गिडवानी गिरफ्तार कर लिये गये… अब गिडवानी किसी मोतीलाल नेहरू के बेटे तो थे नहीं, लिहाज़ा उन्हे पूरे एक साल तक नाभा की उसी जेल में जमकर कष्ट दिये गये जिसमें पिछले साल वो नेहरू के साथ आराम से बंद थे… जेल में बीमार पड़ने के बाद जब गिडवानी करीब-करीब मौत के मुंह में पहुंच गये तो उन्हे रिहा कर दिया गया… कहते हैं कि इस पूरी घटना के बाद उस दौर में मोतीलाल नेहरू और जवाहरलाल नेहरू पर कुछ लोगों ने दबी जुबान से सवाल उठाये थे… इसी बात पर शर्मिंदा होते हुए नेहरू ने 1936 में अपनी आत्मकथा एन ऑटोबायोग्राफी के पेज नंबर 169 पर लिखा-
“मैंने भी सोचा कि मैं खुद नाभा जाउं… और प्रशासन को मेरे साथ भी वहीं व्यवहार करने दूं जैसा कि गिडवानी के साथ हो रहा है। अपने साथी के साथ वफादारी निभाने का यही एक तरीका था। लेकिन मेरे कई दोस्तों ने मुझे ऐसा करने से मना किया और मेरा इरादा बदल गया। लेकिन हकीकत में मैंने अपने दोस्तों की सलाह का बहाना लेकर अपनी कमज़ोरियों को छुपा लिया। आखिरकार ये मेरी खुद की कमज़ोरी और नाभा के जेल में वापस न जाने की अनिच्छा ही थी, जिसने मुझे वहां जाने से रोका। मैं अपने साथी को इस तरह से अकेला छोड़ देने पर हमेशा से कुछ-कुछ शर्मिंदा रहा हूं। इस तरह जैसा कि हम सब करते हैं कि – बहादुरी के स्थान पर अक्लमंदी को प्रधानता दे देते हैं।”
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