दक्षिण भारतीय सिनेमा फूहड़ मुंबईया सिनेमा से अलग क्यों है?
भारतीय सिनेमा की शुरुआत ही , भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापना से हुई थी ।
आज से लगभग हजार वर्ष पहले भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र दिया था जिसे हम लोंग पांचवा वेद भी कहते हैं। बाद में कालिदास आदि अन्य नाटककारों ने नाटक लिखे और मंचन किया। तुलसीदास जी की रामचरितमानस की रचना के पश्चात रामलीला मंडलियाँ बनी और समाज को दिशा देने लगी। हमारे देवी देवताओं की मूर्तियों को पहली बार कागज पर लाने का कार्य सर्वप्रथम राजा रवि वर्मा जी ने किया था । बाद में वे मुंबई आ गए जहां भारतीय सिनेमा के भीष्म पितामह दादा साहब फाल्के उनके सानिध्य में आए और उनके शिष्य बन गए । बाद में महान चित्रकार रवि वर्मा से प्राप्त कैमरे से ही उन्होंने पहली भारतीय मूक फिल्म राजा हरिश्चंद्र 1013 में बनाई और भारतीय फिल्म के निर्माण का श्रीगणेश किया था।
संस्कृत में जिसे रूपक कहा गया है उसे आज की फ़िल्म मान सकते हैं।
वैसे ये रूपक दस प्रकार के हैं लेकिन आगे जाकर कई भेद हो जाते हैं।
इनमें जो प्रथम स्थान पर है उसे नाटक कहते हैं। नाटक की यह शर्त है कि उसका नायक कोई सद्वन्श क्षत्रिय अथवा देवता होना चाहिए, उसकी कथा बहुत भव्य, विराट और धर्म अर्थ काम मोक्ष से गुम्फित होनी चाहिए। अब यदि हम फ़िल्म बाहुबली को देखते हैं तो वह नाटक श्रेणी की है। (यहाँ एक एक ही उदाहरण दे रहा हूँ, आगे आप अनुमान लगा सकते हैं।)
दूसरा स्थान आता है #प्रकरण का। यह बाकी सब नाटक जैसी ही होती है लेकिन मोक्ष के अतिरिक्त शेष तीन वर्ग और नायक कोई थोड़ा मध्यम श्रेणी का होता है। दक्षिण की फ़िल्म #अपरिचित इस श्रेणी की है।
ऐसे ही जिस फ़िल्म में हास्य प्रधान हो, धूर्त और निम्न चरित्र अभद्र भाषा में ईर्ष्या, लोभ के साथ चेष्टाएँ करें वह #समवकार कहलाता है, उदाहरण के लिए हेराफेरी सीरीज की सभी फिल्में।
विशुद्ध हास्य की फ़िल्म प्रहसन मानी जायेगी जैसे पड़ोसन।
ऐसे ही एक होता है #डिम जिसमें अधर्मी कुटिल पात्र भूत, प्रेत, रहस्य रोमांच का प्रदर्शन करते हैं, उदाहरण : दक्षिण की फ़िल्म kashmoraa।
जहां सभी धूर्त, भांड, अपराधी हो वह भाण कहलाता है, जैसे गैंग ऑफ वासेपुर।
ऐसे ही एक होता है व्यायोग, इसमें अत्यंत बलशाली नायक अत्यंत कठिन मिशन को पूरा करता है, इसमें वीर रस प्रधान होता है। उदाहरण उरी या कारगिल पर बनी फिल्में। अंक में स्त्री विलाप अधिक होता है, वीथी में स्त्रियां ही प्रमुख होती है,,,, इत्यादि।
ये जो लल्ला लल्ली के खेल वाली फिल्में, जिनमें इश्क, सौतन, मिलन में अवरोध और अंत में नायक नायिका का मिलन, बीच बीच में नाच गाना और कभी मिलन कभी जुदाई…. इन्हें तो रूपक श्रेणी में भी नहीं माना जाता। ये तो उपरूपक में भी नाटिका श्रेणी की फिल्में हैं जिन्हें स्त्रियां अधिक पसंद करती हैं।
हाल ही में पुष्पा फ़िल्म हिट हुई, दक्षिण की फिल्में बाजी मारती जा रही है, इसका एक कारण यह भी है कि दक्षिण के सभी फिल्मकार प्रायः भरत मुनि के #नाट्यशास्त्र और धनंजय के दशरूपक का अध्ययन कर उन नियमों का पालन करते हैं। नाट्यशास्त्र के बाद धनञ्जय की कृति ही अपने में परिपूर्ण है जो आपको कथा, उपकथा, उसके भेद, प्रभेद, कहानी के मोड़, उसे समेटने की विधि, एक एक बात का इतना सूक्ष्म और सोदाहरण विवेचन है कि कोई भी साहित्यकार चमत्कृत हो सकता है।
एक उदाहरण देता हूँ, फ़िल्म में नायक की एंट्री (प्रथम प्रवेश) करने के ही 64 तरीके बताए हैं दशरूपक में।
यह संस्कृत में है और हिन्दी अनुवाद उपलब्ध है। धनंजय का तो अध्ययन निश्चित रूप से हॉलीवुड भी लेता है, मैंने भी अनुभव किया है। दशरूपक कालजयी रचना है, न भूतों न भविष्यति।
अस्तु, यह विषय बहुत लंबा चौड़ा है। पोस्ट का भाव यही है कि दक्षिण भारत के फिल्मकार अभी भी शास्त्रीय नियमों को फॉलो करते हैं इसलिए इतना अच्छा ला पाते हैं। जैसे जैसे भारत की सांस्कृतिक प्यास बढ़ेगी, यह क्रम बढ़ता जाएगा।
बाकी हमारी नजर में तो दद्दा जिसे गुलजार, जावेद अख्तर, सलीम, और नासिर का बेहतरीन कार्य बता लहालोट हो रहे हैं, निहायत ही घटिया सिनेमा है।
✍🏻कुमार_एस