होली,वसन्त, फाल्गुन, होली खेलना क्यों जरूरी है?
होली-(क) शब्द का अर्थ- इसका मूल रूप हुलहुली (शुभ अवसर की ध्वनि) है जो ऋ-ऋ-लृ का लगातार उच्चारण है। आकाश के ५ मण्डल हैं, जिनमें पूर्ण विश्व तथा ब्रह्माण्ड हमारे अनुभव से परे है। सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी का अनुभव होता है, जो शिव के ३ नेत्र हैं। इनके चिह्न ५ मूल स्वर हैं-अ, इ, उ, ऋ, लृ। शिव के ३ नेत्रों का स्मरण ही होली है।
अग्निर्मूर्धा चक्षुषी चन्द्र सूर्यौ दिशः श्रोत्रे वाग्विवृताश्च वेदाः। (मुण्डक उपनिषद्, २/१/४)
चन्द्रार्क वैश्वानर लोचनाय, तस्मै वकाराय नमः शिवाय (शिव पञ्चाक्षर स्तोत्र)
विजय के लिये उलुलय (होली) का उच्चारण होता है-
उद्धर्षतां मघवन् वाजिनान्युद वीराणां जयतामेतु घोषः।
पृथग् घोषा उलुलयः एतुमन्त उदीरताम्। (अथर्व ३/१९/६)
(ख) अग्नि का पुनः ज्वलन-सम्वत्सर रूपी अग्नि वर्ष के अन्त में खर्च हो जाती है, अतः उसे पुनः जलाते हैं, जो सम्वत्-दहन है-
अग्निर्जागार तमृचः कामयन्ते, अग्निर्जागार तमु सामानि यन्ति।
अग्निर्जागार तमयं सोम आह-तवाहमस्मि सख्ये न्योकाः। (ऋक् ५/४४/१५)
यह फाल्गुन मास में फाल्गुन नक्षत्र (पूर्णिमा को) होता है, इस नक्षत्र का देवता इन्द्र है-
फाल्गुनीष्वग्नीऽआदधीत। एता वा इन्द्रनक्षत्रं यत् फाल्गुन्यः। अप्यस्य प्रतिनाम्न्यः। (शतपथ ब्राह्मण २/१/२/१२)
मुखं वा एतत् सम्वत्सररूपयत् फाल्गुनी पौर्णमासी। (शतपथ ब्राह्मण ६/२/२/१८)
सम्वत्सर ही अग्नि है जो ऋतुओं को धारण करता है-
सम्वत्सरः-एषोऽग्निः। स ऋतव्याभिः संहितः। सम्वत्सरमेवैतत्-ऋतुभिः-सन्तनोति, सन्दधाति। ता वै नाना समानोदर्काः। ऋतवो वाऽअसृज्यन्त। ते सृष्टा नानैवासन्। तेऽब्रुवन्-न वाऽइत्थं सन्तः शक्ष्यामः प्रजनयितुम्। रूपैः समायामेति। ते एकैकमृतुं रूपैः समायन्। तस्मादेकैकस्मिन्-ऋतौ सर्वेषां ऋतूनां रूपम्। (शतपथ ब्राह्मण ८/७/१/३,४)
जिस ऋतु में अग्नि फिर से बसती है वह वसन्त है-
यस्मिन् काले अग्निकणाः पार्थिवपदार्थेषु निवसन्तो भवन्ति, स कालः वसन्तः।
फल्गु = खाली, फांका। वर्ष अग्नि से खाली हो जाता है, अतः यह फाल्गुन मास है। अंग्रेजी में भी होली (Holy = शिव = शुभ) या हौलो (hollow = खाली) होता है। वर्ष इस समय पूर्ण होता है अतः इसका अर्थ पूर्ण भी है। अग्नि जलने पर पुनः विविध (विचित्र) सृष्टि होती है, अतः प्रथम मास चैत्र है। आत्मा शरीर से गमन करती है उसे गय-प्राण कहते हैं। उसके बाग शरीर खाली (फल्गु) हो जाता है, अतः गया श्राद्ध फल्गु तट पर होता है।
(ग) कामना-काम (कामना) से ही सृष्टि होती है, अतः इससे वर्ष का आरम्भ करते हैं-
कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन् हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा॥ (ऋक् १०/१२९/४)
इस ऋतु में सौर किरण रूपी मधु से फल-फूल उत्पन्न होते हैं, अतः वसन्त को मधुमास भी कहते हैं-
(यजु ३७/१३) प्राणो वै मधु। (शतपथ ब्राह्मण १४/१/३/३०) = प्राण ही मधु है।
(यजु ११/३८) रसो वै मधु। (शतपथ ब्राह्मण ६/४/३/२, ७/५/१/४) = रस ही मधु है।
अपो देवा मधुमतीरगृम्भणन्नित्यपो देवा रसवतीरगृह्णन्नित्येवैतदाह। (शतपथ ब्राह्मण ५/३/४/३)
= अप् (ब्रह्माण्ड) के देव सूर्य से मधु पाते हैं।
ओषधि (जो प्रति वर्ष फलने के बाद नष्ट होते हैं) का रस मधु है-ओषधीनां वाऽएष परमो रसो यन्मधु। (शतपथ ब्राह्मण २/५/४/१८) परमं वा एतदन्नाद्यं यन्मधु। (ताण्ड्य महाब्राह्मण १३/११/१७)
सर्वं वाऽइदं मधु यदिदं किं च। (शतपथ ब्राह्मण ३/७/१/११, १४/१/३/१३)
हम हर रूप में मधु की कामना करते हैं-
मधु वाता ऋतायते, मधु क्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः॥६॥
मधुनक्तमुतोषसो, मधुमत् पार्थिवं रजः। मधु द्यौरस्तु नः पिता॥७॥
मधुमान्नो वनस्पति- र्मधुमाँ अस्तु सूर्यः। माध्वीर्गावो भवन्तु नः॥८॥ (ऋक् १/९०)
= मौसमी हवा (वाता ऋता) मधु दे, नदियां मधु बहायें, हमारी ओषधि मधु भरी हों। रात्रि तथा उषा मधु दें, पृथ्वी, आकाश मधु से भरे हों। वनस्पति, सूर्य, गायें मधु दें।
मधुमतीरोषधीर्द्याव आपो मधुमन्नो अन्तरिक्षम्।
क्षेत्रस्य पतिर्मधुमन्नो अस्त्वरिष्यन्तो अन्वेनं चरेम॥ (ऋक् ४/५७/३)
= ओषधि, आकाश, जल, अन्तरिक्ष, किसान-सभी मधु युक्त हों।
(घ) दोल-पूर्णिमा-वर्ष का चक्र दोलन (झूला) है जिसमें सूर्य-चन्द्र रूपी २ बच्चे खेल रहे हैं, जिस दिन यह दोल पूर्ण होता है वह दोल-पूर्णिमा है-
यास्ते पूषन् नावो अन्तः समुद्रे हिरण्मयीरन्तरिक्षे चरन्ति।
ताभिर्यासि दूत्यां सूर्य्यस्य कामेन कृतश्रव इच्छमानः॥ (ऋक् ६/५८/३)
पूर्वापरं चरतो माययैतै शिशू क्रीडन्तौ परि यन्तो अध्वरम् (सम्वत्सरम्) ।
विश्वान्यन्यो भुवनाभिचष्ट ऋतूरन्यो विदधज्जायते पुनः॥ (ऋक् १०/८५/१८)
कृष्ण (Blackhole) से आकर्षित हो लोक (galaxy) वर्तमान है, उस अमृत लोक से सूर्य उत्पन्न होता है जिसका तेज पृथ्वी के मर्त्य जीवों का पालन करता है। वह रथ पर घूम कर लोकों का निरीक्षण करता है-
आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च।
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्। (ऋक् १/३५/२, यजु ३३/४३)
(ङ) विषुव संक्रान्ति-होली के समय सूर्य उत्तरायण गति में विषुव को पार करता है। इस दिन सभी स्थानों पर दिन-रात बराबर होते हैं। दिन रात्रि का अन्तर, या इस रेखा का अक्षांश शून्य (विषुव) है, अतः इसे विषुव रेखा कहते हैं। इसको पार करना संक्रान्ति है जिससे नया वर्ष होली के बाद शुरु होगा।
पिचकारी शब्द का मूल क्या हो सकता है। भारत में होली प्राचीनतम पर्व है तथा इसमें रंग डालते थे, पर रंग डालने वाली नली को क्या कहते थे।
पिच का अर्थ है दबाना (पिचकाना), पानी को एक तरफ से दबा कर दूसरे छोर की नली से निकालने वाला यन्त्र पिचकारी है। दवा की सूई तथा एनीमा देने की नली भी इसी प्रकार के हैं। इसके जैसे २ शब्द हैं-पिच्चट, पिच्छिला जिनका अर्थ शब्द कल्पद्रुम के अनुसार नीचे दिया है। पिच्चट का एक अर्थ रंग भी है। पिच्छिला का अर्थ है जल युक्त भोजन, जैसे ओड़िआ में पानी-भात को पखाल (प्रक्षाल = धोना) कहते हैं। जल में रंग का घोल भी पिच्छिला है।
कल्पद्रुमः
पिच्चटम्, क्ली, (पिच्चयतीति । पिच्च छेदने + अटन् ।) सीसकम् । रङ्गम् । (अस्य पर्य्यायो यथा, वैद्यकरत्नमालायाम् । “रङ्गं वङ्गञ्च कस्तीरं मृद्वङ्गं पुत्त्र पिच्चटम् ॥”) नेत्ररोगे, पुं । इति मेदिनी । टे, ५० ॥
कल्पद्रुमः
पिच्छिलम्, त्रि, (पिच्छा भक्तसम्भूतमण्डं अस्त्य- स्येति । पिच्छादित्वात् इलच् ।) भक्तमण्ड- युक्तम् । इति रायमुकुटः ॥ सरसव्यञ्जनादि । इति भरतः ॥ सूपादि । इति रमानाथः । स्निग्धसूपादि । इति भानुदीक्षितः ॥ मण्ड- युक्तभक्तम् । जलयुक्तव्यञ्जनम् । इति नील- कण्ठः ॥ तत्पर्य्यायः । विजिलम् २ । इत्यमरः । २ । ९ । ४६ ॥ विजयिनम् ३ विजिनम् ४ विज्ज- लम् ५ इज्जलम् ६ लालसीकम् ७ । इति वाचस्पतिः ॥ (यथा, छन्दोमञ्जर्य्याम् । “तरुणं सर्षपशाकं नवौदनानि पिच्छिलानि च दधीनि । अल्पव्ययेन सुन्दरि ! ग्राम्यजनो मिष्टमश्नाति ॥”) पिच्छयुक्तः ॥ (स्निग्धसरसपदार्थविशेषः । पेचल इति भाषा ॥ यथा, साहित्यदर्पणे १० । ५५ । “काले वारिधराणामपतितया नैव शक्यते स्थातुम् । उत्कण्ठितासि तरले ! नहि नहि सखि ! पिच्छिलः पन्थाः ॥”)
पिच्छिलः, पुं, (पिच्छं चूडास्त्यस्येति । पिच्छादि- त्वात् इलच् ।) श्लेष्मान्तकवृक्षः । इति राज- निर्घण्टः ॥
✍🏻अरुण कुमार उपाध्याय
सुरक्षा की चिन्ता से हर वस्तु को शस्त्र अस्त्र बना लेने का विचार उपजेगा, मार्शल आर्ट्स में यही सिखाते हैं।
पूर्वोत्तर में बांस का उपयोग कर कुछ ऐसी वस्तुयें बनीं जो खेल, मनोरंजन के साथ -साथ घातक अस्त्र भी हैं।
ऐसे ही दो आयुध हैं जिनका फूक और पीक से संबंध है।
पहला है फुकिया जिसे जापान तक में Fukiya ही कहते हैं, जैसा कि नाम है यह फूक मारने से जुड़ा हुआ है, पोले बांस की नली में एक छोटा कांटा जो विषयुक्त भी हो सकता है, रखकर दूसरे सिरे से फूक मारकर चला देते हैं। कुछ वनवासी जातियों में यह आज भी शिकार को प्रयोग होता है।
दूसरा है पिचकारी इसे Mizuteppo कहते हैं, यह भी बांस से बनती है, और विषैला पानी छोड़ने में उपयोग होती थी, विषैले जल को आँख पर मारते ही शत्रु अन्धा हो जाता था । आजकल यह होली मनाने में काम आती है।
एक और वस्तु का निर्माण होता है जो इन दोनों को मिलाकर बनाया गया, उसे तुपकी कहा जाता है तेलुगु में तुपाकि और दक्षिण में भी तुपाकी ही है।
तुप् मारना , से ही यह शब्द बना है , तोप भी ।
तुपकी में पानी नहीं भरते , वायुदाब का उपयोग किया जाता है मालकांगनी के फल को मारने के लिये, यह खेल ही है, चलने पर आवाज भी होती है।
अस्त्राय फट्
✍🏻अत्रि विक्रमार्क अंतर्वेदी
होली –
(ह्) – हकाराद् मालिन्यं हरति सकलं द्वेषजनकं,
(ओ) – यथा भा ओकारात् तिमिरमखिलं ह्योणतितराम् ।
(ल्) – लुनाति क्रोधादीन् मनुजषडरातीन् मतिहरान्,
(ई) – ततस्तामीड्यां होलीं प्रणमति लोकः शुभवहाम् ।।
हकार समस्त द्वेषों को उत्पन्न करने वाले मालिन्य (मैल) को हरता है ।
ओकार उसी तरह निखिल अन्धकार को दूर करता है जैसे प्रभा ।
लकार क्रोध-काम-मोहादि मनुष्य की मति को हरने (दूषित करने) वाले छः शत्रुओं का छेदन करता है ।
अतः उस स्तुतियोग्य शुभवहन करने वाली होली को संसार प्रणाम करता है ।
होला कर्मविशेष: सौभाग्याय स्त्रीणां प्रातरनुष्ठीयते । …काठकगृह्यसूत्र ७३/१ देवपाल टीका
“होलाका एक कर्म-विशेष है जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिए सम्पादित होता है ।” अबीर-गुलाल सौभाग्य का प्रतीक है ,सौभाग्यवती स्त्रियों के ऊपर अबीर-गुलाल डालने से उनका दीर्घ सौभाग्य होता है । पराई स्त्रियों पर अबीर-गुलाल न डालें ,स्वकीया पर ही डालें ,गोपियों के ऊपर श्रीकृष्ण रंग डालते हैं तो वे उनकी स्वकीया हैं परकीया नहीं । अन्य सुह्रद-मित्रों के साथ उनके ऊपर रंगीन जल डालकर हर्षोल्लास से मनाना चाहिये ।
भविष्यपुराण और कामसूत्र के अनुसार होलाका वसन्त से संयुक्त उत्सव है ,अतः यह उत्सव पूर्णमान्त गणना के अनुसार वर्ष के अंत में आता है । अतः होलिका हेमन्त या पतझड़ के अंत की सूचक है और वसन्त की कामप्रेममय लीलाओं की द्योतक है । मस्तीभरे गाने ,नृत्य एवं संगीत वसन्तागमन के उल्लासपूर्ण क्षणों के परिचायक हैं । काठकगृह्यसूत्र में एक सूत्र है ‘राका होलाके’ ,जिसकी टीका में -‘होला एक कर्म विशेष है जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिये सम्पादित होता है,उस कृत्य में राका(पूर्ण चन्द्र) देवता है । इस दिन लोग श्रृंग से एक दूसरे पर रंगीन जल छोड़ते हैं ,यह रंगीन जल दीर्घ सौभाग्य का प्रतीक है और सुगंधित चूर्ण विखेरते हैं ।
पहले भी लिख चुके हैं ..
देवीभागवतपुराण ३/२६ में व्यास जी कह रहे हैं कि वसन्त और शरद ऋतु यमराज की दाढें हैं ,
दोनों ही ऋतुयें रोगकारी हैं, रोग फैलते हैं।
रोगों से बचने के लिये स्वच्छता-नियमों का पालन करे और घर पर ही रहे।
व्यास उवाच-
द्वावृतू यमदंष्ट्राख्यौ नूनं सर्वजनेषु वै ॥
शरद्वसन्तनामानौ दुर्गमौ प्राणिनामिह ।
तस्माद्यत्नादिदं कार्यं सर्वत्र शुभमिच्छता ॥
द्वावेव सुमहाघोरावृतू रोगकरौ नृणाम् ।
वसन्तशरदावेव सर्वनाशकरावुभौ ॥
इसीलिये वसन्त ऋतु में घर-द्वार ,ग्राम-नगर की सफाई करके होली जलाई जाती है ,जिसमें रोगाणु भस्म हो जाते हैं । शरद ऋतु में भी घरों की साफ-सफाई ,घर की पुताई आदि की जाती है और उसके बाद दीपावली पर सहस्रों दिये जलाकर रोगाणु ,कीट-पतंगे आदि भस्म हो जाते हैं । होली हो या दीपावली श्रद्धा से मनाइये अपना पर्व ,कोई बहानेबाजी नहीं होनी चाहिये ,यह आपकी और प्रकृति की सुरक्षा के लिये आवश्यक है ।
✍🏻श्याम लोहिताक्ष
अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण से पूछा कि फाल्गुन पूर्णिमा को प्रत्येक गाँव एवं नगर में एक उत्सव क्यों होता है ,प्रत्येक घर में बच्चे क्यों क्रीड़ामय हो जाते हैं और होलिका क्यों जलाते हैं ,उसमें किस देवता की पूजा होती है ,किसने उस उत्सव का प्रचार किया ,इसमें क्या होता है और यह ‘अडाडा’ क्यों कही जाती है । श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को राजा रघु के विषय में एक किवदंती कही । एक बार राजा रघु के पास लोग यह कहने गये कि ‘ढोण्ढा’ नामक एक राक्षसी बच्चों को दिन-रात डराया करती है । राजा के पूछने पर उनके पुरोहित ने बताया कि उसे शिव का वरदान है ,उसे देव ,मानव आदि नहीं मार सकते और न वह अस्त्र-शस्त्र या जाड़ा या गर्मी या वर्षा से मर सकती है ,किन्तु शिव ने इतना कह दिया है कि वह क्रीड़ायुक्त बच्चों से भय खा सकती है । पुरोहित ने बताया कि फाल्गुन की पूर्णिमा को जाड़े की ऋतु समाप्त होती है और ग्रीष्म ऋतु आगमन होता है ,तब लोग हँसें, आनन्द मनायें ,बच्चे लकड़ी के टुकड़े लेकर बाहर प्रसन्नतापूर्वक निकल पड़ें ,लकड़ियां एवं घास एकत्र करें ,रक्षोघ्न मन्त्रों के साथ उसमें आग लगायें ,तालियाँ बजायें ,अग्नि की तीन बार प्रदक्षिणा करें ,हंसें और प्रचलित भाषा में भद्दे एवं अश्लील गाने गायें ,इसी शोरगुल एवं अट्टहास तथा होम से वह राक्षसी मरेगी । जब राजा ने यह सब किया तो राक्षसी मर गयी और वह दिन अडाडा या होलिका कहा गया । प्राचीन किवदंतियों में कुछ मौसम और आयु के रोगों ,जीवाणुओं को राक्षसों आसुरी शक्तियों के रूप में चित्रित किया गया है ,जैसे 3 वर्ष तक की आयु वाले बच्चों को पूतना सताती है ,पूतना एक बाल रोग है । ऐसे ही होलिका शिशिर ऋतु के बीत जाने पर सूर्य की ऊर्जा घर में न आने के कारण कई तरह के वैक्टीरिया पनपते हैं ,वही आसुरी शक्ति के रूप में होलिका अथवा अडाडा से चित्रित हुआ है ,कालांतर में इसका सम्बन्ध प्रह्लाद कथा से जोड़ दिया गया । वास्तव में पूतना या होलिका कोई स्त्रियाँ नहीं हैं ,ये लोगों को परेशान करने वाले रोग हैं । जैसे पिछली सदी तक चेचक माता के नाम से प्रसिद्ध व्याधि बना रहा था ।
✍🏻वरुण शिवाय
पहले मैं दुर्गापूजा, सरस्वती पूजा या ऐसे ही अपने दूसरे त्योहारों पर बेकार के शोर-शराबों से चिढ़ा रहता था मगर एक दिन एहसास हुआ कि गुलामी के कालखंड में न जाने हमारे कितने पूर्वजों को होली और दीवली जैसे त्योहार मनाने से वंचित रहना पड़ा होगा। न जाने हमारी कितनी पीढ़ियाँ गुलामी के लंबे कालखंड में इन त्योहारों का आनंद उठाने से वंचित रह गई होंगी और न जाने कितने लोग भय से बंद कमरों में सिमट जाते होंगे इन त्योहारों के दिन।
हम लोग सौभाग्यशाली हैं कि आज हमारा समाज इतना सशक्त है कि हम अपने सारे त्योहार बिना किसी बाधा, अवरोध और शर्त में बंधे बिना मना सकते हैं। बस इस एहसास के बाद मैं भी केमिकल वाले रंग की परवाह छोड़कर दिल खोल होली खेलता हूँ और अपने मानने और जानने वाले को इसको प्रेरित करता हूँ।
होली खुद भी खेलिये और जो न खेलते हों उन्हें तो जरूर खेलने पर मजबूर कीजिये क्योंकि इन त्योहारों की दीर्घजीविता में ही हिंदुत्व की ज़िंदगी है।
Abhijeet Singh की सहज ही झकझोरने वाली पोस्ट। आपकी रुचि है या नही है ये अलग विषय है, लेकिन जो हमारी संस्कृति हमारी परम्परा है, जिसे हमारे पूर्वजों ने जीवन की आहुतियां दे देकर बचाया है, उसे हमे अगली पीढ़ी को सौंपना है। हमारी रुचि पूर्वजो के बलिदान के सामने कुछ भी नही है।
इसी पोस्ट पर आदरणीय Manmohan Sharma जी की टिप्पणी बहुत अधिक भावुक कर गयी। पोस्ट और ये टिप्पणी सहेजने वाली है, सभी को पढ़ाने वाली है।उनकी टिप्पणी निम्न है।
“मै गंगा स्नान मे कभी विषेश आस्था नही रखा करता था। 1969 मे पिता जी के फूल गंगा जी मे प्रवाहित करने हरिद्वार गया। वहा कुलपुरोहित ने मुझे मेरे एक पूर्वज का लिखा एक लेख दिखाया।यह अकबर के शासनकाल का था। उनहो ने लिखा था ” गंगा स्नान के लिए दस रुपए कर देना पड़ता है । मेरे पास यह नही था।इस लिए मुझे तीन महीने तक भीख मांगनी पडी।अब मे यह कर चुकाने केबाद गंगा स्नान कर के वापस जा रहा हू “। यह पढने के बाद गंगा स्नान के महत्व बारे मे मेरी अंखे खुली।”
आप इनको खूब कॉपी पेस्ट करे, शेयर करे। जिनकी अपनी इस सनातन संस्कृति में, परम्पराओ में विशेष रुचि नही है, आस्था नही है उन्हें तो अवश्य ही पढ़ाए।हमारी नयी पीढ़ी इसी असमंजस में जी रही है कि भला क्यो हम पुरानी बेड़िया ढोये। आजादी आधुनिकता के चक्कर मे वो जड़ो से कटते जा रहे है। ये भी ध्यान नही उनके जड़ो से कट कर फिर सूखना ही परिणाम होता है।
होली का किस्सा प्रहलाद का किस्सा है | कहते हैं प्रह्लाद बड़े भक्त थे और कहा करते थे कि भगवान् हर जगह हैं | उनकी बात को उनके पिता हिरण्यकश्यप मानने को तैयार ही नहीं होते थे | आखिर एक दिन जब हिरण्यकश्यप ने पुछा बता तेरा भगवान् हर जगह है तो क्या इस खम्भे में भी है ? प्रहलाद ने कहा हां यहाँ भी है |
और लो, खम्भा फाड़ के सचमुच भगवान् नरसिंह निकल आये ! अब हिरण्यकश्यप को अजीब सा वरदान भी मिला हुआ था | तो दरवाजे तक घसीट कर राक्षस को ले जाने के बाद उन्होंने राक्षस से पुछा, बता तू घर के अन्दर है कि बाहर ? अभी दिन है कि रात ? तुझे मनुष्य मार रहा है, पशु या कि देवता ? तू जमीन पर है कि आकाश में ? हथियारों से मर रहा है कि हाथ से ?
राक्षस बेचारा दरवाजे पे था तो ना घर में था ना बाहर | शाम का समय था इसलिए दिन भी नहीं था और रात भी नहीं हुई थी | नरसिंह ना तो मनुष्य थे ना पशु, और आधे इंसान आधे शेर को देवता भी मानना मुमकिन नहीं था ! वो अवतार थे | जांघ पर रखकर नखों से चीर दिया गया इसलिए वो न धरती पर मरा ना आकाश में ! ना हथियारों का इस्तेमाल हुआ ना हाथ का | शायद आपको पता ना हो लेकिन जिस खम्भे से नरसिंह अवतार के निकल आने की मान्यता थी वो अब पकिस्तान में है | इन्टरनेट पर प्रह्लादपुर ढूँढने से मिल जायेगा | उस मंदिर को 1992 में हुए दंगों में आखरी बार जेहादियों ने तोड़ डाला था | अभी तक अदालती करवाई के कारण वो बन नहीं पाया है | वहां पास की मस्जिद की वजू की जगह बनाना चाहते थे इसलिए अदालत का स्टे आर्डर है |
खैर ये हिंसक किस्म की कहानी अक्सर दल हित चिंतकों का दिल दहला देती है | अचानक उन्हें लगने लगता है कि होलिका कहीं उत्तर प्रदेश के इलाके की थी | अब पकिस्तान की साइड हिरण्यकश्यप का महल होना तो उनकी आर्य आक्रमणकारी थ्योरी पर फिट नहीं बैठता ना ! जाहिर है ऐसे में “जहाँ सच ना चले, वहां झूठ सही” की नीति लगाई जाती है | मुझे इस कहानी में सिर्फ नरसिंह का खम्भा फाड़ कर निकल आना रोचक लगता है |
आखिर कोई खम्भा फाड़ कर कैसे निकल सकता है ? इधर जब कर्नाटका के रायचूर जिले में सड़क चौड़ी करने को एक मीनार की मस्जिद तोड़ी गई तो पुराने खम्बे सामने आ गये । इन खम्बो की बनावट और शिल्प कला मन्दिर की लगती है जो वहां के लोगो के पुरखो की उस बात को सत्य का प्रकाश देती है कि वहां का प्रसिद्ध वीरभद्रेश्वर मन्दिर का मूल स्थान एक जमाने में यही था, जिस पर यह मीनार बनाई गयी थी।
एक नरसिंह के खम्भा फाड़ कर निकल आने पर आश्चर्य करने वालों को जरूर देखना चाहिए | मीनार – मस्जिद फाड़ कर पूरा का पूरा मंदिर ही निकल आया है !
✍🏻आनन्द कुमार
— #वसुधैव_कुटुम्बकम – #मदनोत्सव /#होली ——
होली सिर्फ भारतवर्ष में ही नही बल्कि पूरे विश्व मे खेली जाती है , आज हम आपको पूरे विश्व में अलग अलग रूपों में प्रचलित होली से परिचित करवाते है –
#थाईलैंड_का_सौंगक्रान – अप्रैल माह में थाईलैंड का नव वर्ष ‘सौंगक्रान’ मनाया जाता है इसमें वृद्धजनों के हाथों इत्र मिश्रित जल डलवाकर आशीर्वाद लिया जाता है। और जमकर रंग और पानी से खेला जाता है ।।
#म्यांमर_का_मेकांग_पर्व – पड़ोसी देश म्यामांर में मेकांग के नाम से पानी का त्योहार मनाया जाता है। इसे थिंगयान भी कहते हैं। म्यामांर के नववर्ष पर मेकांग मनाया जाता है। इस त्योहार में देश के सभी लोग भाग लेते हैं। लोग एक-दूसरे पर रंग और पानी की बौछार करते हैं। वहां के लोगों का मानना है कि आपस में एक-दूसरे पर पानी डालकर पाप धोएं जाते हैं।
#अफ्रीका_का_ओमेना_वोंगा –
अफ्रीका में होली की ही तरह एक पर्व मनाया जाता है जिसे ‘ओमेना वोंगा’ कहते है। अफ्रीका के कुछ देशों में सोलह मार्च को सूर्य का जन्म दिन मनाया जाता है। लोगों का विश्वास है कि सूर्य को रंग-बिरंगे रंग दिखाने से उसकी सतरंगी किरणों की आयु बढ़ती है।
#न्यूजीलैंड_का_वानाका_उत्सव –
न्यूजीलैंड के अलग-अलग शहरों में हर साल एक रंगीला त्योहार मनाने का चलन है। इस दिन एक पार्क में शहर के बच्चे, बूढ़े और जवान इकट्ठे होते हैं। वहां पर एक-दूसरे के शरीर पर पेंटिंग की प्रतियोगिता आयोजित की जाती है। इस हुड़दंग के बाद रात में नाच-गाने का कार्यक्रम भी होता है। यह उत्सव 6 दिन तक मनाया जाता है। इस बार होली आने के पहले ही एक भटके हुए नौजवान ने होली खेल लिया ।
#चीन_का_डाए_और_च्वेजे_उत्सव –
चीन में एक ‘डाए’ नाम का एक समुदाय नववर्ष पर भारत की होली की तरह लोग एक-दूसरे पर पानी फेंकते हैं। इस दिन खूब गाना-बजाना होता है। युवा मस्ती और हुड़दंग मचाते देखे जा सकते हैं। यह पर्व नववर्ष के आगमन की खुशी में मनाया जाता है। यह पंद्रह दिन तक मनाया जाता है। लोग आग से खेलते हैं और अच्छे परिधानों में सज धज कर परस्पर गले मिलते हैं।
#पोलैंड_का_आर्सिना –
पोलैंड में ‘आर्सिना’ उत्सव मनाया जाता है इस उत्सव पर लोग एक दूसरे पर रंग और गुलाल मलते हैं। यह रंग फूलों से निर्मित होने के कारण काफ़ी सुगंधित होता है। लोग परस्पर गले मिलते हैं और गिले शिकवे एक दूसरे से दूर करते है ।
#अमेरिका_का_मेडफो_और_होबो –
अमरीका में ‘मेडफो’ नामक पर्व मनाने के लिए लोग नदी के किनारे एकत्र होते हैं और गोबर तथा कीचड़ से बने गोलों से एक दूसरे पर आक्रमण करते हैं। 31 अक्टूबर को अमरीका में सूर्य पूजा की जाती है। इसे होबो कहते हैं। इसे होली की तरह मनाया जाता है। इस अवसर पर लोग परंपरागत वेशभूषा धारण करते हैं और एकदूसरे के ऊपर रंग गुलाल लगाकर शुभकामनाएं देते है ।।
#कंबोडिया_का_चाउन_चानम_थेमी –
नव वर्ष के अवसर पर कंबोडिया में चाउन चानम थेमी और लाओस में पियामी के नाम से त्योहार मनाने की परंपरा है। यह त्योहार एक-दूसरे पर जल फेंककर मनाया जाता है।
#जापान_का_टेमोंजी_ओकुरिबी –
जापान में टेमोंजी ओकुरिबी नामक पर्व पर कई स्थानों पर तेज़ आग जला कर यह त्योहार मनाया जाता है।
जापान में मनाए जाने वाला यह त्योहार एक अनोखा त्योहार माना जाता है। यह अपने अनूठेपन के लिए जाना जाता है। यह उत्सव मार्च-अप्रैल के महीने में मनाया जाता है। इस महीने में मनाए जाने के पीछे एक खास वजह भी है। यह समय चेरी के पेड़ में फूल आने का समय होता है और लोग अपने परिवार के साथ चेरी के बागों में बैठकर एक-दूसरे को बधाई देते हैं। लोग पेड़ से गिरने वाली फूलों की पंखुड़ियों से सबका स्वागत करते हैं। पूरे दिन चलने वाले इस त्योहार पर विशेष प्रकार का भोजन और गीत-नृत्य करने का भी रिवाज होता है।
#पेरू_का_इनकान_उत्सव –
पेरू में इनकान उत्सव पांच दिन तक चलता है। इस त्योहार में पूरा शहर रंगीला हो जाता है। सारे लोग रंगीन परिवेश में पूरे शहर में टोलियों में घूमते रहते हैं। हर टोली की अपनी एक थीम होती है। टोली में चलने वाले लोग ड्रम की थाप पर नाचते हुए चलते हैं। सभी टोलियों में एक-दूसरे से अच्छे साबित करने की चुनौती होती है। रात में कुजको नाम के एक महल में इकट्ठा होकर एक-दूसरे को शुभकामनाएं दी जाती हैं।
#मॉरीशस_का_होली_उत्सव –
मॉरिशस में बसंत पंचमी के दिन से शुरू होकर करीब 40 दिन तक होली का आयोजन चलता रहता है। इस दौरान लोग एक-दूसरे पर रंगों की बौछार करते हैं। भारत की तरह यहां भी होलिका दहन मनाया जाता है।
#नेपाल_में_लोला_उत्सव –
नेपाल में होली पर लोग एक दूसरे पर लोला फेंकने का रिवाज है। रंगों के पानी के गुब्बारे को लोला कहा जाता है। यहां लोगों को रंग में डुबोने के लिए पानी के बड़े-बड़े टब रखे जाते हैं। नेपाल होली के मामले में भारत से कम नहीं है।
#स्पेन_में_टमाटरों_की_होली –
स्पेन में रंग नहीं बल्कि टमाटर से होली खेली जाती है। ‘ला टोमाटीना’ नामक इस त्योहार का हालांकि कोई धार्मिक महत्व नहीं है और न ही इसका कोई प्राचीन इतिहास है। फिर भी यह दुनिया का सबसे बड़ा टमाटर उत्सव है। दूर-दूर से लोग इस टमाटर उत्सव में भाग लेने पहुंचते हैं। यह त्योहार हर साल अगस्त माह के अंतिम शनिवार को होता है। लोग एक-दूसरे पर टमाटर फेंकते हैं। टमाटर उत्सव में लोग एक लाख 25 हजार किलोग्राम से अधिक टमाटरों का इस्तेमाल करते हैं।
#ऑस्ट्रेलिया_में_चिनचिला_मेलन_फेस्टिवल –
आस्ट्रेलिया में होली की तरह ही एक रोमांचकारी त्योहार मनाया जाता है। भारत में जैसे होली पर हर तरफ रंग ही रंग दिखाई देते हैं। वैसे ही यहां हर ओर तरबूज ही तरबूज दिखते हैं। इस त्योहार पर ऐसा लगता है जैसे तरबूजों की नदी बहनेे लगती है। इस त्योहार में कई सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते हैं, जिसमें यहां के लोग बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं।
#विशेष – चेक और स्लोवाक क्षेत्र में #बोलिया_कोनेन्से त्योहार पर युवा लड़के-लड़कियाँ एक दूसरे पर पानी एवं इत्र डालते हैं। हालैंड का कार्निवल होली सी मस्ती का पर्व है। बेल्जियम की होली भारत सरीखी होती है और लोग इसे मूर्ख दिवस के रूप में मनाते हैं। यहाँ पुराने जूतों की होली जलाई जाती है। इटली में #रेडिका त्योहार फरवरी के महीने में एक सप्ताह तक हर्षोल्लास से मनाया जाता है। लकड़ियों के ढेर चौराहों पर जलाए जाते हैं। लोग अग्नि की परिक्रमा करके आतिशबाजी करते हैं। एक दूसरे को गुलाल भी लगाते हैं। रोम में इसे #सेंटरनेविया कहते हैं तो यूनान में #मेपोल। ग्रीस का #लव_ऐपल होली भी प्रसिद्ध है। साईबेरिया में घास फूस और लकड़ी से होलिका दहन जैसी परिपाटी देखने में आती है। नार्वे और स्वीडन में सेंट जान का पवित्र दिन होली की तरह से मनाया जाता है। शाम को किसी पहाड़ी पर होलिका दहन की भाँति लकड़ी जलाई जाती है और लोग आग के चारों ओर नाचते गाते परिक्रमा करते हैं। इंग्लैंड में मार्च के अंतिम दिनों में लोग अपने मित्रों और संबंधियों को रंग भेंट करते हैं ताकि उनके जीवन में रंगों की बहार आए।
तथ्य और आंकड़े साभार
✍🏻अजेष्ठ त्रिपाठी
(ह्) – हकाराद् मालिन्यं हरति सकलं द्वेषजनकं,
(ओ) – यथा भा ओकारात् तिमिरमखिलं ह्योणतितराम् ।
(ल्) – लुनाति क्रोधादीन् मनुजषडरातीन् मतिहरान्,
(ई) – ततस्तामीड्यां होलीं प्रणमति लोकः शुभवहाम् ।।
हकार समस्त द्वेषों को उत्पन्न करने वाले मालिन्य (मैल) को हरता है ।
ओकार उसी तरह निखिल अन्धकार को दूर करता है जैसे प्रभा ।
लकार क्रोध-काम-मोहादि मनुष्य की मति को हरने (दूषित करने) वाले छः शत्रुओं का छेदन करता है ।
अतः उस स्तुतियोग्य शुभवहन करने वाली होली को संसार प्रणाम करता है ।
होली के डांड़ (दण्ड) के पतन, उस पर लगी पताका और होली के धुंए से वायु परीक्षा की जाती थी। इससे राजा और प्रजा के भविष्य का अनुमान लगाया जाता था।
अथ होलिकावातपरीक्षा ।
पूर्वे वायौ होलिकायां प्रजाभूपालयो : सुखम् । पलयनं च दुर्भिक्षं दक्षिणे जायते ध्रुवम् ॥
पश्विमे तृणंसपत्तिरुत्तरे धान्यसंभव : । यदि खे च शिखा वृष्टर्दुंर्ग राजा च संश्रयेत् ॥
नैऋत्यां चैव दुर्भिक्षमैशान्यां तु सुभिक्षकम् । अग्नेर्भीतिरथाग्नेय्यां वायव्यां बाहवोऽजनला : ॥
अथ होलिकानिर्णय : । प्रतिपद्भूत भद्रासु याऽर्चिता होलिका दिवा । संवत्सरं तु तद्राष्ट्रं पुरं दहति सा द्रुतम् ॥
प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या पूर्णिमा फाल्गुनी सदातिस्यां भद्रामुखं त्यक्त्वा पूज्या होला निशामुखे ॥
( होली के वायु का फल ) होलीदीपन के समय में पूर्व की वायु चले तो प्रजा , राजा को सुख हो और दक्षिण की वायु हो तो भगदड़ पडे़ , या दुर्भिक्ष पडे़ ॥
पश्चिम की हो तो तृण बहुत हो , उत्तर की चले तो अन्न बहुत हो और आकाश में होली की लपट जावे तो वर्षा हो और राजा को किले का आश्रय लेना चाहिये कारण शत्रु का भय होगा ॥
नैऋत्यकोण की वायु हो तो दुर्भिक्ष पडे , ईशान की हो तो सुभिक्ष हो , अग्निकोण की वायु हो तो अग्नि का भय हो और वायुकोण की वायु हो तो संवत् भर में पवन बहुत चले ॥
यदि होलिका प्रतिपदा चतुर्दशी , भद्राको जलाई जावे तो वर्षभर राज्य को और पुरुष को दग्ध करती है ॥
फाल्गुन सुदि पूर्णिमा प्रदोषकालव्यापिनी लेनी चाहिये उस समय में भद्रा हो तो भद्रा के मुख की घडी त्याग के प्रदोष में ही होली पूजनी जलानी शुभ है ॥
गोस्वामी तुलसीदास जी की गीतावली में वर्णित होलिकोत्सव :
खेलत बसंत राजाधिराज। देखत नभ कौतुक सुर समाज।
सोहे सखा अनुज रघुनाथ साथ। झोलिन्ह अबीर पिचकारी हाथ।
बाजहिं मृदंग, डफ ताल बेनु। छिरके सुगंध भरे मलय रेनुं।
लिए छरी बेंत सोंधे विभाग। चांचहि, झूमक कहें सरस राग।
नूपुर किंकिनि धुनिं अति सोहाइ। ललना-गन जेहि तेहि धरइ धाइ।
लांचन आजहु फागुआ मनाइ। छांड़हि नचाइ, हा-हा कराइ।
चढ़े खरनि विदूसक स्वांग साजि। करें कुट निपट गई लाज भाजि।
नर-नारि परस्पर गारि देत। सुनि हंसत राम भइन समेत।
बरसत प्रसून वर-विवुध वृंद जय-जय दिनकर कुमुकचंद।
ब्रह्मादि प्रसंसत अवध-वास। गावत कल कीरत तुलसिदास।
सुरक्षा की चिन्ता से हर वस्तु को शस्त्र अस्त्र बना लेने का विचार उपजेगा, मार्शल आर्ट्स में यही सिखाते हैं।
पूर्वोत्तर में बांस का उपयोग कर कुछ ऐसी वस्तुयें बनीं जो खेल, मनोरंजन के साथ साथ घातक अस्त्र भी हैं।
ऐसे ही दो आयुध हैं जिनका फूक और पीक से संबंध है।
पहला है फुकिया जिसे जापान तक में Fukiya ही कहते हैं, जैसा कि नाम है यह फूक मारने से जुड़ा हुआ है, पोले बांस की नली में एक छोटा कांटा जो विषयुक्त भी हो सकता है, रखकर दूसरे सिरे से फूक मारकर चला देते हैं। कुछ वनवासी जातियों में यह आज भी शिकार के लिये प्रयोग होता है।
दूसरा है पिचकारी इसे Mizuteppo कहते हैं, यह भी बांस से बनती है, और विषैला पानी छोड़ने में उपयोग होती थी, विषैले जल को आँख पर मारते ही शत्रु अन्धा हो जाता था । आजकल यह होली मनाने में काम आती है।
एक और वस्तु का निर्माण होता है जो इन दोनों को मिलाकर बनाया गया, उसे तुपकी कहा जाता है तेलुगु में तुपाकि और दक्षिण में भी तुपाकी ही है।
तुप् मारना , से ही यह शब्द बना है , तोप भी ।
तुपकी में पानी नहीं भरते , वायुदाब का उपयोग किया जाता है मालकांगनी के फल को मारने के लिये, यह खेल ही है, चलने पर आवाज भी होती है।
अस्त्राय फट्
होलाक
༼༽
घरों में होली जलाने का क्या उपयोग और औचित्य है? कभी आपने इस पर विचार किया? एक तो अग्निहोत्रियों द्वारा नवीन अग्नि का स्थापन किये जाने का उद्देश्य है और दूसरा चिकित्सा से जुड़ा हुआ है।
यजुर्वेद की १३ शाखाओं के प्रवर्तकों को चरक कहा जाता है। देवों के वैद्य पुनर्वसु (प्राचीन अश्विनीकुमार) ने आयुर्वेद का उपदेश किया था जिसका संग्रह चरक द्वारा किया गया। चरकसंहिता के सूत्रस्थान में पञ्चकर्मों के अन्तर्गत स्वेदन का विस्तृत उल्लेख है। स्वेदन की तेरह विधियों में अन्तिम होलाक स्वेदन विधि है।
स्वेदसाध्याः प्रशामयन्ति गदा वातकफात्मकाः॥
उचित प्रकार से करने पर स्वेदन से शान्त होने वाले , वात-कफ-जन्य रोग शान्त हो जाते हैं।
शुष्काण्यपि हि काष्ठानि स्नेहस्वेदोपपादनैः।
नमयन्ति यथान्यायं किं पुनर्जीवतो नरान्॥
सूखे हुये काठ (बांस आदि लकड़ियाँ) भी स्नेहन और स्वेदन द्वारा मन के अनुसार मोड़ी या सीधी की जा सकती हैं, फिर जीवित (रसयुक्त और कोमल) मनुष्यों को स्नेहन और स्वेदन द्वारा इच्छानुसार परिवर्तित क्यों नहीं किया जा सकता?
अर्थात् निश्चित ही किया जा सकता है।
चरक संहिता में होलाक स्वेद अर्थात् होलाक से पसीना लाने की विधि इस प्रकार बताई गयी है-
करीष (गाय आदि के सूखे उपले) को लम्बी परन्तु गोलाकार (धीतिका) बनाकर जला देना चाहिये । होली पर गोबर से बनाये गये मलरियेँ/बड़कुले/भरभोलिया/बल्ले/बुरबुलिया जिनमें बीच में एक छिद्र इस निमित्त निर्मित किया जाता है कि उनको पोह कर गोल माला बनाई जा सके। घरों में बड़ी छोटी मालायें तैयार कर उन्हें जलाये जाने हेतु बड़े से छोटे के क्रम में एक के ऊपर एक रखते हुये शंक्वाकार धीतिका तैयार की जाती है।
और जब यह धूमरहित (धुंआ निकलना पूरा बन्द होने पर) हो जाय, तब इस पर शय्या आदि बिछाकर वातहर तैल का मर्दन करके, उष्ण वस्त्र ओढ़कर सोने/लेटने से सुखपूर्वक पसीना आता है।
यह सुखकारक होलाक-स्वेद है।
धीतीकान्तु करीषाणां यथोक्तानां प्रदीपयेत् ॥
शयनान्तःप्रमाणेन शय्यामुपरि तत्र च ।
सुदग्धायां विधूमायां यथोक्तामुपकल्पयेत् ॥
स्ववच्छन्नः स्वपँस्तत्राभ्यक्तः स्विद्यति ना सुखम् ।
ྈ
इस प्रकार घर के बाहर की होलाका के पूजनोपरान्त उसकी अग्नि घर में लाकर ही घर की होलाका जलाई जाती है, यह संवत्सर की नवीन अग्नि की स्थापना भी है, लोकोत्सव भी है तथा आयुष्य से जुड़ा चिकित्सा कर्म भी है।
हे होलि!
भूते भूतिप्रदा भव །།
पङ्कस्नान – कर्दमप्रसाधन – मृत्तिकालेपन और होलिकोत्सव ‡
नारदजी बोले-विप्रवरो ! पूजन आदि क्रियाओं के लिये पहले स्नान-विधिका वर्णन करता हूँ। पहले नृसिंह-सम्बन्धी बीज या मन्त्रसे
मृत्तिका हाथमें ले। उसे दो भागोंमें विभक्त कर
एक भागके द्वारा (नाभिसे लेकर पैरोंतक लेपन
करे, फिर दूसरे भागके द्वारा) अपने अन्य सब
अङ्गोंमें लेपन कर मल-स्नान सम्पन्न करे। तदनन्तर
शुद्ध स्नान के लिये जलमें डुबकी लगाकर आचमन
करे। ‘नृसिंह’-मन्त्रसे न्यास करके आत्मरक्षा करे। इसके बाद (तन्त्रोक्त रीतिसे) विधि-स्नान
करे और प्राणायामादिपूर्वक हृदयमें भगवान्
विष्णुका ध्यान करते हुए ‘ॐ नमो नारायणाय’
इस अष्टाक्षर-मन्त्रसे हाथमें मिट्टी लेकर उसके
तीन भाग करे। फिर नृसिंह मन्त्रके जपपूर्वक
(उन तीनों भागोंसे तीन बार) दिग्बन्ध करे।
इसके बाद ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।’ इस
वासुदेव-मन्त्रका जप करके संकल्पपूर्वक तीर्थ-
जलका स्पर्श करे। फिर वेद आदिके मन्त्रोंसे अपने शरीरका और आराध्यदेवकी प्रतिमा या
ध्यानकल्पित विग्रहका मार्जन करे। इसके बाद
अघमर्षण-मन्त्रका जपकर वस्त्र पहनकर आगेका
कार्य करे। पहले अङ्गन्यास कर मार्जन-मन्त्रोंसे
मार्जन करे। इसके बाद हाथमें जल लेकर
नारायण-मन्त्रसे प्राण-संयम करके जलको नासिकासे
लगाकर सूँघे। फिर भगवान् का ध्यान करते हुए
जलका परित्याग कर दे। इसके बाद अर्घ्य देकर
(‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।’ इस) द्वादशाक्षर-
मन्त्रका जप करे। फिर अन्य देवता आदिका
भक्तिपूर्वक तर्पण करे। योगपीठ आदिके क्रमसे
दिक्पालतकके मन्त्रों और देवताओंका, ऋषियोंका,
पितरोंका, मनुष्योंका तथा स्थावरपर्यन्त सम्पूर्ण
भूतोंका तर्पण करके आचमन करे। फिर अङ्गन्यास
करके अपने हृदयमें मन्त्रोंका उपसंहार कर
पूजन-मन्दिरमें प्रवेश करे। इसी प्रकार अन्य
पूजाओं में भी मूल आदि मन्त्रोंसे स्नान-कार्य
सम्पन्न करे॥ १-९॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें ‘पूजाके लिये सामान्यतः स्नान-विधिका वर्णन’ नामक
बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ॥
(१. नृसिंह-बीज श्ी’ है। मन्त्र इस प्रकार है-
ॐ उग्रवीरं महाविष्णुं …………. नमाम्यहम्॥
२. सोमशम्भुकी कर्मकाण्डक्रमावलीके अनुसार मिट्टीके एक भागको नाभिसे लेकर पैरोंतक लगावे और दूसरे भागको शेष सारे-
शरीरमें। इसके बाद दोनों हाथोंसे आँख, कान, नाक बंद करके जलमें डुबकी लगावे फिर मन-ही- मन कालाग्नि के समान तेजस्वी
जलका स्मरण करते हुए जलसे बाहर निकले। इस तरह मलस्नान एवं संध्योपासन सम्पन्न करके (तन्त्रोक्त रीतिसे) विधि- स्नान
करना चाहिये (द्रष्टव्य श्लोक ९, १० तथा ११)।
३. प्रत्येक दिशामें वहाँके विघ्नकारक भूतोंको भगानेकी भावनासे उक्त मृत्तिकाको बिखेरना ‘दिग्बन्ध’ कहलाता है।)
होली अर्थात् फाल्गुनोत्सव
शालिवाहन हाल राजाकृत गाथासप्तशती-
चतुर्थ शतक
नायिकां सपरिहासमाह-
फाल्गुनमहनिर्दोषं दत्तं केनापि पङ्कमण्डनकम्।
स्तनकलशाननविलुठत्स्वेदविधौतं हि किमिति धावयसि।।६९।।१
फाल्गुनमहे फाल्गुनोत्सवे निर्दोषं निन्दनीयतारहितम्। ‘मम उद्धव: उत्सव:’ अमर:। केनापि दत्तम्। केनापीत्यनेन न वयं तं परिजानीमो मा लज्जस्वेति नायिकाया अश्वासनं ध्वन्यते। पङ्कमण्डनकं कर्दमरूपं प्रसाधनम्। कर्दमोऽपि निसर्गसुन्दरे त्वद्वपुषि भूषणमिव जातमिति नायिकाया: सौन्दर्यं गूढमभिव्यज्यते। स्तनकलशयोर्मुखात् विलुठन् विगलन् य: स्वेदस्तेन धौतं क्षालितमपि पुन: किमिति धावयसि क्षालयसि। कर्दमप्रक्षेपसमये प्रक्षेप्तरि अनुरागवशात्ते स्वेदोद्गमो बभूवेति लक्षितमस्माभि:। ततश्च त्वं किमित्यस्मत्तो गोपयसि। फाल्गुनोत्सवे त निन्दनीयमिदिमित सख्या ध्वन्यते।
त्वद्वचनादहमगमं तस्या निकटे, परं मामालोक्यापि न सा किञ्चिदुक्तवतीति वदन्तं नायकं प्रौढा दूती सुमधुरमाह-
१. फग्गुच्छणणिद्दोसं केण वि कद्दमपसाहणं दिण्णम्।।
थणअलसमुहपलोट्ठन्तसेअधोअं किणो धुअसि।।६९।।
[फाल्गुनोत्सवनिर्दोषं केनापि कर्दमप्रसाधनं दत्तम्।
स्तनकलशमुखप्रलुठत्स्वेदधौतं किमिति धावयसि।।]
ग्रामणिसुतया बालक गुरुजननिकटेऽपि किं न भणितोऽसि।
अनिमिषमीषद्विवलद्वदनसुनयनार्धसन्दृष्टै।।७०।।१
ग्रामणिसुतया ग्रामनायकपुत्र्या ‘इको ह्रस्वोऽङ्ग्य’ इति ह्रस्व:। अनेन पितृगृहस्थिताया-स्तस्या: सुलभत्वं नववय:शालिनत्वं च द्योत्यते। अनिमिषं निमेषशून्यं यथा स्यात्तथा। ईषद्विवलत् किञ्चित्परवर्तमानं वदनं मुखं येषु एवंभूतानि यानि सुन्दराणि नयनार्धदृष्टानि कटाक्षवीक्षितानि तै: (करणे तृतीया)। गुरुजनसविधेऽपि किं न भणितोऽसि, एतादृशमावश्यकं किमस्ति यन्न भणितोऽसि, अपि तु सर्वं भणितोऽसीत्यर्थ:। नयनार्धसन्दृष्टैर्भणितोऽसीत्यत्र वाच्यार्थतिरस्कारेण लक्षणा। तथा च तया गूढं सूचितोऽसीति व्यङ्ग्योऽर्थ:। पर्यन्ते तु ‘गुरुजनसन्निधानेऽपि सा इङ्गितै: सर्वमात्मगतं प्रकाशयामास, त्वं तु न तत्तात्पर्यमज्ञासीरित्यहो ते मौग्ध्यम्’ इति बालकेतिसम्बोधनसहकारेणाभिव्यज्यते। ”ईषद्विवलितवदनं च नयनार्धदृष्टानि चेति कर्मधारय:’’ इति गङ्गाधरटीका। ‘धूआए’ इत्यस्य ‘स्नुषाया:’ इति च्छायां केचिद्वदन्ति, तेषां मते गुरुजनसमक्षमित्यस्य श्वशुरादिनिकटे इत्यर्थ: स्यात्।
एतमेवार्थं प्रकारान्तरेणाह-
नयनाभ्यन्तरविसरद्वाष्पभरोद्बन्धमन्दया दृष्ट्या।
पुनरुक्तप्रेक्षितया बालक किं यन्न भणितोऽसि।।७१।।२
✍🏻अत्रि विक्रमार्क जी की पोस्टों से संग्रहित