रोक पायेंगें वीर सिंह पंवार धर्मपुर में विनोद चमोली को?
देहरादून 11 फरवरी। उत्तराखंड में मतदान के तीन दिन पहले चुनावी समीकरण करीब-करीब स्थिर हो गये हैं। सत्तारूढ़ भाजपा के पास बड़ा बहुमत होने से उसके पास टिकट वितरण में विवेक उपयोग कर परिवर्तन को स्कोप था जिसका उसने उपयोग किया भी। विधायकों के टिकट कटे। इंटरनेट का जमाना है,लक्सर में कुंवर प्रणव का टिकट उनकी आदतन बदतमीजी से कटा लेकिन पार्टी को उनकी पत्नी को टिकट देने का समझौता करना पड़ा। राजकुमार ठुकराल को अपने मुंहफटपने की सजा भुगतनी पड़ी और जिलाध्यक्ष शिव अरोड़ा की किस्मत खुल गई। बंशीधर भगत का आडियों पार्टी प्रतिद्वंद्वी समय पर ले आते तो उनका टिकट भी कोई नहीं बचा सकता था। कठिन समय के योद्धा हरबंस कपूर से पार्टी दिग्गज बहुत पहले से छुटकारा पाना चाहते थे । काल ने उनकी मदद तो की लेकिन कपूर की छाया से डरी पार्टी टिकट उनके परिवार से बाहर निकाल नहीं पायी। फिलहाल लगता तो नहीं कि विधायकी कपूर परिवार से बाहर आयेगी।
बात धर्मपुर की। टिकट की लड़ाई में मेयर विनोद चमोली स्वर्गीय उमेश अग्रवाल से छीन पाये तो उत्तरांखड आंदोलनकारी होने के नाते। दिग्गज दिनेश अग्रवाल पर उनकी 11 हजार वोटों से जीत कोई बहुत आश्चर्य जनक इसलिए नहीं थी क्योंकि चुनाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की देहरादून रैली भाजपा के पक्ष में पूरे प्रदेश में सुनामी की वजह बनी थी । ये कारक इस बार देहरादून जिले में गायब है लेकिन एक ही कार्यकाल में उनके खिलाफ जनता और पार्टी कार्यकर्ताओं में उनके प्रति नाराजी हैरान करने वाली है। इस बार पिछले चुनाव में उनके सह संयोजक रहे वीर सिंह पंवार सामने डट गए और पार्टी से निष्कासन के रिस्क के बावजूद बड़ी संख्या में कार्यकर्ता भी उनके साथ आये ही नहीं,टिके भी हैं। पेशेवर राजनीतिक में परिवर्तित हो चुके विनोद चमोली इससे परेशान नहीं दिखते जिनका आकलन है कि उनसे नाराज़ लोग दिनेश अग्रवाल की बजाय पंवार के साथ चले जायें तो उनकी हार का रिस्क घटता है।
लेकिन चमोली की छाया से बाहर निकले पंवार के पास खोने को कुछ नहीं है। वे अपनी राष्ट्रवादी समाजसेवी छवि से बाहर आ अपना वजन तोल रहे हैं। पहाड़ी प्रजा परिषद के नेता के रूप में विस्थापित मतदाताओं के लिए उनसे बड़ा नेता आज की तारीख में और कोई नहीं है। 10 साल गढ़ भोज और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजक की उनकी पहचान उन्हे नेताओं की भीड़ से अलग करती है। कोरोनाकाल में उनकी सेवा लोगों के मनोमस्तिष्क में ताज़ा है। अपने लोगों के लिए मंदिर निर्माण को भूमि और धन की व्यवस्था कर कब्रिस्तानों की चिंता करने को चर्चित विनोद चमोली से उन्हें अलग करती है। विद्यार्थी परिषद के विषयों छात्र नेता की पहचान उन्हे भाजपा कार्यकर्ताओं में स्वीकार्य बनाती है। अनाथ-गरीब बच्चियों की शिक्षा-दीक्षा की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठाने की उनकी कारूणिक भावना उन्हें कैरियरिस्ट विनोद चमोली से अलग ऊंचा स्थान दिलाती है।
मजे की बात ये है कि पंवार ने अपने चुनाव घोषणापत्र में ऐसे 16 वायदे ही किये हैं जो विनोद चमोली ने किये और भूल गए। ऐसा पंवार के सहयोगी गिरीराज उनियाल कह रहे हैं। देखें उनका यह वीडियो। बातचीत पंवार और उनियाल के पार्टी से निष्कासन कार्रवाई के पहले की है-
तो क्या आज तक अविजित रहे विनोद चमोली विधायकी में वनटाइम वंडर साबित होंगे? क्या आगे बढ़ते दिखते पंवार पार्टी के प्रतिबद्ध वोटरों के टीले पर खडे चमोली को पीछे छोड़ पायेंगे? ध्यान रहे,टिकट की लड़ाई में हारे भाजपा नेताओं की ताकत भी पंवार का पीछे खड़ी है। राजनीति के मैराथन धावक चमोली के रास्ते से हटे बिना उनकी राजनीति का ‘दि एंड’ है। सो, उनके लिए पंवार की जीत से भी ज्यादा महत्वपूर्ण चमोली की हार है। इन नेताओं का सीधा सा तर्क है और वह यह कि मुस्लिम तुष्टिकरण और राष्ट्र तथा हिन्दू विरोध से अलोकप्रिय हुई कांग्रेस के मुकाबले भाजपा इस बार 60 पार सीटें ला रही है। ऐसे में दंभ और अहंकार से भरे अपनी पार्टी के चुने हुए विधायकों को घर वापस भेजने का इससे बेहतर मौका फिर कभी नहीं मिल सकता। इससे पार्टी की संभावनाओं पर कोई आंच नहीं आती। इस सूची में चमोली का नाम सबसे ऊपर है।
इस लडाई में जाहिर है, कांग्रेस प्रत्याशी दिनेश अग्रवाल महत्वपूर्ण खिलाड़ी हैं। लेकिन साफ़ दिल के, मुंहफट की हद तक स्पष्टवादी , नित्यानंद स्वामी को हरा जायंटकिलर बने दिनेश पर मेयर चुनाव में हार का कलंक है, उम्र और ढीले स्वास्थ्य का फैक्टर उनकी रफ्तार में बाधक है जिससे पांच साल सार्वजनिक जीवन में उनकी उपस्थिति प्रभावित हुई। कांग्रेस के पास उनका कोई विकल्प भी नहीं था।सो, महाभारत के कृपाचार्य की तरह वे मैदान में हैं लेकिन संसाधनों में भी वे अभी भी पीछे दिख रहे हैं।