कांग्रेस से नाराज,हिंदू महासभा से शंकित डॉ. हेडगेवार ने बनाया था रा.स्वयंसेवक संघ
गांधी और सावरकर दोनों से असंतुष्ट हो हेडगेवार ने बनाई थी RSS, जानिए इसका इतिहास
राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ इस समय चर्चा में है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे दुनिया का सबसे बड़ा एनजीओ बताया है। उन्होने लाल किले की प्राचीर से कहा था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दुनिया का सबसे बड़ा एनजीओ है। संघ एक ऐसा संगठन है जिसका देश की राजनीति पर गहरा प्रभाव रहा है। देश के दो प्रधानमंत्री भी इसी संघ से हुए हैं। जिस संघ की इतनी चर्चा हर तरफ हो रही है, इसका इतिहास जानना भी दिलचस्प है। RSS की स्थापना की कहानी काफी रोचक है।
1919तक पहला विश्व युद्ध खत्म हो चुका था। ब्रिटेन ने ऑटोमन साम्राज्य खात्म कर तुर्की की सबसे बड़ी इस्लामिक राजशाही सत्ता से बेदखल कर दी थी। दुनिया के कई मुस्लिम देशों में इसका विरोध हुआ। भारत के मुसलमानों ने भी इसका विरोध किया। तब दो भाईयों शौकत अली और मोहम्मद अली दो भाइयों ने अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था, खिलाफत आंदोलन (खलीफा के लिए) शुरू किया था। उस आंदोलन का एक ही मकसद था- तुर्की में फिर से खलीफा को सत्ता पर काबिज करना था।
खिलाफत आंदोलन और मुस्लिमों की राजनीति
अब भारत में तब तक जलियांवाला बाग हत्याकांड हो चुका था, उस वजह से पूरे देश में रौलेट एक्ट का विरोध हो रहा था। महात्मा गांधी भी अंग्रेजों के खिलाफ एक बड़े आंदोलन की शुरुआत करना चाहते थे, वे हिंदू और मुसलमानों को एक साथ लाना चाहते थे। अब शौकत अली और मोहम्मद अली के खिलाफत आंदोलन में गांधी ने भी हिस्सा लेने का फैसला किया था। उन्हें महसूस हुआ कि इससे एकता का संदेश दिया जाएगा, सभी धर्मों को अंग्रेजों के खिलाफ साथ लाया जाएगा। महात्मा गांधी ने नारा दिया था- जिस तरह हिंदुओं के लिए गाय पूज्य है, उसी तरह मुसलमानों के लिए खलीफा।
जब गांधी से नाराज हो गए थे हेडगेवार
अब महात्मा गांधी ने तो ऐलान कर दिया था कि वे खिलाफत आंदोलन का समर्थन करेंगे, लेकिन नागपुर के रहने वाले केशव बलिराम हेडगेवार को यह नीति रास नहीं आ रही थी। वे तब नए-नए कांग्रेसी बने थे, डॉक्टरी की पढ़ाई कर आए थे। उनका मानना था कि महात्मा गांधी को खिलाफत आंदोलन का समर्थन नहीं करना चाहिए। इस घटना के बारे में सीपी भिशीकर ने अपनी किताब ‘केशव: संघ निर्माता’ में काफी विस्तार से लिखा है। वे बताते हैं कि हेडगेवार ने गांधी के सामने अपनी बात स्पष्ट कर दी थी। उन्होंने दो टूक कहा था कि मुसलमानों ने यह साबित कर दिया है कि उनके लिए देश से पहले उनका धर्म आता है। इसी आधार पर हेडगेवार चाहते थे कि गांधी इस आंदोलन से दूरी बनाए रखें।
गांधी की एकता अंबेडकर को भी नहीं आई रास
अब हेडगेवार के मन में आक्रोश के बीज पनप चुके थे, वें कांग्रेस के साथ थे, लेकिन उनके लिए उसकी विचारधारा के साथ चलना मुश्किल हो रहा था। अब समय बीतता गया और 1921 आते-आते खिलाफत आंदोलन की आग केरल तक पहुंच गई। केरल के ही मालाबार इलाके में हिंदुओं और मुसलमानों में झड़प हुई, इस लड़ाई ने 2000 से ज्यादा लोगों की जान ली। अब इस हिंसा के बाद महात्मा गांधी भी दबाव में आ चुके थे, उनकी एकता का सपना टूट रहा था। उनके फैसले पर सवाल उठने शुरू हो चुके थे। ऐसा ही एक सवाल डॉक्टर भीम राव अंबेडकर ने भी उठाया था। उनकी किताब ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान; में इस घटना का जिक्र मिलता है।
हिंदुओं पर अत्याचार, कांग्रेस की चुप्पी और नाराज हेडगेवार
अंबेडकर ने कहा था कि खिलाफत आंदोलन का सिर्फ एक उदेश्य था, ब्रिटिश हुकूमत खत्म कर इस्लामिक राज स्थापित करना। तब जबरन धर्म परिवर्तन भी हुए और मंदिर तोड़े गए। उसी किताब में अंबेडकर ने गांधी पर सवाल उठाया था कि क्या इसे ही गांधी की हिंदू-मुस्लिम एक करने की कोशिश माना जाए, उन्हें इससे क्या मिला है। अब इतना सब कुछ हो गया, हेडगेवार अपनी आंखों से देखते रहे, सहते रहे, लेकिन तब उन्होंने कांग्रेस का साथ नहीं छोड़ा।
हेडगेवार का कांग्रेस से अलग रास्ता और संघ का जन्म
फिर 1923 में नागपुर में सांप्रदायिक दंगा भड़क गया। वहां के कलेक्टर ने हिंदुओं को झांकी नहीं निकालने दी थी, इससे बवाल हुआ और देखते ही देखते दंगा हो गया। हेडगेवार को लगा कि जो कांग्रेस मुसलमानों के खिलाफत आंदोलन का समर्थन कर सकती है, वो अब हिंदुओं के समर्थन में भी उतर सकती थी, वो नागपुर घटना का भी विरोध कर सकती है। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, कांग्रेस चुप रही और हेडगेवार ने अलग रास्ता चुनने की ठान ली।
कुछ समय तक वे हिंदू महासभा से जुड़े, लेकिन उन्हें लगा कि बात जब अपने हितों की आएगी, हिंदू महासभा भी शायद हिंदुओं से मुंह फेरे। तब हिंदुओं की आवाज हिंदू महासभा उठाती थी। वीर सावरकर उसके प्रमुख थे, उनकी भी महात्मा गांधी के साथ ठनी रहती थी। लेकिन हेडगेवार के विचार उनसे भी ज्यादा मेल नहीं खाए, इसी से उन्होंने 1925 में विजयदशमी को अपने घर एक बैठक की। बैठक में पांच लोग शामिल हुए- गणेश सावरकर, डॉक्टर बीएस मुंजे, एलवी परांजपे और बीबी थोलकर। बैठक में हेडगेवार ने घोषणा कर दी- हम अब संघ शुरू कर रहे हैं। एक साल बाद 17 अप्रैल, 1926 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी कि RSS की स्थापना हो गई। खाकी शर्ट, खाकी पैंट और खाकी कैप पहचान बनी और शाखायें लगने लगी।
गांधी का नमक आंदोलन, 9 महीने जेल में रहे हेडगेवार
अब शाखाओं का आयोजन होने लगा तो एक ऐसे स्थान की भी जरूरत थी जहां सभी इकट्ठे हो सकें। ऐसे में नागपुर के ‘मोहिते का बाड़ा’ मैदान हेडगेवार ने चुना और कई सालों तक वहां संघ की शाखा लगी। आजादी की लड़ाई तेज हो रही थी और संघ को भी अपनी पहचान बनानी थी। ऐसे में 1930 में महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ नमक आंदोलन शुरु किया, संघ कार्यकर्ताओं के मन में एक सवाल उठा- क्या उन्हें भी गांधी का समर्थन करना चाहिए? अंग्रेज विरोधी तो वे भी थे, तो क्या इस लड़ाई में गांधी के साथ जाएं? संघ कार्यकर्ता चाहते थे कि वे भगवा झंडे के साथ उस आंदोलन में जुड़ जाएं।
लेकिन हेडगेवार ने साफ कर दिया था कि अगर भगवा झंडे और संघ की पोशाक में ही उस आंदोलन में हिस्सा लिया गया, तो ब्रिटेश हुकूमत उनका संगठन बैन कर देगी। ऐसे में अगर कोई इस आंदोलन का हिस्सा बनना भी चाहता है तो व्यक्तिगत रूप से शामिल हो, वो संघ कार्यकर्ता बन वहां नहीं जाएगा। अब बड़ी बात यह है कि हेडगेवार ने खुद महात्मा गांधी के उस आंदोलन में हिस्सा लिया था, लेकिन संघ प्रमुख के रूप में नहीं बल्कि सामान्य व्यक्ति के रूप में। इससे उन्हें जेल भी हुई और 9 महीने तक वे काल कोठरी में रहे।
RSS के 100 वर्ष : भारत के स्वतंत्रता संग्राम में संघ
1925 में आरएसएस की औपचारिक स्थापना से पहले ही इसके संस्थापक डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार स्वतंत्रता संग्राम के सक्रिय सेनानी थे, जो आजादी के आंदोलन की भट्टी में तपकर निकले थे। असहयोग आंदोलन में डॉक्टर हेडगेवार के भाषणों में इतनी प्रखरता थी कि तत्कालीन नागपुर के जिला कलेक्टर सिरिल जेम्स इरविन ने उन्हें एक वर्ष तक सार्वजनिक भाषण देने से प्रतिबंधित करने का आदेश जारी कर दिया
@शाश्वत पाणिग्राही
इतिहास केवल वह नहीं है जो लिखा गया है, वह भी है जो छुपा रह गया। भारत की स्वतंत्रता की भव्य कथा में सुर्खियां कुछ चुनिंदा लोगों के ही हिस्से में आईं। लेकिन ऐसे भी कुछ थे, जो आजादी के आंदोलन की पिछली गलियों से गुजरे, बिना किसी प्रतिफल की अपेक्षा के। उनमें से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के हजारों स्वयंसेवक थे – अनुशासित, समर्पित और संकल्पित; जिन्होंने बलिदान को मिट्टी में अंकित कर दिया और जहां-जहां राष्ट्र ने रक्त बहाया, वहां वे मौजूद थे।
इस अक्टूबर आरएसएस अपने शताब्दी वर्ष की दहलीज पर है, और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 79वें स्वतंत्रता दिवस संबोधन में संघ की व्यक्ति निर्माण से लेकर राष्ट्र निर्माण तक की व्यापक भूमिका की सराहना की है। ऐसे में यह बिल्कुल समीचीन है कि हम इतिहास के पन्ने फिर से पलटें और स्वतंत्रता संग्राम में संघ के अक्सर उपेक्षित योगदानों पर दृष्टि डालें। आरएसएस के स्वयंसेवकों ने, जो मौन बलिदान में विश्वास रखते थे, केवल ब्रिटिश साम्राज्य से ही नहीं बल्कि उपनिवेशवाद द्वारा बोए गए आत्म-संदेह के गहरे रोग से भी संघर्ष किया। फिर भी वामपंथी इतिहासकारों के कारण उनके बलिदान को जान-बूझकर भारत की स्वतंत्रता संग्राम की कथा से मिटा दिया गया।
स्वतंत्रता आंदोलन में आरएसएस संस्थापक
1925 में आरएसएस की औपचारिक स्थापना से पहले ही इसके संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार स्वतंत्रता संग्राम के एक सक्रिय सेनानी थे, जो आजादी के आंदोलन की भट्टी में तपकर निकले थे। कांग्रेस द्वारा पूर्ण स्वतंत्रता का संकल्प घोषित करने से ठीक नौ वर्ष पहले, 1920 में डॉ. हेडगेवार नागपुर इकाई के संयुक्त सचिव के रूप में कार्यरत थे और उन्होंने पूर्ण स्वराज की मांग करते हुए एक प्रस्ताव रखा था। प्रस्ताव में कहा गया था- “कांग्रेस का लक्ष्य है पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करना, एक भारतीय गणराज्य की स्थापना करना, और विश्व के अन्य राष्ट्रों को पूंजीवादी साम्राज्यवाद के शोषण और अत्याचार से मुक्त कराना।”
असहयोग आंदोलन के दौरान डॉक्टर हेडगेवार के भाषणों में इतनी प्रखरता थी कि तत्कालीन नागपुर के जिला कलेक्टर सिरिल जेम्स इरविन ने उन्हें एक वर्ष तक सार्वजनिक भाषण देने से प्रतिबंधित करने का आदेश जारी कर दिया। लेकिन डॉक्टर हेडगेवार निरुत्साहित नहीं हुए। उनका लिखित उत्तर और भी प्रज्वलित था- इतना कि जज स्मैली ने टिप्पणी की, “इनका बचाव वक्तव्य इनके भाषण से भी अधिक राजद्रोही है।” अदालत ने उन्हें एक वर्ष के कारावास की सजा सुनाई।
जेल से रिहा होने के बाद डॉक्टर हेडगेवार ने एक गहरी घोषणा की- “नैतिक, सांस्कृतिक और सभ्यतागत एकता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता निरर्थक होगी।” इसी विश्वास के साथ उन्होंने 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की, ताकि उस विचार को स्वरूप और शक्ति मिल सके।
स्वतंत्रता आंदोलन में नई ऊर्जा भरता आरएसएस
1929 में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के ऐतिहासिक लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पारित हुआ। इस ऐतिहासिक निर्णय पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए डॉक्टर हेडगेवार ने सभी आरएसएस शाखाओं को संदेश भेजा- “हमें प्रसन्नता है कि एआईसीसी ने अब अपने लक्ष्य को इतनी स्पष्टता से व्यक्त किया है। इसलिए, इस संगठन का समर्थन और सहयोग करना हमारा कर्तव्य है — यह तो स्वाभाविक है।”
1930 में महात्मा गांधी द्वारा सविनय अवज्ञा आंदोलन आरंभ किए जाने पर डॉक्टर हेडगेवार ने स्वयं इसमें सक्रिय भाग लेने का निर्णय लिया। आर.एस.एस. के सरसंघचालक के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ कुछ समय के लिए डॉक्टर एलवी परांजपे को सौंप दीं। डॉक्टर परांजपे ने स्वयंसेवकों से कहा— “जो आंदोलन में भाग लेना चाहते हैं, वे अवश्य लें। अन्य लोग इस नवोदित संगठन के लिए कार्य करें। असली कार्य है ऐसे लोगों का संगठन करना जो इस राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राण न्योछावर कर सकें।”
यवतमाल में सत्याग्रह में भाग लेने के लिए रवाना होने से पूर्व, नागपुर में सैकड़ों स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए डॉक्टर हेडगेवार ने कहा— “यह भ्रम न पालें कि वर्तमान आंदोलन ही स्वतंत्रता का अंतिम संघर्ष है। असली संघर्ष इसके बाद शुरू होगा, और आने वाले उस संघर्ष में पूर्ण बलिदान के लिए तैयार रहना। हम इस सत्याग्रह में इसलिए भाग ले रहे हैं क्योंकि हमें विश्वास है कि यह हमें स्वतंत्रता की ओर एक और कदम आगे ले जाएगा।”
डॉक्टर हेडगेवार को नौ माह के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई और उन्हें अलोका जेल में बंद किया गया, जहां सैकड़ों स्वयंसेवक उनके साथ कैद रहे। इनमें 11 स्वयंसेवकों को चार-चार माह के कठोर कारावास की सजा दी गई।
संगठन का अडिग ब्रिटिश-विरोधी रुख जल्द ही औपनिवेशिक शासन की नजर में आ गया। सेंट्रल प्रोविंसेज़ एवं बेरार पुलिस की एक रिपोर्ट में उल्लेख किया गया कि डॉक्टर हेडगेवार की भागीदारी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन में “नई ऊर्जा का संचार” किया। असंख्य आरएसएस स्वयंसेवकों ने सविनय अवज्ञा आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया, जबकि अनेक ने चुपचाप लेकिन दृढ़ समर्थन दिया। नागपुर, वर्धा, पुणे और लाहौर जैसे शहरों में शाखाओं ने गुप्त अभ्यास और अध्ययन मंडलियों का आयोजन किया, जिनमें स्वयंसेवकों को आत्मरक्षा और सामुदायिक संगठन का प्रशिक्षण दिया जाता था ताकि स्वतंत्रता आंदोलन में नई ऊर्जा भरी जा सके।
कई स्वयंसेवक गुप्त रूप से प्रतिबंधित राष्ट्रवादी साहित्य का प्रसार कर रहे थे, क्रांतिकारियों को पुलिस निगरानी से बचाने में मदद कर रहे थे, और कड़े दमन के दौर में भोजन व सूचनाओं की आपूर्ति श्रृंखला बनाए रख रहे थे। इनमें से एक थे लक्ष्मणराव भिड़े (संघ के प्रारंभिक प्रचारकों में से एक), जिन्होंने क्रांतिकारियों के साथ घनिष्ठ समन्वय में कार्य किया और ब्रिटिश पुलिस की लगातार प्रताड़ना सही।
आरएसएस और भारत छोड़ो आंदोलन
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जब कांग्रेस नेतृत्व को बड़े पैमाने पर जेलों में डाल दिया गया, तब आरएसएस और इसके स्वयंसेवक जन-व्यवस्था बनाए रखने, पीड़ितों को राहत पहुंचाने और ब्रिटिश दमन के सामने डटकर खड़े रहने के लिए आगे आए। कई स्वयंसेवकों ने गिरफ्तारी भी दी।
महाराष्ट्र के सतारा में, स्वयंसेवकों ने क्रांतिकारियों की सहायता के लिए गुप्त नेटवर्क बनाए। विदर्भ में, उन्होंने गांधी जी के प्रतिबंधित भाषणों का प्रसार किया और जेल जाने का जोखिम उठाया। चिमूर और आष्टी में, आरएसएस कार्यकर्ताओं ने कांग्रेस जुलूसों का नेतृत्व किया, जिन्हें प्रचंड विद्रोहों में बदल दिया गया और पुलिस थानों पर धावा बोला। बंगाल, पंजाब और बिहार में, उन्होंने स्वतंत्रता सेनानियों को अपने घरों में शरण दी।
1942 के एक पत्र में, प्रख्यात कांग्रेस नेता आचार्य कृपलानी ने उन उथल-पुथल भरे दिनों में आरएसएस के स्वयंसेवकों के अटल संकल्प का उल्लेख करते हुए लिखा – “कांग्रेस के दमन के समय आर.एस.एस. के स्वयंसेवकों ने निस्वार्थ भाव से कार्य किया।” उस दौर की ब्रिटिश खुफिया रिपोर्टों में भी “आर.एस.एस. खतरे” के बढ़ते प्रभाव को स्वीकार किया गया – एक ऐसी शक्ति जो वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध, अत्यंत अनुशासित और जिसमें घुसपैठ करना असंभव था।
आजाद हिंद फौज: स्वयंसेवक भी थे साथ
अनेक स्वयंसेवक आज़ाद हिंद फ़ौज की ओर आकर्षित हुए, क्योंकि नेताजी सुभाष चंद्र बोस में उन्होंने अडिग देशभक्ति का साक्षात स्वरूप देखा। नगरों और गाँवों में असंख्य स्वयंसेवकों ने चुपचाप आईएनए भर्ती अभियानों को सहयोग दिया — बैठकें आयोजित कीं, संदेश पहुँचाए, शरण प्रदान की और उस लक्ष्य के लिए निःशब्द कार्य करते रहे, जो उनके हृदय में गर्जना करता था।
अज्ञात, अडिग, अटूट
आरएसएस के स्वयंसेवक भारत माता को बेड़ियों से मुक्त कराने को डटे रहे। जब आंधियों ने टिमटिमाती ज्योति को बुझाने की कोशिश की, तब उन्होंने उसे अपने प्राणों से बचाया। उन्होंने राष्ट्र के फटे हुए ताने-बाने को ताली या प्रशंसा के लिए नहीं, बल्कि भारत की आत्मा को अखंड रखने के लिए सीया।
इतिहासकारों से उपेक्षित, उनकी गाथा पाठ्यपुस्तकों में नहीं, बल्कि उन लोगों के हृदयों में अंकित है जिन्हें उन्होंने बचाया। कोलकाता की तंग गलियों से लेकर दिल्ली के भीड़भाड़ वाले शरणार्थी शिविरों तक। आज भी उनकी विरासत सांस लेती है – उस स्वयंसेवक में जो बाढ़ के पानी में उतरकर अजनबियों को बचाता है, उस युवक में जो सूर्योदय से पहले शाखा में जुटता है। उनके लिए भारत माता का आशीर्वाद ही सबसे बड़ा पुरस्कार था, और आज भी है
संघ पर लगा बैन और संविधान की स्थापना
अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सबसे बड़ी चुनौती 1949 में तब आई जब नाथुराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या कर दी। उस हत्या के साथ क्योंकि संघ का नाम जुड़ा, ऐसे में संगठन पर ही बैन लगा दिया गया। बाद में सरकार ने ही आदेश दिया और संघ ने अपना खुद का एक संविधान तैयार किया। उस संविधान में 25 अनुच्छेद हैं। संविधान में पांच बातों पर सबसे ज्यादा फोकस है- संघ का उदेश्य क्या है, संघ की फंडिंग कैसे होगी और संघ का वर्किंग स्ट्रक्चर कैसा होगा। संघ ने कई दूसरे संगठन भी शुरू कर रखे हैं, सभी उसकी विचारधारा को ही अलग-अलग क्षेत्रों में आगे बढ़ा रहे हैं।
संघ के प्रमुख संगठन
इस समय अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, विश्व हिंदू परिषद, सेवा भारती, वनवासी कल्याण आश्रम, भारतीय किसान संघ, राष्ट्रीय मुस्लिम मंच, राष्ट्र सेविका समिति प्रमुख संगठन हैं। इसके अलावा दुनिया के कुल 39 देशों में संघ की विभिन्न शाखाएं लगाई जाती हैं। दिलचस्प बात यह है कि विदेशों में संघ की पोशाक बदल जाती है, वहां वो सफेद शर्ट और ब्लैक पैंट पहनती है। विदेशों में संघ शाखाओं में नारा भी भारत माता की जय नहीं बल्कि ‘विश्व धर्म की जय हो’ लगाया जाता है।
