शिक्षक की हत्या के बाद सैकुलर फ्रांस में गहराई इस्लाम पर बहस
सेक्युलर फ़्रांस में शिक्षक की हत्या के बाद इस्लाम को लेकर गहरी बहस जारी
ज़ुबैर अहमद
फ़्रांस इन दिनों एक गंभीर मंथन से गुज़र रहा है. इसका कारण 18 साल के चेचन मूल के एक लड़के की बर्बरता है जिसने 16 अक्टूबर को हाई स्कूल के एक शिक्षक की सिर काटकर हत्या कर दी. 47 वर्षीय शिक्षक सैमुअल पैटी छात्रों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में पढ़ा रहे थे और इसी सिलसिले में उन्होंने शार्ली एब्दो के कार्टूनों का ज़िक्र किया था.
फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने इसे “इस्लामिक आतंकवादी” हमला कहा और उनकी सरकार ने “इस्लामिक आतंकवाद” के ख़िलाफ़ लड़ाई छेड़ दी है. देश में इस समय कम ही लोग ऐसे होंगे जो राष्ट्रपति के इस बयान से असहमत हों. विपक्ष के एक नेता ने कहा “हमें आँसू नहीं, हथियार चाहिए”. पूरे देश में भावनाएँ इस समय उफ़ान पर हैं.
पुलिस ने हमले के बाद कुछ 40 जगहों पर छापा मारा और 16 लोगों को हिरासत में ले लिया लेकिन बाद में छह को छोड़ दिया गया, सरकार ने एक मस्जिद भी बंद करने का आदेश दिया है. उस मस्जिद के ख़िलाफ़ आरोप है कि उसने पैटी की हत्या से पहले वहाँ से फ़ेसबुक पर वीडियो साझा किया गया और उस स्कूल का नाम-पता बताया गया जहाँ पैटी पढ़ाते थे.
पैग़ंबर मोहम्मद के ख़िलाफ़ बयान और उनके चित्र को दिखाना मुसलमानों के लिए धार्मिक रूप से संवेदनशील मामला है क्योंकि इस्लामिक परंपरा स्पष्ट रूप से मोहम्मद और अल्लाह (भगवान) की छवियों को दिखाने से मना करती है.
यह मुद्दा फ़्रांस में विशेष रूप से 2015 में उस समय से चर्चा में है जब से व्यंग्य पत्रिका ‘शार्ली ऐब्दो’ ने पैग़ंबर मोहम्मद के कार्टून प्रकाशित करने का निर्णय लिया, फ़्रांस में कार्टून के प्रकाशन के बाद पत्रिका कार्यालय पर हमला करके 12 लोगों को मार डाला गया था
सैमुअल पैटी की हत्याः खुलकर दिखने लगा फ्रांस की धर्मनिरपेक्ष पहचान पर बढ़ रहा विभाजन
हमले वाली जगह
पेरिस में अज्ञात हमलावर ने शिक्षक का सिर काटा, राष्ट्रपति मैक्रों ने कहा, ‘इस्लामिक आतंकी हमला’
सेक्युलर पहचान पर चोट
फ्रांस
तथाकथित इस्लामिक स्टेट स्टाइल वाली हत्या के बाद फ़्रांस में राष्ट्रीय एकता का ज़ोरदार प्रदर्शन देखने को मिल रहा है. लेकिन विश्लेषक कहते हैं कि इस हत्या के बाद देश के कुछ हिस्सों में धर्मनिरपेक्षता और बोलने की स्वतंत्रता के मामले में सालों से दबा अंसतोष बाहर आ गया है.
फ़्रांस की राष्ट्रीय पहचान का केंद्र है सरकार की सख़्त धर्मनिरपेक्षता, ये उतना ही अहम है जितना कि “स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व” की अवधारणाएं जो फ़्रांसीसी क्रांति के बाद से देश, समाज और उसके संविधान का आधार रही हैं.
फ़्रांस में सार्वजनिक स्थान, चाहे स्कूल हों, अस्पताल या दफ़्तर, सरकारी नीति के हिसाब से वे किसी भी धर्म के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त होने चाहिए, फ़्रांस नीतिगत तौर पर मानता है कि किसी भी धर्म की भावनाओं की रक्षा करने की कोशिश, स्वतंत्रता और देश की एकता में बाधक है.
दरअसल, इस हत्या से दो सप्ताह पहले यानी दो अक्टूबर को राष्ट्रपति मैक्रों ने अपने एक भाषण में ‘इस्लामिक कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ युद्ध’ के तौर पर एक क़ानून का प्रस्ताव रखा था, अगर क़ानून पास हो गया तो विदेश के इमाम फ़्रांस की मस्जिदों में इमामत नहीं कर सकेंगे, और छोटे बच्चों को घरों में इस्लामी शिक्षा नहीं दी जा सकेगी.
शार्ली ऐब्दो
दक्षिण फ़्रांस में एक हाई स्कूल की शिक्षिका मार्टिन जिब्लट को इस बिल के कुछ प्रावधानों पर सख़्त आपत्ति है.वो कहती हैं,”आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई के बारे में मैक्रों के भाषण से मुझे जो चोट लगी,वह थी घर के भीतर दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा पर प्रतिबंध.ये मुझे स्वतंत्रता की हत्या करने वाला प्रावधान लगा.मैं कई माताओं-पिताओं को जानती हूँ जो ऐसा करते हैं.उनके घरों पर नियमित रूप से शिक्षा अधिकारियों के दौरे होते हैं कि वो घर में अपने बच्चों को क्या पढ़ा रहे हैं.”
उन्होंने सरकार और मीडिया पर झूठ फैलाने का आरोप लगाया, “सरकार से इतने झूठ सुनने को मिलते हैं कि मैंने पहले से ही फ़्रेंच मुख्यधारा के समाचार चैनल को देखना बंद कर दिया था, वे दर्शकों में डर पैदा करते हैं जो लोगों का ब्रेनवॉश करने का सबसे अच्छा तरीक़ा है.”
लेकिन राष्ट्रपति मैक्रों के मुताबिक़, उनके क़ानून का मक़सद ये है कि “फ़्रांस में एक ऐसे इस्लाम को बढ़ाया जाए जो आत्मज्ञान के अनुकूल हो.” तो क्या राष्ट्रपति के इस बयान का मतलब ये निकाला जाए कि फ़्रांस के स्टेट सेकुलरिज्म के साथ वहां के मुसलमानों के धार्मिक विचारों का तालमेल नहीं है?
पश्चिमी यूरोप में सबसे ज़्यादा मुसलमान फ़्रांस में ही रहते है
अमरीका में सैन डिएगो यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर और ‘इस्लाम, अथॉरिटेरियनिज़्म एंड अंडरडेवलपमेंट’ के लेखक अहमत कुरु कहते हैं कि ज़मीनी हक़ीक़त बहुत जटिल है. उनके मुताबिक़, “सेक्युलर फ़्रांस ने वास्तव में कैथोलिक लोगों के लिए कई अपवाद हैं, सरकार निजी कैथोलिक स्कूलों को पर्याप्त सार्वजनिक धन मुहैया कराती है, और फ़्रांस में 11 आधिकारिक छुट्टियों में से छह कैथोलिक महत्त्व वाले दिन हैं. वहाँ अक्सर धर्मनिरपेक्षता का मतलब मुसलमानों के धार्मिक मुद्दों को अस्वीकार करना होता है.”
प्रोफ़ेसर कुरु के अनुसार पिछले कुछ सालों में फ़्रांस में एक ऐसे सेक्युलरिज़्म की मांग बढ़ी है जिसमे बहुसंस्कृतिवाद को जगह दी जाए. वो कहते हैं, “उदाहरण के तौर पर प्रख्यात विद्वान ज्यां बॉबरो एक “बहुलवादी धर्मनिरपेक्षता” की वकालत करते हैं, एक ऐसे सिस्टम की वकालत जो सार्वजनिक संस्थानों में कुछ धार्मिक प्रतीकों को सहन कर सके.”
डेनमार्क की आरहूस यूनिवर्सिटी में भारतीय मूल के प्रोफ़ेसर और लेखक डॉक्टर ताबिश ख़ैर सालों से यूरोप में रह रहे हैं और भारत में इस्लामी कट्टरपंथ और यूरोप में इस्लाम विरोधी नस्लवाद दोनों की हिंसा का निजी तौर पर अनुभव कर चुके हैं. उन्होंने फ़्रांस में जारी संकट पर कहा, “हमें सबसे पहले फासीवादी हिंसा के किसी भी ऐसे कार्य की तुरंत निंदा करनी चाहिए जो किसी धर्म, राष्ट्र या विचारधारा के नाम पर हो. दूसरी बात यह है कि इस काम को कोई लेबल नहीं देना चाहिए.”
क्या ये एक इस्लामिक चरमपंथ का हमला था?
राष्ट्रपति मैक्रों की योजना में मुसलमानों के निजी स्कूलों पर भी नज़र रखी जाएगी
फ़्रांस के राष्ट्रपति ने शिक्षक की हत्या को ‘इस्लामिक आतंकवाद’ का नाम दिया है जिसे ताबिश ख़ैर सही नहीं मानते, वो कहते हैं, “यह आतंक का एक कार्य है, आतंकवाद का नहीं, अगर किसी समूह ने इसकी योजना नहीं बनाई तो यह भ्रामक है. कुछ मायनों में, यह बदतर है. यह दिखाता है कि अचानक कोई भी व्यक्ति, जो धार्मिक कट्टरपंथी और क्रोध से प्रेरित है, इस तरह के घिनौने अपराध कर सकता है”.
ताबिश मानते हैं कि इस तरह की घटनाओं के बाद किसी एक धर्म या समुदाय के लोगों को कटघरे में खड़ा करना किसी तरह से सही नहीं है. वे कहते हैं, “मुसलमानों को बलि का बकरा बनाने के पीछे राजनीतिक नेतृत्व का मक़सद अपनी नाकामियों को छिपाना ही होता है.”
प्रोफ़ेसर अहमत कुरु के अनुसार, इस्लाम के सामने “संकट” मुस्लिम दुनिया की ऐतिहासिक और राजनीतिक विफलताओं में निहित है, इस्लाम धर्म में ही नहीं.”
वो कहते हैं, “मिस्र, ईरान और सऊदी अरब जैसे कई मुस्लिम देशों में लंबे समय से स्थायी सत्तावादी शासन और पुराना पिछड़ापन है. दुनिया के 49 मुस्लिम बहुल देशों में से 32 में, ईशनिंदा के क़ानून के तहत लोगों को दंडित किया जाता है, छह देशों में, ईशनिंदा की सज़ा मौत है. ये क़ानून, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अवरुद्ध करते हैं, इस्लाम के रूढ़िवादी आलिमों और सत्तावादी शासकों के हितों में होते हैं, इस्लाम धर्म के हित में नहीं. वे वास्तव में क़ुरान की उन आयतों का उल्लंघन हैं जिनमें मुसलमानों से अन्य धर्मों के लोगों के ख़िलाफ़ ज़बरदस्ती या जवाबी कार्रवाई नहीं करने का आग्रह किया गया है.”
फ़्रांस में शिक्षक की हत्या
दूसरी तरफ़, इस्लामोफ़ोबिया (इस्लाम से डर) भी आज फ़्रांस और यूरोप में एक हक़ीक़त है. दक्षिण फ़्रांस के शहर ‘नीस’ के निकट इटली की सरहद से सटे एक क़स्बे ‘मोंतों’ की रहने वाली एक फ़्रेंच युवती मार्गेरिटा मरीनकोला कहती हैं कि इस घटना को इस्लाम से जोड़ना ठीक नहीं है, “मेरा नज़रिया फ़्रांस में बहुत लोकप्रिय नहीं है, बेशक फ़्रांस में जो हुआ है उसकी मैं पूरी तरह से निंदा करती हूं और बोलने की आज़ादी के ख़िलाफ़ हिंसा की भी निंदा करती हूँ. लेकिन ये कार्य किसी भी तरह से इस्लाम और मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं और मुझे डर है कि यहाँ इस बात को अच्छी तरह से समझा नहीं गया है.”
वो आगे कहती हैं, “एक फ़्रासीसी नागरिक के रूप में मैं पूरी तरह से बोलने की स्वतंत्रता का समर्थन करती हूं लेकिन किसी भी तरह से इसका लेना-देना व्यंग्य पत्रिका शार्ली ऐब्दो से नहीं है जो फ़्रेंच मॉडल से अलग हर चीज़ का लगातार अपमान करता है, बहुत अहंकार भरे तरीक़े से.”
कुछ फ़्रांसीसी मुसलमानों का कहना है कि वे अपने धार्मिक विश्वास के कारण नस्लवाद और भेदभाव के निशाने पर लगातार रहे हैं और ये एक ऐसा मुद्दा है जिसने लंबे समय से देश में तनाव पैदा कर रखा है, कुछ कहते हैं कि जान-बूझ कर उन्हें उकसाने की कोशिश सालों से जारी है.
दिल्ली में फ़्रेंच दूतावास में काम करने वाली एक राजनयिक के अनुसार उनके देश में मामला पेचीदा है. वो कहती हैं, “फ़्रांस के दक्षिणपंथियों के अनुसार उन्हें समस्या उन मुसलमानों से है जो रहते फ़्रांस में हैं, पैदा वहाँ हुए लेकिन उनके रहने का अंदाज़ और उनकी विचारधारा उनके पूर्वजों के देशों से प्रेरित है, जो फ़्रांस के सेक्युलर माहौल से मेल नहीं खाता है.”
लेकिन हाई स्कूल शिक्षक मार्टिन कहती हैं, “बोलने की आज़ादी का ये मतलब नहीं कि किसी के धार्मिक विचारों को जान-बूझ कर ठेस पहुँचाया जाए.
एकीकरण का फ़्रेंच मॉडल नाकाम?
फ्रांस में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
पश्चिमी यूरोप में मुसलमानों की सबसे अधिक आबादी फ़्रांस में रहती है जो देश की कुल आबादी का 10 प्रतिशत है. ये लोग मोरक्को, अल्जीरिया, माली और ट्यूनीशिया जैसे देशों से आकर फ़्रांस में आबाद हुए हैं, जहाँ फ़्रांस ने 19वीं और 20वीं शताब्दी में हुकूमत की थी. इनकी पहली पीढ़ी को नस्लवाद की समस्या को झेलना पड़ा लेकिन शायद बाद की पीढ़ियों ने इसे स्वीकार नहीं किया और अपनी अलग पहचान बनाए रखने के लिए सिस्टम को चुनौती देना शुरू कर दिया. सेक्युलरिज़्म की पॉलिसी के अंतर्गत एक ऐसा फ़्रेंच मॉडल पनपा जिसमें अल्पसंख्यक आबादी को देश की मुख्यधारा में पूरी तरह से जोड़ने की कोशिश की गई.
जहाँ मार्गरीटा मरीनकोला रहती हैं उसके आस-पास के शहरों में मार्से और नीस शामिल हैं जो मुस्लिम अरबों की आबादी और संस्कृति के लिए जाने जाते हैं. वो कहती हैं कि एकीकरण का फ़्रेंच मॉडल काम नहीं कर रहा है. वे कहती हैं, “मेरे विचार में समस्या एकीकरण का फ़्रेंच मॉडल है, यह काम नहीं कर रहा है और अपराधी आसानी से ऐसे लोगों को ब्रेनवॉश कर रहे हैं, जो अब इस्लाम के बहाने इस्तेमाल हो रहे हैं.”
एकीकरण की नीति काम नहीं कर रही है इसकी चिंता फ़्रेंच समाज को भी है. 16 अक्टूबर को शिक्षक पर हमला करने वाला चेचन शरणार्थी 18 साल का था. फ़्रांस में इस उम्र के लोगों के अंदर अपनी पहचान को लेकर सवाल हैं, काली नस्ल और अरब मुस्लिम बच्चों के दिमाग़ में ये सवाल बार-बार उठते हैं.
छह साल पहले नीस शहर के निकट मुझे एक हाई स्कूल के लड़के और लड़कियों से तीन दिनों तक क्लास में बातचीत करने का अवसर मिला था. मुझसे कहा गया कि मैं विद्यार्थियों से भारत के बहुसांस्कृतिक समाज में रहने के अपने अनुभव उनसे साझा करूँ, मैंने ये महसूस किया कि बच्चों के मन में अनेक सवाल थे और वो अधिकतर उनकी अपनी पहचान से जुड़े थे. और शायद स्कूल के अधिकारियों ने इसे महसूस किया और मेरे अनुभव से कुछ बच्चों को दिशा मिले, इसीलिए मुझे वहां बुलाया.
पेटी
स्कूल के विद्यार्थी सभी नस्ल और सभी धर्मों के थे. अरब मूल के कुछ लड़कों ने मुझसे कहा कि वो भारत को इसलिए पसंद करते हैं क्योंकि वहां सभी धर्मों को समानता दी जाती है. उन्होंने बॉलीवुड की फ़िल्में देख रखी थीं और एक ख़ुशहाल बहु-सांस्कृतिक भारत की उनकी कल्पना शाहरुख़ ख़ान की फ़िल्मों पर आधारित थीं. उन्होंने कहा कि उनके गोरे दोस्त इस्लाम के बारे में कुछ नहीं जानते और इस्लाम विरोधी विचारधारा रखते हैं एंटी-इस्लाम बातें अक्सर करते रहते हैं.
ऐसे माहौल में इस्लाम विरोधी बयान और काम इस्लामोफोबिया को हवा देते हैं और मुस्लिम समाज पर तंज़ और ताने बढ़ने लगते हैं, दूसरी तरफ़ प्रवासी अरब आबादी में भयंकर बेरोज़गारी और ग़रीबी की वजह से इस्लामी चरमपंथियों का काम आसान हो जाता है और वे उन्हें बरगला पाते हैं.
स्विट्ज़रलैंड में जीनेवा इंस्टीट्यूट ऑफ़ जियोपॉलिटिकल स्टडीज के अकादमी निदेशक एलेक्जेंडर लैम्बर्ट के विचार में न केवल फ़्रांस बल्कि यूरोप भर में ग़ैर-ईसाई धर्मों को बर्दाश्त करने की क्षमता कम होती जा रही है, “दरअसल, यूरोप में बहुसंस्कृतिवाद को अपनाने के लिए संवैधानिक-क़ानूनी ढांचे नहीं हैं, मध्य-पूर्व और दक्षिण-पूर्व यूरोप सहित कई देशों में, राष्ट्रीयता और नागरिकता किसी न किसी तरह से ईसाई धर्म, आम तौर पर कैथोलिक या ऑर्थोडॉक्स ईसाई धर्म से जुड़ी रहती है और बाहर से आए, दूसरे धर्मों को मानने वाले लोगों से वैचारिक टकराव होता ही है.”
समस्या तमाम पश्चिमी यूरोप में
बराबरी के लिए प्रदर्शन करते फ़्रांस के मुसलमान
प्रोफ़ेसर एलेक्ज़ेंडर लैम्बर्ट स्विट्ज़रलैंड के नागरिक हैं, वे कहते हैं कि उनके देश में मस्जिदों की मीनारों के निर्माण पर सरकारी तौर पर पाबंदी लगी है. सरकार ने ये पाबंदी जनता से पूछकर लगाई है. हमारे देश में मुसलमान तुलनात्मक रूप से अच्छी तरह घुले-मिले हैं, और ग़ैर-मुस्लिमों के साथ उनका कोई तनाव नहीं है, स्वदेशी ईसाई बहुसंख्यक समुदायों के साथ भी नहीं. इसके अलावा, स्विट्ज़रलैंड में यहूदी समुदाय को ख़तरा नहीं है, जो दुर्भाग्य से फ़्रांस में फिर से उभर रहा है”.
फ़्रांस में बुर्क़े पर लगाए गए प्रतिबन्ध को देश के मुसलमानों ने सकारात्मक तरीक़े से नहीं लिया और इसे इस्लाम पर और अपनी पहचान पर प्रहार के रूप में देखा.
प्रोफ़ेसर एलेक्जेंडर लैम्बर्ट कहते हैं कि यूरोप की (गोरी नस्ल की) आबादी घटती जा रही है. “यूरोपीय जनसंख्या सिकुड़ रही है. पूर्वानुमानों के अनुसार 2050 तक यूरोप में मुसलमानों की आबादी का काफ़ी बढ़ सकती है क्योंकि वास्तव में मूल यूरोपीय आबादी घट रही है जबकि मुस्लिम आबादी बढ़ रही है.”
प्रोफ़ेसर लैम्बर्ट का कहना है कि इस सच को विश्वविद्यालयों में पढ़ाना चाहिए, ये यूरोप में रहने वालों के लिए असुरक्षा और चिंता का माहौल बनाता है जिसके नतीजे में मुस्लिम और यूरोपीय समाज में तनाव होना लाज़मी है. अब लोग ये कह रहे हैं कि फ़्रांस हो या यूरोप के दूसरे देश, मुस्लिम आबादी देश में इंटीग्रेट (एकीकृत) करने लिए एक कामयाब फ़ार्मूला निकालना वक़्त की ज़रुरत है.