पुण्य स्मरण:सीसु दीया परू सी न उचरी, धर्म रक्षा को गुरु तेग बहादुर ने दिया सर्वोच्च बलिदान

गुरू तेग़ बहादुर (1 अप्रैल 1621 – 11 नवम्बर, 1675) सिखों के नवें गुरु थे जिन्होने प्रथम गुरु नानक द्वारा बताए गये मार्ग का अनुसरण करते रहे। उनके द्वारा रचित ११५ पद्य गुरु ग्रन्थ साहिब में सम्मिलित हैं। उन्होने काश्मीरी पण्डितों तथा अन्य हिन्दुओं को बलपूर्वक मुसलमान बनाने का विरोध किया। इस्लाम स्वीकार न करने के कारण 1675 में मुगल शासक औरंगजेब ने उन्हे इस्लाम कबूल करने को कहा कि पर गुरु साहब ने कहा सीस कटा सकते है केश नहीं। औरंगजेब की रणनीति थी कि कश्मीर के पंडित मुसलमान बन जाते तो उत्तर भारत को मुसलमान बनाना आसान हो जाएगा। इसीलिए गुरु तेग बहादुर के धर्म परिवर्तन से इंकार करने पर उसने गुरुजी का सबके सामने उनका सिर कटवा दिया। गुरुद्वारा शीश गंज साहिब तथा गुरुद्वारा रकाब गंज साहिब उन स्थानों का स्मरण दिलाते हैं जहाँ गुरुजी की हत्या की गयी तथा जहाँ उनका अन्तिम संस्कार किया गया। विश्व इतिहास में धर्म एवं मानवीय मूल्यों, आदर्शों एवं सिद्धांत की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने वालों में गुरु तेग़ बहादुर साहब का स्थान अद्वितीय है।

तिलक जंञू राखा प्रभ ताका॥ कीनो बडो कलू महि साका॥
साधन हेति इती जिनि करी॥ सीसु दीया परु सी न उचरी॥
धरम हेत साका जिनि कीआ॥ सीसु दीआ परु सिररु न दीआ॥ (दशम ग्रंथ)
धर्म प्रचार
गुरुजी ने धर्म के सत्य ज्ञान के प्रचार-प्रसार एवं लोक कल्याणकारी कार्य के लिए कई स्थानों का भ्रमण किया। आनंदपुर से कीरतपुर, रोपड, सैफाबाद के लोगों को संयम तथा सहज मार्ग का पाठ पढ़ाते हुए वे खिआला (खदल) पहुँचे। यहाँ से गुरुजी धर्म के सत्य मार्ग पर चलने का उपदेश देते हुए दमदमा साहब से होते हुए कुरुक्षेत्र पहुँचे। कुरुक्षेत्र से यमुना किनारे होते हुए कड़ामानकपुर पहुँचे और यहाँ साधु भाई मलूकदास का उद्धार किया।

यहाँ से गुरुजी प्रयाग, बनारस, पटना, असम आदि क्षेत्रों में गए, जहाँ उन्होंने लोगों के आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक, उन्नयन के लिए कई रचनात्मक कार्य किए।

गुरु तेगबहादुर जी के वचन सुनकर औरंगजेब भी हतप्रभ रह गया था


ये वैसा ही दु:साहस था जैसे नरभक्षी को धर्मोपदेश देना या आज के संदर्भ में उदाहरण लें तो दुर्दांत आतंकी संगठन आईएसआईएस की मांद में जाकर यह कहना कि तुम जिस रास्ते चल रहे हो वह उचित नहीं। लेकिन हिंद की चादर कहाए जाने वाले गुरु तेगबहादुर ने यह बड़े सहजभाव से किया, अपनी आंखों से एक क्रूर मुगल बादशाह औरंगजेब की पाश्विक वृति देखी और खुद उसका शिकार भी हुए। अकाल पुरख के मार्ग पर चलते हुए सिर दे दिया पर सार अर्थात् धर्म नहीं दिया। कट्टर सुन्नी मुसलमान औरंगजेब इस्लाम को लेकर कितना धर्मांध रहा होगा इसका अनुमान भाई संतोख सिंह द्वारा रचित ‘श्री गुरु प्रताप सूरज’ में दिए उसके प्रति विवरण से लगाया जा सकता है। गुरु तेगबहादुर जी से मुखातिब होते हुए औरंगजेब कहता है-

हिन्दू रहै न भू महि कोउ। इह निश्चा हमले दिढ होउ।।

निज दहिता तक अरपौं तांही। आइ जु हिन्दु शरा के मांही।

हमारे मति महिं महाँ सबाब। सिफति करहि खुदाइ अदाब।।

अर्थात् मेरा जो उद्देश्य है इस धरती पर हिन्दू कोई न रहे। जो हिन्दू इस्लामी शरा में आ जाएगा, मैं उसको अपनी पुत्री तक अर्पित कर सकता हूँ। हमारे मत में यह बड़े पुण्य का कार्य है। इसके उत्तर में श्री गुरु तेगबहादुर जी ने कहा :-

जे प्रभु चहै त हिन्दू न जनमै। तुरक जनम ही वै निस दिन मैं।

(सिक्ख इतिहास में श्री रामजन्मभूमि, प. 95)

अर्थात् ‘यदि परमेश्वर ने चाहा होता तो हिन्दू जन्म ही नहीं लेते और तुरक ही दिन-रात पैदा होते रहते।’ श्री गुरु तेगबहादुर जी की धर्म के प्रति निष्ठा अनन्य-भाव से थी, इसके ‘श्री गुरु प्रताप सूरज’ में संतोख सिंह निम्न प्रकार व्यक्त करते हैं:-

तिन ते सुनि श्री तेगबहादर। धरम निबाहनि बिखै बहादर।

उत्तर भन्यो, धरम हम हिन्दू। अति प्रिय को किम करहिं निकन्दू।।

लोक प्रलोक बिखै सुखदानी। आन न पइयति जांहि समानी।

मति मलीन मूरख मति जोई। इस को त्यागहि पांमर ते सोई।।

दीन दुनी महिं दुख को पावै। जम सजाइ दे नहिं त्रिपतावै।

सुमतिवन्त हम, कहु क्यों त्यगहिं। धरम राखिबे नित अनुरागहिं।।

अर्थात् ‘औरंगजेब की बातें सुनकर श्री गुरु तेगबहादुर ने कहा कि अपने अतिप्रिय हिन्दू धर्म का निषेध हम कैसे करें? यह हमारा धर्म, लोक और परलोक दोनों में सुख देने वाला है। हिन्दू धर्म के समान कोई दूसरा धर्म नहीं दिखाई देता। जो मलिन-मति और मूर्ख-मति व्यक्ति है वही इसको त्यागने की सोचता है, वह निश्चय ही पामर है। ऐसा व्यक्ति इस लोक में अत्यन्त दु:ख पाता है और यमराज भी उसको दण्ड देते-देते तृप्त नहीं होता। हम तो सुमतिवन्त हैं, हम क्यों हिन्दू धर्म का परित्याग करें? हमारा तो स्वधर्म की रक्षा में नित्य ही अनुराग है।’

गुरु तेग बहादुर सिखों के नवें गुरु थे जिन्होने प्रथम गुरु नानक द्वारा बताए गये मार्ग का अनुसरण करते रहे। उनके द्वारा रचित 115 पद्य गुरु ग्रन्थ साहिब में सम्मिलित हैं। उन्होने काश्मीरी पण्डितों तथा अन्य हिन्दुओं को बलपूर्वक मुसलमान बनाने का विरोध किया। इस्लाम स्वीकार न करने के कारण 1675 में मुगल शासक औरंगजेब ने उन्हे इस्लाम कबूल करने को कहा कि पर गुरु साहिब ने कहा सीस कटा सकते हैं धर्म नहीं छोड़ सकते।

धरम हेत साका जिनि कीआ। सीस दीआ पर सिरुर न दीआ।

इस महावाक्य अनुसार गुरुजी का बलिदान न केवल धर्म पालन के लिए अपितु समस्त मानवीय विरासत की खातिर था। धर्म उनके लिए सांस्कृतिक मूल्यों और जीवन विधान का नाम था। इसलिए धर्म के सत्य शाश्वत मूल्यों के लिए उनका बलि चढ़ जाना वस्तुत: सांस्कृतिक विरासत और इच्छित जीवन विधान के पक्ष में एक परम साहसिक अभियान था। श्री गुरु तेगबहादुर जी का जन्म अमृतसर में हुआ था। इनके पिता श्री गुरु हरिगोबिन्द जी की मुगलों के साथ बार-बार लड़ाइयाँ लड़ीं व गुरु जी ने इनमें हिस्सा भी लिया। बचपन में इनका नाम त्यागमल था परन्तु इनके पिता ने रण में इन्हें तलवार चलाते देखा तो इनका नाम तेगबहादुर रख दिया।
मुगल बादशाह औरंगजेब सन् 1657 में गद्दी पर बैठा। इसके पूर्व वह गुजरात का सूबेदार था। वहाँ उसने चिंतामणि का विशाल मन्दिर गिरा कर गौहत्या कराई तथा उस मन्दिर के पत्थरों से ही मस्जिद का निर्माण करा दिया। औरंगजेब के शासन में नए मन्दिर बनाने पर तत्काल रोक लगा दी गई। सोमनाथ, मथुरा, काशी के सभी प्रमुख मन्दिर पुन: तोड़ दिए गए। कूच बिहार, उज्जैन, उदयपुर, जोधपुर, गोलकुण्डा तथा महाराष्ट्र आदि स्थानों के सभी प्रमुख मन्दिरों को तोड़ डाला गया। सिख विद्वान भाई गुरदासजी (1551-1636) लिखते हैं-
ठाकुर दुआरे ढाहि के तिह ठउड़ी मसीत उसारा।

मारन गऊ गरीब नू धरती ऊपर पाप बिथारा।।
– (गुरु नानक से गुरु ग्रन्थ साहब तक, पृ. 3)

औरंगजेब ने सर्वप्रथम ब्राह्मणों को ही मुसलमान बनाने की ठान ली थी। उसका विचार था कि ब्राह्मणों की स्वधर्मनिष्ठ शिक्षा से प्राप्त सुदृढ़ संस्कारों के कारण ही साधारण हिन्दू भी अपने धर्म और संस्कृति के प्रति निष्ठा प्रकट करते रहे हैं। इसी कारण, कश्मीर के ब्राह्मणों पर भीषण अत्याचार हो रहे थे। इन सब बातों पर गम्भीरता से विचार-विमर्श करने के उपरान्त, पण्डित कृपाराम दत्त की अध्यक्षता में एक सोलह सदस्यीय शिष्टामण्डल, श्री गुरु तेगबहादुर जी से मिला और बताया-
चाहित है करनी सगरी धरनी, दीन सुवरनी तुरकानी।

मन्दिर सबि गेरे देवन केरे, बिन ही देरे अभिमानी।।

करि जोर बजोरी लाज न छोरी, जालम खोरी तुरकानैं।

हिन्दुन की बेटी बहु समेटी, दुशटनि भेंटी जबरानै।

इस हित मिल सारनि करिओ विचारन, राखन कारन धरम निजै।

राखन सरनाई लीनी आई, लैहू बचाई दान दिजै।

– (सिक्ख इतिहास में श्रीराम जन्मभूमि, पृष्ठ 86)

अपने होनहार पुत्र गोबिंद राय (श्री गुरु गोबिंद सिंह) को गुरुगद्दी सौंप श्री गुरु तेगबहादुर अपने साथियों भाई मतीदास छिब्बर (दीवान), भाई सतीदास छिब्बर (रसोइया) तथा भाई दयालदास दयाला (राजा भोज के वंशज) आदि को साथ लेकर दिल्ली की ओर प्रस्थान कर दिये। सरहिन्द के हाकिम ने उन्हें गिरफ्तार कर औरंगजेब के पास भेज दिया। संत शिरोमणि श्री गुरु तेगबहादुर पर क्रूर अत्याचार का दौर लगातार पाँच दिन तक चलता रहा और एक-एक कर उनके साथियों के बाद उन्हें भी बलिदान कर दिया गया।

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