प्रिय कांग्रेसियों, राहुल की ताबड़तोड़ विदेशी यात्रायें निजी विषय कतई नहीं हैं
प्रिय कांग्रेसियों, विदेशी दौरे राहुल गांधी का निजी विषय नहीं है!
अपने विदेशी दौरों के लेकर राहुल गांधी फिर से विवादों में हैं। हाल ही में उनका एक वीडियो सामने आया जिसमें उन्हें नेपाल के एक क्लब में पार्टी करते देखा गया। कुछ ही देर में ख़बर आई है कि राहुल गांधी अपनी महिला मित्र सुमनिसा उदास की शादी में शामिल होने 5 दिन को नेपाल गए हैं। वीडियो सामने आते ही बीजेपी-कांग्रेस में वार पलटवार शुरू हो गया।
बीजेपी ने जहां राहुल के दौरे को ऐश परस्ती कहा तो वहीं कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने इसे राहुल गांधी का निजी मामला बताया। पर सवाल ये है कि देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के सबसे बड़े चेहरे का बार-बार विदेश जाना क्या उनका निजी मामला हो सकता है? नहीं, बिल्कुल नही। और सच तो ये है कि जब भी रणदीप सुरजेवाला जैसे नेता राहुल के इन विदेशी दौरों को उनका निजी मामला बताते हैं तो वो अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मारते हैं।
इससे पहले कि मैं ‘निजी मामला’ वाले प्वाइंट पर आऊं आइए एक नज़र उनके विदेशी दौरों के कुछ आंकड़ों पर डाल लेते हैं।
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कुछ समय पहले संसद में एक रिपोर्ट पेश की। जिसके मुताबिक साल 2015 से 2019 के बीच राहुल गांधी 247 बार विदेशी दौरों पर गए। मतलब हर साल 50 विदेशी दौरे, हर महीने 4 से 5 और हर हफ्ते एक विदेशी दौरा। कहने में कोई हर्ज़ नहीं है कि इतनी बार तो कोई दिल्लीवासी मेरठ की अपनी बुआ के नहीं जाता जितनी बार राहुल जी विदेशी दौरों पर गए। जबकि इसी पीरियड के दौरान देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 113 बार विदेशी दौरों पर गए। वो नरेंद्र मोदी जिनके बारे कांग्रेस ताने कसती है कि वो कभी भारत में टिकते नहीं!
न सिर्फ राहुल गांधी विदेशी दौरों पर गए बल्कि जब भी कांग्रेस को उनकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी तब भी वो बिना इसकी परवाह किए बिना विदेशी दौरों पर चले गए।
दिसम्बर 2020 में जब किसान आंदोलन अपने चरम पर था। केंद्र सरकार भारी दबाव में थी। कांग्रेस आंदोलन का चेहरा बनने की कोशिश कर रही थी। राहुल गांधी को 3 जनवरी को पंजाब में एक रैली भी करनी थी। 28 दिसम्बर को कांग्रेस का स्थापना दिवस भी था। ठीक तभी वो विदेशी दौरे पर चले गए।
⮞ 2020 में जब कृषि बिल पास हुआ वो तब भी विदेशी दौरे पर थे
⮞ 2019 में जब सीएए को लेकर कानून पारित हो रहा था तब वो दक्षिण कोरिया के दौरे पर थे।
⮞ अक्टूबर 2019 में जब अर्थव्यवस्था के मौके पर पूरे देश में सरकार के खिलाफ आंदोलन कर रही तभी अचानक राहुल विदेश चले गए।
⮞ 2016 में पंजाब चुनाव के दौरान वो इंग्लैंड दौरे पर चले गए
⮞ फरवरी 2015 में दिल्ली विधानसभा चुनावों की हार के बाद तो राहुल जी का मन ऐसा अशांत हुआ कि वो सुकून पाने पूरे दो महीने के लिए थाईलैंड और म्यांमार की आध्यात्मिक यात्रा पर निकल गए।
⮞ इसी तरह 2014 के लोकसभा चुनावों से भी ठीक पहले वो परिवार के साथ छुट्टियां मनाने रणथंभौर निकल गए थे जहां एक बाघ को देखकर राहुल जी ने कहा था कि तुम लोग तो ख़त्म हो रहे हो और बाघ ने पलटकर रहा था…Same to You!
ये सारे आंकड़े बताते हैं कि एक तो राहुल जी ज़रूरत से ज़्यादा बार विदेशी दौरों पर रहते हैं और देश की राजनीति में चाहे कितना बड़ा भूचाल क्यों न आया हो एक योगी की तरह वो अपने विदेशी दौरों के लक्ष्य से भटकते नहीं। दुनिया की कोई ताकत उनके अंदर के वास्कोडिगामा को अपनी मंज़िल से भटका नहीं सकती।
और यही सबसे बड़ी तकलीफ है। देखिए, जब आप किसी कंपनी में 30 हज़ार की नौकरी भी करने जाते हैं तो वो कंपनी आपसे आपका डेढ़ सौ प्रतिशत चाहती है। वो ये छूट नहीं देती कि आप महीने में दस छुट्टियां ले लें। ऑफिस के बाद शाम को कहीं पार्ट टाइम भी काम कर लें। वो आपका पूरा फोकस, पूरा समर्पण चाहती है। कोई भटकाव नहीं। 100 फीसदी कमिटमेंट।
तो सवाल ये है कि एक प्राइवेट नौकरी में किसी से इतनी कमिटमेंट की उम्मीद की जाती है तो जो व्यक्ति जो देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी का सबसे बड़ा चेहरा है वो अपनी ज़िम्मेदारी को पार्ट टाइम जॉब की तरह कैसे ले सकता है?
केंद्र से लेकर राज्य तक पिछले आठ सालों में आपकी पार्टी मटियामेट हो गई। आप 200 लोकसभा सीटों से 40 एक सीटों पर आ गए। आप 19 राज्यों से सिमटकर 2 राज्यों तक रह गए। क्या अब भी आपको लगता है कि इस काम को एक पार्ट टाइम जॉब की तरह किया जा सकता है? ऑफिस में भी कोई बार-बार बीमारी के नाम पर छुट्टी लेता है तो बॉस कहता है कि भाई, तू पहले अपना इलाज करा ले फिर आ जाना। राहुल जी को भी अगर इतने निजी दौरों पर बार-बार विदेश जाना पड़ता है तो क्या ये बेहतर न होगा कि वो साल-दो साल लगाकर पहले अपने अपने काम निपटा लें फिर पार्टी संभाल लें या उस आदमी को पार्टी की ज़िम्मेदारी दे दें जिसके निजी काम भी इंडिया में ही पड़ते हों।
क्या कांग्रेस पार्टी नहीं जानती कि इतने सालों बाद भी राहुल गांधी की छवि एक Non Serious नेता की है। एक ऐसा नेता जो बार-बार विदेशी दौरों पर जाता है। जो चुनावों से पहले सक्रिय नहीं रहता। जिसने यूपीए में रहते मंत्री पद की ज़िम्मेदारी नहीं ली और 2019 मे हार हुई तो पार्टी का अध्यक्ष बने रहने से मना कर दिया।
कांग्रेस ये भी जानती है कि बीजेपी राहुल गांधी की इस छवि को जनता के बीच ले जाने में कोई कसर नहीं छोड़ती। तो क्या ज़रूरी नहीं हो जाता कि बीजेपी और बाकी लोगों को ऐसे मौके ही न दिए जाए? अगर राहुल गांधी की कोई हल्की छवि बन गई है तो ऐसे दौरों से उसे क्यों और मज़बूत होने दिया जाए।
और सवाल बीजेपी को लगने का भी नहीं है, सवाल जनता के लगने का हैं, उसके Perception का है और राजनीति सारा उसी Perception का ही तो खेल है। होने से ज़्यादा यहां दिखना महत्वपूर्ण है।
.@rssurjewala ji ,Is Rahul Gandhi partying with China's Ambassador to Nepal Hou Yanqi in Kathmandu ????
वैसे नाइट क्लब में कौन सी शादी होती है?? @BJP4India @BJP4Delhi
— Harish Khurana (@HarishKhuranna) May 3, 2022
एक नेता अपने निजी जीवन में कपड़ों का कितना शौकीन क्यों न हो लेकिन सार्वजनिक तौर पर वो कुर्ता पजामा ही पहनता है। क्योंकि कुर्ता पजामा सादगी का प्रतीक है। सालों तक नेता एम्बेसडर में घूमते रहे। क्योंकि वो भी सादगी की प्रतीक थी। ये ज़रूरी नहीं है कि खुद को सादा दिखाने के लिए प्रतीकों का सहारा लिया जाए लेकिन जब आपकी छवि पहले ही डांवाडोल हो तो जरूरी हो जाता है कि आप सादगी के तय मापदंडों से बहुत बाहर न जाएं।
काठमांडू के नाइट क्लब में राहुल गांधी।
ये सोचकर हैरानी होती है जब चुनावों के वक्त आप अपने नेता की इमेज बिल्ड करने के लिए आप एक जापानी कंपनी को 500 करोड़ रुपए देते हैं। ऐसी कंपनियां बताती हैं कि आपको कैसे कपड़े पहनने हैं। क्या बोलना है, क्या नहीं। सॉफ्ट हिंदुत्व पर चलना है तो चुनावों से पहले बार-बार मंदिर जाना होगा। सवर्णों को लुभाने के लिए खुद को जनेऊधारी ब्राह्मण बताना होगा। अपनी राजनीतिक विरासत की याद दिलाने के लिए हर भाषण में अपनी दादी और पिता के बलिदान का ज़िक्र करना होगा। जब सिर्फ इमेज बनाने के लिए आप ये सारी मुद्राएं अपना सकते हैं। और इन मुद्राओं की ट्रेनिंग देने वालों को सैंकड़ों करोड़ रुपए भी दे सकते हैं, तो वो काम क्यों नहीं कर सकते जो तेंदूखेड़ा से लेकर नालासोपारा तक वैसे ही हर कोई समझ रहा है।
मोदी जी जब बार बताते हैं कि उन्होंने इतने साल से कोई छुट्टी नहीं ली तो वो जता रहे होते हैंकि वो काम के प्रति कितने समर्पित हैं। मीडिया जब ये दिखाता है कि उनके परिवार के लोग आज भी साधारण घरों में साधारण काम करते हुए आम आदमी की ज़िंदगी जी रहे हैं, तो ये दिखाया जा रहा होता है कि प्रधानमंत्री परिवारवाद को बढ़ावा नहीं देते।
जब वो अपनी मां से मिलने उनके घर जाते हैं और उनकी मां का घर देखकर आम आदमी सोचता है कि ये तो किसी मध्यमवर्गीय आदमी के घर जैसा है, तो उसका ये सोचना क्या है….ये सब Perception का खेल है। और इसी Perception के खेल में कमज़ोर खिलाड़ी होने के बावजूद अगर कांग्रेस कहे कि हम तो नियमों को नहीं मानते। ये तो हमारा निजी मामला है, तो आप वहीं पहुंच जाएँगे जहां आज हैं।
एक आखिरी बात, छत्तीसगढ़ से लेकर राजस्थान तक कांग्रेस में सिर फुटव्वल जारी है। डेढ़ साल बाद भी पार्टी गहलोत-पायलट का विवाद नहीं सुलझा पाई। भूपेश बघेल और टीएस सिंह देव के क्लेश नहीं निपटा पाई। सिद्धू-अमरिंदर और सिद्धू चन्नी की लड़ाई ने पार्टी का पंजाब में सफाया करवा दिया। हरीश रावत जैसा कद्दावर नेता उत्तराखंड में अपमानित होता रहा। दिल्ली आए बड़े-बड़े कांग्रेसी नेता जब-तब ये शिकायत करते हैं कि उन्हें आलाकमान से मिलने का समय नहीं मिला और फिर हम अखबार में पढ़ते हैं कि राहुल गांधी अपनी एक नेपाली मित्र की शादी में शरीक होने के लिए 5 दिन के दौरे पर नेपाल गए हैं। भगवान ऐसा मित्र सबको दे जो इतने क्लेश, इतनी ज़िम्मेदारियां छोड़कर दोस्त की शादी अटेंड करने दूसरे देश से आ जाए फिर चाहे उसे खुद कितनी लानत-मलानत न झेलनी पड़े। सच में…इधर पार्टी ख़त्म हो रही है मगर आपकी पार्टी जा हैं। और कांग्रेसियों की बदनसीबी ये है कि इस पार्टी को रुकवाने के कोई आंटी पुलिस भी नहीं बुला सकती।
लेखक
नीरज बधवार