पर्व यात्रा: दीपावली से बल्बावलि और मंगलकामना से हैप्पी दिवाली तक
दीपावली पर्वों का पर्व है। अनोखी बात है कि द्यूत निशा, यक्षरात्रि, सुखरात्रि, कौमुदी उत्सव, आकाशीय दीपार्चना दिवस से होते हुए यह पर्व आज बल्वावली तक का स्वरूप ले चुका है। यह नहीं, हीड़ सिंचन और मंगलकामना पत्रों से यह ग्रिटिंग्स फेस्टीवल हुआ और नेट पर कांग्रेच्युलेशन का स्मरण बनकर उभरा है…। इतनी शुभैच्छायें कि चंद भी फलीभूत हो जाए तो कुबेर द्वारपाल होकर तनख्वाह पाए!
इस क्रम में सदियां लगी हैं। जिन दिनों यह पर्व यक्षों की पूजा से जुड़ा हुआ था, गांवों में भारी भरकम शरीर वाले यक्षों की सवारियां निकाली जाती थीं। जो बहुत पुराने गांव या नगर हैं, वहां आज भी जक्ख, यक्ष, घांस सवारियां निकाली जाती है…। उसकी हैसियत इन्द्रध्वज विधान के आगे न्यूनतम होती चली गई मगर सुखरात्रि ने इसे नवीनरूप दिया और जब उड़ने वाले दीयों का निर्माण सभव हुआ ताे इस रात्रि में दीपदान के साथ साथ आकाश में दीयों को भी उड़ाया जाने लगा ताकि पितरों को भी तमस से उजाला मिल सके। धनद यक्षों की लक्ष्मी का महत्व जन जीवन पहचानता चला गया तो यह पर्व पूरी तरह श्रीदेवी के पूजन का पर्व हो गया। और यही नहीं, अमावस को दीपदान से रोशन करने का चलन हुआ तो आज बल्बों से यह रोशनी का झाड़ हो गया है।
श्रीसूक्त में इस देवी का जो का प्रारंभिक स्वरूप है, वह मनोकामनाओं की कीर्तिशलाका लिए है। लक्ष्मीतंत्रम, राजमार्तण्ड, वर्ष क्रिया कौमुदी, संवत्सर क्रिया समुच्चय आदि में इस अवधारणा और इस पर्व के एकाविध स्वरूपों का विवरण मिलता है। कार्तिक मास पूरा ही दीपदान का हो गया, यह पुराणों की प्रतिष्ठा है। पद्म और स्कंद जैसे उत्तरोत्तर विकासशील पुराणों ने बड़ा योगदान किया।
बहरहाल सामूहिक मंगलैच्छाओं के इस प्रगाढ़ पर्व शृंखला में सबको ढेर सारी शुभकामनाएं। सबको वह सब मिले जो इच्छित है… जय जय।
बहुत दिनों बाद, अपने पैतृक गांव आकोला (चित्तौडगढ जिलांतर्गत) जाने का अवसर मिला। सुबह गोवर्धन पूजन के बाद, बेडच नदी के तट पर गोस्वामियों द्वारा ग्वालों का सम्मान किया गया और सजी संवरी गायों की पूजा की गई। बाद में प्रधान ग्वाल मांगीलाल गमेती और उनके परिजनों द्वारा गायों का क्रीडन करवाया गया। यह परंपरा ‘खैंखरा’ कही जाती है।
इन गायों में सफेद, काली, चिककबरी गायों को बांस पर बंधी चमडे की थैली ‘हीदडा’ दिखाते हुए भडकाया गया। इनको हांककर गांव में ले जाया गया। मान्यता यह है कि यदि सबसे पहले सफेद रंग की गाय गांव में आती है तो आने वाला समय सुकाल होगा। संयोग से इस बार सफेद गाय ही गांव में आई। वक्त बताएगा कि मौसम कैसा रहेगा।
यह परंपरा यहां बहुत पुरानी है। वैसे दीपावली के दूसरे दिन बैलों और गायों को सिंगार कर पूजन करने का जिक्र लगभग 9वीं सदी में संपादित ‘कृषि पराशर’ ग्रंथ में आया है। वैदिक काल में भी गोक्रीडन जनानुरंजन का बडा माध्यम था। वराहमिहिर ने गर्गसंहिता, मयूरचित्रकम् आदि ग्रंथों के आधार पर भविष्य देखने की कई विधियों की ओर इशारा किया है। मेरे लिए इस अवसर पर अपना बचपन लौट आया, तब सैकडों गायें होती थी, अब इक्का दुक्का गायें ही रह गई हैं। कभी मैं भी अपनी काली, पोना, श्यामा, सिणगारी, जैसी गायों को लेकर नदी तट पर छोडने जाता था, अब न गायें हैं न वह गायों वाला स्थान। मगर, गांव वही है, बेडच वही है, वे ही लोग, वही परंपरा।
यक्षरात्रि में उजाला
महाजनपद काल और मौर्यकाल से लेकर पूर्व गुप्तकाल तक हमारे यहां यक्षों की पूजा, प्रतिष्ठा और उनसे जुड़े सामाजिक उत्सवों के प्रमाण मिलते हैं। ब्रज से लगे क्षेत्र से लेकर कटरास, मद्र ( स्यालकोट), पूर्वी मालवा, अनूप ( छत्तीसगढ़), पंजाब, कुरु जांगल, मेवाड़ और गुजरात तक यक्ष और यक्षिणियों की मूर्तियां मिली हैं। बौद्ध कथाओं में यक्ष प्रभाव है और जैन शासन की देव प्रतिमाओं में यक्ष – यक्षिणी दोनों। हालांकि नवीन मतों के आगमन के काल में यक्ष प्रभावहीन ही होकर रह गए। अमरकोश के काल तक उनकी स्मृतियां रह गईं कि वे गोपनीय धन और संसाधन वाले स्थानों के रक्षक हैं। (देवता मूर्ति प्रकरणम् की भूमिका)
पुरातात्विक प्रमाणों से पुष्टि होती है कि तीसरी शताब्दी ई.पू. यानी चंद्रगुप्त मौर्य के काल तक अनेक क्षेत्रों में यक्ष पूजा प्रभावी थी। वैसे अथर्ववेद से यक्ष प्रभाव ज्ञात है। महाभारत में अनेक स्थलों को यक्षस्थल कहा; यक्षताल और यक्ष प्रश्न जैसे संदर्भ भी हैं। यक्षपूजा 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व से शुरू हुई, ऐसा भी माना जाता है। मौर्य और शुंग ही नहीं, भारशिव, कुषाण और क्षत्रप काल में यह चरम पर थी। मथुरा के निकट परखम, बड़ौदा, भरना कलां और नगला झींगा से प्राप्त यक्ष मूर्तियां इसका प्रमाण हैं।
परखम का यक्ष स्वरूप प्रसिद्ध है। श्री लक्ष्मी नारायण तिवारी और श्री योगेन्द्रसिंह ने परखम से प्राप्त प्रतिमा को शेयर करते हुए कहा है कि मथुरा से आगरा के बीच फरह कस्बे के समीप स्थित परखम गांव से प्राप्त यक्ष की प्रतिमा ईसा से तीन शताब्दी पहले की है। इस प्रतिमा पर उत्कीर्ण अभिलेख से इसके निर्माण काल का बोध होता है। यह भी पता चलता है कि यह प्रतिमा कुनिक के शिष्य गोमतिक द्वारा निर्मित कराई गई। इसे मणिभद्र ‘पुग’ (मंडली) के सदस्य, आठ भाइयों के द्वारा स्थापित किया गया। मानव स्वरूप वाली इस प्रतिमा की ऊंचाई 2.59 मीटर है। यह धूसर बलुआ पत्थर से निर्मित है। आचार्य वासुदेव शरण अग्रवाल ने इस प्रतिमा को भारतीय मूर्तिकला का पितामह कहा है और यह राजकीय संग्रहालय, मथुरा में संरक्षित है। इसको देखकर विचार होता है कि ऐसी विशाल प्रतिमाओं का मत वैभव कैसे लुप्त हो गया! (भारतीय कला)
शैवमत के अभ्युदय काल में योगिनी मत, शाक्तमत, स्कंदमत, गाणपत्य मत आदि अंतर्भुक्त हुए तो यक्ष भी कहां बचे? वे भी अन्य रूप में सामने आए। उनको गणेशत्व, अन्नदाता और क्षेत्रपाल जैसे पद मिले। लोक में यह स्मृति विलुप्त हो जाती, यदि मत्स्य और वह्नि जैसे पुराण यक्षों की संस्कृति और संप्रदाय की अंतरभुक्ति की कथाओं को महत्व नहीं देते। ये पुराण लगभग 9 वीं सदी की विषय वस्तु लिए हैं। क्यों पद्मपुराण, महिम्न और पंचाक्षर स्तोत्र में यक्षराज सखाय, यक्ष स्वरूपाय जैसे विनम्र निवेदन मिलते हैं!
वह्निपुराण में काश्यपीय वंश में हरिकेश, पिंगल आदि यक्षगण की सूची है और मत्स्य पुराण में हरिकेश की कथा। वह यक्ष पूर्णभद्र का पुत्र था लेकिन शैव प्रभाव से अपनी मूल प्रवृतियों को खो बैठा। पिता ने उसको व्यर्थ पुत्र कहा और बताया कि वह क्रूरता, मांस भक्षण, सर्व भक्षण और हिंसा आदि आचरणों को छोड़कर मनुष्य हो गया है : क्रव्यादाश्चैव किंभक्ष्या हिंसाशीलाश्च पुत्रक! उसको घर से निकाल दिया।
यक्ष का अपने घर, परिवार, सगे संबंधियों से नाता तोड़ने और अन्यत्र जाकर बसने का आगे अनूठा विवरण है। वह अकेला और ठूंठ हो गया (स्थाणुभूत)। अपलक देखता रहा (ह्यनिमिष:)। सूखकर कांटा हो गया और पत्थर जैसा अचल ( शुष्ककाष्ठोपलोपम:)। अपनी इन्द्रियों को संयमित रखते हुए निश्चल तपस्या करने लगा ( संनियम्येन्द्रियग्राममवातिष्ठत निश्चल:)।
खड़े खड़े उसके शरीर पर दीमक लग गई ( वल्मीकेन समाक्रांत), चींटियों आदि जीवों ने उसको काटना और खाना शुरू कर दिया। उसके शरीर पर वज्र और सुई जैसे अनेक तीखे तीखे वेध और मुख बन गए ( वज्रसूची मुखैस्तीक्षणै: विध्यमान: तथैव च)। उसका शरीर निर्मांस, रक्तहीन और चमड़ी विहीन दिखाई देने लगा लेकिन तप से चमक कुंद, शंख और चंद्रमा जैसी लगती थी और वह शिव चिंतन में लगा रहता था : निर्मांस रुधिरत्वक् च कुन्दशंखेन्दुसप्रभ।
पुराणकार ने शिव पार्वती संवाद रूप में यक्ष हरिकेश के प्रसंग में यक्ष उद्यान, वहां के प्राकृतिक परिवेश, संगीत मंडली, जलाशयों और जनजीवन की गतिविधियों को लिखा है। यह भी लिखा है कि हरिकेश ही नहीं, महायक्ष कुबेर ने भी अपनी सारी क्रियाएं शिव को देकर गणाधिपत्य को प्राप्त किया : कुबेरस्तु महायक्षा सर्वार्पितक्रिय:। यह प्रसंग पुराण में दो बार अलग अलग तरह से आया है।
छत्तीसगढ़ के ताला गांव से प्राप्त यक्ष प्रतिमा में उक्त लक्षणों को घटित किया जा सकता है। श्रीललित शर्मा, ओमप्रकाश सोनी, डॉ. शुभ्रा रजक आदि ने इस प्रतिमा को लेकर अब तक हुए अध्ययन भी बताए हैं लेकिन मत्स्य पुराण का संदर्भ यक्षों के शिव मतानुयायी होने और गणपति होने की बात को पुष्ट करता है जिसमें गुह्यक यक्ष का हर विवर मुख महादेव के तप में लगा ( ईदृशे चास्य तपसि)। इस प्रसंग ने मूर्ति निर्माण की प्रेरणा दी। जहां से यह प्रतिमा मिली है, वहां शिवालय ही रहे हैं।
यक्ष सुगंध और धूप ही नहीं, मद्य, बलि दीर्घ आहार से प्रसन्न होते। यक्षकर्द्दम, यक्षधूप, यक्षासव, यक्षाहार, यक्षगान… जैसे शब्द और कथा प्रसंग बहुधा मिल ही जाते हैं। यक्ष का छकड़ा प्रसिद्ध है ही। कार्तिक में उपज निपज के साथ यक्षमेह होता। यक्षरात्रि अमावस को भी होती और पूर्णिमा को भी! कुछ कोशकार इस बारे में एक राय नहीं हो सके क्योंकि उनके काल तक कार्तिक में दीपावली प्रधान हो गई।
अनेक रोचक तथ्य और पक्ष हैं! सबसे बड़ा पक्ष भारत की वह सांस्कृतिक विशेषता है कि जो अनेक मतों, संप्रदायों को अंतर्भुक्त कर नवीन अर्थ देने का सामर्थ्य रखती है और जो यक्ष प्रश्न का भी उत्तर देती है…।
जय जय।
✍🏻डॉ0 श्रीकृष्ण जुगनू जी के पोस्टों से संग्रहित
अन्त में मेरा वही निवेदन जो गत कई दिनों के पोस्ट पर लगातार है, वही एक बार फिर से –
अभी त्यौहार शुरू हैं।
पूरे वर्ष का एक तिहाई व्यय इन उत्सवों में होने वाला है। शोरूम और कॉरपोरेट को छोड़कर, जहाँ तक सम्भव हो अपनी जड़ों को खोजिए।
एक परिवार पर आश्रित सात शिल्प हुआ करते थे, ढूंढिए कि आज वे किस स्थिति में है?
और वर्षपर्यन्त तक, किसी को कोई रियायत नहीं। इन लफंगों को तो बाद में भी नहीं।
विचार कीजिए! हमारा स्वयं का इकोसिस्टम विकसित करने में योगदान दीजिये।
बस इतना करने का प्रयास कीजिए, शेष का मार्ग स्वयं स्पष्ट हो जाएगा –
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥
अर्थ: तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो.