अंग्रेजों ने शिक्षा सौंपी पादरियों और व्यापारियों को
तक्षशिला का बौद्ध मठ और नालंदा विहार के अवशेष
शिक्षा का इतिहास भारतीय सभ्यता का भी इतिहास है। भारतीय समाज के विकास और उसमें परिवर्तनों की रूपरेखा में शिक्षा की जगह और उसकी भूमिका को भी निरंतर विकासशील पाते हैं। सूत्रकाल तथा लोकायत के बीच शिक्षा की सार्वजनिक प्रणाली के पश्चात हम बौद्धकालीन शिक्षा को निरंतर भौतिक तथा सामाजिक प्रतिबद्धता से परिपूर्ण होते देखते हैं। बौद्धकाल में स्त्रियों और शूद्रों को भी शिक्षा की मुख्य धारा में सम्मिलित किया गया।
प्राचीन भारत में जिस शिक्षा व्यवस्था का निर्माण किया गया था वह समकालीन विश्व की शिक्षा व्यवस्था से समुन्नत व उत्कृष्ट थी लेकिन कालान्तर में भारतीय शिक्षा का व्यवस्था ह्रास हुआ। विदेशियों ने यहाँ की शिक्षा व्यवस्था को उस अनुपात में विकसित नहीं किया,जिस अनुपात में होना चाहिये था। अपने संक्रमण काल में भारतीय शिक्षा को कई चुनौतियों व समस्याओं का सामना करना पड़ा। आज भी ये चुनौतियाँ व समस्याएँ हमारे सामने हैं जिनसे दो-दो हाथ करना है।
1850 तक भारत में गुरुकुल की प्रथा चलती आ रही थी परन्तु मैकाले द्वारा अंग्रेजी शिक्षा के संक्रमण के कारण भारत की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था का अन्त हुआ और भारत में गुरुकुल बंद हुए और उनके स्थान पर कान्वेंट और पब्लिक स्कूल खोले गए।
भारत में आधुनिक शिक्षा की नींव यूरोपीय ईसाई धर्मप्रचारक तथा व्यापारियों के हाथों से छली गई। उन्होंने कई विद्यालय स्थापित किए। प्रारंभ में मद्रास ही उनका कार्यक्षेत्र रहा। धीरे धीरे कार्यक्षेत्र का विस्तार बंगाल में भी होने लगा। इन विद्यालयों में ईसाई धर्म की शिक्षा के साथ साथ इतिहास, भूगोल, व्याकरण, गणित, साहित्य आदि विषय भी पढ़ाए जाते थे। रविवार को विद्यालय बंद रहता था। अनेक शिक्षक छात्रों की पढ़ाई अनेक श्रेणियों में कराते थे। अध्यापन का समय नियत था। साल भर में छोटी बड़ी अनेक छुट्टियाँ हुआ करती थीं।
प्राय: 150 वर्षों के बीतते बीतते व्यापारी ईस्ट इंडिया कंपनी राज्य करने लगी। विस्तार में बाधा पड़ने के डर से कंपनी शिक्षा के विषय में उदासीन रही। फिर भी विशेष कारण और उद्देश्य से 1781 में कलकत्ते में ‘कलकत्ता मदरसा’ कंपनी ने और 1792 में बनारस में ‘संस्कृत कालेज’ जोनाथन डंकन ने स्थापित किए। धर्मप्रचार के विषय में भी कंपनी की पूर्वनीति बदलने लगी। कंपनी अब अपने राज्य के भारतीयों को शिक्षा देने की आवश्यकता समझने लगी। 1813 के आज्ञापत्र के अनुसार शिक्षा में धन व्यय करने का निश्चय किया गया। किस प्रकार की शिक्षा दी जाए, इसपर प्राच्य और पाश्चात्य शिक्षा के समर्थकों में मतभेद रहा। वाद विवाद चलता चला। अंत में लार्ड मेकाले के तर्क वितर्क और राजा राममोहन राय के समर्थन से प्रभावित हो 1835 ई. में लार्ड बेंटिक ने निश्चय किया कि अंग्रेजी भाषा और साहित्य और यूरोपीय इतिहास, विज्ञान, इत्यादि की पढ़ाई हो और इसी में 1813 के आज्ञापत्र में अनुमोदित धन का व्यय हो। प्राच्य शिक्षा चलती चले, परंतु अंग्रेजी और पश्चिमी विषयों के अध्ययन और अध्यापन पर जोर दिया जाए।
पाश्चात्य रीति से शिक्षित भारतीयों की आर्थिक स्थिति सुधरते देख जनता इधर झुकने लगी। अंग्रेजी विद्यालयों में अधिक संख्या में विद्यार्थी प्रविष्ट होने लगे क्योंकि अंग्रेजी पढ़े भारतीयों को सरकारी पदों पर नियुक्त करने की नीति की सरकारी घोषणा हो गई थी। सरकारी प्रोत्साहन के साथ साथ अंग्रेजी शिक्षा को पर्याप्त मात्रा में व्यक्तिगत सहयोग भी मिलता गया। अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार के साथ साथ अधिक कर्मचारियों की और चिकित्सकों, इंजिनियरों और कानून जाननेवालों की आवश्यकता पड़ने लगी। उपयोगी शिक्षा की ओर सरकार की दृष्टि गई। मेडिकल, इजिनियरिंग और लॉ कालेजों की स्थापना होने लगी। स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा के लिए ज्योतिबा फुले ने 1848 में एक स्कूल खोला। यह इस काम को देश में पहला विद्यालय था। लड़कियां पढ़ाने को अध्यापिका नहीं मिली तो उन्होंने कुछ दिन स्वयं यह काम करके अपनी पत्नी सावित्री को इस योग्य बना दिया। उच्च वर्ग के लोगों ने आरंभ से ही उनके काम में बाधा डालने की चेष्टा की, किंतु जब फुले आगे बढ़ते ही गए तो उनके पिता पर दबाब डालकर पति-पत्नी को घर से निकालवा दिया इससे कुछ समय को उनका काम रुका अवश्य, पर शीघ्र ही उन्होंने एक के बाद एक बालिकाओं के तीन स्कूल खोल दिए। स्त्री शिक्षा पर ध्यान दिया जाने लगा।
1853 में शिक्षा की प्रगति की जाँच को एक समिति बनी। 1854 में बुड के शिक्षासंदेश पत्र में समिति के निर्णय कंपनी के पास भेज दिए गए। संस्कृत, अरबी और फारसी का ज्ञान आवश्यक समझा गया। औद्योगिक विद्यालयों और विश्वविद्यालयों की स्थापना का प्रस्ताव रखा गया। प्रातों में शिक्षा विभाग अध्यापक प्रशिक्षण नारीशिक्षा इत्यादि की सिफारिश की गई। 1857 में स्वतंत्रता युद्ध छिड़ गया जिससे शिक्षा की प्रगति में बाधा पड़ी। प्राथमिक शिक्षा उपेक्षित ही रही। उच्च शिक्षा की उन्नति होती गई। 1857 में कलकत्ता, बंबई और मद्रास में विश्वविद्यालय स्थापित हुए।
मुख्यत: प्राथमिक शिक्षा की दशा की जाँच करते हुए शिक्षा के प्रश्नों पर विचार करने के लिए 1882 में सर विलियम विल्सन हंटर की अध्यक्षता में भारतीय शिक्षा आयोग की नियुक्ति हुई। आयोग ने प्राथमिक शिक्षा को सुझाव दिए। सरकारी प्रयत्न माध्यमिक शिक्षा से हटाकर प्राथमिक शिक्षा के संगठन में लगाने की सिफारिश की। सरकारी माध्यमिक स्कूल प्रत्येक जिले में एक से अधिक न हो; शिक्षा का माध्यम माध्यमिक स्तर में अंग्रेजी रहे। माध्यमिक स्कूलों के सुधार और व्यावसायिक शिक्षा के प्रसार को आयोग ने सिफारिशें कीं। सहायता अनुदान प्रथा और सरकारी शिक्षाविभागों का सुधार, धार्मिक शिक्षा, स्त्री शिक्षा, मुसलमानों की शिक्षा इत्यादि पर भी आयोग ने प्रकाश डाला।
आयोग की सिफारिशों से स्कूलों की संख्या बढ़ी। नगरों में नगरपालिका और गाँवों में जिला परिषद् का निर्माण हुआ और शिक्षा आयोग ने प्राथमिक शिक्षा को इन पर छोड़ दिया परंतु इससे विशेष लाभ न हो पाया। प्राथमिक शिक्षा की दशा सुधर न पाई। सरकारी शिक्षा विभाग माध्यमिक शिक्षा की सहायता करता रहा। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही रही। मातृभाषा की उपेक्षा होती गई। शिक्षा संस्थाओं और शिक्षितों की संख्या बढ़ी, परंतु शिक्षा का स्तर गिरता गया। देश की उन्नति चाहने वाले भारतीयों में व्यापक और स्वतंत्र राष्ट्रीय शिक्षा की आवश्यकता का बोध होने लगा। स्वतंत्रताप्रेमी भारतीयों और भारतप्रेमियों ने सुधार का काम उठा लिया। 1870 में बाल गंगाधर तिलक और उनके सहयोगियों ने पूना में फर्ग्यूसन कालेज, 1886 में आर्यसमाज ने लाहौर में दयानंद ऐंग्लो वैदिक कालेज और 1898 में काशी में श्रीमती एनी बेसेंट ने सेंट्रल हिंदू कालेज स्थापित किए।
1894 में कोल्हापुर रियासत के राजा छत्रपति साहूजी महाराज ने दलित और पिछड़ी जाति के लोगों के लिए विद्यालय खोल छात्रावास बनवाए। इससे उनमें शिक्षा का प्रचार हुआ और सामाजिक स्थिति बदलने लगी। 1894 से 1922 तक पिछड़ी जातियों समेत समाज के सभी वर्गों के लिए अलग-अलग सरकारी संस्थाएं खोलने की पहल हुई। यह अनूठी पहल सदियों से उपेक्षित दलित-पिछड़ी जातियों के बच्चों की शिक्षा के लिए थी। वंचित और गरीब घरों के बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई। 1920 को नासिक में छात्रावास की नींव रखी। साहू महाराज के प्रयासों का परिणाम उनके शासन में ही दिखने लग गया था। साहू महाराज ने देखा कि अछूत-पिछड़ी जाति के छात्रों की राज्य के स्कूल-कॉलेजों में पर्याप्त संख्या हैं, तब उन्होंने वंचितों के लिए खुलवाये गए पृथक स्कूल और छात्रावासों को बंद करवा दिया और उन्हें सामान्य छात्रों के साथ ही पढ़ने की सुविधा दी। डा० भीमराव अम्बेडकर बड़ौदा नरेश की छात्रवृति पर पढ़ने विदेश गए लेकिन छात्रवृत्ति बीच में ही रोक दिए जाने से उन्हे वापस भारत आना पड़ा। इसकी जानकारी साहू महाराज को हुई तो आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए उन्हें सहयोग दिया।
1901 में लार्ड कर्ज़न ने शिमला में गुप्त शिक्षा सम्मेलन किया था जिसमें 152 प्रस्ताव स्वीकृत हुए थे। इसमें कोई भारतीय नहीं बुलाया गया और न सम्मेलन के निर्णयों का प्रकाशन ही हुआ। इसको भारतीयों ने अपने विरुद्ध रचा हुआ षड्यंत्र समझा। कर्ज़न को भारतीयों का सहयोग न मिल सका। प्राथमिक शिक्षा की उन्नति को कर्ज़न ने उचित रकम की स्वीकृति, शिक्षकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था तथा शिक्षा अनुदान पद्धति और पाठ्यक्रम में सुधार किया। कर्ज़न का मत था कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से ही दी जानी चाहिए। माध्यमिक स्कूलों पर सरकारी शिक्षाविभाग और विश्वविद्यालय दोनों का नियंत्रण आवश्यक मान लिया गया। आर्थिक सहायता बढ़ा दी गई। पाठ्यक्रम में सुधार किया गया। कर्जन माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में सरकार का हटना उचित नहीं समझता था, प्रत्युत सरकारी प्रभाव का बढ़ाना आवश्यक मानता था। वह सरकारी स्कूलों की संख्या बढ़ाना चाहता था। लार्ड कर्जन ने विश्वविद्यालय और उच्च शिक्षा को 1902 में भारतीय विश्वविद्यालय आयोग नियुक्त किया। पाठ्यक्रम, परीक्षा, शिक्षण, कालेजों की शिक्षा, विश्वविद्यालयों का पुनर्गठन इत्यादि का विचार कर आयोग ने सुझाव दिए। इस आयोग में भी कोई भारतीय न था। इस पर भारतीयों में क्षोभ बढ़ा। उन्होंने विरोध किया। 1904 में भारतीय विश्वविद्यालय कानून बना। पुरातत्व विभाग की स्थापना से प्राचीन भारत के इतिहास की सामग्रियों का संरक्षण होने लगा। 1905 के स्वदेशी आंदोलन के समय कलकत्ते में जातीय शिक्षा परिषद् की स्थापना हुई और नैशनल कालेज स्थापित हुआ जिसके प्रथम प्राचार्य अरविंद घोष थे। बंगाल टेकनिकल इन्स्टिट्यूट की स्थापना भी हुई।
1911 में गोपाल कृष्ण गोखले ने प्राथमिक शिक्षा को नि:शुल्क और अनिवार्य करने का प्रयास किया। अंग्रेज़ सरकार और उसके समर्थकों के विरोध के कारण वे सफल न हो सके। 1913 में भारत सरकार ने शिक्षानीति में अनेक परिवर्तनों की कल्पना की। परंतु प्रथम विश्वयुद्ध से कुछ हो न पाया। प्रथम महायुद्ध समाप्त होने पर कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग नियुक्त हुआ। आयोग ने शिक्षकों का प्रशिक्षण, इंटरमीडिएट कालेजों की स्थापना, हाई स्कूल और इंटरमीडिएट बोर्डों का संगठन, शिक्षा का माध्यम, ढाका में विश्वविद्यालय की स्थापना, कलकत्ते में कालेजों की व्यवस्था, वैतनिक उपकुलपति, परीक्षा, मुस्लिम शिक्षा, स्त्रीशिक्षा, व्यावसायिक और औद्योगिक शिक्षा आदि विषयों पर सिफारिशें की। बंबई, बंगाल, बिहार, आसाम आदि प्रांतों में प्राथमिक शिक्षा कानून बनाये जाने लगे। माध्यमिक क्षेत्र में भी उन्नति होती गई। छात्रों की संख्या बढ़ी। माध्यमिक पाठ्य में वाणिज्य और व्यवसाय रखे दिए गए। स्कूल लीविंग सर्टिफिकेट परीक्षा चली। अंग्रेजी का महत्व बढ़ता गया। अधिक संख्या में शिक्षकों का प्रशिक्षण होने लगा।
1916 तक भारत में पाँच विश्वविद्यालय थे। अब सात नए विश्वविद्यालय स्थापित किए गए। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय तथा मैसूर विश्वविद्यालय 1916 में, पटना विश्वविद्यालय 1917 में, ओसमानिया विश्वविद्यालय 1918 में, अलीगढ़ मुस्लिम विश्व विद्यालय 1920 में और लखनऊ और ढाका विश्वविद्यालय 1921 में स्थापित हुए। असहयोग आंदोलन से राष्ट्रीय शिक्षा की प्रगति में बल और वेग आए। बिहार विद्यापीठ, काशी विद्यापीठ, गौड़ीय सर्वविद्यायतन, तिलक विद्यापीठ, गुजरात विद्यापीठ, जामिया मिल्लिया इस्लामिया आदि राष्ट्रीय संस्थाओं की स्थापना हुई। शिक्षा में व्यावहारिकता लाने की चेष्टा की गई। 1921 से नए शासन सुधार कानून के अनुसार सभी प्रांतों में शिक्षा भारतीय मंत्रियों के अधिकार में आ गई। परंतु सरकारी सहयोग के अभाव के कारण उपयोगी योजनाओं का कार्यान्वित न हुआ। प्राय: सभी प्रांतों में प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य करने की कोशिश व्यर्थ हुई। माध्यमिक शिक्षा में विस्तार होता गया परंतु उचित संगठन के अभाव से उसकी समस्याएँ हल न हो पाईं। शिक्षा समाप्त कर विद्यार्थी कुछ करने के योग्य न बन पाते। दिल्ली (1922), नागपुर (1923) आगरा (1927), आंध्र (1926) और अन्नामलाई (1926) में विश्वविद्यालय स्थापित हुए। बंबई, पटना, कलकत्ता, पंजाब, मद्रास और इलाहबाद विश्वविद्यालयों का पुनर्गठन हुआ। कालेजों की संख्या में वृद्धि होती गई। व्यावसायिक शिक्षा,स्त्रीशिक्षा,मुसलमानों की शिक्षा,हरिजनों की शिक्षा तथा अपराधी जातियों की शिक्षा में उन्नति होती गई।
अगले शासन सुधार के लिए साइमन आयोग की नियुक्ति हुई। हर्टाग समिति इस आयोग का एक आवश्यक अंग थी। इसका काम था भारतीय शिक्षा की समस्याओं की सागोपांग जाँच करना। समिति ने रिपोर्ट में 1918 से 1927 क प्रचलित शिक्षा के गुण और दोष का विवेचन किया और सुधार के लिए निर्देश दिया।
1930-1935 के बीच संयुक्त प्रदेश में बेकारी की समस्या के समाधान को समिति बनी। व्यावहारिक शिक्षा पर जोर दिया गया। इंटरमीडिएट की पढ़ाई के दो वर्षों में से एक वर्ष स्कूल के साथ कर दिया जाए, जिससे पढ़ाई 11 वर्ष की हो। बाकी एक वर्ष बी.ए. के साथ जोड़कर बी.ए. पाठ्यक्रम तीन वर्ष का कर दिया जाए। माध्यमिक छह वर्ष के दो भाग हों – तीन वर्ष का निम्न माध्यमिक और तीन वर्ष का उच्च माध्यमिक। अंतिम तीन वर्षों में साधारण पढ़ाई के साथ साथ कृषि, शिल्प, व्यवसाय सिखाए जायँ। समिति की ये सिफारिशें कार्यान्वित नहीं हुई।
1937 में शिक्षा की एक योजना तैयार की गई जो 1938 में बुनियादी शिक्षा के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसमें सात से 11 वर्ष के बालक बालिकाओं की शिक्षा अनिवार्य, शिक्षा मातृभाषा में,हिंदुस्तानी पढ़ाई जाए,चरखा, करघा, कृषि, लकड़ी का काम शिक्षा का केंद्र हो जिसकी बुनियाद पर साहित्य, भूगोल, इतिहास, गणित की पढ़ाई शामिल किए गए। 1945 में इसमें परिवर्तन किए गए और परिवर्तित योजना का नाम रखा गया ‘नई तालीम’। इसके चार भाग थे – (1) पूर्व बुनियादी, (2) बुनियादी, (3) उच्च बुनियादी और (4) वयस्क शिक्षा। हिंदुस्तानी तालीमी संघ (भारतीय शैक्षिक संघ) पर इसका संचालनभार छोड़ दिया गया।
1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त होते होते सार्जेट योजना बनी। इसमें छह से 14 वर्ष की अवस्था के बालकों तथा बालिकाओं के लिए अनिवार्य शिक्षा, जूनियर बेसिक स्कूल, सीनियर बेसिक स्कूल, साहित्यिक हाई स्कूल ओर व्यावसायिक हाई स्कूल की पढ़ाई 11 वर्ष की अवस्था से 17 वर्ष की अवस्था तक, इसके बाद विश्वविद्यालय में प्रवेश ,डिग्री पाठ्यक्रम तीन वर्ष का कर इंटरमीडिएट कक्षा समाप्त कर दी गई। सुझाव था ए पाँच से कम अवस्थावालों के लिए नर्सरी स्कूल हो। माध्यम मातृभाषा हो।