खाद्य तेल में आत्मनिर्भर भारत कैसे बना सबसे बड़ा आयातक
खाने के तेल के मामले में कैसे अपनी आत्मनिर्भरता खोता चला गया भारत
1930 के दशक में जब डालडा (Dalda) लॉन्च हुआ, तब भी पारंपरिक घानियां व्यापक रूप से चालू थीं, और महात्मा गांधी ने ग्रामीण उद्योगों पर जोर देने के हिस्से के रूप में इनका समर्थन किया था। अपने लंबे इतिहास, बेहतर स्वाद और पारंपरिक उपयोगों के साथ, भारत के घानी-उत्पादित तेल, आज भी मौजूदा खाद्य तेल संकट से बाहर निकलने का रास्ता बना हैं।
हाइलाइट्स
1-खाने के तेल के मामले में देश के आत्मनिर्भर होने का इतिहास बेहद पुराना है
2-तिल ने हमें तेल दिया, जिसका अर्थ है सभी खाद्य तेल
3-आज खाद्य तेल देसी और विदेशी दोनों तरह की दिग्गज एग्रो बिजनेस कंपनियों के लिए एक प्रमुख उत्पाद
नई दिल्ली 08 मई : भारत कभी खाने के तेल (Edible Oils) के उत्पादन में काफी आत्मनिर्भर हुआ करता था। 1970 के दशक के मध्य तक भारत खाने के तेल के प्रॉडक्शन (Edible Oils Production) के मामले में लगभग 95 फीसदी आत्मनिर्भर था। लेकिन बाद में यह आत्मनिर्भरता घटती गई और आयात पर निर्भरता बढ़ती गई। आज देश के बाजारों में आयातित खाद्य तेलों का बोलबाला है। खाने के तेल के मामले में देश के आत्मनिर्भर होने का इतिहास बेहद पुराना है। पुरातत्वविद् एम एस वत्स के अनुसार, 1930 के दशक के अंत में हड़प्पा में खुदाई में एक अच्छी खासी मात्रा में तिलों के ढेर और जले हुए तिल मिले थे। यह 3050-3500 ईसा पूर्व में पाया गया था, जो यह पुष्टि करता है कि तिल के बीज का इंसानों ने काफी पहले से इस्तेमाल शुरू कर दिया था। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि इसका उपयोग कैसे किया गया था, लेकिन यह संभव है कि इसे क्रश करके तेल बना दिया गया हो। अगर वाकई में ऐसा हुआ होगा तो यह इसे खाद्य तेल उत्पादन के शुरुआती उदाहरणों में से एक बना देगा।
बाद में तिलों को पीसने या कुचलने के स्पष्ट प्रमाण मौजूद हैं। खाद्य इतिहासकार के टी आचार्य अपनी स्टडी ‘घानी’ में लिखते हैं, ‘वैदिक काल से, तिल का बीज तिला था और तिल का तेल तैला था, जबकि तिलका का मतलब तिला से था। बाद में इन तीन शब्दों को एक ऑइलप्रेस को डिनोट करने के लिए जोड़ा गया, जिसमें तीन शब्द पेशर्ण (पीसने के लिए), यंत्र (मशीन) और चक्र (पहिया) शामिल थे।’ आचार्य की यह स्टडी परंपरागत इंडियन ऑयल-प्रेस पर है। तिल ने हमें तेल दिया, जिसका अर्थ है सभी खाद्य तेल। ऑयल-प्रेसिंग से अर्थ है किसी बीज को पीसकर या क्रश करके तेल निकाला जाना।
खाद्य तेल, एग्रोबिजनेस कंपनियों के लिए एक प्रमुख उत्पाद
घानियों की यह प्राचीनता दर्शाती है कि कैसे ऑयल-प्रेसिंग, आउटसोर्स किए जा रहे फूड प्रॉडक्शन का संभवतः सबसे पहला उदाहरण थी। यह ट्रेड किए जाने वाले सबसे शुरुआती खाद्य पदार्थों में से भी एक थी। आचार्य कहते हैं कि लगभग 400 ईसा पूर्व की तारीख वाले बुद्धिस्ट कैनोनिकल लिटरेचर में तेल मिलर्स के संघों का बार-बार उल्लेख किया गया है। जैतून का तेल भूमध्यसागरीय दुनिया में भाग्य की नींव था। आज खाद्य तेल देसी और विदेशी दोनों तरह की दिग्गज एग्रोबिजनेस कंपनियों के लिए एक प्रमुख उत्पाद है। विदेशी कंपनियां जैसे एबीसीडी कंपनियां (आर्चर-डेनियल्स, बंज, कारगिल और लुइस-ड्रेफस) और भारतीय कपंनियां जैसे अडानी-विल्मर।
जब डालडा ने पछाड़ा
एक उपभोक्ता के दृष्टिकोण से, तेल उत्पादन से दूर होने से विभिन्न तेलों को स्वीकार करना आसान हो गया, खासकर तब जब कुशल तरीके से मार्केटिंग की जाती है। भारतीय बाजार के लिए बनाया गया पहला वास्तव में बड़ा फूड ब्रांड हिंदुस्तान लीवर का डालडा वनस्पति (अब Bunge के स्वामित्व वाला) था, जो कि ऐसा खाद्य तेल था जिसे हाइड्रोजनीकरण के माध्यम से ठोस बनाया गया था। 1930 के दशक में जब डालडा लॉन्च हुआ, तब भी पारंपरिक घानियां व्यापक रूप से चालू थीं, और महात्मा गांधी ने ग्रामीण उद्योगों पर जोर देने के हिस्से के रूप में इनका समर्थन किया था। लेकिन सस्ते और अधिक सुविधाजनक डालडा ने घानी को पछाड़ना शुरू कर दिया।
तिलहनों में नहीं हुई हरित क्रांति जैसी क्रांति
लेकिन 1970 के दशक की शुरुआत तक भी भारत खाद्य तेलों में लगभग 95% आत्मनिर्भर था। खपत किए जाने वाले तेल के प्रकार अभी भी स्थानीय उत्पादन से जुड़े हुए थे, जैसे तटों पर नारियल का तेल, उत्तर और पूर्वी भारत में सरसों का तेल, पश्चिम और दक्षिण भारत में मूंगफली, कुसुम और तिल का तेल। 1960 के दशक में फसल खराब होने से खाद्य तेल उत्पादन पर असर पड़ा, लेकिन असली समस्या उनकी प्रतिक्रिया में आई। चावल और गेहूं के उत्पादन में विफलता, नई, लचीली और उच्च उत्पादक फसल किस्मों की ब्रीडिंग की ओर ले गई जिसे हरित क्रांति कहा जाता है। लेकिन तिलहन (और दलहन) के मामले में यह विकास नहीं हुआ। कीमतें बढ़ने लगीं जिसके कारण सरकार को पाम तेल के आयात की अनुमति देनी पड़ी, प्रमुख रूप से वनस्पति बनाने के लिए। आर्थिक विकास के साथ आहारों में अधिक विविधता आने से आयात को और बढ़ावा मिला।
जब डॉ. वर्गीज कुरियन को खाद्य तेल में क्रांति का सौंपा गया जिम्मा
उस वक्त लोग न केवल सीधे तौर पर अधिक तेल का सेवन कर रहे थे बल्कि बिस्किट, इंस्टेंट नूडल्स (आंशिक रूप से तेल में पहले से पका हुआ) और कुरकुरे डीप-फ्राइड स्नैक्स जैसे उत्पादों के रूप में भी तेल को शरीर में बड़ी मात्रा में ले जा रहे थे। भारत सरकार ने तिलहन उत्पादन बढ़ाने की कोशिश की। डॉक्टर वर्गीज कुरियन को खाद्य तेल के मामले में भी वैसी ही कामयाबी दोहराने या क्रांति करने के लिए साथ लिया गया, जो उन्होंने देश में दूध के मामले में की थी। और उन्होंने 1980 के दशक में धारा ब्रांड के साथ ऐसा किया भी। उस वक्त हाइड्रोजनीकरण से जुड़े स्वास्थ्य मुद्दों के कारण लिक्विड तेल एक बड़ी कैटेगरी बन गया था। सैम पित्रोदा को तिलहन प्रौद्योगिकी मिशन का प्रभारी बनाया गया, जिसने तिलहन की खेती के रकबे को बढ़ावा दिया। सूरजमुखी और कैनोला जैसे खाद्य तेल के नए स्रोतों को विकसित करने का प्रयास किया गया। यहां तक कि भारत के पारंपरिक विकल्पों की भी जांच की गई जैसे कि- साल, कोकम और आम की गिरी के बीज जैसे ट्री-बेस्ड वसाज्ञस्रोतों का इस्तेमाल। ये मुख्यधारा के खाद्य तेलों की जगह ले सकते थे, जिनका इस्तेमाल साबुन जैसे उत्पादों में किया जा रहा था।
फिर लौटे अच्छे दिन तो 1990 के दशक में लगा झटका
इसके बाद खाद्य तेल में भारत की आत्मनिर्भरता फिर से बढ़ गई लेकिन फिर 1990 के दशक में दो ऐसी घटनाएं हो गईं, जिन्होंने पासा पलट दिया। एक था भारत द्वारा विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) समझौते पर हस्ताक्षर, जिसने भारतीय उत्पादों की सुरक्षा के लिए सरकार के दायरे को कम कर दिया। सरकार को आयात के रास्ते खोलने के लिए चावल, गेहूं, चीनी और तिलहन में से चुनाव करना था। चावल, गेहूं और चीनी उपभोक्ताओं के लिए अधिक भावनात्मक और किसानों के लिए महत्वपूर्ण थे। लिहाजा सरकार ने इन्हें छोड़ा और तिलहन (और दालें) जो कि कम थे, के मामले में आयात को खोल दिया।
दूसरी घटना थी 1998 में सरसों के तेल के दूषित होने से जुड़ी गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का प्रकोप। यह कैसे हुआ यह स्पष्ट रूप से स्थापित नहीं हो सका, और साजिश के आरोप लग गए। इसने निश्चित रूप से बड़ी कंपनियों द्वारा बेचे जा रहे नए और आम तौर पर आयातित प्रकार के तेलों जैसे सोयाबीन और पाम तेल को बेहद ज्यादा फायदा पहुंचाया। इसकी वजह थी कि इन्हें स्वास्थ्य के लिए अच्छे होने के दावों के साथ बेचा जा रहा था।
आज भारत दुनिया का सबसे बड़ा खाद्य तेल आयातक
इसने संतुलन बिगाड़ दिया और भारत खाद्य तेल के मामले में अपनी जल्दी और शुरुआती आत्मनिर्भरता को पीछे छोड़ दुनिया का सबसे बड़ा आयातक बन गया है। खाद्य तेल की कीमतों के मौजूदा संकट की भविष्यवाणी वर्षों से की जा रही है और सरकार आत्मनिर्भरता की ओर लौटने के बारे में कितनी गंभीर है, इस बारे में संशय बना हुआ है। खासकर जब पूर्वोत्तर में पाम-तेल उत्पादन जैसे साधनों को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिसके साथ पर्यावरण से जुड़ी समस्याएं हैं।
फिर भी उपभोक्ताओं की भूमिका भी मायने रखती है। हमें केवल लागत और संदिग्ध स्वास्थ्य दावों के दृष्टिकोण से खाद्य तेल पर विचार करना बंद करना होगा और अपनी व्यक्तिगत खपत के लिए उचित रूप से उत्पादित घानी तेल पर वापस जाना होगा। इसकी उच्च लागत अधिक उत्पादन को प्रोत्साहित कर सकती है, साथ ही हमें इसे और अधिक सावधानी से उपयोग करने के लिए राजी भी कर सकती है। अपने लंबे इतिहास, बेहतर स्वाद और पारंपरिक उपयोगों के साथ, भारत के घानी-उत्पादित तेल, मौजूदा खाद्य तेल संकट से बाहर निकलने का एक रास्ता अभी भी ज्यों का त्यों अपना महत्व बनाये हुए है।
-डॉक्टर विक्रम