तो तैयार हैं राहुल जिम्मेदारी ओढ़ने को, कांग्रेस चिंतन शिविर में मिला संकेत

राहुल गांधी ने तो ताजपोशी का मन बना ही लिया, हाव-भाव तो यही कह रहे हैं
कांग्रेस के चिंतन शिविर में राहुल गांधी (Rahul Gandhi) की भाषा में कटाक्ष के साथ आक्रमण और ह्यूमर का भी पुट दिखा, लगा जैसे सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) को राहत देने का मन बना चुके हैं – लेकिन प्रियंका गांधी वाड्रा (Priyanka Gandhi Vadra) के रोल पर सस्पेंस कायम है!

राहुल गांधी  ने बहुत कुछ साफ कर दिया है. कांग्रेस को वो पांडव मानते हैं क्योंकि बीजेपी को वो कौरवों की सेना समझते हैं. वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को गुजरात में उनके गढ़ में घेरने का एक्शन प्लान भी तैयार कर चुके हैं.

हालांकि, राहुल गांधी का ये भी मानना है कि कांग्रेस में भी कुछ कौरव वंशज हैं – और चाहते हैं कि उनकी पहचान करके जल्द से जल्द बीजेपी को एक्सपोर्ट कर दिया जाये.

बस एक ही तस्वीर अब भी काफी धुंधली नजर आ रही है. वो है राहुल गांधी के अपने रोल को लेकर. ये भी संकेत दे चुके हैं कि कौरवों से लड़ने को वो गुजरात को ही कुरुक्षेत्र बनाने में जुट गये हैं – लेकिन अब तक ये नहीं मालूम हो सका है कि कुरुक्षेत्र के मैदान में वो खुद किस भूमिका में होंगे?

श्रीकृष्ण की सारथी वाली भूमिका में, या योद्धा अर्जुन के रोल में?

सवाल है कि अगर राहुल गांधी अपने लिए कृष्ण का किरदार चुनते हैं तो गुजरात में अर्जुन कौन होगा?

कांग्रेस के चिंतन शिविर में राहुल गांधी के मोटिवेशनल स्पीच से तो एकबारगी लगता है कि कृष्ण का किरदार ही उनको ज्यादा पसंद है. वैसे भी उनके पास ऐसी भूमिका निभाने का लंबा अनुभव है.

2004 से लेकर अभी तक, अगर 2017 से 2019 वाले बीच के रोल को अलग करके देखें तो ऐसा ही लगता है. कुछ महीनों को वो अर्जुन की भूमिका में भी रहे हैं, लेकिन कृष्ण वाले रोल में खुद को काफी कम्फर्टेबल पाते हैं, ऐसा उनकी कार्यशैली देख कर लगता है.

सवाल ये भी है कि अगर राहुल गांधी अपने लिए अर्जुन का किरदार चुनते हैं तो कृष्ण की भूमिका में कौन होगा?

और एक सवाल ये भी है कि क्या प्रियंका गांधी वाड्रा अपने अर्जुन की सारथी बनने को तैयार हैं? और ये भी कि क्या कांग्रेस के मौजूदा आधिकारिक या अंतरिम नेतृत्व ने भी मंजूरी दे दी है, या फिर भाई-बहन के संयुक्त निर्णय में किसी और की बहुत गुंजाइश भी नहीं बचती, भले ही वो सोनिया गांधी  ही क्यों न हों.

कथनी और करनी का फर्क देखना हो तो बिहार के दो-लड़कों की पसंद की तरफ भी एक बार झांक सकते हैं – लालू के दो लाल की तरफ. तेज प्रताप यादव खुद को कृष्ण और तेजस्वी यादव को अर्जुन बताते तो हैं, लेकिन लगता है ऐन उसी वक्त वो खुद को भी अर्जुन की भूमिका में होने की चेष्टा में रहते हैं – और साजिशें हैं कि ख्वाहिशों पर पानी फेर देती हैं. कभी कभी तो प्रियंका गांधी वाड्रा को भी तेज प्रताप जैसा ही महसूस होता होगा, जबकि हकीकत उसके उलट ही प्रतीत होती है.

राहुल गांधी जब चेन्नई के स्टेला कॉलेज जैसे कैंपस में होते हैं तो चेहरे पर गजब की चमक देखने को मिलती है – और जब बोलते हैं, “नाम तो सुना ही होगा”, मन की बात फटाफट कंफर्म भी हो जाती है. द्वारका में आयोजित कांग्रेस के चिंतन शिविर में भी राहुल गांधी को अंदर से वैसा ही खुश देखा और सुना भी गया.

राहुल गांधी ने गुजरात के नेताओं को 10 दिसंबर से पहले हार न मानने की सलाह दी है – अब ये विधानसभा चुनाव से जुड़ी तारीख तो हो भी नहीं सकती – तो क्या राहुल गांधी ने अपनी ताजपोशी की तारीख बतायी है?

चिंतन शिविर के सेंस ऑफ ह्यूमर से भी लगता है, राहुल गांधी मन बना चुके हैं. ‘करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान,’ जैसी परिकल्पना और की हो सकती है, लेकिन राहुल गांधी लगातार मिल रही नाकामियों से ऊब चुके लगते हैं – और यथाशीघ्र निजात पाना चाहते हैं. आर या पार. न कम, न ज्यादा.

कुछ तो राहुल गांधी ने कांग्रेस के चिंतन शिविर में कहा है और कुछ चीजें हाल फिलहाल उनका पीछा कर रही लगती हैं – मुश्किल ये है कि दिल्ली की डगर अब भी बहुत ही मुश्किल लगती है.

कांग्रेस के भीतर कौरवों की पहचान कैसे होगी?

राहुल गांधी के बयान के बाद समझा गया कि उनके निशाने पर कांग्रेस के बागी G-23 गुट के नेता हैं. पद्म पुरस्कार मिलने के बाद से गुलाम नबी आजाद तो आंखों की किरकिरी बने ही हुए हैं, पंजाब चुनाव में मनीष तिवारी भी कटु सत्यवचन बोल रहे हैं, लेकिन सत्य तो सबका अपना – अपना होता है. मनीष तिवारी की बातें सच तो तभी मानी जाएंगी, कम से कम कांग्रेस के भीतर, जब राहुल गांधी भी उसे सच मानेंगे – भले ही वो खुद को कदम कदम पर सच का सिपाही बताते फिरते हों.

कांग्रेस के चिंतन शिविर में राहुल गांधी ने अपनी पार्टी के नेताओं से सबसे पहले ‘कौरवों’ की एक इंटरनल लिस्ट तैयार करने को कहा. एक मौखिक गाइडलाइन भी बता दी जिससे ऐसे तत्वों की पहचान करना थोड़ा आसान हो.

राहुल गांधी ने बता रहे थे, ‘एक तरफ वो लोग… जो 24 घंटे लगे रहते हैं… जमीन से जुड़े हैं… बीजेपी से लड़ते हैं… लाठी खाते हैं… दूसरी तरफ बहुत सारे लोग… जो एसी में बैठते हैं… मौज करते हैं… लंबे-लंबे भाषण देते हैं… हमें अब ये स्पष्टता लानी है – वे कौरव हैं.’

राहुल गांधी की नजर में ये वे लोग हैं जो एसी दफ्तरों में बैठ कर बातों के अलावा कुछ नहीं करते – और हां, दूसरों को परेशान करते रहते हैं. सवाल तो ये है कि ऐसे लोगों से परेशान कौन-कौन होता है. सिर्फ गांधी परिवार या बाकी कांग्रेसी भी, करीबियों के अलावा.

और भी स्पष्टता लाते हुए राहुल गांधी ने बोल भी दिया, ‘ऐसे लोग आखिरकार बीजेपी में चले जाते हैं.’

मतलब, वे लोग जिनके देर सवेर कांग्रेस छोड़ देने की संभावना लगती हो. मतलब, अब कांग्रेस में ऐसे कौरवों की तलाश में मुखबिरों की ड्यूटी लगी है. मतलब, कांग्रेस में कमिटियों की तरह ऐसे तत्वों को आइडेंटिफाई करने का काम भी गांधी परिवार से करीबी साबित करने में काम आ सकता है। लेकिन राहुल गांधी के पास क्या ऐसा भी कोई उपाय है जिससे वो चेक कर सकें कि अगर उनका कोई करीबी नेता किसी और नेता से दुश्मनी साधने को इनपुट के तौर पर अपडेट करता है कि फलां नेता बीजेपी जाने की तैयारी कर रहा है.

सचिन पायलट को तो अशोक गहलोत निकम्मा, नकारा, पीठ में छुरा भोंकने वाला और न जाने क्या-क्या करार दिये थे – लेकिन सचिन पायलट के खिलाफ तो ऐसा कोई भी सबूत नहीं मिल पाया.

क्या राहुल गांधी के पास किसी और अशोक गहलोत के किसी और को सचिन पायलट बनाने से बचाये रखने का भी कोई मेकैनिज्म है भी या ये सब यूं ही चलता रहेगा.

उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान ही आरपीएन सिंह के बीजेपी में चले जाने के बाद, प्रियंका गांधी ने भी राहुल गांधी जैसा ही रिएक्शन दिया था. समझाने की कोशिश रही कि संघ और बीजेपी की विचारधारा के खिलाफ लड़ाई काफी मुश्किल है – और काफी लंबी भी. लिहाजा हर किसी के लिए लंबे समय तक लड़ाई के मैदान में टिके रहना काफी मुश्किल हो सकता है – बेहतर है वे अपने लिए कोई अच्छा इंतजाम कर लें.

राहुल गांधी पहले ऐसे नेताओं को डरपोक का तमगा भी दे चुके हैं – और ये भी कह चुके हैं कि ऐसे नेताओं को संघ और बीजेपी में भेज दो – और हां, जो वहां निडर नेता हैं उनको कांग्रेस में लाओ.

कांग्रेस में कौरवों की तलाश का राहुल गांधी का नया नुस्खा भी उसी लाइन पर आगे बढ़ता लगता है.

क्या फिर से वैसी ही तैयारी है

राहुल गांधी के लिए कांग्रेस के अध्यक्ष पद का रास्ता गुजरात से होकर वैसे ही निकलता है, जैसे उत्तर प्रदेश से देश के प्रधानमंत्री पद की कुर्सी की राह. 2017 के आखिर में राहुल गांधी गुजरात विधानसभा का चुनाव खत्म होने के बाद और नतीजे आने से पहले कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे.

एक तरफ जबकि राहुल गांधी गुजरात में कांग्रेस के कौरवों की सूची तैयार कराने में लगे हैं, दिल्ली में राजस्थान प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा के बाद मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को भी बुलाया गया है. अनुमान हैं कि राजस्थान में बेहतरीन बजट पेश करने पर गहलोत पीठ ठोकने को दिल्ली दरबार में बुलाये गये हैं.

राहुल गांधी के आवास पर कांग्रेस नेताओं की बैठक भी हुई है. अशोक गहलोत के अलावा बैठक में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल, उत्तर प्रदेश की प्रभारी महासचिव प्रियंका गांधी और संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल भी शामिल हुए – कहा जा रहा है कि कांग्रेस चुनाव समिति सितंबर, 2022 तक अपना नया अध्यक्ष चुन सकती है.

पांच साल पहले जब राहुल गांधी कांग्रेस के गुजरात मिशन पर थे तो मंचों पर उनकी एक तरफ अशोक गहलोत और दूसरी तरफ अहमद पटेल नजर आते थे – क्या अशोक गहलोत को फिर से उसी भूमिका में लिया जाने वाला है?और ऐसा होता है तो क्या सचिन पायलट के सपनों को हकीकत में बदले जाने की भी कोई संभावना बनती है?

2017 गुजरात दौरे में राहुल गांधी के साथ- साथ गहलोत और पटेल तो सोनिया गांधी के प्रतिनिधि के तौर पर मौजूद होते थे, राहुल गांधी के दो करीबी सहयोगी भी आस पास ही देखे जाते रहे – एक तरफ सचिन पायलट और दूसरी तरफ ज्योतिरादित्य सिंधिया.

अब न तो अहमद पटेल हैं, न कांग्रेस के साथ सिंधिया. एक को तो होनी ने छीन लिया – और दूसरे को बीजेपी ने.

राहुल गांधी का दावा है कि बीजेपी को सत्ता से हटाने को उनको सिर्फ पांच नेताओं की जरूरत है. ये बात राहुल गांधी ने गुजरात के प्रसंग में कही, दिल्ली को लेकर संख्या घट या बढ़ सकती है. असल बात तो वही जानते होंगे.

2017 के विधानसभा चुनावों से पहले अपने गुजरात दौरे को याद करते हुए राहुल गांधी ने बताया कि गुजरात कांग्रेस के नेताओं को शुरू में ज्यादा सीटें जीतने की उम्मीद नहीं थी. बगैर नाम लिए एक वरिष्ठ नेता का हवाला देते हुए राहुल गांधी ने कहा कि उनका मानना था कि गुजरात की 182 सीटों में से महज 40-45 सीटें कांग्रेस जीतेगी.’

राहुल गांधी कहते हैं, ‘…लेकिन अंत में हम चुनाव जीतने से सिर्फ सात सीटों से पीछे रह गये… मैं इस बार भी यही स्थिति देख रहा हूं.’ 2017 में कांग्रेस को 77 सीटें मिली थीं जबकि बीजेपी को 99.

अब सवाल ये है कि क्या ये कॉन्फिडेंस ताजपोशी की नयी संभावना से मिला है?

अब क्या ये समझा जाये कि राहुल गांधी फिर से कांग्रेस की कमान संभालने को मन बना चुके हैं?

ये तो साफ है कि सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष का पद मजबूरी में ढो रही हैं. यूपीए की चेयरपर्सन की पोस्ट के साथ भी यही लागू होता है – लेकिन क्या सोनिया गांधी की बढ़ती उम्र और सेहत की फिक्र ने ही राहुल गांधी को जिम्मेदारी का एहसास कराया है या कोई और भी वजह हो सकती है?

कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रियंका गांधी वाड्रा भी एक बड़ी वजह बन रही हैं? जिस तरह से यूपी चुनाव से राहुल गांधी ने दूरी बनायी है और जिस तरीके से प्रियंका गांधी, एक दायरे में ही सही, सब कुछ हैंडल करने लगी हैं – सवाल तो पैदा होंगे ही. खासकर यूपी में कांग्रेस के चेहरे को लेकर मीडिया के सवाल पर प्रियंका गांधी का बगैर लाग-लपेट वाला रिएक्शन.

“कांग्रेस में कोई और चेहरा नजर आता है क्या… मेरे सिवा?”

बाद में भले ही प्रियंका गांदी ने अपनी प्रतिक्रिया को बार-बार पूछे जाने से चिढ़ कर कही गयी बात बतायी हो, लेकिन क्या ये गुस्सा ही था? ये सफाई में पेश किया गया डिस्क्लेमर जैसा लगता है. ये तो मन की बात लगती है, जो अचानक जबान पर आ गयी और बाद में बोल दिया कि जबान फिसल गयी थी या तोड़ मरोड़ कर पेश कर दिया गया.

क्या आपने ठीक उस वक्त राहुल गांधी के चेहरे पर ध्यान दिया था? एक पल को तो राहुल गांधी का चेहरा भावशून्य हो गया था. कंट्रोल तो किया ही होगा, लेकिन मुस्कुराये तो बिलकुल नहीं.अगर ये बात हंसी मजाक वाली होती तो क्या वो एक स्माइल नहीं दे सकते थे? हर बार गम छुपाने को इंसान मुस्कुराये ही, जरूरी भी तो नहीं!

मृगांक  शेखर @mstalkieshindi

 

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