प्रतीकों के पीछे: होलिका है वैदिक सामूहिक नवसस्येष्टि यज्ञ

होली का पर्व मनाने के दो पक्ष हैं — वैदिक और पौराणिक।

वैदिक परम्परा के इस नवसस्येष्टि पर्व में नव अन्न आगमन पर यज्ञ आदि में उनकी आहुति का विधान है।

होली पर्व के पौराणिक रूप की पटकथा की बजाय हम इसके लाक्षणिक, आध्यात्मिक, सामाजिक पहलू पर प्रकाश डालते हैं।

होली का पर्व सौहार्द का प्रतीक है जो हर्षोल्लास से मनाया जाता है। होलिका दहन वैमनस्य को दग्ध करने का प्रतीक है जो होली की पूर्व संध्या पर मनाया जाता है। वैमनस्य, मन- मुटाव, पारस्परिक भेदभाव दग्ध होने पर ही, सौहार्द का प्रादुर्भाव होना सम्भव है। रंगों से खेलना और मिष्ठान का रसास्वादन तथा आदान-प्रदान जीवन में मिठास, प्यार और रंगीनता, सम्बन्धों में नये आयामों के जुड़ने की सम्भावना का प्रतीक हैं । यही इस पर्व का सामाजिक पहलू है।

आध्यात्मिक दृष्टि से होलिका दहन का लाक्षणिक अर्थ है अपनी दुर्भावनाओं, दुष्प्रवृत्तियों, दुर्विचारों तथा दुर्व्यवहार का परित्याग करना, उन्हें भस्म करना, दग्ध करना। तभी समाज कल्याण तथा आत्मोत्थान सम्भव है।

इसके लिए आत्म निरीक्षण करना चाहिए तथा प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिए कि वे हमें सन्मार्ग पर चलने की शक्ति एवं प्रेरणा दें।

विश्वानिदेव सवितर्दुरितानि परा सुव
यद्भद्रं तन्न आ सुव !

( हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता ! हर बुराई दूर करो, जो हमारे लिए हितकर हो, हमें प्राप्त कराओ !)

युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो
भूयिष्ठान्ते नमः उक्ति विधेम !

( हमारे सभी पापों को दग्ध करो,
तथा हम आपकी भक्ति में रत रहें।)

जहां तक पुराण वर्णित हिरण्यकशिपु की बहिन होलिका के अग्नि में जल जाने की कथा का सम्बन्ध है, उसका भी लाक्षणिक अर्थ यह है कि जिन सिद्ध पुरुषों को इस प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त हैं, उन्हें अन्यों का अहित करने का कदापि प्रयोग नहीं करना चाहिए। अन्यथा उनका योगबल भस्म हो जाएगा।

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प्रस्तुत है श्री दीपक कुमार का लेख

” होली का वास्तविक स्वरूप “

होली पर्व पर अपनी आदत के अनुसार नवबौद्ध और अम्बेडकरवादी सोशल मीडिया में चिल्ला रहे हैं कि होलिका दहन नारी अधिकारों का दमन है। मैं ऐसे त्योहार की बधाई किसी को क्यों दूँ। होलिका का दोष क्या था ? होलिका को किसने जलाया? क्या होलिका को जलाते समय उसके परिजन वहाँ मौजूद थे ? होलिका भली थी या बुरी यह तो मैं नहीं जानता। पर पढ़ लिखकर इतना जरूर समझा कि होली किसी स्त्री को जिन्दा जलाकर जश्न मनाने की सांकेतिक पुनरावृत्ति है। ऐसा करना ब्राह्मणवादी और मनुवादी सोच है। बला बला बला……….

अब आप होली का वास्तविक स्वरुप समझे।

इस पर्व का प्राचीनतम नाम वासन्ती नव सस्येष्टि है अर्थात् बसन्त ऋतु के नये अनाजों से किया हुआ यज्ञ, परन्तु होली होलक का अपभ्रंश है।

यथा–

*तृणाग्निं भ्रष्टार्थ पक्वशमी धान्य होलक: (शब्द कल्पद्रुम कोष) अर्धपक्वशमी धान्यैस्तृण भ्रष्टैश्च होलक: होलकोऽल्पानिलो मेद: कफ दोष श्रमापह।*(भाव प्रकाश)

*अर्थात्*―तिनके की अग्नि में भुने हुए (अधपके) शमो-धान्य (फली वाले अन्न) को होलक कहते हैं। यह होलक वात-पित्त-कफ तथा श्रम के दोषों का शमन करता है।

*(ब) होलिका*―किसी भी अनाज के ऊपरी पर्त को होलिका कहते हैं-जैसे-चने का पट पर (पर्त) मटर का पट पर (पर्त), गेहूँ, जौ का गिद्दी से ऊपर वाला पर्त। इसी प्रकार चना, मटर, गेहूँ, जौ की गिदी को प्रह्लाद कहते हैं। होलिका को माता इसलिए कहते है कि वह चनादि का निर्माण करती *(माता निर्माता भवति)* यदि यह पर्त पर (होलिका) न हो तो चना, मटर रुपी प्रह्लाद का जन्म नहीं हो सकता। जब चना, मटर, गेहूँ व जौ भुनते हैं तो वह पट पर या गेहूँ, जौ की ऊपरी खोल पहले जलता है, इस प्रकार प्रह्लाद बच जाता है। उस समय प्रसन्नता से जय घोष करते हैं कि होलिका माता की जय अर्थात् होलिका रुपी पट पर (पर्त) ने अपने को देकर प्रह्लाद (चना-मटर) को बचा लिया।
*(स)* अधजले अन्न को होलक कहते हैं। इसी कारण इस पर्व का नाम *होलिकोत्सव* है और बसन्त ऋतुओं में नये अन्न से यज्ञ (येष्ट) करते हैं। इसलिए इस पर्व का नाम *वासन्ती नव सस्येष्टि* है। यथा―वासन्तो=वसन्त ऋतु। नव=नये। येष्टि=यज्ञ। इसका दूसरा नाम *नव सम्वतसर* है। मानव सृष्टि के आदि से आर्यों की यह परम्परा रही है कि वह नवान्न को सर्वप्रथम अग्निदेव पितरों को समर्पित करते थे। तत्पश्चात् स्वयं भोग करते थे। हमारा कृषि वर्ग दो भागों में बँटा है―(1) वैशाखी, (2) कार्तिकी। इसी को क्रमश: वासन्ती और शारदीय एवं रबी और खरीफ की फसल कहते हैं। फाल्गुन पूर्णमासी वासन्ती फसल का आरम्भ है। अब तक चना, मटर, अरहर व जौ आदि अनेक नवान्न पक चुके होते हैं। अत: परम्परानुसार पितरों देवों को समर्पित करें, कैसे सम्भव है। तो कहा गया है–

*अग्निवै देवानाम मुखं*

अर्थात् अग्नि देवों–पितरों का मुख है जो अन्नादि शाकल्यादि आग में डाला जायेगा। वह सूक्ष्म होकर पितरों देवों को प्राप्त होगा।

हमारे यहाँ आर्यों में चातुर्य्यमास यज्ञ की परम्परा है। वेदज्ञों ने चातुर्य्यमास यज्ञ को वर्ष में तीन समय निश्चित किये हैं―(1) आषाढ़ मास, (2) कार्तिक मास (दीपावली) (3) फाल्गुन मास (होली) यथा

 *फाल्गुन्या पौर्णामास्यां चातुर्मास्यानि प्रयुञ्जीत मुखं वा एतत सम्वत् सरस्य यत् फाल्गुनी पौर्णमासी आषाढ़ी पौर्णमासी*

अर्थात् फाल्गुनी पौर्णमासी, आषाढ़ी पौर्णमासी और कार्तिकी पौर्णमासी को जो यज्ञ किये जाते हैं वे चातुर्यमास कहे जाते हैं आग्रहाण या नव संस्येष्टि।

*समीक्षा*―आप प्रतिवर्ष होली जलाते हो। उसमें आखत डालते हो जो आखत हैं–वे अक्षत का अपभ्रंश रुप हैं, अक्षत चावलों को कहते हैं और अवधि भाषा में आखत को आहुति कहते हैं। कुछ भी हो चाहे आहुति हो, चाहे चावल हों, यह सब यज्ञ की प्रक्रिया है। आप जो परिक्रमा देते हैं यह भी यज्ञ की प्रक्रिया है। क्योंकि आहुति या परिक्रमा सब यज्ञ की प्रक्रिया है, सब यज्ञ में ही होती है। आपकी इस प्रक्रिया से सिद्ध हुआ कि यहाँ पर प्रतिवर्ष सामूहिक यज्ञ की परम्परा रही होगी इस प्रकार चारों वर्ण परस्पर मिलकर इस होली रुपी विशाल यज्ञ को सम्पन्न करते थे। आप जो गुलरियाँ बनाकर अपने-अपने घरों में होली से अग्नि लेकर उन्हें जलाते हो। यह प्रक्रिया छोटे-छोटे हवनों की है। सामूहिक बड़े यज्ञ से अग्नि ले जाकर अपने-अपने घरों में हवन करते थे। बाहरी वायु शुद्धि के लिए विशाल सामूहिक यज्ञ होते थे और घर की वायु शुद्धि के लिए छोटे-छोटे हवन करते थे दूसरा कारण यह भी था।

*ऋतु सन्धिषु रोगा जायन्ते*

―अर्थात् ऋतुओं के मिलने पर रोग उत्पन्न होते हैं, उनके निवारण के लिए यह यज्ञ किये जाते थे। यह होली हेमन्त और बसन्त ऋतु का योग है। रोग निवारण के लिए यज्ञ ही सर्वोत्तम साधन है। अब होली प्राचीनतम वैदिक परम्परा के आधार पर समझ गये होंगे कि होली नवान्न वर्ष का प्रतीक है।

*पौराणिक मत में कथा इस प्रकार है―

होलिका हिरण्यकश्यपु नाम के राक्षस की बहिन थी। उसे यह वरदान था कि वह आग में नहीं जलेगी। हिरण्यकश्यपु का प्रह्लाद नाम का आस्तिक पुत्र विष्णु की पूजा करता था। वह उसको कहता था कि तू विष्णु को न पूजकर मेरी पूजा किया कर। जब वह नहीं माना तो हिरण्यकश्यपु ने होलिका को आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को आग में लेकर बैठे। वह प्रह्लाद को आग में गोद में लेकर बैठ गई, होलिका जल गई और प्रह्लाद बच गया। होलिका की स्मृति में होली का त्यौहार मनाया जाता है l जो नितांत मिथ्या हैं।।

होली उत्सव यज्ञ का प्रतीक है। स्वयं से पहले जड़ और चेतन देवों को आहुति देने का पर्व हैं। आईये इसके वास्तविक स्वरुप को समझ कर इस सांस्कृतिक त्योहार को बनाये। होलिका दहन रूपी यज्ञ में यज्ञ परम्परा का पालन करते हुए शुद्ध सामग्री, तिल, मुंग, जड़ी बूटी आदि का प्रयोग कीजिये।

आप सभी को होली उत्सव की हार्दिक शुभकामनायें।
दीपक कुमार
…………….

 

थेथरोलॉजी समझिये ….

हिरण्यकश्यप एक शुद्र था …. हिरण्यकश्यप एक राजा था ….

(शूद्रों को राज करने का अधिकार नहीं था) ….

हिरण्यकश्यप ने तप जप द्वारा ब्रह्मा को प्रसन्न कर के आशीर्वाद प्राप्त किया ….

(शूद्रों को पूजा पाठ यज्ञ हवन तपस्या करने का अधिकार नहीं था) ….

हिरण्यकश्यप का बेटा प्रह्लाद शस्त्र अस्त्र शास्त्र वेद उपनिषद की शिक्षा के लिए गुरुकुल जाता था ….

(शूद्रों को शिक्षा दीक्षा का कोई अधिकार नहीं था) ….

हिरण्यकश्यप ने अपने बेटे को मारने के अनेक प्रयास किये ….
(शुद्र सदियों से शोषित वंचित पीड़ित है जिनके कानों में शीशा पिघला के डाला जाता था) ….
होलिका अपने भाई हिरण्यकश्यप के साथ मिलकर प्रजा पर अत्याचार करती थी और नर मांस भक्षण करते हुए गन्दगी फैलाती थी ….

(होलिका एक मासूम अबला नारी थी जिसे मनुवादियों ने जला कर मार दिया) ….
होलिका ने मासूम प्रह्लाद को जलाकर मारने की कुचेष्टा की परन्तु उस आग में वो खुद जल के मर गयी ….

(होलिका को ब्राह्मणों ने जलाकर मारा …. ब्राह्मणों के अत्याचार की पराकाष्ठा थी ये) ….

होलिका के जल कर मरने के बाद जनता ने रंगोत्सव मनाया ….

(शूद्रों पर अत्याचार कर के मनुवादी प्रसन्न होते थे) ….

हिरण्यकश्यप के मरने के बाद प्रह्लाद को ही राजा बनाया गया ….
(अब्बा डब्बा चब्बा) ….

आप सब मित्रों भाइयों को होली का घणा घणा राम राम सा !!!! .

साभार-रितेश प्रज्ञानश

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