द कश्मीर फाइल्स: फारुख अब्दुल्ला के पकड़े गए नौ झूठ
The Kashmir Files पर फारुक अब्दुल्ला ने बातों, बहानों की जलेबी बनाई है!
कश्मीरी पंडितों का नरसंहार और पलायन तथ्यों के सहारे बिना किसी लाग-लपेट रखने वाली द कश्मीर फाइल्स में जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला (Farooq Abdullah) का भी किरदार है. फारूक अब्दुल्ला ने द कश्मीर फाइल्स (Kashmir Files) में अपनी भूमिका पर चुप्पी तोड़ी है. लेकिन, वो अपनी कही बातों में ही उलझ गए.
फारूक अब्दुल्ला ने द कश्मीर फाइल्स में अपनी भूमिका को लेकर चुप्पी तोड़ी है. फारूक अब्दुल्ला ने इंडिया टुडे इंटरव्यू में द कश्मीर फाइल्स को प्रोपेगेंडा फिल्म करार दिया. उन्होंने कहा कि इसने (द कश्मीर फाइल्स) एक ऐसी त्रासदी को उठाया है जिसने राज्य के हर शख्स, हिंदू और मुसलमानों को समान रूप से प्रभावित किया है. मेरा दिल अभी भी इस त्रासदी पर रोता है. हालांकि, अपनी बातचीत में फारूख अब्दुल्ला ने कई ऐसे खुलासे कर दिए, जो खुद उनके ही दावों की पोल खोलते नजर आए. जो तथ्यों से परे दिखे.
नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता फारूक अब्दुल्ला ने बातचीत में जम्मू-कश्मीर में किए गए कश्मीरी पंडितों के जातीय नरसंहार को कुछ राजनीतिक दलों के समर्थन की बात भी कबूली. फारूक अब्दुल्ला ने मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी के अपहरण, तत्कालीन गवर्नर जगमोहन, कांधार हाईजैक, बिट्टा कराटे और यासीन मलिक जैसे आतंकियों को सजा न मिलने, आर्टिकल 370 हटाए जाने के बावजूद आतंकी घटनाओं में कमी न आने जैसे मामलों पर खुलकर राय रखी. हालांकि, फारूक अब्दुल्ला अपनी बातों की बनाई जलेबी में ही उलझ गए. क्योकि, उनकी कही बातें तथ्यों के आस-पास भी फटकती नजर नही आती . आइए फारूक अब्दुल्ला की कही बातों पर डालते हैं एक नजर…
फारूक अब्दुल्ला ने इंडिया टुडे से बातचीत में द कश्मीर फाइल्स को प्रोपेगेंडा फिल्म करार दिया.
फारूक अब्दुल्ला
द कश्मीर फाइल्स प्रोपेगेंडा फिल्म है. इसने एक ऐसी त्रासदी उठाई है जिसने राज्य की हर हिंदू और मुसलमानों को समान रूप से प्रभावित किया है. मेरा दिल अभी भी इस त्रासदी पर रोता है. कश्मीर में राजनीतिक दलों का एक धड़ा था, जो इस जातीय नरसंहार के पक्ष में था. और, कुछ लोगों ने इस इथनिक क्लेंजिंग में हिस्सा लिया. सच केवल जांच कमेटी से ही सामने आ सकता है. अगर जांच में मैं अपराधी घोषित होता हूं, तो मुझे फांसी चढ़ा दीजिए. जांच कमेटी को केवल कश्मीरी पंडितों की हत्याओं के लिए नहीं बल्कि, सिखों और मुसलमानों की हत्याओं के लिए भी बनाया जाना चाहिए. मेरी पार्टी के नेता और कार्यकर्ता भी मारे गए.
तथ्य
कश्मीरी पंडित उनके धर्म के कारण मारे गए. जबकि कश्मीरी मुस्लिम उनके धर्म के कारण नहीं, बल्कि कश्मीरी पंडितों की मदद करने या भारत सरकार की नौकरी के कारण मारे गए. कश्मीरी पंडितों का नरसंहार विशुद्ध धार्मिक आधार पर हुआ.
फारूक अब्दुल्ला
कश्मीरी पंडितों के नरसंहार में उनकी भूमिका होने के सवाल पर फारूक अब्दुल्ला ने कहा कि यह सच नही है. अगर लोग सच्चाई जानना चाहते हैं, तो यह बहुत कड़वी है. सच्चाई जानने को उन्हें मेरे चीफ सेकेट्री मूसर रजा या केंद्रीय मंत्री रहे आरिफ मोहम्मद खान से बात करनी चाहिए.
तथ्य
फारूक अब्दुल्ला के मुख्यमंत्री रहते कश्मीरी पंडित मारे जाते रहे, लेकिन उन्होंने कोई कदम नहीं उठाया. उनके रोल को लेकर कभी कोई क्रिमिनल पूछताछ नहीं हुई. जैसी गुजरात का मुख्यमंत्री रहते नरेंद्र मोदी से हुई थी.
फारूक अब्दुल्ला
1989 में मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबैया के अपहरण पर बात करते फारूक अब्दुल्ला ने कहा कि केंद्र सरकार ने आतंकियों को छोड़ने का फैसला किया. तो, मैंने इससे मना किया था. तब भाजपा समर्थन से वीपी सिंह भारत सरकार चला रहे थे. मैंने उनसे कहा था कि यह बड़ी त्रासदी होगी और देश को इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी. लेकिन, उन्होंने मेरी नहीं मानी. अब्दुल्ला ने आरोप लगाया कि उन्होंने मेरी सरकार बर्खास्त करने की धमकी दी. मैंने उन्हे समझाया कि यह राज्य में भारत के ताबूत में आखिरी कील होगी.
तथ्य
ये बात और है कि कश्मीरी पंडित रुबैया सईद अपहरण कांड को नाटक मानते हैं, जिसका असली उद्देश्य आतंकियों को जेल से रिहा करवाना था. फारूक अब्दुल्ला के मुख्यमंत्री रहते 70 दुर्दांत आतंकी जेल से छोड़े गये, जिन्होंने घाटी में कश्मीरी पंडितों के खून से अपनी प्यास बुझाई.
फारूक अब्दुल्ला
गवर्नर जगमोहन की वजह से कश्मीरी पंडितों को घाटी से पलायन करना पड़ा. गर्वनर जगमोहन ने कश्मीरी पंडितों को घाटी से निकालने को बसें लगाई. जगमोहन ने कश्मीरी पंडितों से वादा किया था कि दो महीनों में आपको वापस ले आऊंगा। हमें आतंकवादियों पर बल प्रयोग करना होगा, जिससे आपको नुकसान हो सकता है. लेकिन, कश्मीरी पंडितों को वापस नहीं लाया गया. 32 सालों तक भाजपा कहां थी. मैं उस समय सत्ता में नहीं था. इस पलायन में किसका क्या रोल था, ये बात जज की अध्यक्षता में बनी कमेटी ही बता सकती है.
तथ्य
फारूक अब्दुल्ला ने तत्कालीन गर्वनर जगमोहन को लेकर वही थ्योरी दी है, जो अलगाववादियों से लेकर पाकिस्तान तक को पसंद है. हकीकत ये है कि हजारों कश्मीरी पंडितों ने 19 जनवरी 1990 को ही पलायन शुरू कर दिया था. राज्यपाल जगमोहन ने तो घाटी में 21 जनवरी को मोर्चा संभाला था. जब वहां कश्मीरी पंडितों के लिए कुछ नहीं बचा था.
फारूक अब्दुल्ला
एक आतंकवादी से बातचीत का एक किस्सा बताया. राजीव गांधी शासनकाल में हमने कुछ आतंकी पकड़े थे. मैंने पाकिस्तानी आतंकियों से पूछा था कि आप यहां क्यों आए हैं? आतंकियों ने कहा कि हमें आपको मारने के आदेश है. लेकिन, मुझे मुसलमानों को मस्जिदों में नमाज न पढ़ने देने जैसे आरोप गलत मिले. मुझे लगता है कि मैंने यहां आकर गलती की.
तथ्य
फारूक की ये बातें बताती हैं कि घाटी में कश्मीरी पंडितों के कत्लेआम में पाकिस्तानी रोल का उन्हें अच्छी तरह पता था. लेकिन, यही फारूक अब्दुल्ला भारत की सरकारों पर पाकिस्तान से बातचीत को दबाव बनाते हैं. मुसलमानों के इकट्ठा हो जाने का नारा लगाते हैं. अपनी खतरनाक राजनीति में भारत और पाकिस्तान, दोनों तरफ से बैटिंग करते आए हैं.
फारूक अब्दुल्ला
यासीन मलिक और बिट्टा कराटे जैसे आतंकियों को सजा को लेकर सवाल पूछे जाने पर अब्दुल्ला ने कहा कि बिट्टा कराटे को कब और किसने छोड़ा था? क्या नेशनल कॉन्फ्रेंस ने उसे छोड़ा था या भारत सरकार ने उसे छोड़ा था. और, उसे किस आधार पर छोड़ा गया था.
तथ्य
बिट्टा कराटे को रिहा करने वाले जज ने अपने ऑर्डर में लिखा था कि बिट्टा कराटे पर नृशंस हत्याओं का आरोप है, लेकिन सरकारी अभियोजन पक्ष ने उसके खिलाफ मजबूती से अपना पक्ष नहीं रखा. यानी, कश्मीर की सरकार ने बिट्टा कराटे को बचाने की जमीन तैयार की है.
फारूक अब्दुल्ला
द कश्मीर फाइल्स फिल्म के बाद लोगों के बीच नफरत की खाई और गहरी हो गई है. इससे मुस्लिम समाज के खिलाफ लोगों की एकतरफा नफरत बढ़ रही है.
तथ्य
जिस तरह कश्मीरी पंडितों के नरसंहार के इतिहास को दबा कर रखा गया, यदि उस पर खुले मन से बात हुई होती तो ‘द कश्मीर फाइल्स’ के लिए गुंजाइश ही कहां बचती. लेकिन, इस फिल्म के रिलीज होने पर जिस तरह इस्लामिक चरमपंथियों को कवर फायर देने की कोशिश हुई, उससे समाज में नाराजगी बची है. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जर्मनी में यहूदियों नरसंहार का किसी जर्मन बचाव नहीं किया, इसलिए दुनिया में जर्मनी के प्रति नफरत का भाव नहीं है.
फारूक अब्दुल्ला
द कश्मीर फाइल्स से सरकार लोगों में नफरत बढ़ाना चाहती है. ठीक उसी तरह जिस तरह जर्मनी में यहूदियों के खिलाफ नफरत फैलाई गई. और, 6 लाख यहूदियों को इसका निशाना बनना पड़ा.इस नफरत की कीमत भारत में कितने लोगों को चुकानी पड़ेगी, मुझे नहीं पता.
तथ्य
प्रोपेगेंडा तो कश्मीरी पंडितों के खिलाफ फैलाया गया था 80-90 के दशक में. जब इन्हें भारत सरकार का दलाल और मुखबिर कहकर मारा गया था. यदि भारत में यहूदी वाली यातना किसी ने भुगती है तो वो कश्मीरी हिंदुओं ने. वरना, तब से अब तक तो कश्मीर घाटी में मुस्लिम आराम से रह रहे है. इक्का-दुक्का हिंदू हैं भी तो वे कभी भी निशाना बन जाते हैं. पिछले दिनों गोलगप्पा बेचने वाला हिंदू होने से ही मारा गया. स्कूल में दो शिक्षक सिर्फ हिंदू होने से गोलियों से भून दिए गए.
फारूक अब्दुल्ला
हमने लगातार कश्मीरी पंडितों की वापसी को कोशिशें की. इंद्र कुमार गुजराल के पीएम रहते मैंने कश्मीरी पंडितों को वापस लाने की कोशिश की. लेकिन, उसी दौरान बड़गाम समेत कई जगहों पर हिंदुओं की हत्याएं हो गईं. जिससे कश्मीरी पंडितों को वापस लाने का कार्यक्रम रद्द हुआ. क्योंकि, हम नहीं चाहते थे कि हमारे हाथ निर्दोष लोगों के खून से सने हों. हमने तय किया कि जब तक स्थिति में पूरी तरह से सुधर नहीं जाती, कश्मीरी पंडितों को वापस नहीं लाया जा सकता है.
तथ्य
फारूक अब्दुल्ला बड़ी सुविधाजनक राजनीति करते हैं. एक तरफ वे कश्मीरी पंडितों के हिमायती दिखते हैं, तो वही 2008 में अमरनाथ यात्रा मार्ग में कुछ स्थायी निर्माण करने को जमीन आरक्षित करने की बात आती है तो कहते हैं कि ऐसा मेरी लाश पर ही होगा.
लेखक
देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi