सीएए, कृषि कानून, अग्निपथ…हर बार विरोध प्रदर्शन, भाजपा के लिए सबक क्या है?

कृषि कानून, CAA,अग्निपथ… हर बार विरोध प्रदर्शन, बीजेपी के लिए क्‍या है सीख?

बीते कुछ समय में सरकार के खिलाफ प्रदर्शन बढ़े हैं। उसके लिए सुधारों की दिशा में बढ़ना काफी कठिन रहा है। भारत जैसे देश में यह वैसे भी आसान नहीं है। लेकिन, इसमें सरकार की भी गलती है। वह पॉलिसी से जुड़े फैसलों को लागू करने से पहले आम राय नहीं बना सकी। इससे प्रदर्शनों को हवा मिली।

जीएसटी के खिलाफ व्‍यापारियों ने विरोध प्रदर्शन किया। श्रम कानून के खिलाफ लेबर यूनियनों ने। जम्‍मू-कश्‍मीर (Jammu and Kashmir) में अनुच्‍छेद 370 हटने के बाद प्रदर्शन हुए। CAA और NRC के विरोध में मुस्लिम सड़कों पर उतरे। कृषि कानूनों (Farm Laws) के खिलाफ किसानों ने प्रदर्शन किया। हाल में अग्निपथ स्‍कीम (Agnipath Scheme) के विरोध में युवाओं ने उग्र प्रदर्शन किए। हर एक स्‍कीम के फायदों और नुकसान पर काफी कुछ लिखा जा चुका है। मसला वह नहीं है। इससे एक और बड़ा सवाल उठता है। वह यह है कि बीजेपी के लिए इसके सामाजिक और राजनीतिक मायने क्‍या हैं। खासतौर से यह देखते हुए कि उसे लगातार अलग-अलग हितों से जुड़े गुटों के साथ टकराव का सामना करना पड़ा है।

विविधता के कारण एकराय बनना होता है मुश्किल

भारत में किसी भी सुधार की दिशा में कदम बढ़ाना आसान नहीं है। इसकी वजह भारत की विविधता है। बीजेपी के सामने ये अड़चनें हैं। सुधार की दिशा में जब भी कोई कदम उठाया जाता है तो उसमें दो तरह की संभावनाएं बन जाती हैं। इसमें एक को फायदा हो रहा होता है और दूसरे को नुकसान। लाजिमी है कि जिन्‍हें नुकसान होता है वो प्रदर्शन की राह पकड़ते हैं। ऐसी स्थिति में दो सवाल खड़े होते हैं।

पहला, जमीन पर शानदार काम कर रही पार्टी जिसके पास बेहद मजबूत संगठनात्‍मक शक्ति है, वह ऐसे प्रदर्शनों का अंदाजा क्‍यों नहीं लगा पाती है?
दूसरा, क्‍या इसकी वजह यह है कि बीजेपी सरकार उन गुटों के साथ पर्याप्‍त सलाह-मशविरा नहीं करती है जिन पर प्रस्‍तावित नीति से असर पड़ने वाला होता है?

अक्‍सर होता यह है कि सरकार पॉलिसी की घोषणा पहले करती है। बाद में उस पर चर्चा शुरू होती है। जबकि सही यह है कि इसका उलटा होना चाहिए। सरकार संकट का सामना करने के लिए जिन लोगों को नियुक्‍त करती है, वे अपना काम बखूबी नहीं कर पाते हैं। इससे प्रदर्शनकारियों को शांत करना मुश्किल हो जाता है। नीति में कई बदलाव होने लगते हैं। यह पूरे मकसद पर पानी फेर देता है।

बाबुओं का परामर्श नहीं आता है काम

भारत जैसे बड़े लोकतंत्र में पब्लिक सेंटिमेंट्स के बारे में अक्‍सर राजनेताओं को ब्‍यूरोक्रेट्स से ज्‍यादा जानकारी होती है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्‍या राजनेताओं को शामिल करना बेहतर होगा। कारण है कि यह कहना अतिश्‍योक्ति नहीं होगी कि टॉप ब्‍यूरोक्रेसी सामाजिक झंझावातों से कमोबेश बिल्‍कुल अलग-थलग होती है।
राजनेताओं की तुलना में इन नौकरशाहों का फीडबैक अक्‍सर यह भांप पाने में नाकाम साबित होता है कि आम जनता कैसे रिऐक्‍ट करेगी। यह अपनी तरह की चुनौतियां पैदा करता है। ऐसे में राजनीतिज्ञों की भूमिका ज्‍यादा अहम हो जाती है। वे प्रभावित समूह और सरकार के बीच पुल का काम कर सकते हैं। सरकार और प्रदर्शनकारियों के बीच वे विश्‍वास बहाली में मदद कर सकते हैं। प्रधानमंत्री मोदी के अलावा बीजेपी की मौजूदा सरकार में बहुत कम लोग हैं जिनमें इस तरह की भूमिका निभाने का दमखम है।

कमजोर विपक्ष की कितनी जिम्‍मेदारीी

कुछ लोग तर्क देते हैं कि प्रदर्शनों को दावत देने वाली पॉलिसी संबंधी घोषणाएं राजनीतिक रूप से बीजेपी को राजनीतिक तौर पर कम नुकसान पहुंचाती हैं। इसका कारण कमजोर विपक्ष है। वह बिना किसी राजनीतिक नफे-नुकसान के पॉलिसी संबंधी फैसलों पर आगे बढ़ सकती है। फिर कुछ समय तक भारी प्रदर्शन ही क्‍यों न हो रहे हों।

हालांकि, जो इस तरह का तर्क देते हैं, वे एक महत्‍वपूर्ण सच को भूल जाते हैं। वह यह है कि भारत जैसे प्रतिस्‍पर्धी लोकतंत्र में चुनावी बहुमत स्‍थायी नहीं होता है। एकतरफा ढंग से लगातार पॉलिसी में बदलाव की कीमत चुकानी पड़ती है।

चुनावी लोकतंत्र में सुधार का पहला सिद्धांत क्‍या है?

समय के साथ बड़े स्‍तर के बार-बार होते प्रदर्शन वह सभी राजनीतिक फायदा खत्‍म कर सकते हैं जो लंबे वक्‍त में जुटाया गया है। अगर ऐसा होता है तो यह अंत में विपक्ष के लिए रास्‍ते खोलेगा। इसके जरिये व‍ह सत्‍ता के खिलाफ अपना नैरेटिव बना पाएगा। विपक्ष अब तक ऐसा नहीं कर पाया है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह आगे भी ऐसा नहीं कर सकता है। यहां बीजेपी का दांव पर बहुत ज्‍यादा लगा हुआ है। कारण है वह एक प्रमुख दल बनकर शासन की इच्‍छा रखता है।
ऐसे में अगर बीजेपी को अपने चुनावी दबदबे को बनाए रखना है तो उसे सुधार के पहले सिद्धांत को याद रखना चाहिए। उसे गवर्नेंस के एजेंडे पर इस तरह कदम उठाना चाहिए जिससे कम से कम समस्‍याएं पैदा हों। वह कोई भी बड़ा पॉलिसी डिसीजन लेने से पहले पब्लिक ओपीनियन तैयार करे। ऐलान कर देने के बाद पब्लिक ओपिनियन बनाने में और ज्‍यादा वक्‍त लगता है।

*राहुल वर्मा

(लेखक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्स, दिल्‍ली में फेलो हैं।)

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